Sunday 30 December 2018

सन्तान सुख में विलम्ब : कारण और निवारण

   
                   संतति को गृहस्थाश्रमरूपी उपवन के सर्वाधिक सुगंधित और आकर्षक पुष्पवल्ली के रूप में स्वीकृत किया जाता रहा है। सन्तान अथवा पुत्र की महिमा का वर्णन वैदिक साहित्य में भी उपलब्ध होता है। माना जाता है कि पूर्वजन्मों के शुभकर्मों के उदय के कारण ही संतानोत्पत्ति का सुख प्राप्त होता है - "तत्प्राप्तिधर्ममूला’’     
                          मनुष्य सदैव से ही अपनी वंशबेल को विकसित तथा संवर्द्धित करने की दिशा में प्रयासरत रहा है। उसके इसी प्रयास ने वर्णाश्रम व्यवस्था को अस्तित्व में लाने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है विभिन्न संस्कारों को भी इसी दिशा में किए गए प्रयासों का सार्थक फल समझा जा सकता है। विवाह संस्कार के द्वारा ही सामाजिक मान्यताओं में रहकर अपनी वंश परम्परा को बढ़ाया जा सकता है। जब हम संतानहीनता के सन्दर्भ में विचार करते हैं तो पाते हैं कि यद्यपि विवाह के प्रारम्भिक एक दो वर्षों तक नवदम्पत्ति संतानप्राप्ति के विषय को गंभीरता से नहीं लेते हैं। भारतीय शास्त्रों में अनेक प्रकार के ऋणों की चर्चा की गई है और इससे मुक्त होने की दिशा में सदैव प्रयासरत रहने का भी निर्देश किया गया है। इस सन्दर्भ में पितृऋण महत्वपूर्ण है और सन्तानोत्पत्ति के द्वारा ही इस ऋण से मुक्त हुआ जा सकता है। परन्तु एक लम्बी अवधि बीत जाने के बाद भी जब सन्तान प्राप्ति की दिशा में कोई शुभ संकेत प्राप्त नहीं होते तब वे इस समस्या को गम्भीरता से लेते हैं। समस्या के निवारण की दिशा में सर्वप्रथम चिकित्सा पद्धति का आश्रय लेते हैं।अपेक्षित सफलता न मिलने की दशा में अंततः दैवज्ञों का आश्रय ग्रहण करते हैं। यह उचित भी है क्योंकि कई बार ऐसा देखने में आता है कि चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से पति तथा पत्नी दोनों के समर्थ तथा स्वस्थ होने पर भी सन्तान की प्राप्ति नहीं होती तथा आधुनिक चिकित्सक इसका कोई स्पष्ट कारण बताने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं। भारतीय ज्योतिषशास्त्र की फलित शाखा के ग्रन्थों में इस सन्दर्भ में काफी चर्चा की गई है। ज्योतिषशास्त्र त्रिकाल का दर्शन कराने वाला शास्त्र माना गया है। सम्यकविधि द्वारा इस शास्त्र का अध्ययन और अवगाहन भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालों का बोध कराने में समर्थ या सक्षम है।
             'भूतं चैव भविष्यं च वर्तमानं तथैव च। 
             सर्वप्रदर्शकं शास्त्रं सिद्धिदं मोक्षकारणम्।’’  
                             संतानहीनता संबंधी ग्रहयोगों के उपस्थापन के बाद ही इस समस्या के मूलकारण को समझ पाना संभव हो सकता है, अतः ऐसी ग्रह स्थितियों को सूचीबद्ध किया जा रहा है, जिसके कारण जातक संतान सुख से वंचित रहता है-
 * पंचमेश 6, 8, 12 भाव में हो तो जातक पुत्र रहित होता है।  
* पंचमेश अस्त हो या निर्बल होकर पापाक्रान्त हो तो जातक को सन्तान नहीं होता या होकर मृत्यु को प्राप्त होता है।  
* पंचमेश षष्ठ स्थान में हो और लग्नेश मंगल से युक्त हो तो एक सन्तान होकर मृत्यु को प्राप्त होता है।  
* यदि बृहस्पति से पंचम स्थान का स्वामी तथा 1, 5, 9 भावों के स्वामी त्रिक स्थानों में स्थित हों तो सन्तानहीनता होती है।  
* पंचमभाव में चन्द्रमा या शुक्र का वर्ग हो और उस पर शनि या मंगल की दृष्टि हो तो संतानहीनता होती है।  
* पंचमेश के साथ द्वितीयेश भी निर्बल हो और पंचम भाव पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो अनेक पत्नियाँ होने पर भी संतान सुख नहीं मिलता।  
* बृहस्पति, लग्नेश, सप्रमेश और पंचमेश यदि ये सब निर्बल हों तो जातक निःसन्तान होता है।  
* समस्त ग्रह निर्बल हों, अर्थात् शत्रुराशि अथवा नीच राशि के होकर अस्त, त्रिकस्थ या षड्वर्ग में हीनबली हों तो भी जातक सन्तानहीन होता है।  
* लग्न में सूर्य, सप्तम भाव में शनि अथवा सप्तम भाव में सूर्य शनि का योग हो और दशम भाव गुरू से दृष्ट हो तो गर्भ नहीं रहता।  
* मंगल और शनि की युति षष्ठ अथवा चतुर्थ भाव में हो तो संतानहीनता।  
* शनि षष्ठेश के साथ षष्ठ भाव में और चन्द्रमा सप्तम भाव में हो तो अनपत्य योग बनता है।  
* पंचम भाव का स्वामी यदि पंचम भाव में हो तो उसका पुत्र जीवित नहीं रहता है।  
* पंचमेश अष्टम स्थान में हो तो जातक के पुत्र नष्ट होते हैं।  
* यदि पंचमेश पाप ग्रह होकर द्वादश स्थान में हो तो जातक पुत्रहीन होता है।  
* लग्न में शनि स्थित हो तथा शुक्र अस्तभाव की अन्त्य सन्धि की राशियों (कर्क-वृश्चिक-मीन) के अंतिम अंश में स्थित हो तो स्त्री के बन्ध्यत्व के कारण संतानसुख प्राप्त नहीं होता।  
* लग्न से पंचम भाव में मंगल हो तो पुत्रभाव।  
* पंचम भाव शुभग्रह या पंचमेश से युत या दृष्ट न हो तो जातक बन्ध्या स्त्री का पति होने के कारण सन्तानसुख से हीन होता है।  
* लग्न, चन्द्र, और बृहस्पति से पंचम स्थान पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट हों तथा उन स्थानों में न तो शुभ ग्रह स्थित हों और ना ही ये स्थान शुभ ग्रहों से दृष्ट हों।  
* लग्न, चन्द्रमा और बृहस्पति से पंचम स्थानों के अधिपति दुःस्थानों में स्थित हों। लग्न, चन्द्रमा और बृहस्पति से पंचम स्थान पापकर्त्तरि में स्थित हों।  
* पुत्रभाव तथा पुत्रेश पाप ग्रहों के मध्य हों तथा पुत्रकारक पापग्रहों से युक्त हो तो संतान का नाश होता है।  
* पंचम भावस्थ मंगल स्त्रीजातक को विशेष रूप से अपुत्रिणि बनाता है।  
* पंचम भाव में उच्च या नीच का केतु हो और यह केतु किसी भी ग्रह से दृष्ट न हो तो जातक कई स्त्रियों का पति होने पर भी संतान सुख प्राप्त नहीं कर सकता।  
* पंचमस्थ शानि गर्भपात कराता है जबकि पंचमस्थ राहु गर्भधारण ही नहीं होने देता।  
* पंचम भाव में द्वयाधिक पाप ग्रह हों अथवा पंचमभाव द्वयाधिक पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो दंपत्ति ही बन्ध्यात्व को प्राप्त होते हैं।  
* बलवान लग्न या चन्द्र से पंचम में केवल पाप ग्रह हो तथा शुभदृष्टि भी न हो तो सन्तान का अभाव होता है।  
* पंचम भाव पर सूर्य, मंगल या शनि की युति या दृष्टि हो तो सन्तान नहीं होती।  
* मंगल या शुक्र पंचम में नीच राशि या नवांश में हो या ग्रह युद्ध में पराजित हों तो मृत सन्तति का ही जन्म होता है।  
* पंचम भाव में पाप राशियों में बलवान पाप ग्रह हों तथा उन पर किसी शुभग्रह की भी दृष्टि न हो तो संतानहीनता होती है।  
* दशम भाव में चन्द्रमा, सप्तम में शुक्र तथा चतुर्थ भाव में कई पाप ग्रह हों तो जातक का वंश नहीं चलता।  
* पंचम भाव में पाप ग्रह की राशि हो उसमें केवल पाप ग्रह ही स्थित हों तथा इस भाव पर किसी शुभ ग्रह भी दृष्टि न हो तो जातक सन्तानहीन होता है।  
* सप्तम भाव में शुक्र, दशम में चन्द्रमा और चतुर्थ भाव में पाप ग्रहों की स्थिति भी सन्तानहीनता उत्पन्न करती है।  
* पंचमेश से 5,6 तथा 12 भावों में यदि केवल पाप ग्रह हों तो सन्तान नहीं होती यदि हो भी तो जीवित नहीं रहती।  
* पंचमेश राहु या मंगल से युक्त अथवा राहु या मंगल के मध्य हो तो संतानहीनता।  
* निर्बल पंचमेश अस्त होकर पाप ग्रह से युक्त हो तो भी अनपत्यता होती है।  
* लग्न में गुरू व चन्द्रमा, सप्तम भाव में बुध तथा मंगल और चतुर्थ भाव में पाप ग्रह हों तो जातक वंशहीन हो जाता है।  
* शनि पंचमस्थ हो तो जातक सन्तानहीन होता है।  
* पंचम भाव में शनि यदि अपनी शत्रु राशि में स्थित हो तो अनपत्यता के योग बनते हैं।  
* गुरू अधिष्ठित राशि से पंचम स्थान का स्वामी यदि 6, 8, 12 भाव में हो तथा लग्नेश, पंचमेश, नवमेश त्रिक भावों में हो तो पुत्रहीनता होती है।  
* लग्न का स्वामी मंगल की राशियों में हो तथा पंचम भाव का स्वामी षष्ठ भाव में हो तो जातक का प्रथम सन्तान उत्पन्न होकर विनष्ट हो जाती है और उसके बाद पुनः सन्तान नहीं होती।  
* सूर्य पंचम भाव में अपनी नीच राशि (तुला) में स्थिति हो तो मनुष्य के पुत्र होकर भी नष्ट हो जाते हैं।  
                       स्पष्ट है कि सन्तानहीनता संबंधी परिचर्चा में पंचमभाव, पंचमेश, पंचमात्-पंचम् अर्थात् नवम भाव, बृहस्पति तथा बृहस्पति अधिष्ठित राशि से पंचम भाव तथा लग्नेश निर्णायक भूमिका में रहते हैं। उपरोक्त अवयवों का पाप प्रभाव में होना अथवा निर्बल होना सन्तानहीनता की सम्भावना को और अधिक प्रबल बनाता है। उपरोक्त भाव तथा भावेशों का अशुभ भाव तथा भावाधिपतियों से सम्बन्ध भी जातक के सन्तानसुख में बाधा उत्पन्न करता है। पापग्रहों यथा राहु, केतु, शनि तथा क्रूर ग्रहों सूर्य मंगल आदि का उपरोक्त भावों पर प्रभाव गर्भनाश की परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है।

कालसर्प योग , लाल किताब

लाल किताब में वर्णित समाधान सूत्र
    लाल किताब में कालसर्पयोग का वर्णन नहीं है, परन्तु राहु व केतु की शान्ति हेतु किए जाने वाले उपायों से भी कालसर्पयोग जनित अनिष्टों की शान्ति होती है। अनन्तादि 12 कालसर्पयोग तथा उनकी शान्ति हेतु प्रयुक्त उपायों को निम्नलिखित तालिका में प्रस्तुत किया जा रहा है-
कालसर्पयोगशान्ति उपाय
* अनन्त कालसर्प योग  
     बिल्ली की जेर को लाल रंग के कपड़े में डालकर धारण करें। दूध का दान करें।  चाँदी की थाली में भोजन करें। काले तथा नीले रंग के कपड़े पहनने से बचे। जेब में लोहे की साबुत गोलियाँ रखना भी लाभप्रद होता है।
*कुलिक कालसर्प योग 
   चाँदी की ठोस गोली अपने पास रखें। सोना, केसर अथवा पीली वस्तुएँ धारण करें। चारित्रिक फिसलन से बचें। दोरंगा काला सफेद कंबल धर्म स्थान में दान दें। कान का छेदन भी लाभप्रद होता है। हाथी के पांव की मिट्टी कुएं में डालें। 

*वासुकि कालसर्प याेग
   हाथी दांत की वस्तु भूल कर भी अपने पास न रखें। चारपाई के पायों पर ताँबे की कील लगवा लें। रात्रि सिराहने अनाज रखें तथा प्रातः यह अनाज पक्षियों को खिला दें। झूठ बोलने से बचें। स्वर्ण की अंगूठी या कोई भी स्वर्ण आभूषण धारण करें। केसर का तिलक लगाएँ।  झूठ बोलने से बचें। 
*शंखनाद कालसर्प योग
    गंगा स्नान करें। चांदी की अंगूठी धारण करना लाभप्रद रहेगा। मकान की छत पर कोयला रखने से बचें। यदि रोग ज्यादा परेशान कर रहे हों तो 400 ग्राम बादाम नदी में प्रवाहित करें। चांदी की डिब्बी में शहद भरकर घर से बाहर सुनसान स्थान में दबा दें।

*पद्म कालसर्प योग 
    अपनी स्त्री के साथ समस्त रीति-रिवाजों के साथ दूसरी बार शादी करें। घर में गाय या कोई भी दुुधारू पशु पालें। चांदी का छोटा सा ठोस हाथी अपने पास रखें। दहलीज बनाते समय जमीन के नीचे चांदी का पत्तर डाल दें। पराई स्त्री से दूर रहें। नित्य सरस्वती स्तोत्र का पाठ करें।
*महापद्म कालसर्प योग 
     घर में पूरा काला कुत्ता पालें। काला चश्मा पहनना शुभ होगा। भाईयों या बहनों के साथ किसी भी रूप में झगड़ा न करें। चाल-चलन पर संयम रखें। कुँआरी कन्याओं का आर्शीवाद लेते रहें। सरस्वती की आराधना कष्ट दूर करने मे सहायक होगी।

*तक्षक कालसर्प योग 
    भूलकर भी कुत्ता न पालें। चलते पानी में नारियल बहाएँ। विवाह के समय चांदी की ईंट अपनी पत्नी को दें। ध्यान रहे इस ईंट का बेचना विनाश का कारण होता है। अतः हमेशा संभालकर रखें। घर में चांदी की ईंट रखें। किसी बर्तन मे नदी का जल लेकर उसमें एक चांदी का टुकड़ा रखकर धर्मस्थान में दें। ताँबे की वस्तुओं को दान में न दें। ताँबें की गोली अपने पास रखें।
*कार्कोटक कालसर्प योग 
    माथे पर तिलक लगाएँ। भड़भूजे की भट्ठी में ताँबे का पैसा डालें। चार नारियल नदी में बहाएँ। बेईमानी से पैसे न कमाएँ। सूखे मेवे चाँदी के बर्त्तन में डालकर धर्मस्थान में दें। जन्म के आठवें मास से कुछ बादाम मंदिर ले जाएँ आधे वहीं छोड़ दें बाकी बचे बादाम अपने पास रख लें। यह क्रिया अगले जन्मदिन आने तक करें। चांदी का चौकोर टुकड़ा जेब में रखें। 
*शंखचूड़ कालसर्प योग 
    कुत्ते या दुनियावी तीन कुत्ते (ससुर के घर जमाई, बहन के घर भाई तथा नाना के घर दोहता) का पूरी ईमानदारी से पालन करें। सोना धारण करें। केसर का तिलक लगाएँ। पीला वस्त्र धारण करें। सुबह-सुबह पक्षियों को दाना-पानी डालें।

*घातक कालसर्प योग
     सिर खाली न रखें। टोपी या साफा कोई भी चीज सिर पर हमेशा रखें। सरस्वती का पूजन करें। चांदी का चौकोर टुकड़ा जेब में रखें। सोने की चेन पहनें। हल्दी का तिलक लगाएँ। मसूर दाल (बिना छिलके वाली) नदी में प्रवाहित करें। 
*विषाक्त कालसर्प योग 
    मंदिर में दान करें। ताँबे या लाल वस्तु दान न दें। अस्त्र-शस्त्र घर में न रखें। सोने की अंगूठी पहनें। चार नारियल को जल में प्रवाह देना इस योग के अशुभ फलों में न्यूनता लाएगा। चांदी के ग्लास में पानी पीएँ। रात में दूध ना पीएँ।

*शेषनाग कालसर्प योग 
     लाल मसूर दाल का दान दें। धर्म स्थान में ताँबे के बर्तन दान में दें। चांदी का ठोस हाथी घर में रखें। सोने की चेन पहनें। सरस्वती का पूजन नीले पुष्पों से करें। कन्या तथा बहन को उपहार देते रहें।

Friday 28 December 2018

जुड़वाँ शिशु और ज्योतिष

         
            'भूतं चैव भविष्यं च वर्तमानं तथैव च।
             सर्वप्रदर्शकं शास्त्रं सिद्धिदं मोक्षकारणम्।’’
                              ज्योतिषशास्त्र त्रिकाल का दर्शन कराने वाला शास्त्र माना गया है। सम्यकविधि द्वारा इस शास्त्र का अध्ययन और अवगाहन भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालों का बोध कराने में समर्थ या सक्षम है। मनुष्य सदैव से ही अपनी वंशबेल को विकसित तथा संवर्द्धित करने की दिशा में प्रयासरत रहा है। उसके इसी प्रयास ने वर्णाश्रम व्यवस्था को अस्तित्व में लाने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। विभिन्न संस्कारों को भी इसी दिशा में किए गए प्रयासों का सार्थक फल समझा जा सकता है। विवाह संस्कार के द्वारा ही सामाजिक मान्यताओं में रहकर अपनी वंश परम्परा को बढ़ाया जा सकता है। भारतीय शास्त्रों में अनेक प्रकार के ऋणों की चर्चा की गई है और इससे मुक्त होने की दिशा में सदैव प्रयासरत रहने का भी निर्देश किया गया है। इस सन्दर्भ में पितृऋण महत्वपूर्ण है और सन्तानोत्पत्ति के द्वारा ही इस ऋण से मुक्त हुआ जा सकता है। सन्तान अथवा पुत्र की महिमा का वर्णन वैदिक साहित्य में भी उपलब्ध होता है। संतति को गृहस्थाश्रमरूपी उपवन के सर्वाधिक सुगंधित और आकर्षक पुष्पवल्ली के रूप में स्वीकृत किया जाता रहा है। माना जाता है कि पूर्वजन्मों के शुभकर्मों के उदय के कारण ही संतानोत्पत्ति का सुख प्राप्त होता है -    "तत्प्राप्तिधर्ममूला’’     
                 सामान्यतया गर्भधारण के उपरान्त माताएँ एक ही शिशु को जन्म देती हैं। परन्तु जीववैज्ञानिक कारणों-यथा भ्रूण के  विभाजन अथवा दो या उससे अधिक अण्डाणुओं के निषेचित होने के कारण गर्भधारण के उपरान्त दो या अधिक शिशुओं का जन्म होता है।  आधुनिक चिकित्साविज्ञान में इस सन्दर्भ में काफी चर्चा हुई है तथा इससे सम्बन्धित समस्त तथ्य हस्तामलकवत स्पष्ट हो चुके हैं। साथ ही इस सन्दर्भ में भारतीय ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों में भी विपुल चर्चा प्राप्त होती है। गर्भाधान को ज्योतिषशास्त्र में अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है और इसे समस्त जीवों की उत्पत्ति का साधन कहा गया है।  सामान्य गर्भधारण बिना सम्भोग के संभव नहीं अतः संभोग सूचक ग्रहस्थिति के सन्दर्भ में कहा गया है कि स्त्री की जन्म राशि से उपचय भवनों में चन्द्रमा के रहते हुए बृहस्पति से चन्द्रमा दृष्ट हो या चन्द्रमा मित्रग्रहों से दृष्ट हो,विशेषतया शुक्र से तो स्त्री पुरूष का संयोग होता है  तथा गर्भधारण का मार्ग प्रशस्त होता है। इन प्राचीन महर्षियों तथा अर्वाचीन ग्रन्थकारों ने इस सन्दर्भ में ऐसी अनेक ग्रहस्थितियों का उल्लेख किया  है, जिसके कारण एक से अधिक शिशुओं का जन्म एक ही गर्भकाल के उपरान्त होता है। इस सन्दर्भ में अधोलिखित सिद्धान्त अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं- 
 * सूर्य गुरू-चन्द्र लग्न अथवा सूर्य गुरु द्विस्वभाव राशियों में स्थित होकर बुध द्वारा दृष्ट हों तो यमल जातक का जन्म होता है। इस युग्म सन्ततियों में एक पुत्र तथा एक पुत्री होती है।   
* शुक्र एवं चन्द्रमा सम राशियों में स्थित हों तथा विषमराशि में बुध, मंगल, लग्न तथा गुरू स्थित हों और पुरूष ग्रहों द्वारा दृष्ट हों तो भी जुड़वाँ सन्तान होती है। 
* लग्न एवं चन्द्रमा समराशि में हों अथवा समनवांश में हों तो भी यमल सन्तान की उत्पत्ति होती है। 
* बुध अपने नवांश में स्थित हो और द्विस्वभाव राशि में बैठे ग्रह तथा लग्न को देखता हो तो तीन सन्तानों का जन्म होता है। 
* आधान लग्न में धनु राशि का अन्तिम नवांश हो तथा उसी नवांश में बलवान ग्रह बैठे हों तथा उन ग्रहों पर बली बुध एवं शनि की दृष्टि हो तब गर्भ में द्वयाधिक सन्तानें होती हैं। 
* आधानकाल में सूर्य व बृहस्पति मिथुन तथा धनु राशियों में बुध से युत या दृष्ट हों तो युग्म संतति का जन्म होता है और दोनों सन्तान पुत्रें का युगल होता है। 
* कन्या तथा मीन राशियों में शुक्र, चन्द्र तथा मंगल भी बुध से दृष्ट हो तो दो कन्याओं का जन्म होता है। 
* लग्न तथा चन्द्रमा समराशि में हों तथा बलवान ग्रहों से दृष्ट हो तो भी युग्म संतति का जन्म होता है। 
* चन्द्रमा तथा शुक्र समराशि में हो और गुरु, मंगल, बुध, लग्न विषय राशियों में हो या द्विस्वभाव राशियों में बलवान हों तो युग्म संतति उत्पन्न होती है। 
* इस सन्दर्भ में चन्द्र, शुक से पुत्री युगल तथा गुरू मंगल आदि से पुत्र युगल का निर्णय करना चाहिए। 
* लग्न व चन्द्रमा दोनों सम राशियों में हो तथा पुरूष ग्रहों से देखे जाते हों। 
* लग्न, बुध,मंगल तथा गुरू बलवान होकर सम राशि में हों तथा पुरूष ग्रह से देखे जाते हों। 
* सूर्य, चन्द्र, गुरू, शुक्र और मंगल द्विस्वभाव राशियों के नवांश में स्थित हों तथा बुध द्वारा दृष्ट हों। 
* सूर्य, गुरू मिथुन और धनु राशियों में तथा बुध द्वारा दृष्ट हों तो दो बालकों का जन्म। 
* मंगल, चन्द्रमा, शुक्र द्विस्वभाव अर्थात कन्या, मीन में स्थित होकर बुध द्वारा दृष्ट हो तो दो कन्याओं का जन्म। 
* यदि समस्त पुरूष तथा ग्रह द्विस्वभाव राशियों में विद्यमान होकर बुध से दृष्ट हों तो यमलों में एक पुत्र तथा एक कन्या होती है। 
* चन्द्र और शुक्र दोनों समराशियों में स्थित हों तथा बुध, मंगल, गुरू और लग्नेश सभी विषम राशियों में स्थित हों तो यमल में एक पुत्र तथा एक पुत्री। 
* लग्नेश और चन्द्रमा समराशि में स्थित हों तथा पुरूष ग्रहों से दृष्ट हों तो भी एक बालक और एक बालिका का जन्म। 
* मंगल, बुध, गुरू तथा लग्नेश पूर्णबली होकर समराशि में स्थित हाें। 
* तीन वर्गों का किसी नपुंसक ग्रह से सम्बन्ध हो तो यमल सन्तति का जन्म। 
* प्रश्नकालीन कुण्डली में किन्हीं चार भिन्न-भिन्न स्थानों में दो-दो ग्रह बैठे हों तो युग्म सन्तति का जन्म। 
* आधानकाल में लग्न में द्विस्वभाव राशि और चन्द्रमा, स्वराशिस्थ बुध तथा शनि एकादश भाव में हो। 
* द्विस्वभाव लग्नस्थ चन्द्रमा बुध से दृष्ट हो। 
* द्विस्वभावराशियों में बृहस्पति, सूर्य, मंगल, शुक्र, चन्द्रमा हों तथा बुध द्वारा दृष्ट हों। 
* कन्या, तथा मीन के नवांश में मंगल, शुक्र तथा चन्द्रमा स्थित हों तो दो कन्या सन्तति का जन्म। 
* मिथुन तथा धनु राशियों में कहीं भी सूर्य व बृहस्पति बुधदृष्ट होकर स्थित हों तो पुत्रों का युग्म। 
* द्वादशांश, द्रेष्काण, नवमांश यदि द्विस्वभाव राशि के हों तथा द्विस्वभाव राशि में सर्वोत्तम बली ग्रह हों तो जुड़वाँ सन्तानें होती हैं। 
* गर्भाधानकाल में यदि द्वादश भाव में बुध हो अथवा लग्न में हो अथवा बुध की इन भावों पर दृष्टि हो, द्वादशस्थ, लग्नस्थ अथवा दशमस्थ राशियों में से कोई एक स्त्री और कोई एक पुरूष राशि हो तो यमल बालक का योग बनता है। 
* समराशि में चन्द्रमा तथा शुक्र हों और द्वादश भाव में उदित बुध की स्थिति हो तथा विषम राशि में मंगल और बृहस्पति हों तो यमल सन्तति। 
                       इस प्रकार स्पष्ट है कि यमल जातकों के सन्दर्भ में पुरूष ग्रहों तथा स्त्री ग्रहों का द्विस्वभाव राशियों में स्थित होना महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहण करता है। साथ ही साथ नपुंसक ग्रह बुध की इन ग्रहस्थितयों पर दृष्टि यमल जातकों के जन्म को सुनिश्चित करती है।

Monday 24 December 2018

रत्नधारण विधि-विधान





          भारतीय ज्योतिषशास्त्र के फलित स्कन्ध के विकास के मूल आधार के रूप में महर्षि पराशर के सिद्धान्त के योगदान को एकमत से स्वीकार किया गया है। फलित ज्योतिषशास्त्र के प्रत्येक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त के विषय में महर्षि पराशर के विचारों को विश्वसनीय मार्गदर्शक माना जाता है। रत्नधारण के सन्दर्भ में भी महर्षि पराशर ने अपने विचारों से परवर्ती दैवज्ञों तथा सामान्य जनमानस के प्रति अपने सिद्धान्तों का अत्यन्त करुणापूर्वक प्रकटीकरण किया है। विविध लग्न हेतु रत्नधारण विषयक सिद्धान्तों की महर्षि ने अपने ग्रन्थ ‘वृहत्पाराशरहोराशास्त्रम्’ में स्थापना की है। इन्होंने प्रत्येक लग्न में उत्पन्न जातकों के लिए योगकारक ग्रहों का निर्धारण किया है तथा इन्हीं योगकारक ग्रहों की सबलता तथा निर्बलता के आधार पर जातक को उसके जीवन में प्राप्त होने वाले सुख-दुख विषयक फलादेश को भी प्रस्तुत किया है। महर्षि पराशर के अनुसार मेषादि द्वादश लग्नों में उत्पन्न जातक के लिए कौन से ग्रह योगकारक हैं तथा उनके लिए कौन रत्न प्रशस्त हैं और कौन रत्न निषिद्ध हैं इस सिद्धान्त को अधोलिखित प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है।

मेष
 लग्न
मेष लग्न में उत्पन्न जातक के लिए शनि, बुध और शुक्र ये तीन ग्रह पाप फलदायक होते हैं। सूर्य, मंगल और गुरु शुभ फलदायक होते हैं। शुक्र मुख्य रूप से मारक होता है। इस प्रकार इस लग्न में जन्म लेने वाले जातकों को मूँगा, माणिक्य और पुखराज धारण करना चाहिए। हीरा, पन्ना तथा नीलम रत्न ऐसे जातकों के लिए अशुभ फ़ल देने वाले हैं।


वृष लग्न

 
 इस लग्न में उत्पन्न जातक के लिए शनि और सूर्य शुभफलदायक, बुध अल्प शुभ फलप्रद तथा शनि राजयोगकारक होते हैं। गुरु, शुक्र तथा चन्द्रमा वृष लग्न वाले जातक के लिए अशुभ होंगे तथा गुरु, शुक्र और मंगल मारक होते हैं। अतः इस लग्न के जातकों के लिए नीलम, माणिक्य तथा पन्ना शुभ फलोत्पादक होंगे जबकि पुखराज, हीरा, मोती तथा मूँगा अशुभ फल देने वाले होंगे।

मिथुन लग्न
मिथुन लग्न में जन्म लेने वाले जातक के लिए एक मात्र शुक्र शुभ फल देने वाला होता है। मंगल, गुरु तथा सूर्य पाफलद होते हैं जबकि चन्द्रमा मुख्य मारक होता है। अतः इस लग्न के जातक हेतु हीरा धारण करना अत्यन्त शुभफलद होता है। परन्तु मोती, मूँगा, पुखराज और माणिक्य धारण करना अशुभ है। 


कर्क लग्न 
इस लग्न में मंगल, बृहस्पति तथा चन्द्रमा शुभफलद होते हैं। मंगल विशेष रूप से पूर्णयोग कारक होता है। शुक्र तथा बुध पाफलदायक होते हैं, जबकि शनि पूर्ण मारक होता है। इस लग्न में सूर्य की प्रवृत्ति साहचर्य से फल देने की होती है। अतः इस लग्न के जातकों के लिए मूँगा, पुखराज व मोती शुभ हैं, जबकि माणिक्य धारण के सन्दर्भ में विशेष परामर्श की आवश्यकता होती है। ये जातक नीलम, हीरा व पन्ना नहीं पहनें तो उचित रहेगा।


सिंह लग्न 
 इस लग्न के जातकों के लिए मंगल, बृहस्पति तथा सूर्य विशेष शुभ फलदायक होते हैं। चन्द्रमा साहचर्य से शुभ फल देता है। बुध, शुक्र और शनि पाप फलद होते हैं और इसमें भी शनि मारक होता है। इस प्रकार सिंह लग्न में उत्पन्न जातकों के लिए मूँगा, पुखराज तथा माणिक्य धारण करना प्रशस्त है, जबकि पन्ना, हीरा और नीलम धाारण करना निषिद्ध है।


कन्या लग्न  
कन्या लग्न में जन्म लेने वालों जातकों के लिए बुध और शुक्र अत्यन्त शुभफलप्रद तथा योगकारक होते हैं। मंगल, बृहस्पति तथा चन्द्रमा पाप फल उत्पन्न करने वाले होते हैं। इस लग्न के लिए शुक्र मारक भी है तथा सूर्य साहचर्य से फल देता है। अतः कन्या लग्न के जातकों के लिए पन्ना व हीरा धारण करना शुभ है, जबकि मूँगा, पुखराज व मोती अशुभ फल देने वाला होता है। 


तुला लग्न  
इस लग्न में चन्द्रमा, बुधा और शनि शुभ फलदायक होते हैं साथ ही चन्द्रमा व बुध में रोजयोग प्रदान करने का भी सामर्थ्य होता है। गुरु, सूर्य और मंगल पाप फलदायक होते हैं। मंगल व गुरु मारक होते हैं तथा शुक्र सम स्वभाव का होता है। अतः इस लग्न के जातकों के लिए मोती, पन्ना व नीलम अत्यन्त शुभ होंगे तथा पुखराज, मूँगा व माणिक्य अनिष्टकारक हो सकते हैं। 


वृश्चिक लग्न

  इस लग्न में उत्पन्न जातक के लिए गुरु और चन्द्रमा शुभफल देने वाले जबकि सूर्य व चन्द्रमा योगकारक होते हैं। शुक्र, बुध और शनि पापफल प्रदान करते हैं तथा मंगल सम होता है। इस तरह वृश्चिक लग्न के जातक पुखराज, मोती व माणिक्य धारण कर सकते हैं। हीरा, पन्ना और नीलम धारण करना अशुभ प्रभाव देने वाला हो सकता है।

धनु लग्न  
 धनु लग्न में समुत्पन्न जातकों के लिए मंगल और सूर्य शुभ फल देने वाले होते हैं तथा सूर्य व बुध योगकारक होते हैं। शनि मारक होता है तथा शुक्र में मारक लक्षण होते हैं। अतः धनु लग्न के जातक मूँगा, माणिक्य व पन्ना धारण कर शुभफल की प्राप्ति कर सकते हैं जबकि हीरा व नीलम धारण करना अशुभ फल उत्पन्न कर सकता है। 

मकर लग्न
 मकर लग्न में उत्पन्न जातकों के लिए शुक्र व बुध शुभ फल देने वाले होते हैं। मंगल, बृहस्पति व चन्द्रमा पाप फल देते हैं सूर्य सम फल देने वाला होता है। इस लग्न में शनि लग्नेश होते हैं अतः स्वयं मारक नहीं होते अपितु मंगल आदि पाप ग्रह मारक प्रभाव उत्पन्न करने वाले होते हैं। अतएव इस लग्न के जातकों के लिए हीरा व पन्ना अत्यन्त शुभफलद सिद्ध हो सकता है। इस लग्न में मूँगा, पुखराज व मोती अशुभ प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं। अतः इन रत्नों को धारण करना निषिद्ध है। 

कुम्भ लग्न 
  इस लग्न में समुत्पन्न जातकों के लिए शुक्र व शनि शुभफलदायक होते हैं तथा शुक्र विशेष रूप से राजयोगकारक होता है। गुरु, सूर्य व मंगल मारक प्रभाव से युक्त होते हैं तथा बुध मध्यम फलदायक होता है। स्पष्ट है कि शुक्र रत्न हीरा व शनि का रत्न नीलम इस लग्न के जातकों के लिए शुभ है जबकि पुखराज, माणिक्य व मूँगा अत्यन्त अशुभ रत्न सिद्ध हो सकते हैं।

मीन लग्न
 
 मीन लग्न के जातकों की जन्म पत्रिका के अनुसार मंगल, चन्द्रमा व गुरु शुभफलद होते हैं। इनमें से भी मंगल व गुरु विशेष रूप से अत्यन्त योगकारक होते हैं। शनि, शुक्र, सूर्य व बुध इस लग्न के जातकों के लिए अशुभ प्रभावोत्पादक होते हैं। शनि व बुध मारक होते हैं। इसलिए मीन लग्न के जातकों के लिए मूँगा, मोती व पुखराज धारण करने योग्य रत्न हैं। जबकि शनि रत्न नीलम, शुक्र रत्न हीरा, सूर्य रत्न माणिक्य व बुध रत्न पन्ना का परित्याग करना चाहिए। 

      
         महर्षि पराशर ने बृहत्पराशरहोराशास्त्रम् के योगकारकाध्याय में इस सन्दर्भ में अत्यन्त विस्तार से चर्चा की है। योगकारक अर्थात् अत्यन्त शुभफलद व राजसुख प्रदान करने वालो ग्रहों के निर्धाारण के सन्दर्भ में महर्षि पराशर के ये सिद्धान्त स्वर्णिम सूत्र सिद्ध होते हैं।   


Tuesday 18 December 2018

त्रिकोण भाव समीक्षा: पाराशरी ज्योतिष के आलोक में


   

   भारतीय फलित ज्योतिष शास्त्र के ग्रन्थों में कुण्डली के विभिन्न भावों की पृथक्-पृथक् संज्ञा की गई है। महर्षि पराशर अपनी प्रसिद्ध रचना वृहत्पाराशरहोराशास्त्र में इन भावों का नामकरण करते हुए कहते हैं - ‘तनु, धन, सहोदर, बन्धु, पुत्र, शत्रु, स्त्री, रन्ध्र, धर्म, कर्म, लाभ एवं व्यय’ ये लग्न से द्वादश भावों के नाम हैं।   द्वादश भावों के इस नामकरण के अतिरित्तफ़ एक अन्य नामकरण की पद्धति भी ज्योतिष शास्त्र में प्राप्त होती है। इस पद्धति के अनुसार कुछ भावों के समूह के लिए विशिष्ट संज्ञाओं का प्रयोग किया जाता है। इस प्रसंग में महर्षि पराशर स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि लग्न, चतुर्थ, सप्तम, दशम की ‘केन्द्र’ संज्ञा है। 2, 5, 8, 11 की ‘पणफर’ संज्ञा है और 3, 6, 9, 12 की ‘आपोक्लिम’ संज्ञा है। लग्न से 5-9 की कोण संज्ञा है, 6,8,12 की दुष्ट स्थान और त्रिक संज्ञा है। 4, 8 को चतुरस्र कहते हैं एवं 3, 6, 10, 11 की उपचय (वृद्धि) संज्ञा होती हैं।  प्रस्तुत शोध आलेख में त्रिकोणभाव विचारणीय हैं अतः यहाँ विशेष रूप से पाराशरी ज्योतिष के आलोक में विषय की समीक्षा की जा रही है ।  सर्वप्रथम हम त्रिकोण भाव को समझने का प्रयास करते हैं । इसके लिए त्रिकोण भाव सम्बन्धी ऋषियों औरआचायों के मत, त्रिकोण भाव में परिगणित कुण्डली के विविध भावों के कारक ग्रह , इन भावों से विचारणीय विषय व त्रिकोण भावों के लिए ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में प्रयुक्त विभिन्न संज्ञाओं पर क्रमशः विचार करना अनिवार्य है ।
त्रिकोण भाव - भारतीय फलित ज्योतिषशास्त्र में त्रिकोण संज्ञक भाव को लेकर पर्याप्त मतभेद प्राप्त होता है। महर्षि पराशर के अनुसार लग्न से नवम तथा प×चम भाव की ‘कोण’ संज्ञा है।   आचार्य वराहमिहिर अपनी रचना वृहज्जातक में ‘प×चम भाव को ही त्रिकोण संज्ञक मानते हैं।   जबकि जातकपारिजातकार के अनुसार लग्न से प×चम तथा नवम भावों की त्रिकोण संज्ञा है।   गणेशकवि कृत जातकालंकार में भी इसी मत का समर्थन करते हुए कहा गया है कि नवम तथा प×चम भाव ही त्रिकोण भाव हैं।  इस प्रकार स्पष्ट है कि प×चम तथा नवम भाव त्रिकोण संज्ञक हैं। परन्तु ज्योतिषशास्त्र के कतिपय ग्रन्थों में लग्न को भी त्रिकोणसंज्ञक माना गया है। लोमश संहिता में महर्षि लोमश लग्न, प×चम तथा नवम तीनों ही भावों को त्रिकोण संज्ञक मानते हैं।  महर्षि पराशर की अन्य रचना लघुपाराशरी भी लग्न को त्रिकोण भाव के अन्तर्गत परिगणित करती है। लघुपाराशरी के संज्ञाध्याय में एक श्लोक प्राप्त होता है -‘सर्वे त्रिकोणनेतारो ग्रहा शुभफलप्रदाः। पतयस्त्रिषडायानां यदि पापफलप्रदाः।।’ इस श्लोक में त्रिकोण भाव के रूप में लग्न की भी गणना की गई है। इसी अभिप्राय से त्रिकोण नेतारः बहुवचनान्त पाठ का प्रयोग किया गया है। यदि त्रिकोण भाव के रूप में केवल प×चम व नवम दो ही स्थान महर्षि पराशर का अभिप्रेत रहता तो त्रिकोणनेतारौ ऐसा द्विवचनान्त पाठ रऽा जाता। इसके अतिरित्तफ़ ‘त्रिकोण’ इस शब्द में भी ‘त्रि’ शब्द का प्रयोग है। अतः तीन स्थानों का त्रिकोण संज्ञक होना ही समीचीन है। अतः त्रिकोण शब्द से 1/5/9 तीनों स्थान ग्राह्य हैं। प्रथम त्रिकोण भाव अर्थात् लग्न भारतीय फलित ज्योतिष शास्त्र के ग्रन्थों में लग्न को अत्यन्त शुभ भाव माना गया है। महर्षि पराशर ने भी त्रिकोण भाव को भद्र अर्थात् शुभ कहा है।  जातकालंकार में लग्न भाव की महत्ता का वर्णन करते हुए गणेश दैवज्ञ ने कहा है कि लग्न भाव विशेषतया सभी सुऽों का आशय है। अतः विद्वान् दैवज्ञों को इसी लग्न के आधार पर मनुष्यों के शुभाशुभ का निर्णय करना चाहिए।
लग्न भाव से विचारणीय विषय - ज्योतिषशास्त्र में प्रत्येक भाव से विशेष विषयों पर विचार का प्रावधान है। लग्न भाव अर्थात् प्रथम त्रिकोण से जातक के शारीरिक गठन, वर्ण, आकृति, लक्षण, यश, गुण, स्थान, सुऽ, प्रवास, तेजस्विता, दौर्बल्यादि का विचार किया जाता है।  आचार्य मन्त्रेश्वर अपनी रचना फलदीपिका में इस विषय पर अपना मत प्रस्तुत करते हुए लिऽते हैं कि लग्न, होरा, कल्प (प्रभाव, सूर्याेदय अर्थात् प्रारंभ), देह, उदय, रूप, सिर, वर्त्तमान काल, जन्म इन सबका विचार प्रथम भाव से करें।  कवि कालिदास का मत है कि लग्न भाव से सामूहिक रूप से शरीर-शरीर के अवयव (लग्नस्थ राशि तथा उसके स्वामी द्वारा), सुऽ, दुःऽ, जरावस्था, ज्ञान, जन्म का स्थान, यश, स्वप्न, बल, गौरव, राज्य, नम्रता, आयु, शान्ति, वय, बाल, आकृति, अभिमान, काम-धन्धा, दूसरों से जुआ, निशान, मान, त्वचा, नींद, दूसरों का धन हर लेना, दूसरों का अपमान करना, स्वभाव, आरोग्य, वैराग्य, कार्य का करण, पशु पालन, मर्यादा का सर्वनाश, वर्ण तथा निज अपमान इत्यादि विषयों का विचार किया जाता है।
लग्न भाव के कारक ग्रह - ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में प्रत्येक भाव के कारक के रूप में ग्रहों की कल्पना की गई है। जातक पारिजात में आचार्य वैद्यनाथ ने लग्न भाव के कारक ग्रह के रूप में सूर्य को प्रस्तुत किया है।  महर्षि पराशर भी लग्न के कारक ग्रह के रूप में सूर्य को ही स्वीकृत करते हैं।
लग्न भाव की अन्य संज्ञाएँ - भारतीय फलित ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में एक ही भाव के लिए अनेक संज्ञाओं का प्रयोग किया गया है। श्री गणेशकवि जातकालंकार में लग्नभाव के पर्याय शब्दों के विषय में कहते हैं - ‘लग्न के मूर्त्ति (शरीर), अंग, उदय, वपु, कल्प, आद्य आदि नाम हैं।’  आचार्य वैद्यनाथ लग्नभाव के अन्य नामों के विषय में लिऽते हैं - ‘लग्न भाव के लिए प्रयुत्तफ़ अन्य संज्ञाओं में कल्पए उदय, आद्य, तनु, जन्म, लग्न, विलग्न, होरा प्रमुऽ हैं।
द्वितीय त्रिकोण (प×चम भाव)
भाव कारकत्व - प×चम भाव से विभिन्न विषयों पर विचार किया जाता है। सन्तान, पिता के पुण्यकर्म, राजा, मन्त्री, सदाचार, शिल्प, मन, विद्या, गर्भ, छत्र, विवेक, धर्मकथा, कुशल समाचार, वस्त्र, नाना काम्य कर्मों के अनुष्ठान, पैतृक धन, दूरदर्शिता, स्त्री सम्बन्धी वैभव, वारांगनाओं की संगति, गम्भीरता, दृढ़ता, गोपनीयता, नम्रता, वृत्तान्तलेऽन, क्षेम, मैत्री, प्रबन्धकाव्य-रचना, कार्यारम्भ, उदर, मन्त्र, तन्त्र की उपासना, प्रसन्नतापूर्ण वैभव, अन्नदान, पाप-पुण्य की समझ, मन्त्र-जप, समालोचना करने की प्रज्ञा, धनार्जन का ढंग, मृदंगादि वाद्य, महान सन्तुष्टि, पाण्डित्य, परम्परागत मन्त्रिपद या परामर्शदाता का कार्य ये सभी प×चम भाव से विचारणीय विषय हैं।  उपरोत्तफ़ विषयों का वर्णन भारतीय फलित ज्योतिष शास्त्र के ग्रन्थों में किया गया है।
प×चम भाव का कारक ग्रह - भारतीय ज्योतिषशास्त्र में प्रत्येक भाव के लिए एक कारक ग्रह की कल्पना की गई है। जातक पारिजात के अनुसार प×चम भाव का कारक बृहस्पति है।  आचार्य जीवनाथ झा भी प×चम भाव के कारक के रूप में बृहस्पति ग्रह को ही स्वीकृत करते हैं।  ज्योतिष पितामह महर्षि पराशर की रचना वृहत्पराशरहोराशास्त्र में भी प×चम भाव के कारक ग्रह के रूप में बृहस्पति ग्रह का ही वर्णन किया गया है।
नवम भाव (त्रित्रिकोण) - नवम भाव त्रिकाण भावों में अन्तिम त्रिकोण है। यह तीसरा त्रिकोण भाव है अतः त्रित्रिकोण संज्ञक भी है।
नवम भाव से विचारणीय विषय - नवम भाव से विचार करने योग्य विषय इस प्रकार हैं - दान, धर्म, तीर्थयात्र, तप, गुरुजनों में भत्तिफ़, औषधि, चित्त की पवित्रता, देवपूजा, विद्या के लिए श्रम, वैभव, सवारी, भाग्य, नम्रता, प्रताप, धार्मिक कथा, यात्र, राज्याभिषेक, पुष्टि, साधुसंग, पुण्य, पिता का धन, पुत्र, पुत्री, हर प्रकार का ऐश्वर्य, घोड़े-हाथी, भैंसे, राज्याभिषेक का स्थान,  ब्रह्म ज्ञान की स्थापना, वैदिक यज्ञ, धन का दान।  इसी विषय में एक अन्य ग्रन्थ का मत है कि नवम स्थान में बावड़ी, कुंआ, तालाब, प्याऊ, मठ, मंदिर, दीक्षा,नई विद्या का आरंभ, पुण्य के कार्य, भाग्य, गुरु, तप, चर्चा आदि विषयों के बारे में जानना चाहिए।  आचार्य मन्त्रेश्वर इस विषय में अपना मत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि आचार्य (गुरु), देवता (आराध्य देव), पिता, पूजा, पूर्वभाग्य, तप, सत्कर्म, पौत्र, उत्तम वंशादि का विचार नवम भाव से करना चाहिए।  इस भाव को शुभ स्थान भी कहते हैं।

नवम भाव के कारक ग्रह -नवम भाव के कारक ग्रह के रूप में आचार्य वैद्यनाथ ने सूर्य और बृहस्पति दोनों ग्रहों को स्वीकार किया है।  महर्षि पराशर ने अपनी रचना ‘वृहत् पराशरहोराशास्त्रम’ में नवम भाव के कारक के रूप में गुरु को स्वीकृत किया है।
नवम भाव की संज्ञाएँ - प्रत्येक भाव के लिए ज्योतिष ग्रंथों में अनेक संज्ञाओं का प्रयोग किया गया है। नवम भाव के लिए जिन संज्ञाओं का प्रयोग किया गया है, उनके विषय में श्री गणेश कवि अपनी रचना जातकालंकार में उनका नामोल्लेऽ इस प्रकार करते हैं - गुरु, धर्म, शुभ, तप, आदि ।
महर्षि पराशर ने अपनी रचना लघुपाराशरी में इस सन्दर्भ में विस्तृत चर्चा की है । उन्होंने पहली बार ग्रहों की नैसर्गिक शुभाशुभत्व के स्थान पर भावाधिपतित्व को विशेष महत्व दिया है । त्रिकोणभाव के रूप में लग्न पंचम और नवम भाव को स्वीकार करने के बाद वे इन भावों के शुभत्व और इन भाव और भावेशों के कारण उत्पन्न राजयोगों पर भी विस्तृत चर्चा करते हैं त्रिकोणभावों के शुभत्व का निर्धारण करते हुए वे कहते हैं- सर्वे त्रिकोणनेतारोग्रहाः शुभफलप्रदाः अर्थात् जन्मकुंडली के त्रिकोणभावों के स्वामी शुभ फल देनेवाले होते हैं महर्षि का अभिप्राय यह है कि लग्न, पंचम और नवम भाव के अधिपति जातक को शुभफल देनेवाले होते हैं । यहाँ यह स्पष्ट कर दे ना आवश्यक है कि इन भावों के अधिपति ग्रह नैसर्गिक रूप से शुभ हों या अशुभ वे जातक को शुभ फल ही प्रदान करेंगे । अष्टमभाव के अधिपति के फलनिर्णय के अवसर पर भी महर्षि त्रिकोणभाव के महत्व और उसके शुभत्व को स्थापित करते हैं और कहते हैं दृ ‘भाग्यव्ययाधिपत्येनरन्ध्रेशो न शुभप्रदः’अर्थात् अष्टमेश अशुभ फल देने वाला इसलिए है क्योंकि वह भाग्य स्थान अर्थात् नवमभाव के व्यय स्थान का अधिपति है । इसी तथ्य को और अधिक बल देने के लिए महर्षि कर्क लग्न की कुण्डली का उदाहरण भी देते हैं और यहाँ मंगल के शुभत्व का कारण उसके त्रिकोणेशत्व को मानते हैं ना कि उसके केन्द्रेशत्व को ‘कुजस्य कर्मनेतृत्वेप्रयुक्ता शुभकारिता--’  जब समस्त त्रिकोणभावों के अधिपतियों को शुभफल देनेवाला बता दिया गया तो यह जिज्ञासा सहज उत्पन्न होती है इन तीनों भावाधिपतियों में बलाबल का निर्धारण कैसे हो ? इस शंका का समाधान प्रस्तुत करते हुए महर्षि पराशर सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं- ‘ प्रबलाश्चोत्तरोत्तरम् ’ अर्थात् ये त्रिकोण स्थान और उनके अधिपति क्रमशः बलवान होते हैं । अभिप्राय है कि सबसे कम बलवान त्रिकोण भाव लग्न, उससे अधिक बलवान पंचम और पंचम से अधिक बलवान त्रिकोण स्थान नवम भाव  है और इसी क्रम से इनके स्वामी भी बलवान होते हैं । इस तरह नवमेश सर्वाधिक बली त्रिकोणेश और लग्नेश सबसे कम बलवान त्रिकोणेश सिद्ध होता है ।  त्रिकोणेशों के बलाबल निर्धारण के अतिरिक्त महर्षि इन भावेशों के द्वारा विविध राजयोगों की उत्पत्ति विषयक सिद्धान्तों का प्रणयन करते हैं इस क्रम में त्रिकोण भाव के स्वामियों का केन्द्रेशों के साथ विविध सम्बन्धों के कारण राजयोगों के निर्माण से सम्बन्धित कई सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं तदुपरान्त त्रिकोणेशों के मध्य परस्पर सम्बन्ध के कारण उत्पन्न एक विशिष्ट राजयोग को प्रस्तुत करते हुए उनकी उक्ति है- ‘ धर्मलग्नाधिनेतारावन्योन्याश्रयसंस्थितौ । राजयोगाविति प्रोक्तं विख्यातो विजयी भवेत् ।।’ अर्थात् यदि जातक की कुण्डली में नवम भाव का स्वामी लग्न भाव में स्थित हो और लग्नेश नवम भाव में स्थित हो तो जातक विख्यात और सर्वत्र विजयी होता है ।
अतः स्पष्ट है कि  फलित ज्योतिष के सन्दर्भ में महर्षि पराशर के उपरोक्त त्रिकोण भाव विषयक सिद्धांत स्वर्णिम सूत्र सिद्ध होते हैं । इन्हीं सिद्धांतों के आलोक में परवर्ती आचायों ने फलादेश विषयक ग्रंथों की रचना की और ये सिद्धांत आज भी जातकशास्त्र के जिज्ञासुओं के लिए मार्गदर्शक हैं ।

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Tuesday 20 November 2018

पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्र कितना पाश्चात्य और कितना भारतीय ??


विश्व की प्राचीनतम साहित्यिक रचना के रूप में ऋग्वेद को प्रतिष्ठा प्राप्त है। न केवल प्राचीनता की दृष्टि से अपितु अपने विषय-वैशिष्ट्य की अद्वितीय प्रतिभा के कारण इसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। भारतीय मनीषियों का यह दृढ़ विश्वास है कि विश्व का समस्त ज्ञान-विज्ञान किसी न किसी रूप में ऋग्वेद में अवश्य उपलब्ध है, चाहे वह बीज रूप में हो अथवा विकसित रूप में। ‘सामुद्रिकशास्त्र’ तथा उसका आनुषांगिक क्षेत्र ‘हस्तरेखाशास्त्र’ भी इस दृष्टिकोण से अछूता नहीं है। वर्त्तमान परिदृश्य में सामुद्रिकशास्त्र को पञ्चस्कन्धात्मक ज्योतिषशास्त्र का एक अङ्ग माना गया है। ज्योतिषशास्त्र की गणना षड्वेदाङ्गों के अन्तर्गत की गई है।1 स्पष्ट है कि वेदपुरुष के अङ्गों में से नेत्र के रूप में ज्योतिषशास्त्र की परिगणना की गई है और इसका श्रेष्ठत्व प्रतिपादित करते हुए कहा गया है।2 

वैदिक साहित्य के आरम्भिक काल में ज्योतिषशास्त्र का मूल उद्देश्य यज्ञादि विधियों के लिए कालनिर्धारण मात्र ही था और यही कारण है कि इसे कालविधानशास्त्र कहा जाता है।3 परन्तु कालान्तर में इस ज्योतिष वेदाङ्ग का प्रभूत विस्तार हुआ और यह सिद्धान्त, संहिता और होरा इन तीन स्कन्धों में विभक्त हो गया।4 इन्हीं तीन स्कन्धों में ज्योतिषशास्त्र द्वारा विवेचनीय समस्त विषयों का समावेश हो गया। मनुष्य तथा पशु-पक्षियों के अङ्गलक्षण विधा का समावेश संहिता स्कन्ध के अन्तर्गत समाविष्ट हुआ तथा इस दृष्टिकोण से ‘बृहत्संहिता’ तथा जैन ज्योतिषशास्त्र परम्परा का ग्रन्थ ‘भद्रबाहुसंहिता’ अत्यन्त उच्च कोटि का ग्रन्थ सिद्ध होता है। जैनज्योतिष परम्परा अङ्गलक्षण विधा की गणना निमित्तशास्त्र के अष्ट वेदों के अन्तर्गत परिगणित करती है और कहती है।5  यद्यपि ऋग्वेद में कई ऐसे प्रसङ्ग उपलब्ध होते हैं जहाँ विभिन्न देवी-देवताओं यथा - इन्द्र6, ऊषस्7 व वरूणादि8 देवताओं के अङ्ग-उपाङ्गों का वर्णन मिलता है, परन्तु उन अङ्गों से शुभाशुभत्व की उत्पत्ति के सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। अङ्लक्षण शास्त्र की स्वतन्त्र परम्परा का विकास ‘समुद्र’ ऋषि द्वारा किया गया है। इस सन्दर्भ में भविष्य पुराण में उपलब्ध वर्णन को प्रमाण के रूप में स्वीकृत किया जा सकता है।9 ध्यानावस्था में महर्षि समुद्र द्वारा श्रीभगवान् विष्णु तथा श्री लक्ष्मी के शरीर में उपस्थित शुभाशुभ लक्षणों के दर्शन के आधार पर ही उन्होंने “सामुद्रिकशास्त्र” संज्ञक अद्वितीय शास्त्र की रचना की। महर्षि समुद्र विरचित इस शास्त्र का विस्तार परवत्र्ती आचार्यों ने किया जिसका मुख्य आधार अनुभवजन्य ज्ञान था। ‘सामुद्रिक शास्त्र’ को विकसित, पुष्पित और पल्लवित करने वाली ऋषि परम्परा में नारद, लक्षक, वराहमिहिर, माण्डव्य, स्वामी कात्र्तिकेय आदि प्रमुख हैं।10 सामुद्रिकशास्त्र की इसी परम्परा को आधार मानकर राजा भोज व सुमन्त आदि विद्वानों ने गहन ग्रन्थों की रचना की। 
सामुद्रिकशास्त्र की भारतीय परम्परा दर्शनशास्त्र के कर्मसिद्धान्त को स्वीकार करती है और कहती है।11 अर्थात् स्त्रियों एवं पुरुषों के शरीर में उत्पन्न होने वाले शरीराङ्गों के शुभ लक्षण उनके द्वारा पूर्वजन्म में किए गए शुभाशुभ कर्मों पर ही आधारित होते हैं। महर्षि पराशर के अनुसार पुरुष तथा स्त्री के शरीर लक्षणों का आधार उनके शरीर में उच्चता, परिमाणता, गति, बल, मुखाकृति, चिकनाई, स्वर, स्वभाव, वर्ण, सन्धिसमेत सत्त्व, क्षेत्र और लावण्य को ही मानना चाहिए तथा उसी के आधार पर गत अथवा अनागत शुभाशुभ का कथन करना चाहिए।12 आचार्य समुद्र ने स्त्री तथा पुरुष के शरीर से विचारणीय लक्षण हेतु उरूयुग्म, जठर, उरुस्स्थल, दोनों भुजाएँ, पीठ तथा शिर को अष्टाङ्ग के रूप में प्रस्तुत किया है तथा इसके अतिरिक्त शेष अङ्गों को उपाङ्गों की श्रेणी में परिगणित किया है। नृदेह को उध्र्वमूल तथा अधःशाखा वाला मानकर तथा शरीरगत लक्षणों के बाह्य व आभ्यन्तर भेद करने के उपरान्त महर्षि समुद्र ने अङ्गों के अवलोकन के क्रम का भी निर्धारण किया है। शरीर में व्याप्त लक्षणों के बाह्य व आभ्यन्तर भेद करने के उपरान्त इनको और स्पष्ट किया गया है और कहा गया है कि “वर्णस्वरादि बाह्यं पुनरन्तः प्रकृतिसत्त्वादि”।13 सामुद्रिकशास्त्र की भारतीय परम्परा के अनुसार स्त्री-पुरुष के शरीर लक्षणों के अवलोकन का एक क्रम निर्धारित किया गया है और इसके अनुसार क्रमशः पदतल, पादरेखा, पादाङ्गुष्ठ, पादाङ्गुलियाँ, पादनख, पादपृष्ठ, गुल्फ (टखने), पाष्र्णि (एड़ी), जङ्घा युगल, दोनों पिंडली, जानुयुग्म, उरू, कमर की किनारी, दोनों स्फिग् (नितम्ब), पायु, मुष्क, शिश्न, शिश्नमणि, वीर्य, मूत्र, रक्त, बस्ति, नाभि, कुक्षि, पाश्र्व, जठर, छाती का मध्य भाग, स्तन, उदरवलय, हृदय, उरःप्रदेश, चुचुक, हंसली, कन्धों के पिछले भाग, काँख, दोनों भुजाएँ, दोनों हथेलियों की रेखाएँ, नख, अंगुली, पाणिपृष्ठ, पीठ, कृकाटिका, गर्दन, ठोड़ी, दाढ़ी-मूँछ, जबड़े, गण्ड, गाल, मुख, ओष्ठ, दाँत, जीभ, तालु, घण्टिका, हँसने का ढंग, नाक, छींक, दोनों नेत्र, नेत्रों की पक्ष्म, पलक, रोने का ढंग, भौंह, कनपटी, कान, ललाट, मस्तक, ललाट व मस्तक पर अङ्कित रेखाएँ, केशों व उनके आवत्र्त आदि के अवलोकन का क्रम ही उचित है।14 

यद्यपि सामुद्रिकशास्त्र में स्त्री-पुरुष के समस्त शरीरावयवों, अङ्ग व उपाङ्गों के अवलोकन का विधान है, तथापि हस्तपरीक्षण की महत्ता को सामुद्रिकशास्त्र के विद्वानों ने मुक्त कण्ठ से स्वीकृत किया है और कहा है कि “जिस प्रकार सभी मन्त्राक्षरों में ऊँ की प्रतिष्ठा है, क्योंकि वह शब्द ब्रह्म का प्रतीक है तथा समस्त वाणी व्यवहार का मूल है, उसी प्रकार सामुद्रिकशास्त्र में भी हाथ मुख्य है, क्योंकि यह सभी क्रियाओं का मूल है।”15 हाथ ही समस्त कर्मों का साधन है, इसके द्वारा ही पाणिग्रहण, पूजा, भोजन, यज्ञ, दान, शान्ति, शत्रुनाश आदि समस्त कार्य किए जाते हैं, यही कारण है कि भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के प्रवत्र्तक आचार्यों ने हस्तलक्षण को शीर्षलक्षण से भी श्रेष्ठ माना है और कहा है- “अक्षया जन्मपत्रीयं ब्रह्मणा निर्मिता स्वयम्। ग्रहा रेखाप्रदा यस्यां यावज्जीवं व्यवस्थिता।।”16 हस्तरेखा विज्ञान के प्राचीन महर्षियों ने हस्तपरीक्षा हेतु तीन विधियों को स्वीकार किया है - हस्तदर्शन, हस्तस्पर्श तथा हस्तरेखा विमर्श। अभिप्राय यह है कि जातक के हस्तदर्शन, हस्तस्पर्श तथा हस्तरेखाओं के विमर्शन के द्वारा शुभाशुभफल कथन करना सम्भव है। हस्तरेखाशास्त्री के गुणों के संदर्भ में कहा गया है कि हस्तरेखा शास्त्री गुरु को ब्रह्मचारी, क्षमाशील, कृतज्ञ, धार्मिक, पवित्र, दक्ष, गुरुप्रिय, सत्यभाषी, अपने कर्म में रत रहने वाला, संतुष्ट, श्रद्धायुक्त, तपस्वी, जितेन्द्रिय, अनेकशास्त्रों का ज्ञाता तथा स्थिर मन वाला होना चाहिए तभी उसके द्वारा फलकथन में सत्यता होगी, साथ ही साथ गुरु अर्थात् हस्तरेखाशास्त्री को अपने अनुभव तथा शास्त्र के आधार पर, प्रश्नकत्र्ता के कुल, जाति, देश, आकार तथा ग्रहस्थिति को देखकर उसकी श्रद्धा तथा जिज्ञासा की सच्चाई को परखकर ही फलादेश करना चाहिए। आचार्य को पद्मासन में बैठकर, समस्त हस्तरेखाशास्त्र के सारांश को अपने मस्तिष्क में सतत मनन करते हुए, गुरु तथा इष्ट देव का ध्यान करते हुए ही हस्तपरीक्षण और फलादेश करना चाहिए। एक दिन में केवल एक ही मनुष्य के हाथ का परीक्षण करना चाहिए, यदि अत्यावश्यक हो तो अधिकतम दो मनुष्य का हस्तपरीक्षण भी शास्त्रासम्मत है - “दिने त्वेकस्य पुंसो वा द्वयोर्हस्तं विलोकयेत्।”17 दैवज्ञ से हस्तपरीक्षण करवाने की विधि भारतीय हस्तरेखाशास्त्र सद्ग्रन्थों में अत्यन्त विस्तार से बताई गई है। इसके अनुसार यदि मनुष्य अपना हस्तपरीक्षण करवाने के लिए इच्छुक हो तो उसे सर्वप्रथम ब्रह्ममुहूत्र्त में उठकर शौच-स्नानादि से निवृत्त होने के उपरान्त, साफ धुले कपड़े पहनकर, आदरपूर्वक, सुगन्ध, फूल, नैवेद्य तथा विविध स्तुतियों द्वारा अपने इष्टदेव का पूजन करके, गुरु को प्रणाम कर धर्म का उपदेश सुनकर, तत्त्वेता जिज्ञासु यजमान अन्नादिक से गुरु का सत्कार करके, विधिपूर्वक स्वयं भी भोजन करे, तदुपरान्त सुन्दर वेश में, चिन्ता से मुक्त होकर, इन्द्रियों को वश में रखकर, सप्तधातुओं की सन्तुलित अवस्था में विनयावनत हो, हाथ को नारियल, फूल व फल से परिपूर्ण कर दैवज्ञ गुरु के पास जाना चाहिए तथा स्वयं को हस्तावलोकनार्थ प्रस्तुत करना चाहिए। मनुष्य का कौन सा हाथ और कब देखा जाय इस पर भारतीय परम्परा में पर्याप्त चर्चा है। पुरुष के दाँये हाथ को अपने दाँये हाथ में रखकर अवलोकन करना चाहिए। स्त्री के बाएँ हाथ को अपने बाँए हाथ में रखकर दैवज्ञ को हस्तपरीक्षण करना चाहिए। पन्द्रह वर्ष या अल्पव्यस्क बच्चे का हाथ देखना हो तो बाँए हाथ का ही अवलोकन करना शास्त्रसम्मत है - “वामहस्तात्फल पञ्चदश वर्षाणि किञ्चन”। हस्तावलोकन के सन्दर्भ में कुछ विशिष्ट परिस्थितियों की भी चर्चा की गई है। दैवज्ञों के समक्ष उस समय विचित्र स्थिति उत्पन्न हो जाती है जब पुरुष स्त्रियोचित गुणों से युक्त हों तथा स्त्री पुरुषोचित गुणों से युक्त हो तब यह निश्चित करना कठिन हो जाता है कि किस हाथ का अवलोकन करना शास्त्र सम्मत होगा। इस समस्या का निवारण आचार्य मेघ विजयगणि करते हैं और कहते हैं - “दक्षिणाद्बलवान्वामः पंुसः स्त्रीशीलशालिनः। नृशीलायाः स्त्रियो वामाद्दक्षिणो बलवान्भवेत्।।” अर्थात् स्त्रियोचित गुणों से युक्त पुरुष का वाम हस्त, दक्षिण हस्त की अपेक्षा अधिक बलवान होगा। इसी प्रकार पुरुषोचित गुणों से युक्त स्त्री का दक्षिण हस्त, वामहस्त की अपेक्षा अधिक बलवान होता है। अतः इन विशिष्ट परिस्थितियों में हस्तावलोकन का क्रम विपरीत होगा। हाथों के निर्धारण के बाद इन विशिष्ट मनुष्यों के लिए हस्तावलोकन का काल भी निश्चित किया गया और कहा गया है कि जो पुरुष स्त्रियोचित गुणों से युक्त हो उसका हाथ अर्धरात्रि से पूर्व तथा दोपहर के बीच में देखना श्रेयस्कर होगा। इसी प्रकार जो स्त्री पुरुषोचित गुणों से युक्त हो तो उसका भी हाथ दोपहर से पूर्व ही देखना उचित रहता है। सामान्य पुरुष हेतु हस्तावलोकन का नियम है कि इनके लिए हस्तावलोकन का समय दोपहर से पूर्व तथा अर्धरात्रि के उपरान्त ही करना चाहिए। यद्यपि स्त्री तथा पुरुष के सन्दर्भ में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि पुरुष का दक्षिणहस्त तथा स्त्री का वाम हस्त ही प्रशस्त है, तथापि पुरुष का वाम हस्त तथा स्त्री का दक्षिण हस्त भी शुभाशुभ विवेचन में समर्थ है। पुरुष के बाँए हाथ से स्त्री, माता, मातृपक्ष, घर, खेत, वाटिका, रात का जन्म तथा शुक्ल पक्ष का विचार किया जा सकता है। इसी प्रकार स्त्री के दक्षिण हस्त से पतिसुख, पितृपक्ष, धर्म, गोधन, सरलता आदि गुण, कृष्णपक्ष तथा दिन का विचार सम्भव है। इसी सन्दर्भ में कीरो का मत है कि मनुष्य के बाएँ हाथ की अपेक्षा उनके दाँए हाथ से अधिक सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। वे कहते हैं कि बाँया हाथ मनुष्य के प्राकृतिक या कहें तो मौलिक स्वरूप को प्रदर्शित करता है जबकि दायाँ हाथ उसके प्रशिक्षण, अनुभव तथा आस-पास के वातावरण के प्रभाव का प्रतिनिधित्व करता है।18 

हस्तपरीक्षा की विधि के सन्दर्भ में भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के ग्रन्थों में हस्तपरीक्षा के तीन चरण कहे गए हैं - हस्तदर्शन, हस्तस्पर्श तथा हस्तरेखा विमर्श। हस्तदर्शन मात्र द्वारा जातक से संबंधित शुभाशुभ फलादेश सम्भव है। भारतीय परम्परा हस्त को अत्यन्त शुभ मानती रही है। प्रातःकाल उठते ही हस्तदर्शन का विधान सर्वज्ञात है। भारतीय हस्तरेखाशास्त्र हाथ में तीर्थ, देवता, ग्रह, नक्षत्र आदि का निवास मानती है। अंगुष्ठमूल में ब्राह्मतीर्थ, कनिष्ठमूल में कायतीर्थ, तर्जनीमूल व अंगुष्ठ के मध्य पितृतीर्थ तथा अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ की स्थिति स्वीकार की गई है। इसी तरह विभिन्न अंगुलियों यथा तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा व अंगुष्ठ में भी तीर्थों का निवास माना गया है। तर्जनी में शत्रुञ्जय, मध्यमा में जयन्तक, अनामिका में अर्बुद, कनिष्ठा में स्यमन्तक तथा अंगुष्ठ में कैलाश इन पञचतीर्थों का निवास कहा है। इसी तरह जैन हस्तरेखाशास्त्र की परम्परा हाथ के विभिन्न स्थलों पर चैबीस तीर्थंकारों की स्थिति स्वीकार करती है। दोनों हाथों की दसों अंगुलियों में पर्वरेखाओं से घिरे हुए बीस पर्व स्थान होते हैं, इन बीस पर्वस्थानों तथा हथेली की चारों दिशाओं के कुल चार स्थान मिलाकर चैबीस स्थान हुए। इन्हीं चैबीस स्थानों में चैबीस जैन तीर्थंकरों का स्थान माना गया है। यही कारण है कि केवल हस्तदर्शन तथा इन स्थानों के शुभाशुभत्व के आलोक में जातक से संबंधित फलादेश किया जा सकता है। हाथ की परिभाषा देते हुए हस्तसंजीवनम् ग्रन्थ में कहा गया है - ‘मणिबन्धात्परः पाणिः’ अर्थात् मणिबन्ध से लेकर अंगुली समेत उपर वाला भाग हाथ कहा जाएगा। मनुष्य के हाथ में ग्रह, नक्षत्र, राशि, वार, तिथि, दिशा, पक्ष, मास, वर्ण आदि की स्थापना भारतीय सामुद्रिकशास्त्र व हस्तरेखाशास्त्र की श्रेष्ठता को प्रमाणित करती है। मनुष्य की हथेली में इन कालावयों व आकाशीय पिण्डों की स्थापना का यह वैशिष्ट्य विश्व की किसी अन्य संस्कृति में उपलब्ध नहीं होता है। जातक के हाथ में तिथियों की स्थापना करने की विधि स्पष्ट करते हुए आचार्य मेघविजयगणि कहते हैं कि कनिष्ठा में नन्दा तिथियाँ (प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी), अनामिका में भद्रा तिथियाँ (द्वितीया, सप्तमी, द्वादशी), मध्यमा में जया तिथियाँ (तृतीया, अष्टमी, त्रयोदशी), तर्जनी में रिक्ता तिथियाँ (चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी) तथा अंगुष्ठ में पूर्ण तिथियाँ (पञ्चमी, दशमी, पूर्णिमा, अमावस्या) स्थित होती हैं। इसी प्रकार कनिष्ठा ब्राह्मण वर्ण, अनामिका क्षत्रिय वर्ण, मध्यमा वैश्य वर्ण, तर्जनी शूद्र वर्ण तथा अंगुष्ठ को योगी के समान वर्णादि से अतीत या मुक्त माना है। जहाँ तक दिशा का प्रश्न है, तर्जनी पूर्व दिशा, मध्यमा उत्तर दिशा, कनिष्ठा पश्चिम दिशा, अनामिका दक्षिण दिशा व अंगुष्ठ सुमेरू पर्वत का प्रतिनिधित्व करता है। इसी तरह मानव हस्त में नवग्रहों की भी स्थिति स्वीकार की गई है। सूर्य का स्थान अंगुष्ठ के मध्य पर्व में, चन्द्रमा का अंगुष्ठ के तृतीय पर्व में तथा बुध का स्थान अंगुष्ठ के प्रथम पर्व में निश्चित हैं। तर्जनी के अन्तिम पर्व में मंगल, मध्यमा के अन्तिम पर्व में गुरु, अनामिका के अन्तिम पर्व में शुक्र, कनिष्ठिका के अन्तिमपर्व में शनि व हथेली के पीछे राहु-केतु का स्थान माना गया है।19 जब हथेली में राशियों के स्थान का प्रश्न आता है तो कनिष्ठा के पहले पर्व में मेष, द्वितीय में वृष, तृतीय पर्व में मिथुन, अनामिका के प्रथम पर्व में कर्क, द्वितीय पर्व में सिंह, तृतीय पर्व में कन्या, मध्यमा के प्रथम पर्व में तुला, द्वितीय पर्व में वृश्चिक, तृतीय पर्व में धनु, तर्जनी के प्रथम पर्व में मकर, द्वितीय पर्व में कुम्भ तथा तृतीय व अन्तिम पर्व में मीन राशि का स्थान नियत है। भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के अनुसार प्रत्येक अङ्गुली के मूल में प्राप्त होने वाले उभार को पर्वत की संज्ञा से विहित किया गया है। अंगुष्ठ मूल में शुक्र, तर्जनी मूल में बृहस्पति, मध्यमा मूल में शनि, अनामिका मूल में सूर्य, कनिष्ठा मूल में बुध, हथेली के मध्य में मङ्गल उच्च, मङ्गल निम्न तथा चन्द्र पर्वत होते हैं।

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पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्र में भी इसी परम्परा को स्वीकार किया गया है। जोसिफ रेनाल्ड ने  अपनी पुस्तक श्भ्वू जव ज्ञदवू च्मवचसम इल जीमपत भ्ंदकेश् में इसी परम्परा का अनुकरण किया है।20 व्यक्ति के दाएँ हाथ में कृष्ण पक्ष तथा बाँए हाथ में शुक्ल पक्ष को स्थापित किया गया है। हस्तरेखाओं के विश्लेषण क्रम में हमें सर्वप्रथम जिन प्रमुख रेखाओं का प्रत्यक्ष होता है वे संख्या में तीन हैं - पितृरेखा, मातृरेखा तथा आयुरेखा। इन तीनों रेखाओं के लिए भारतीय हस्तरेखाशास्त्र में अनेक संज्ञाएँ प्राप्त होती हैं। पितृरेखा के लिए गोत्ररेखा, बलरेखा, मूलरेखा, वृक्षरेखा, धर्मरेखा, मनोरेखा व धृति रेखा संज्ञाएँ प्रयुक्त हुई हैं। मातृरेखा के लिए धनरेखा, सुखरेखा, कोशरेखा, साहसरेखा, पालिका रेखा तथा रतिरेखा शब्द उपयोग में आए हैं। आयुरेखा के लिए जीवन रेखा, तेजरेखा, स्वभाव रेखा, प्रभारेखा व तनुरेखा शब्द का भी प्रयोग किया गया है। रेखाओं के लिए प्रयुक्त उपरोक्त संज्ञाएँ केवल भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के ग्रन्थों में प्रयुक्त हुई हैं। पाश्चात्य हस्तरेखा शास्त्री इन रेखाओं के लिए किञ्चित भिन्न संज्ञाओं का प्रयोग करते हैं। पितृरेखा के लिए आयुरेखा, मातृरेखा के लिए मस्तक या मस्तिष्क रेखा तथा आयुरेखा के लिए हृदयरेखा शब्द का प्रयोग पाश्चात्य हस्तरेखा शास्त्री करते हैं। भारतीय हस्तरेखाशास्त्र में इन तीनों रेखाओं को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। प्राचीन महर्षियों द्वारा इन तीन प्रमुख रेखाओं के नामकरण में भी समाज व परिवार के प्रति समर्पण व सर्वकल्याण की भावना दृष्टिगोचर होती है। “मातृदेवो भव, पितृदेवो भव” की उदात्त भावना का पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्र की परम्परा दिग्दर्शन व उसकी स्थापना व प्रसार की दिशा में इस नामकरण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। माता व पिता के प्रति समर्पण व श्रद्धा की इस उदात्त भावना का नितान्त अभाव है। भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के वैज्ञानिक जिन रेखाओं को पितृ व मातृ रेखा के रूप में स्थापित करते हैं उसे पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्री क्रमशः आयुरेखा व मस्तक रेखा के रूप में जानते हैं। रेखाओं का यह नामकरण भारतीय आध्यात्मवाद तथा पाश्चात्य भौतिकतावाद को प्रतिबिम्बित करता है। प्रसिद्ध पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्री कार्ले लुईस पेरिन अपनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक श्ैबपमदबम व िच्ंसउपेजतलश् के आरम्भ में समपर्ण शीर्षक के अन्तर्गत कहते हैं कि वे इस पुस्तक को प्रकाश की खोज में रहने वाले मनुष्य को समर्पित करते हैं। इसके बाद ग्रन्थ के मध्य में वे केवल हृदय रेखा, मस्तिष्क रेखा, जीवन रेखा, भाग्य रेखा, शुक्र का वलय, स्वास्थ्य रेखा, सूर्य रेखा, विवाह रेखा, अन्तज्र्ञान रेखा पर विचार करते हैं। साथ ही साथ समानान्तर रेखाओं, घुमावदार रेखाओं, टूटी रेखाओं, लहरदार रेखाओं, उध्र्व और अद्यः रेखाओ के आधार पर जातक से संबंधित फलादेश की पद्धति का वर्णन मात्र करते हैं।21 रेखाओं के वर्णन प्रसङ्ग में कहीं भी आध्यात्मिकता का बोध नहीं होता है। जबकि भारतीय ऋषियों ने इन रेखाओं को तीन लोकों का प्रतीक माना है। पितृरेखा उध्र्वलोक, मातृरेखा पृथिवी लोक तथा आयुरेखा पाताललोक का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन्हीं तीन रेखाओं को त्रिदेव अर्थात् क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु व महेश के रूप में माना गया है। जिस तरह भूलोक में सङ्गम तीर्थ का महत्त्व है ठीक उसी प्रकार हस्तरेखाओं में भी ये तीन प्रमुख रेखाएँ पितृ, मातृ व आयु रेखा क्रमशः गंगा, यमुना व सरस्वती का प्रतिनिधित्व करती हैं तथा जहाँ ये तीनों रेखाएँ मिलती हैं, वह स्थान त्रिवेणी कही जाती है। इसी तथ्य को स्थापित करते हुए कहा गया है - “पितृरेखा भवेद्गंगा मातृरेखा सरस्वती, आयुरेखात्र यमुना तत्संगस्तीर्थमक्षयम्।।”22जहाँ तक वय का प्रश्न है तो पितृरेखा बाल्यावस्था की, मातृरेखा युवावस्था की तथा आयुरेखा वृद्धावस्था का प्रतिनिधित्व करती है। अप्रधान रेखा के विषय में स्पष्ट है कि मनुष्य के हाथ में पितृ रेखा, मातृ रेखा व आयु रेखा प्रधान हैं। परन्तु इसके अतिरिक्त मानव की हथेली में अन्य कई अप्रधान रेखाएँ भी उपलब्ध होती हैं जो काल के प्रभाव से प्रभावित होती रहती है। जीवन के प्रत्येक भाग व महत्त्वपूर्ण घटनाओं को प्रभावित करने वाली तथा जातक के व्यक्तित्व को प्रतिबिम्बित करने वाली अनेक रेखाएँ जातक के हथेली में मिलती हैं। इन रेखाओं में उध्र्व रेखाएँ, वज्ररेखा, स्त्रीसुख रेखा, संतान रेखा, रेखाओं के पल्लव, भाई-बहनों की रेखाएँ, उच्च पद रेखा, दीक्षा रेखा, लघु भाग्य रेखा, धर्म रेखा, उदरपीड़ा रेखा, संन्यास रेखा, घरेलू बन्धनों की रेखा, मृत्यु रेखा, वाहन रेखा, धन भोग रेखा, यश की रेखा, यात्रा रेखा, मित्र-शत्रु रेखा आदि प्रमुख हैं। मणिबन्ध से निकलकर पाँचों अंगुलियों की तरफ जाने वाली रेखाएँ उध्र्व रेखा कहलाती है। जातक के हाथ में इस रेखा की उपस्थित जातक को राजसुख व राजयोग प्रदान करने वाली होती है। बाँए हाथ की मध्यमा के नीचे तथा दाहिने हाथ के अनामिका के नीचे एक छोटी सी रेखा हो तो उसे धर्मरेखा कहते हैं। स्पष्ट है कि भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के ऋषियों ने भारतीय संस्कृति के आधारभूत सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुए हस्तरेखाओं पर गहन समीक्षा की है तथा इन रेखाओं का जीवन में घटित होने वाली घटनाओं के मध्य स्पष्ट सम्बन्ध को स्थापित किया है। रेखाओं के गुण व दोष पर विचार करते हुए कहा गया है कि गहरी, पतली, चमकीली व आकार में लम्बी रेखाएँ सदैव अच्छी मानी जाती है। इन्हें अन्य रेखाएँ काट न रही हों। लाल व गहरी रेखाएँ मनुष्य की प्रवृत्ति को उदार बनाती हैं तथा ऐसा व्यक्ति त्यागप्रिय तथा विशालहृदय का होता है। रेखाओं का रंग शहद के समान हो अर्थात् कुछ पीलेपन की झलक वाला रंग होना भी शुभ माना जाता है। पतली व लाल रेखाओं की हथेली में उपस्थिति शोभा, धन-सम्पत्ति और मान प्रतिष्ठा बढ़ाने वाली होती है। यदि रेखा अपने उद्गम स्थल पर जड़ की तरह फैली हुई हों तो मनुष्य के सौभाग्य को बढ़ाने वाली होती हैं। रेखाओं के फल को क्षीण करने वाली तथा अशुभ प्रभाव की सूचक रेखाओं के सन्दर्भ में कहा गया है कि कटी-फटी, अनेक शाखाओं जैसे बँटे अग्रभाग वाली, रूखी, टेढ़ी-मेढ़ी, धागे के समान बारीक, अपने स्थान से हटी हुई मोटी, नीले रंग की झलकवाली, टूटी रेखाएँ, कहीं पतली कहीं मोटी, रेखाओं का आधिक्य व प्रमुख चार रेखाओं का टेढ़ा या अधूरा होना, बहुत अधिक या बिना रेखा का हाथ होना भी अशुभ है।23 प्रधान व अप्रधान रेखाओं के अतिरिक्त मनुष्य के हाथ में सूक्ष्म रेखाओं द्वारा कई आकृतियों का निर्माण होता है इनमें से कुछ अशुभ तथा कुछ अत्यन्त शुभ माने जाते हैं। इन आकृतियों के सन्दर्भ में भारतीय हस्तरेखाशास्त्र से सम्बन्धित ग्रन्थों में पर्याप्त चर्चा की गई है जबकि पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्री इस सम्बन्ध में मौन हैं। प्रसिद्ध अमेरिकी विद्वान् विलियम जी. बेन्हम अपने ग्रन्थ श्ज्ीम स्ंूे व िैबपमदजपपिब भ्ंदक त्मंकपदहश् में केवल हाथ के प्रकार, हाथ का लचीलापन, नाखून, हाथ पर स्थित बाल, अंगुली, विभिन्न पर्वत, हृदय रेखा, मस्तिष्क रेखा, जीवन रेखा आदि पर ही चर्चा करते हैं। इसी ग्रन्थ के उन्होंने हस्तरेखाशास्त्र के प्रति अपनी चिन्ता व्यक्त की है और लिखा है कि यह शास्त्र आरम्भ से ही मानव सभ्यता के अधिकांश भाग द्वारा श्रद्धा को प्राप्त नहीं हुआ है तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग समाज में स्वयं को इस शास्त्र से जुड़ा हुआ मानने पर भी घबराते हैं।24 
परमभाग्यशाली मनुष्यों के लिए बत्तीस चिन्ह बताए गए हैं - छत्र, कमल, धनुष, रथ, वज्र, कछुआ, अंकुश, बावड़ी, स्वस्तिक, तोरण, तीर, शेर, पेड़, चक्र, शंख, हाथी, समुद्र, घड़ा, महल, गौ, मछली, खम्भा, मठ, कमण्डल, पहाड़, चँवर, शीशा, बैल, झंडा, लक्ष्मी, फूल-माला तथा मोर। ये समस्त चिन्ह एक साथ एक ही मनुष्य के हाथ में उपलब्ध नहीं होते। इसके अतिरिक्त मगरमच्छ, सूर्य, सिंहासन, तलवार, मुकुट, तिल, सर्प, वृत्त, षट्कोण, तालाब, चार का अङ्क, माला, जहाज आदि की गणना भी अत्यन्त शुभ चिन्हों में की गई है। महर्षि समुद्र की उक्ति स्त्री तथा पुरुष के मध्य समानता की भावना का उद्घोषक है- “उत्पत्तिः स्त्रीमूला तस्यापि ततः प्रधानमेषापि। क्रियते लक्षणतयोर्यदि तदेह स्याज्जनोपकृतिः।।”25 अर्थात् इस मत्र्यलोक में उत्पत्ति का आधार स्त्रीशक्ति ही है, अतः स्त्रीशक्ति के सामुद्रिक लक्षणों के वर्णन के बिना सामुद्रिकशास्त्र पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता है। भारतीय तथा पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्रियों के ग्रन्थों में उपलब्ध सिद्धान्तों के आलोड़न से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय सामुद्रिकशास्त्र के ग्रन्थों में जहाँ मानवीय मूल्यों व सामाजिक चेतना की उदात्त भाव को सुरक्षित रखा गया है, वहीं पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्रीय ग्रन्थों तथा ग्रन्थकारों ने जाने-अनजाने इस तथ्य की अवहेलना की है। पाश्चात्य हस्तरेखा शास्त्र जहाँ हाथ की बनावट, नाखून, का पृष्ठ, हस्तरेखा व पर्वतों से सम्बन्धित व्याख्यान के बाद मौन हो जाता है, वहीं भारतीय सामुद्रिकशास्त्र आपादमस्तक समस्त शरीरावयों के अवलोकन की गूढ़, विचित्र व प्रभावोत्पादक शैली का प्रणयन करती है। भारतीय हस्तरेखाशास्त्र व पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्र की यह प्रवृत्ति स्वयं ही अपनी विशालता व सीमित वण्र्य विषय का भेद स्पष्ट कर देती है। रेखाओं, हथेली के क्षेत्रों, अंगुली के पर्वों आदि के नामकरण व विभिन्न शुभ चिन्हों के वर्णन प्रसङ्ग में भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के ग्रन्थ जहाँ अपनी उन्नत संस्कृति और सभ्यता को प्रकाशित करते हैं वही पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्र विषयक ग्रन्थ व उनके रचनाकार केवल आड़ी-तिरछी रेखाओं व कुछ आकृतियों का वर्णन कर अपने कार्य की इतिश्री समझ लेते हैं। जहाँ भारतीय हस्तरेखाशास्त्र, हस्तरेखाशास्त्री के कत्र्तव्यबोध व कृत्याकृत्य विचार पर गहन दृष्टिपात करता है वहीं पाश्चात्य परम्परा इस पर कोई चर्चा नहीं करती है। हस्तरेखा विर्मश हेतु उचित काल का निर्धारण, आध्यात्मिकतापूर्ण मनःस्थिति, गुरु व शास्त्र के प्रति श्रद्धा भाव की अनिवार्यता की स्थापना भारतीय चिन्तन परम्परा का वैशिष्ट्य हैं, जबकि पाश्चात्य हस्तरेखा शास्त्री इन विषयों पर मौन हैं। अतः हस्तरेखाशास्त्र के गहन अध्ययन, अध्यापन, अवलोकन व फलादेश की स्पष्टता व सूक्ष्मता हेतु भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के ग्रन्थों की आवश्यकता सहज सिद्ध है।

सन्दर्भ :
1. “शब्दशास्त्रं मुखं ज्योतिषं चक्षुषी श्रोत्रमुक्तं निरुक्तं च कल्पः करौ। या तु शिक्षास्य वेदस्य सा नासिका पादपद्मद्वयं छन्द आद्यैर्बुधैः।।” वृहद्दैवज्ञरञ्जनम्; 1/15
2. “वेदचक्षुः किलेदं स्मृतं ज्योतिषं मुख्यता चाङ्गमध्येऽस्य तेनोच्यते। संयुतोऽपीतरैः कर्णनासादिभिश्चक्षुषाङ्गेन हीनो न किञ्चित्करः।।” सिद्धान्तशिरोमणि, मध्यमाधिकार; श्लोक-10
3. “वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूव्र्या विहिताश्च यज्ञाः। तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञान्।” वेदाङ्ग ज्योतिष, याजुष् संस्करण, श्लोक-3
4. “सिद्धान्तसंहिताहोरारूपं स्कन्धत्रयात्मकम्। वेदस्य निर्मलं चक्षुज्र्योतिश्शास्त्रमकल्मषम्।।” होरारत्नम्; 1/13
5. “अङ्गविद्या निमित्तानामष्टानामपिगीयते। मुख्या शुभाशुभज्ञाने नारदादिनिवेदिता।।” हस्तसंजीवनम्; 1/4
6. ऋग्वेद; 2/16/2, 6/19/3
7. वही; 1/124/3, 5/80/5
8. वही; 7/87/6
9. “रेखाकृतिर्मणिर्यस्य मेहने हि विराजते। पार्थिवः स तु विज्ञेयः समुद्रवचनं यथा।। - भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व” 25/6
10. “तदापि नारद लक्षकवराहमाण्डव्यषण्मुखप्रमुखैः। रचितं क्वचित् प्रसङ्गात् पुरुषस्त्रीलक्षणं किञ्चित्।।” सामुद्रिकशास्त्रम्; 1/9
11. “पूर्वभवान्तरजनितं शुभा शुभमिहापि लक्ष्यते येन। पुरुषस्त्रीणां सद्भिर्निगद्यते लक्षणं तदिह।।” सामुद्रिकशास्त्रम्; 1/15
12. “उन्मानमानगतिसारमनूकमादौ स्नेहस्वरप्रकृतिवर्णससन्धिसत्त्वम्। क्षेत्रं मृजां च विधिवत्कुशलोऽवलोक्य सामुद्रविद्वदति यातमनागतं च।।” बृहज्ज्यौतिषसार; 21/6
13. सामुद्रिकशास्त्रम्; 1/16
14. वही; 1/20-26
15. हस्तसंजीवनम्; 1/12
16. वही; 1/13
17. वही; 1/55
18. Cheiro. Language of the Hand. Chicago and New York : Rand, Mc Nally & Company,1900,
       pg. 77 
19. हस्तसंजीवनम्; 3/71-72
20. Ranald, Josef. How to Know People by their Hands. New York : Modern Age Books, 1938,
 pg. 37 
21. Perin, Carl Louis. Science of Palmistry. Chicago : Star Publication, 1902, pg. 111-112  
22. हस्तसंजीवनम्; 1/20
23. वही; रेखाविचार, श्लोक-52
24. Benham, William G. The Laws of Scientific Hand Reading. New York & London : G.P. Putnam's Sons, 1901, Introduction, pg. vi   
25. सामुद्रिकशास्त्रम्; 1/7
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Saturday 17 November 2018

ज्योतिष वेदाङ्ग और तिलक

         

         


प्राचीनतम साहित्य होने के साथ-साथ समस्त ज्ञान-विज्ञान के मूल स्रोत के रूप में वेदों को महती प्रतिष्ठा प्राप्त है। इष्ट प्राप्ति और अनिष्ट का परिहार ही वेदों का मूल उद्देश्य है। ये वेद भाषा शास्त्र तथा अपनी विचार शैली के कारण अत्यन्त ही गूढार्थ युक्त और दुर्बोध हैं। इन प्राचीनतम रचनाओं की दुरूहता के कारण ही परवर्ती काल में वेदाङ्ग शास्त्र अस्तित्व में आए। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्योतिष संज्ञक वेदाङ्ग संख्या में छः हैं। इन्हें विद्वानों द्वारा इतना महत्वपूर्ण माना गया है कि ये वेदाङ्ग वेदपुरुष के विभिन्न अङ्गों के रूप में परिकल्पित हुए। विद्वानों द्वारा ज्योतिष वेदाङ्ग को वेदपुरुष का नेत्र कहा गया। इस वेदाङ्ग का मूल उद्देश्य यज्ञादि वैदिक कर्मों के लिए शुभाशुभ काल का निर्धारण ही था। वेद, ब्राह्मण आदि समस्त ग्रन्थ यज्ञमूलक माने गए हैं, अतः यज्ञों का महत्त्व स्वतःसिद्ध है। इन महत्वपूर्ण यज्ञ क्रियाविधि हेतु उचित समय का निर्धारण करने में सक्षम होने के कारण ज्योतिष वेदाङ्ग भी अत्यधिक महत्वपूर्ण सिद्ध होते हैं। 


प्रत्येक वेदाङ्ग का कोई न कोई प्रतिनिधि ग्रन्थ अवश्य है। ज्योतिष वेदाङ्ग के प्रतिनिधि ग्रन्थ के रूप में ऋग्वेद का ऋक् ज्योतिष, यजुर्वेद का याजुष् ज्योतिष तथा अथर्वेद का अथर्वण ज्योतिष स्वीकृत हैं। ऋक् ज्योतिष का सम्बन्ध ऋग्वेद से माना गया है जबकि यजुर्वेद से सम्बन्धित ज्योतिष वेदाङ्ग ‘याजुष-ज्योतिष’ है। अथर्ववेद का ज्योतिष वेदाङ्ग ‘अथर्वण-ज्योतिष’ संज्ञा से जाना जाता है। ज्योतिष-वेदाङ्ग से सम्बन्धित होने के कारण इन ग्रन्थों में यज्ञों के निर्धारण हेतु शुभाशुभ काल का निर्धारण किया गया है। अपने विषय-वैशिष्ट्य तथा प्रतिपाद्य विषय-वस्तु के साम्य के कारण ऋक् ज्योतिष तथा याजुष् ज्योतिष को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है, जबकि विषयों की विभिन्नता के कारण आथर्वण ज्योतिष अधिक नवीन रचना सिद्ध होती है। ऋक् ज्योतिष में 36 लोक हैं, जबकि ‘याजुष् ज्योतिष में 44 श्लोक प्राप्त होते हैं। दोनों ही ग्रन्थों के श्लोकों में पर्याप्त साम्य है, हाँ इतना अवश्य है कि इनमें क्रमभेद अवश्य है। कुछ श्लोकों में शब्दभेद भी प्राप्त होता है, परन्तु इतना नहीं कि उनके अर्थों में पर्याप्त अन्तर हो सके। ऋक्-ज्योतिष के 7 श्लोक याजुष् ज्योतिष में प्राप्त नहीं होते तथा याजुष् ज्योतिष के 14 श्लोक ऋक् ज्योतिष में प्राप्त नहीं होते। इन रचनाओं के अत्यधिक प्राचीन होने के कारण इनकी भाषा संक्षिप्त तथा किञ्चित् अस्पष्ट है, जिसके कारण इनका अर्थ लगाने में ज्योतिषशास्त्र के जिज्ञासुओं को काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इस ग्रन्थ के रचनाकार महर्षि लगध हैं। ऐसा भी सम्भव है कि महर्षि लगध द्वारा प्रणीत ज्योतिषशास्त्रीय सिद्धांतों का किसी अन्य लेखक द्वारा प्रस्तुतीकरण मात्र किया गया हो। कुछ विद्वान तो इस ग्रन्थ के कर्त्ता के रूप में ‘शुचि’ का ही उल्लेख करते हैं।

 वेदों के समान ही ‘वेदाङ्ग-ज्योतिष’ के श्लोकों का अर्थ लगाने में अत्यधिक प्रयास करना पड़ा है। इस ग्रन्थ पर सोमाकर कृत भाष्य भी कुछ सीमा तक अस्पष्ट ही है। वेबर, कोलब्रूक, याकोबी, बर्गेस, बौटले, हिृट्ने, शंकर बालकृष्ण दीक्षित, छोटेलाल बार्हस्पत्य, सुधाकर द्विवेदी, बालगंगाधर तिलक, डॉ. शामशास्त्री, गोरखप्रसाद तथा कीथ आदि विद्वानों ने समय-समय पर इस ग्रन्थ के विभिन्न श्लोकों का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयास किया है।  इन सराहनीय प्रयासों के बाद भी इस ग्रन्थ के कई श्लोक अभी तक अस्पष्ट तथा विवादास्पद बने हुए हैं। थीबो ने इसके 1-10, 18, 21, 24, 28, 30-40 श्लोकों की बड़ी ही स्पष्ट व्याख्या की है, परन्तु इन श्लोकों के अतिरिक्त श्लोकों को अस्पष्ट घोषित कर दिया है। उसके बाद अनेक विद्वानों ने इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया, किन्तु पूरी सफलता नहीं मिल सकी। डॉ. शामशास्त्री ने वेदाङ्ग ज्योतिष के श्लोकों को सूर्य-प्रज्ञप्ति, ज्योतिष करण्ड तथा काल लोक प्रकाश जैसे जैन ज्योतिष ग्रन्थों की सहातया से स्पष्ट करने का श्लाघनीय प्रयास किया है। 

इसी क्रम में प्रसिद्ध देशभक्त तथा स्वतन्त्रता सेनानी पण्डित बालगङ्गाधर तिलक ने - Vedic chronology and vedang jyotish के नाम से 1914 ई. में बर्मा की मंडाले जेल में कारावास के समय इस ग्रन्थ के लगभग 12 से 14 पद्यों की व्याख्या की। जिसके इन्हेांने आर्च तथा याजुष् ज्योतिष के पाठों को स्मरण शक्ति के आधार पर व्याख्यायित किया। इस कार्य का प्रकाशन उनके मरणोपरान्त पूना शहर से 1925 ई. में हुआ।
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने अपने इस प्रयास में ऋक् ज्योतिष तथा याजुष् ज्योतिष दोनों के ही कई मन्त्रों के अर्थों को स्पष्ट किया है। इनमें से ऋक् ज्योतिष के श्लोक संख्या 10, 11, 12, 13, 21, 19 का अर्थ इन्होंने बड़े ही विस्तार पूर्वक स्पष्ट किया है। इसी प्रकार वेदाङ्ग ज्योतिष के अन्य महत्वपूर्ण संस्करण जो कि यजुर्वेद से सम्बन्धित है अर्थात् याजुष् ज्योतिष का श्लोक संख्या 15, 19, 27, 21, 20, 25, 26, 12, 14 का भी इन्होंने बडे़ ही मनोयोग और विद्वतापूर्ण शैली से अर्थों को स्पष्ट किया है। ये समस्त श्लोक चन्द्रनक्षत्र आनयन्, नक्षत्र गत पदों का विवेचन, पर्व समाप्त होने का अंश , पर्वमांश की कलाओं की आनयन विधि, इष्ट तिथि में सूर्य नक्षत्र के आनयन की विधि, नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य का प्रवेश दिन के किस भाग में हुआ, आदि विषय से सम्बन्धित हैं। ये वे श्लोक हैं जिनकी व्याख्या तथा अर्थ को लेकर प्रबल मतभेद हैं। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने इन श्लोकों का अर्थ स्पष्ट करने का श्लाघनीय प्रयास किया है। महाराष्ट्र राज्य के रतनिगिरि नामक स्थान में 23 जुलाई 1856 को जन्म लेने वाले लोकमान्य तिलक ने 1913 ई. में मण्डाले जेल में इस विषय पर अपनी विद्वत्तापूर्ण लेखनी चलाई यद्यपि इनका यह प्रयास पूर्णरूपेण स्मृति पर आधारित या तथापि उनका यह स्तुत्य प्रयास आज भी विद्वत समाज में प्रतिष्ठित है।

Friday 16 November 2018

राशि रत्न धारण करने की शास्त्रीय पद्धति

          भारतीय ज्योतिषशास्त्र के फलित स्कन्ध के विकास के मूल आधार के रूप में महर्षि पराशर के सिद्धान्त के योगदान को एकमत से स्वीकार किया गया है। फलित ज्योतिषशास्त्र के प्रत्येक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त के विषय में महर्षि पराशर के विचारों को विश्वसनीय मार्गदर्शक माना जाता है। 

रत्नधारण के सन्दर्भ में भी महर्षि पराशर ने अपने विचारों से परवर्ती दैवज्ञों तथा सामान्य जनमानस के प्रति अपने सिद्धान्तों का अत्यन्त करुणापूर्वक प्रकटीकरण किया है। विविध लग्न हेतु रत्नधारण विषयक सिद्धान्तों की महर्षि ने अपने ग्रन्थ ‘वृहत्पाराशरहोराशास्त्रम्’ में स्थापना की है। इन्होंने प्रत्येक लग्न में उत्पन्न जातकों के लिए योगकारक ग्रहों का निर्धारण किया है तथा इन्हीं योगकारक ग्रहों की सबलता तथा निर्बलता के आधार पर जातक को उसके जीवन में प्राप्त होने वाले सुख-दुख विषयक फलादेश को भी प्रस्तुत किया है। महर्षि पराशर के अनुसार मेषादि द्वादश लग्नों में उत्पन्न जातक के लिए कौन से ग्रह योगकारक हैं तथा उनके लिए कौन रत्न प्रशस्त हैं और कौन रत्न निषिद्ध हैं इस सिद्धान्त को अधोलिखित प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है।

मेष लग्न
मेष लग्न में उत्पन्न जातक के लिए शनि, बुध और शुक्र ये तीन ग्रह पाप फलदायक होते हैं। सूर्य, मंगल और गुरु शुभ फलदायक होते हैं। शुक्र मुख्य रूप से मारक होता है। इस प्रकार इस लग्न में जन्म लेने वाले जातकों को मूँगा, माणिक्य और पुखराज धारण करना चाहिए। हीरा, पन्ना तथा नीलम रत्न ऐसे जातकों के लिए अशुभ फ़ल देने वाले हैं।

वृष लग्न
 
 इस लग्न में उत्पन्न जातक के लिए शनि और सूर्य शुभफलदायक, बुध अल्प शुभ फलप्रद तथा शनि राजयोगकारक होते हैं। गुरु, शुक्र तथा चन्द्रमा वृष लग्न वाले जातक के लिए अशुभ होंगे तथा गुरु, शुक्र और मंगल मारक होते हैं। अतः इस लग्न के जातकों के लिए नीलम, माणिक्य तथा पन्ना शुभ फलोत्पादक होंगे जबकि पुखराज, हीरा, मोती तथा मूँगा अशुभ फल देने वाले होंगे।
मिथुन लग्न
मिथुन लग्न में जन्म लेने वाले जातक के लिए एक मात्र शुक्र शुभ फल देने वाला होता है। मंगल, गुरु तथा सूर्य पाफलद होते हैं जबकि चन्द्रमा मुख्य मारक होता है। अतः इस लग्न के जातक हेतु हीरा धारण करना अत्यन्त शुभफलद होता है। परन्तु मोती, मूँगा, पुखराज और माणिक्य धारण करना अशुभ है। 

कर्क लग्न 
इस लग्न में मंगल, बृहस्पति तथा चन्द्रमा शुभफलद होते हैं। मंगल विशेष रूप से पूर्णयोग कारक होता है। शुक्र तथा बुध पाफलदायक होते हैं, जबकि शनि पूर्ण मारक होता है। इस लग्न में सूर्य की प्रवृत्ति साहचर्य से फल देने की होती है। अतः इस लग्न के जातकों के लिए मूँगा, पुखराज व मोती शुभ हैं, जबकि माणिक्य धारण के सन्दर्भ में विशेष परामर्श की आवश्यकता होती है। ये जातक नीलम, हीरा व पन्ना नहीं पहनें तो उचित रहेगा।

सिंह लग्न 
 इस लग्न के जातकों के लिए मंगल, बृहस्पति तथा सूर्य विशेष शुभ फलदायक होते हैं। चन्द्रमा साहचर्य से शुभ फल देता है। बुध, शुक्र और शनि पाप फलद होते हैं और इसमें भी शनि मारक होता है। इस प्रकार सिंह लग्न में उत्पन्न जातकों के लिए मूँगा, पुखराज तथा माणिक्य धारण करना प्रशस्त है, जबकि पन्ना, हीरा और नीलम धाारण करना निषिद्ध है।

कन्या लग्न  
कन्या लग्न में जन्म लेने वालों जातकों के लिए बुध और शुक्र अत्यन्त शुभफलप्रद तथा योगकारक होते हैं। मंगल, बृहस्पति तथा चन्द्रमा पाप फल उत्पन्न करने वाले होते हैं। इस लग्न के लिए शुक्र मारक भी है तथा सूर्य साहचर्य से फल देता है। अतः कन्या लग्न के जातकों के लिए पन्ना व हीरा धारण करना शुभ है, जबकि मूँगा, पुखराज व मोती अशुभ फल देने वाला होता है। 

तुला लग्न  
इस लग्न में चन्द्रमा, बुधा और शनि शुभ फलदायक होते हैं साथ ही चन्द्रमा व बुध में रोजयोग प्रदान करने का भी सामर्थ्य होता है। गुरु, सूर्य और मंगल पाप फलदायक होते हैं। मंगल व गुरु मारक होते हैं तथा शुक्र सम स्वभाव का होता है। अतः इस लग्न के जातकों के लिए मोती, पन्ना व नीलम अत्यन्त शुभ होंगे तथा पुखराज, मूँगा व माणिक्य अनिष्टकारक हो सकते हैं। 

वृश्चिक लग्न

  इस लग्न में उत्पन्न जातक के लिए गुरु और चन्द्रमा शुभफल देने वाले जबकि सूर्य व चन्द्रमा योगकारक होते हैं। शुक्र, बुध और शनि पापफल प्रदान करते हैं तथा मंगल सम होता है। इस तरह वृश्चिक लग्न के जातक पुखराज, मोती व माणिक्य धारण कर सकते हैं। हीरा, पन्ना और नीलम धारण करना अशुभ प्रभाव देने वाला हो सकता है।

धनु लग्न  
 धनु लग्न में समुत्पन्न जातकों के लिए मंगल और सूर्य शुभ फल देने वाले होते हैं तथा सूर्य व बुध योगकारक होते हैं। शनि मारक होता है तथा शुक्र में मारक लक्षण होते हैं। अतः धनु लग्न के जातक मूँगा, माणिक्य व पन्ना धारण कर शुभफल की प्राप्ति कर सकते हैं जबकि हीरा व नीलम धारण करना अशुभ फल उत्पन्न कर सकता है। 

मकर लग्न
 मकर लग्न में उत्पन्न जातकों के लिए शुक्र व बुध शुभ फल देने वाले होते हैं। मंगल, बृहस्पति व चन्द्रमा पाप फल देते हैं सूर्य सम फल देने वाला होता है। इस लग्न में शनि लग्नेश होते हैं अतः स्वयं मारक नहीं होते अपितु मंगल आदि पाप ग्रह मारक प्रभाव उत्पन्न करने वाले होते हैं। अतएव इस लग्न के जातकों के लिए हीरा व पन्ना अत्यन्त शुभफलद सिद्ध हो सकता है। इस लग्न में मूँगा, पुखराज व मोती अशुभ प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं। अतः इन रत्नों को धारण करना निषिद्ध है। 

कुम्भ लग्न 
  इस लग्न में समुत्पन्न जातकों के लिए शुक्र व शनि शुभफलदायक होते हैं तथा शुक्र विशेष रूप से राजयोगकारक होता है। गुरु, सूर्य व मंगल मारक प्रभाव से युक्त होते हैं तथा बुध मध्यम फलदायक होता है। स्पष्ट है कि शुक्र रत्न हीरा व शनि का रत्न नीलम इस लग्न के जातकों के लिए शुभ है जबकि पुखराज, माणिक्य व मूँगा अत्यन्त अशुभ रत्न सिद्ध हो सकते हैं।
मीन लग्न 
 मीन लग्न के जातकों की जन्म पत्रिका के अनुसार मंगल, चन्द्रमा व गुरु शुभफलद होते हैं। इनमें से भी मंगल व गुरु विशेष रूप से अत्यन्त योगकारक होते हैं। शनि, शुक्र, सूर्य व बुध इस लग्न के जातकों के लिए अशुभ प्रभावोत्पादक होते हैं। शनि व बुध मारक होते हैं। इसलिए मीन लग्न के जातकों के लिए मूँगा, मोती व पुखराज धारण करने योग्य रत्न हैं। जबकि शनि रत्न नीलम, शुक्र रत्न हीरा, सूर्य रत्न माणिक्य व बुध रत्न पन्ना का परित्याग करना चाहिए। 

      
         महर्षि पराशर ने बृहत्पराशरहोराशास्त्रम् के योगकारकाध्याय में इस सन्दर्भ में अत्यन्त विस्तार से चर्चा की है। योगकारक अर्थात् अत्यन्त शुभफलद व राजसुख प्रदान करने वालो ग्रहों के निर्धाारण के सन्दर्भ में महर्षि पराशर के ये सिद्धान्त स्वर्णिम सूत्र सिद्ध होते हैं।   

Sunday 11 November 2018

पाराशरी ज्योतिष में त्रिकोण भाव मीमांसा

१. महर्षि पराशर - ज्योतिषशास्त्र वैदिक संहिताओं  के समान ही अत्यंत प्राचीन शास्त्रों में सम्मिलित है और इस शास्त्र के 18 प्रवर्तक  ऋषियों की चर्चा ज्योतिषशास्त्र के ग्रंथों में उपलब्ध होती है। ये आचार्य हैं ब्रह्मा, आचार्य, वशिष्ठ, अत्रि, मनु, पौलस्त्य,रोमश, मरीचि, अङ्गिरा, व्यास, नारद, शौनक, भृगु, च्यवन, यवन, गर्ग, कश्यप और पराशर। जबकि स्वयं शक्तिपुत्र महर्षि पराशर 19 ऋषियों को इस ज्योतिषशास्त्र का प्रवर्त्तक स्वीकृत करते हैं और कहते हैं -

"विश्वसृङ्नारदो व्यासो वसिष्ठोऽत्रि: पराशर:।लोमशो यवन: सूर्यश्च्यवन: कश्यपो भृगु:।।

पुलस्त्यो मनुराचार्य: पौलिश: शौनकोऽङ्गिरा:।गर्गो मरीचिरित्येते ज्ञेया: ज्योति:प्रवर्त्तका:।। "

२. महर्षि पराशर की रचनाएँ
महर्षि पराशर एक पौराणिक व्यक्तित्व हैं और इनकी संस्कृत जगत में महती प्रतिष्ठा है। महर्षि पराशर के नाम से कई आचार्यों ने अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया है, किन्तु ज्योतिषशास्त्र के कुछ ऐसे कालजयी ग्रन्थ हैं जिन्हें निर्विवाद रूप से महर्षि पराशर की रचना के रूप में स्वीकार किया गया है। ज्योतिषपितामह महर्षि पराशर ने ज्योतिषशास्त्र के तीनों प्रमुख स्कन्धों सिद्धान्त, संहिता और होराशास्त्र इन सब पर अपने विद्वत्तापूर्ण सिद्धान्तों के प्रणयन से जनसामान्य का कल्याण किया है। इन रचनाओं में बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् , लघु पाराशरी, मध्य पाराशरी, पाराशरी संहिता, वृद्धपराशर सिद्धान्त, पराशरस्मृति, कृषि पराशर आदि प्रमुख हैं। बृहत्पाराशरहोराशास्त्र एक अत्यन्त विशालकाय ग्रन्थ है, जिसमें शताधिक अध्याय और 5 सहस्त्र से भी अधिक श्लोकों का संग्रह है। इस पाराशरीहोरा ग्रन्थ में उपलब्ध प्रमुख सिद्धान्तों का संकलन कर लघुपाराशरी या उडुदायप्रदीप नामक विशिष्ट परन्तु अपेक्षाकृत लघुकाय ग्रंथ की रचना हुई -
" वयं पाराशरीं होरामनुसृत्य यथामति
उडुदायप्रदीपाख्यं कुर्मो दैवविदां मुदे।।"

३. त्रिकोण भाव 

जन्म कुंडली में उपस्थित बारह भावों की अलग-अलग संज्ञाएँ कही गई हैं। प्रथम भाव अर्थात् लग्न को तनु, द्वितीय भाव की धन, तृतीय भाव की भ्रातृ, चतुर्थ की मित्र, पञ्चम की पुत्र, षष्ठ की शत्रु, सप्तम की स्त्री, अष्टम की मृत्यु, नवम की धर्म, दशम की कर्म, एकादश की आय और बारहवें भाव कि व्यय संज्ञा होती है -

' तन्वर्थसहजबान्धवपुत्रारिस्त्रीविनाशपुण्यानि
कर्मायव्ययभावा लग्नाद्या भावतश्चिन्त्या:।।'
इन लग्नादि द्वादश भावों की उनकी प्रकृति के अनुसार चतुरस्र,कण्टक, केन्द्र,पणफर,आपोक्लिम, उपचय, अनुपचय, त्रिकोण आदि विशिष्ट संज्ञाएँ भी उपलब्ध होती हैं। लग्नादि द्वादश भावों में से पञ्चम तथा नवम भाव को त्रिकोण कहा गया है-
'धर्मसुतयोस्त्रिकोणं...'। जबकि वशिष्ठ संहिता ग्रन्थ में पञ्चम तथा नवम भाव के साथ साथ लग्न भाव को भी त्रिकोण भावों में परिगणित किया गया है।

४. त्रिकोण भावों के लिए प्रयुक्त संज्ञाएँ
ज्योतिष शास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में प्रत्येक भाव के लिए अनेक संख्याओं का प्रयोग किया जाता रहा है इस क्रम में लग्न पंचम और नवम भाव के लिए भी अनेक संख्याएं प्रयुक्त हुई हैं।
* लग्न भाव - देह, मूर्ति, अङ्ग, तनु, उदय, कल्प, आद्य आदि संज्ञाओं का प्रयोग लग्न भाव के लिए हुआ है - 'लग्नं मूर्त्तिस्तथाङ्गं तनुरुदयवपु: कल्पमाद्यं...'
* पञ्चम भाव - तनय, बुद्धि, विद्या, आत्मज, वाक्,  पञ्चम और तनुज संज्ञाओं का प्रयोग पञ्चम या सुत भाव के लिए किया जाता है - '...तनयं बुद्धिविद्यात्मजाख्यम्। वाक्स्थानं पञ्चमं स्यातनुजमथ...'
* नवम भाव - ' गुर्वाख्यं धर्मसंज्ञं नवममिह शुभं स्यात्तपोमार्गसञ्ज्ञम् ' अर्थात् नवम भाव के लिए गुरु, धर्म,शुभ,तप और मार्ग संज्ञा का उल्लेख ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में मिलता है।

५. त्रिकोण भावों के कारक ग्रह
महर्षि पराशर ने अपनी रचना बृहत्पाराशरहोराशास्त्र में लग्नादि द्वादश भावों के लिए विशिष्ट कारक ग्रहों की व्यवस्था दी है। इसी व्यवस्था के अंतर्गत त्रिकोण भाव अर्थात लग्न भाव, पञ्चम भाव तथा नवम भाव के कारक ग्रह अधोलिखित हैं-
* लग्न भाव - सूर्य
* पञ्चम भाव - बृहस्पति
* नवम भाव - बृहस्पति

६. त्रिकोण भावों की संख्या वस्तुतः कितनी ?
जन्मकुंडली के द्वादश भावों की उनकी समान प्रकृति व प्रवृत्ति के आधार पर विशिष्ट संज्ञा देने की प्रवृत्ति ज्योतिषशास्त्रीय आचार्यों में प्राप्त होती है। जहां कुछ विद्वान त्रिकोण भाव में केवल पञ्चम तथा नवम भाव को स्वीकार करते हैं। वहीं कुछ विद्वान पञ्चम और नवम के साथ-साथ लग्न भाव को भी त्रिकोण संज्ञा से अभिहित करते हैं। यहां यह अत्यन्त आवश्यक हो जाता है कि लघुपाराशरी ग्रन्थ में वर्णित त्रिकोण शब्द से महर्षि पराशर को कौन-कौन से भाव अभिप्रेत हैं यह स्पष्ट हो। अत: निम्नलिखित बिन्दुओं के आलोक में द्वारा उपरोक्त शंका का समाधान प्राप्त हो सकता है-
* सर्वप्रथम तो त्रिकोण शब्द में ही उपलब्ध ' त्रि ' शब्द ही इस दिशा की ओर इंगित करता है कि त्रिकोण भावों की संख्या 'त्रि' अर्थात तीन ही है और ज्योतिषशास्त्र के प्रवर्तक ऋषियों में से कुछ ने लग्न को भी त्रिकोण भाव में परिगणित कर इसे पञ्चम और नवम भाव के साथ सम्मिलित कर लिया है तो त्रिकोण भावों में की संख्या तीन होने का मत पुष्ट होता है।
* स्वयं लघुपाराशरी ग्रन्थ में भी कई अन्तःसाक्ष्य प्राप्त होते हैं जो त्रिकोण भावों की संख्या दो से अधिक होने की ओर संकेत करते हैं। इस सन्दर्भ में इस ग्रंथ का श्लोक क्रमांक ६ द्रष्टव्य है - ' सर्वे त्रिकोणनेतारो ग्रहा: ...' जिसमें त्रिकोण के स्वामियों के लिए द्विवचनान्त 'नेतारौ' शब्द के स्थान पर  बहुवचनान्त 'नेतार:' शब्द का प्रयोग हुआ है।
* राजयोग वर्णन क्रम में लघु पाराशरी ग्रन्थ में प्राप्त यह श्लोक भी उपरोक्त संबंध में विचारणीय है-
' कर्मलग्नाधिनेतारावन्योन्याश्रयसंस्थितौ।
राजयोगाविति प्रोक्तं विख्यातो विजयी भवेत्।।'
अर्थात् दशमेश और लग्नेश यदि परस्पर स्थान-परिवर्तन कर स्थित हों तो राजयोग का निर्माण होता है और यह जातक को विख्यात और विजयी बनाता है। यहां ध्यातव्य है कि यदि लग्न को केवल केन्द्र स्थान माना जाए तो फिर उपरोक्त श्लोक निरर्थक हो जाएगा। क्योंकि लग्नेश अर्थात् केन्द्रेश और दशमेश अर्थात एक और केन्द्रेश के मध्य का स्थान परिवर्तन संबंध राजयोग का निर्माण करने में समर्थ नहीं हो सकता। उपरोक्त श्लोक के अर्थ की उचित संगति तभी बैठ सकती है जब हम लग्न को त्रिकोण स्थान मानें। तब लग्न अर्थात् त्रिकोण स्थान और दशम अर्थात केन्द्र स्थान के स्वामियों के मध्य का स्थान परिवर्तन संबंध राजयोग का निर्माण करेगा और यही सिद्धान्त महर्षि पराशर को भी अभीष्ट है-
' केन्द्रत्रिकोणनेतारौ दोषयुक्तावपि स्वयम्
सम्बन्धमात्राद्बलिनौ भवेतां योगकारकौ।।'
         अत: उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह प्रमाणित हो जाता है कि त्रिकोण स्थानों की संख्या तीन ही है और त्रिकोण शब्द लग्न भाव, पञ्चम भाव और नवम भाव का वाचक है।

७. मेषादि द्वादश लग्नों में त्रिकोणाधिपति
मेष वृष आदि द्वादश राशियों के आधार पर द्वादश लग्न भी होते हैं। बारह अलग-अलग लग्नों में लग्नेश पञ्चमेश और नवमेश भी भिन्न-भिन्न होते हैं। निम्नलिखित सूची द्वारा मेषादि द्वादश लग्नों के त्रिकोणेशों को स्पष्ट किया जा सकता है -
* मेष लग्न - मेष लग्न के लग्न भाव, पञ्चम भाव और नवम भाव में क्रमशः मेष राशि, सिंह राशि तथा धनु राशि होती है, अतः लग्न भाव में स्थित मेष राशि का स्वामी मंगल, पञ्चम भाव में स्थित सिंह राशि का स्वामी सूर्य तथा नवम भाव में स्थित धनु राशि का स्वामी बृहस्पति मेष लग्न में त्रिकोणेश होंगे। अतः मेष लग्न में मंगल, सूर्य और बृहस्पति त्रिकोणाधिपति होते हैं।
* वृष लग्न - इसी तरह वृष लग्न में शुक्र, बुध और शनि त्रिकोणेश होंगे।
* मिथुन लग्न - मिथुन लग्न में बुध, शुक्र और शनि त्रिकोणेश होते हैं।
* कर्क लग्न - चंद्रमा, मंगल और बृहस्पति कर्क लग्न में त्रिकोण स्थानों के अधिपति होते हैं।
* सिंह लग्न - सिंह लग्न की कुंडली के लग्न भाव में सिंह राशि, पञ्चम भाव में धनु राशि तथा नवम भाव में मेष राशि होती है। अतः इस लग्न में सिंह राशि का स्वामी सूर्य, धनु राशि का स्वामी बृहस्पति तथा मेष राशि का स्वामी मंगल क्रमशः त्रिकोण स्थान के स्वामी होंगे।
* कन्या लग्न - इस लग्न में बुध, शनि और शुक्र त्रिकोणेश होते हैं।
* तुला लग्न - तुला लग्न के त्रिकोणेश शुक्र, शनि तथा बुध होंगे।
* वृश्चिक लग्न - मंगल, बृहस्पति और चंद्रमा इस लग्न में त्रिकोण स्थान के स्वामी होते हैं।
* धनु लग्न - धनु लग्न की कुंडली के लग्न भाव में धनु राशि, पञ्चम भाव में मेष राशि तथा नवम भाव में सिंह राशि होती है अतः बृहस्पति, मंगल और सूर्य इस लग्न में त्रिकोणेश होते हैं।
* मकर लग्न - शनि, शुक्र और बुध इस लग्न में त्रिकोणाधिपति होते हैं।
* कुंभ लग्न - कुंभ, मिथुन और तुला राशि इस लग्न के जन्माङ्ग में लग्न, पंचम और नवम भाव में स्थित होते हैं। अतः त्रिकोणेश शनि बुध और शुक्र होंगे।
* मीन लग्न - मीन लग्न की कुंडली के लग्न, पञ्चम और नवम भाव में क्रमशः मीन, कर्क और वृश्चिक राशियाँ विद्यमान होती हैं, अतः इस लग्न में त्रिकोणेश गुरु, चंद्रमा और मंगल होते हैं।

८. त्रिकोणेशों का शुभत्व
त्रिकोणेशों का शुभत्व प्रतिपादित करते हुए महर्षि पराशर कहते हैं - ' सर्वे त्रिकोणनेतारो ग्रहा: शुभफलप्रदा:।' अर्थात् त्रिकोण स्थानों के अधिपति होने के उपरान्त सूर्यादि सभी ग्रह जातक को शुभ फल देने वाले होते हैं। ज्योतिषशास्त्र की फलित शाखा में सामान्यतया नवग्रहों को शुभ और पाप दो वर्गों में विभाजित किया गया है -
'गुरुबुधशुक्रा: सौम्या: सौरिकुजार्स्तु निगदिता: पापा:।
शशिजोऽशुभसंयुक्त: क्षीणश्च निशाकर: पाप:।।'
अर्थात् गुरु, बुध और शुक्र सौम्य या शुभ ग्रह हैं जबकि शनि, मंगल और सूर्य पाप या क्रूर ग्रह हैं। पाप ग्रहों से युक्त बुध पापी ग्रह माना जाता है, जबकि क्षीण चंद्र भी पाप ग्रह की ही श्रेणी में आते हैं। पूर्ण चंद्र को शुभ ग्रह माना गया है। ज्योतिषशास्त्र के उपरोक्त सामान्य सिद्धान्त के अनुसार शुभ ग्रह नैसर्गिक रूप से शुभ फल देने वाले होते हैं, जबकि पाप ग्रह नैसर्गिक रूप से जातक को पाप फल प्रदान करते हैं। महर्षि पराशर प्रणीत लघुपाराशरी ग्रन्थ इस दृष्टिकोण से नितांत भिन्न है। ज्योतिषशास्त्र के उपरोक्त परिपाटी से पूर्णतया अलग सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए महर्षि का कथन है कि कोई भी ग्रह चाहे वह नैसर्गिक शुभ ग्रह हो अथवा पाप ग्रह यदि वह कुंडली के त्रिकोण भाव अर्थात् लग्न, पञ्चम और नवम भाव में से किसी का भी अधिपति है तो वह जातक को केवल शुभ फल ही प्रदान करेगा। यहां जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि हम शुभ किसे कहें तो इसकी सामान्य परिभाषा है- 'मनोऽनुकूलं शुभम् '
महर्षि ने अपने सिद्धांत को और अधिक पुष्ट करने के लिए श्लोक क्रमांक 12 में भी इस विचार की ओर संकेत किया है। कर्क लग्न की कुंडली का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा है-
'कुजस्य कर्मनेतृत्त्वे प्रयुक्ता शुभकारिता
त्रिकोणस्यापि नेतृत्त्वे न कर्मेशत्त्वमात्रत:।।'
इस उदाहरण में महर्षि ने मंगल के शुभकारी होने का विधान किया है। कर्क लग्न की इस कुंडली में मंगल पञ्चमेश और दशमेश दोनों हैं, अतः जिज्ञासुओं के मन में एक सहज शंका उत्पन्न हो सकती है कि मंगल के शुभ होने का कारण क्या है ? तो इस शंका का निवारण महर्षि ने ही प्रस्तुत किया है, और कहा है कि मंगल की शुभकारिता का कारण उसका त्रिकोणाधिपति होना है न कि उसका केन्द्रेश होना। इसी सिद्धांत के समर्थन में ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में एक अन्य उक्ति प्राप्त होती है -
"लग्नमारोग्यमाख्यातं तस्मात्तदधिप: शुभ:।
नवमो भाग्यभावोऽस्ति बुद्धिभावश्च पंचम:।
तस्माद् तदाधिपत्येन ग्रहा: सर्वे शुभप्रदा:।।"

९. त्रिकोणेशों की शुभकारिता का अपवाद
महर्षि पाराशर ने त्रिकोण स्थान के स्वामियों के शुभत्व को निर्विवाद रूप से स्वीकार तो किया है। परंतु साथ ही साथ उन्होंने कुछ ऐसी परिस्थितियों का भी उल्लेख किया है, जहां ये त्रिकोणेश शुभ फल के स्थान पर पाप फल देने वाले हो जाते हैं अथवा शुभ फल के साथ-साथ जातक को पाप फल भी प्रदान करते हैं। इस संदर्भ में महर्षि पराशर के उक्ति है -     'पतयस्त्रिषडायानां यदि पापफलप्रदा:'
अभिप्राय यह है कि त्रिकोण स्थानों के स्वामी यदि त्रिषडायेश भी हों अर्थात् तृतीय भाव,षष्ठ भाव या एकादश भाव के भी अधिपति हों तो ये त्रिकोणेश ही जातक को पाप फल प्रदान करते हैं। इसी श्लोक का अर्थ करते हुए अन्य टीकाकारों का मत है कि यदि त्रिकोणेश त्रिषडायेश भी हो जाएं तो त्रिकोणाधिपति शुभ फल देने के साथ-साथ जातक को पाप फल भी प्रदान करते हैं। इस सिद्धान्त पर अगर हम गंभीरतापूर्वक विचार करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जो कोई भी ग्रह त्रिकोणेश होगा वह किसी भी परिस्थिति में तृतीयेश या एकादशेश नहीं हो सकता है। त्रिकोणेशों के केवल षष्ठेश होने की संभावना होती है और ऐसी परिस्थिति केवल कर्क, कन्या एवं मकर लग्न में ही संभव हो पाती है। कर्क लग्न में गुरु, कन्या लग्न में शनि एवं मकर लग्न में बुध त्रिकोणेश होने के साथ-साथ षष्ठेश होते हैं। अत: यह कहना अधिक उचित होगा कि यदि त्रिकोणेश, षष्ठेश हो तो वह पापफलद हो जाएगा अथवा शुभ फल देने के साथ-साथ कुछ अशुभ प्रभाव से युक्त फल भी जातक को प्रदान करेगा।

१०.राजयोगों के निर्माण में त्रिकोणेशों की भूमिका
लघुपाराशरी ग्रंथ में वर्णित राजयोगाध्याय में जितने भी राजयोगों का वर्णन है उसमें त्रिकोणेशों की भूमिका सर्वाधिक प्रमुख सिद्ध होती है। राजयोग उत्पन्न करने वाले इन ग्रह योगों पर दृष्टिपात करने से उपरोक्त सिद्धान्त और अधिक स्पष्ट हो जाएगा-
* केन्द्र भाव के अधिपतियों और त्रिकोण भाव के अधिपतियों के मध्य का संबंध विशेष रूप से राजयोग कारक होता है।
* केन्द्र भाव के अधिपति और त्रिकोण भाव के अधिपति यदि दोष युक्त हों तथापि उनके मध्य का संबंध राजयोग देने वाला होता है।
* दशम भाव का अधिपति और तृतीय त्रिकोण अर्थात् नवम भाव का स्वामी यदि व्यत्ययपूर्वक स्थित हों, एक साथ ही स्थित होकर नवम या फिर दशम भाव में स्थित हों या एक साथ होकर अन्य स्थान पर स्थित हों और अन्य देख रहा हो, तब भी जातक को राजयोग की प्राप्ति होती है।
* त्रिकोण स्थान के अधिपतियों के मध्य का कोई भी संबंध (चतुर्विध) राजयोग कारक होता है ।
* त्रिकोणेशों का संबंध यदि सर्वाधिक बली केंद्रेश अर्थात् दशमेश से हो जाए तब भी जातक को राजयोग की प्राप्ति होती है ‌।
* यदि कोई ग्रह त्रिकोणेश और केंद्रेश दोनों हो तो वह भी जातक को राजयोग का फल देता है।
* कर्म स्थान के स्वामी और लग्न स्थान अर्थात् त्रिकोण स्थान के स्वामी यदि व्यत्ययपूर्वक स्थित हों तब भी राजयोग बनता है।
* नवम भाव का अधिपति और दशम भाव का अधिपति अर्थात् प्रथम और तृतीय त्रिकोणेश व्यत्ययपूर्वक स्थित हों तब भी जातक राज्य सुख का भागी होता है।

११. त्रिकोणाधिपतियों का बलाबल निर्णय

 मेषादि द्वादश लग्नों में से प्रत्येक में तीन-तीन की संख्या में त्रिकोणेश होते हैं- लग्नेश, पञ्चमेश और नवमेश। जातकशास्त्र के जिज्ञासुओं के मन में एक शंका उत्पन्न होती है कि इन तीनों त्रिकोणेशों में से कौन सर्वाधिक बली है और कौन कम बली है। यह तो स्पष्ट है कि तीनों ही त्रिकोणेश शुभ फल देने वाले होते हैं। परन्तु सर्वाधिक शुभ फल कौन त्रिकोणेश देगा और अपेक्षाकृत कम शुभ फल किस त्रिकोणेश से प्राप्त होगा, इसका निर्धारण भी आवश्यक है। इस समस्या का समाधान करते हुए महर्षि पराशर की उक्ति है - ' प्रबलाश्चोत्तरोत्तरम् '
अभिप्राय है कि प्रथम त्रिकोण अर्थात् लग्न भाव का अधिपति सबसे कम बलवान होता है, उससे अधिक बलवान पञ्चम भाव का अधिपति होता है जबकि सर्वाधिक बली त्रिकोणेश नवम भाव का अधिपति होगा।

१२. त्रिकोणेशों के शुभत्व की अतिशयता
लघुपाराशरी ग्रंथ में त्रिकोणेशों के शुभत्व की अतिशयता का दिग्दर्शन अष्टमेश के फलादेश के संदर्भ में उपलब्ध होता है। महर्षि पराशर के मतानुसार भाग्य स्थान से व्यय स्थान का अधिपति होने के कारण रन्ध्रेश अर्थात् अष्टमेश शुभ फल देने वाला नहीं होता-
       ' भाग्यव्ययाधिपत्येन रन्ध्रेशो न शुभप्रद: '
परन्तु वही अष्टमेश जब लग्नेश हो जाता है, अर्थात् अष्टमेश लग्नरूपी त्रिकोणेश भी हो जाता है तो उसके पाप फल देने की प्रवृत्ति पूर्णतया परिवर्तित हो जाती है और वही अष्टमेश जातक को शुभ फल देने वाला हो जाता है।
' स एव शुभसंधाता लग्नाधीशोऽपि चेत् स्वयम् '