Tuesday 9 October 2018

तृतीय प्रकृति

   
    
  न केवल भारतीय सनातन परम्परा में बल्कि विश्व की अन्य संस्कृतियों में भी ‘आदि-मिथुन’ की कल्पना की गई है। चाहे वह पाश्चात्य संस्कृति में उपलब्ध एडम और ईव हों अथवा स्वयम्भुवन् मनु और सद्रूपा। मानव जाति को स्त्री-पुरुष द्वन्द्वात्मक स्वरूप में ही स्वीकृत किया गया है। मानव जाति और सभ्यता के लाखों वर्षों के विकासक्रम में स्त्री-पुरुष के अतिरिक्त एक अन्य प्रकृति भी अस्तित्व में आ गई है। यह प्रकृति स्त्री और पुरुष के मध्य की है और अपने हाव-भाव, व्यवहार, चिन्तन, पसन्द-नापसन्द के आधार पर इन्होंने समाज में अपना एक अलग स्थान निश्चित कर लिया है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों में स्त्रीजातक-पुरुषजातक के अतिरिक्त इस विशिष्ट प्रकृति से संबंधित विषयों पर पर्याप्त चर्चा उपलब्ध होती है। 

समस्या- यह सृष्टि द्वन्द्वात्मक है। स्त्री और पुरुष का विपरीत लिङ्गियों के प्रति आकर्षण सनातन और अनादि काल से होता रहा है और इसे प्राचीन समाजशास्त्री ऋषि मुनियों और आधुनिक संविधान और कानून द्वारा भी मान्यता प्रदान की गई है। परन्तु जब इस सनातन व्यवस्था का अतिक्रमण कर पुरुष का पुरुष के प्रति और स्त्री का स्त्री के प्रति आकर्षण और यौन सम्बन्ध आदि अस्तित्व में आ जाए तो इसकी वैधता और अवैधता का निर्धारण करने वाले कानूनविदों, न्यायालयों और कानून निर्माताओं के लिए अत्यन्त ही असहज स्थिति उत्पन्न हो जाती है। परिवार के किसी प्रिय व्यक्ति के इस स्थिति में आने पर स्थिति और भी अधिक शोचनीय हो जाती है। 

कारण- आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार गर्भ के तृतीयामास  से ही भ्रूण के लिङ्ग निर्धारण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है और यौवनारम्भ की कालावधि में हॉर्मोनों के प्रभाव से पुरुष या स्त्री विषयक शारीरिक और मानसिक परिवर्तन अस्तित्व में आते हैं। स्त्री तथा पुरुष हॉर्मोनों के असन्तुलन के कारण ही मनोवस्था में विकार उत्पन्न होता है। अभिप्राय यह है कि स्त्री शरीर में पुरुष हॉर्मोन्स का आधिक्य और पुरुष शरीर में स्त्री हॉर्मोन का आधिक्य ही ऐसी असहज स्थिति उत्पन्न करता है और तृतीय प्रकृति अस्तित्व में आती है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र में भी स्पष्ट रूप से इस विषय पर चर्चा की गई है और कहा गया है कि गर्भाधान के समय स्त्री-पुरुष की जैसी मनोभावना, उत्कट इच्छाएँ, गर्व, कामातुरता, कफ-वात आदि की मात्र रहती है, वैसे ही गुण गर्भस्थ शिशु में भी आ जाते हैं। जातक की शारीरिक और मानसिक दशा का निर्धारण उसके देश, जाति, कुल, पूर्वज आदि के द्वारा ही निर्धारित होता है। जहाँ तक जातक के शरीर की बनावट का प्रश्न है तो लग्न में स्थित नवांश राशि से शरीर की बनावट प्रभावित होती है। इसी प्रकार सूर्य जिस ग्रह के त्रिशांश में स्थित हो उसी ग्रह के रूप, गुण, शील व प्रकृति का जातक पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। प्राचीन भारतीय मनीषियों ने अपने ग्रन्थों में स्त्री-पुरुष के साथ ही साथ ‘नपुंसक’ के लिए भी विशेष रूप से विचार किया है। इन ग्रन्थों में नपुंसकों के अधिपति के रूप में बुध व शनि को स्वीकृत किया गया है। 
जन्मकालीन ग्रहस्थिति, यौवनारम्भ की कालावधि में हॉर्मोन्स का असन्तुलन, जीवनशैली, सानिध्य आदि ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण अवयव हैं, जिससे मनुष्य की चिन्तनशैली प्रभावित होती है। इन कारणों के अतिरिक्त कभी-कभी दुर्घटनावश, चिकित्सकीय आवश्यकताओं दुर्भावनावश या स्वेच्छा से ही पुरुष जातक का लिङ्गच्छेद भी होता देखा गया है।  यहाँ कुछ ऐसे ही ज्योतिषशास्त्रीय योगों की चर्चा की गई है, जिनकी जन्माङ्ग में उपस्थिति के कारण ‘तृतीय प्रकृति’ और उनसे सम्बन्धित हाव-भाव और शारीरिक व्यवहार अस्तित्व में आते हैं -

ज्योतिषशास्त्रीय योग- बलवान सूर्य व चन्द्रमा विषम राशियों में हो तथा परस्पर दृष्टि रखते हों। बलवान बुध शनि विषम राशियों में परस्पर राशि में चन्द्रमा व सूर्य लग्न में हों तथा उन्हें मंगल देखता हो। विषम राशि में बुध, सम राशि में चन्द्रमा हों तथा दोनों को मंगल देखता हो। विषम राशि व विषम नवांश में लग्न, चन्द्रमा व बुध हों तथा उन पर शुक्र शनि की दृष्टि हो सूर्य, बुध तथा शनि एक साथ हों। सूर्य, बुध तथा शनि एक साथ हो। चन्द्र, मंगल, गुरु, शुक्र, शनि साथ हों। सिंहस्थ सूर्य शनि द्वारा दृष्ट हों। कन्या राशि में सूर्य हो तो स्त्रीवत शरीरवाला। मकर या कुंभ राशि के सूर्य पर बुध की दृष्टि हो। मिथुन राशि में चन्द्रमा हो तो नुपंसकों का मित्र। कर्क नवांशगत चन्द्रमा शुक्र द्वारा दृष्ट हो। बुध मकर या कुम्भ राशि में स्थित हो। सिंहस्थ बुध को मंगल देखता हो। कन्या राशि में शनि हो। वृष या तुलागत शनि को बुध देखे। मिथुन व कन्या राशि में शनि का त्रिशांश हो तो कन्या नपुंसक। सिंह राशि में बुध का त्रिशांश हो तो पुरुष के समान व्यवहार करने वाली। बुध, शुक्र, चन्द्र निर्बल हों, शनि मध्यबली व शेष पुरुष ग्रह बली हो तो स्त्री का आचरण पुरुषवत् होता है। दशम भाव में अथवा अष्टम भाव में शुक्र और शनि की युति हो तथा शुभ ग्रह से अदृष्ट हों।शनि जलराशिस्थ होकर षष्ठ या द्वादश भाव में शुभदृष्टि से रहित होकर स्थित हों। कारकांश लग्न में केतु स्थित होकर शनि और बुध से दृष्ट हो। षष्ठ या अष्टम भाव में नीचराशि का शनि हो। 

नपुंसक ग्रहों की राशि लग्न में हो तथा नुपंसक ग्रह राशि का नवांश भी हो। सप्तम दशम चतुर्थ में नपुंसक ग्रह हों। शुक्र से युक्त शनि दशम भाव में या शुक्र से षष्ठ या व्यय भाव में जलचर राशिस्थ शनि हो। सप्तमेश पापग्रहों के साथ नीच राशि में अस्त हो या छठे या आठवें भाव में हो या पापग्रहों से युक्त होकर सप्तम भाव में हो। सप्तम भाव में निर्बल क्रूर ग्रह या शुभ ग्रह हो तथा सप्तमेश अष्टम में या दूसरे ग्रह के नवांश में हो। निर्बल लग्नेश नीच राशि में नीच राशिस्थ ग्रह से दृष्ट हो व सप्तमेश छठे भाव में अस्त हो। प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ भावों में शुभग्रह व पापग्रह हों और सप्तममेश सप्तम में पाप ग्रह के साथ हों। लग्न में शनि स्थित हो और साथ में सूर्य हो और इन्हें शुक्र व चन्द्रमा देखें तो जातक का लिङ्गच्छेद हो जाता है। शुक्र के नवांश में शनि और शनि के नवांश में शुक्र हो और दोनों में परस्पर दृष्टि संबंध बन रहा हो। लग्न में वृष तुला या कुम्भराशि का नवमांश हो। षष्ठेश और बुध, राहु या केतु के साथ लग्न में स्थित हो तो लिङ्गच्छेद। सप्तमेश और शुक्र संयुक्त होकर छठे भाव में स्थित हो तो स्त्री नपुंसक (षण्ढा)। षष्ठ भाव का स्वामी बुध और राहु के साथ युत हो और लग्नेश का सम्बन्धी हो। षष्ठेश लग्न में बुध की राशि का हो तथा लग्नेश बुध स्वयं की राशि में हो तो स्त्री नपुंसक। इसी योग में यदि शनि तथा बुध भी साथ हों तो पुरुष नपुंसक होता है। लग्नेश बुध से युक्त होकर चन्द्रमा लग्न में बैठा हो। लग्न एवं चन्द्रमा दोनों ही पुरुष राशियों में हों तथा इन्हीं राशियों के नवांश भी हों तथा लग्नचन्द्र पर पापग्रहों की दृष्टि हो तो स्त्री का शरीर, रूप, स्वभाव, पुरुषाकार। सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध तथा शुक्र साथ हों तो नपुंसकों से मित्रता रखने वाला सिंहस्थ चन्द्रमा पर बुध की दृष्टि हो तो स्त्री के समान हावभाव दिखाने वाला होगा। 

निराकरण- जन्माङ्ग में उपरोक्त योगों की उपस्थिति यदि अधिक मात्र में हो तो जातक के बाल्यावस्था (3-4 वर्ष) में ही ज्योतिषशास्त्रीय उपाय करा लेने चाहिए। इन योगों के निर्धारक ग्रहों से संबंधित मन्त्रें का शास्त्रीय अनुष्ठान भी इस दृष्टि से अनुकूल प्रभाव उत्पन्न कर सकता है। यौवनारम्भ के दिनों में चिकित्सकों से परामर्श तथा जीवनशैली, रहन-सहन आदि पर नियन्त्रण द्वारा भी इस असहज स्थिति से बचा जा सकता है। 

           

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