Saturday 6 October 2018

भद्रा

         
      भारतीय ज्योतिषशास्त्र की प्राचीनता सर्वथा सिद्ध है। वैदिक संहिताओं के प्राचीनतम अंशों में ज्योतिषशास्त्र के प्रमुख सिद्धान्तों का बीज रूप में उपलब्ध होना इसी तथ्य को और अधिक पुष्ट करता है। ऋग्वेद का विश्वामित्र-नदी संवाद सूक्त इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है। इस सूक्त के मन्त्र में ज्योतिषशास्त्र के प्रमुख अवयव ‘मुहूर्त्त’ का स्पष्टतः उल्लेख है। ज्योतिषशास्त्र के वेदाङ्गत्व को पुष्ट करने की परम्परा में महर्षि लगध प्रणीत ‘वेदाङ्ग ज्योतिष’ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के कई स्थानों पर काल की विभिन्न इकाईयों का वर्णन किया गया है। काल के इस अनन्त प्रवाह में ज्योतिषशास्त्र ने जनसामान्य के कल्याण की दिशा में सदैव योगदान दिया है। प्राचीन ऋषि-महर्षियों के साथ-साथ विद्वान् दैवज्ञों ने इस कालविधान-शास्त्र को अपनी मेधा शक्ति से पुष्पित और पल्लवित किया है। प्राचीनकाल में ज्योतिषशास्त्र दैनिक जीवन का अङ्ग था और इसके बिना यज्ञादि प्रमुख कार्यों की कल्पना भी नहीं की जा सकतीं थी, अतः छात्राें को अपने ब्रह्मचारी जीवन में ज्योतिषशास्त्र का अधययन करना अनिवार्य कर दिया गया था। परन्तु कालान्तर में ज्योतिषशास्त्र के पठन-पाठन में शिथिलता आ गई, गणित पर आधारित शास्त्र होने के कारण यह अत्यन्त श्रमसाध्य विषय था, अतः छात्राें के मन में इसके प्रति उपेक्षा का भाव जाग्रत हुआ। यह कालविधानशास्त्र अब जनसामान्य के व्यवहार में नहीं रह गया और यह विद्या समाज के कुछ विशेष वर्गों तक ही सीमित रह गई।  
ज्योतिषशास्त्र के अपेक्षाकृत नवीन ग्रन्थों में इस सन्दर्भ में कई उल्लेख मिलते हैं, जिसमें इस ज्ञान के अधिकारियों का वर्णन किया गया है। यही कारण है कि ज्योतिषशास्त्र जैसा सरल और लोकोपयोगी विषय शीघ्र ही अत्यन्त गुप्त विद्या के रूप में स्थापित हो गया। ज्योतिषशास्त्र के कई विषय, सिद्धान्त, योगों तथा विशिष्ट संज्ञाओं का अर्थ लगा पाना भी दुरुह हो गया। 

    यही प्रवृत्ति वर्त्तमान सन्दर्भ में भी दृष्टिगत होती है। कालसर्पयोग, शनि की साढे साती-ढैय्या, राहु-केतु के अशुभ प्रभाव, भद्रा, विषकन्या योग, माङ्गलिक योगादि की अत्यन्त विकृत और भयोत्पादक स्वरूप को जनसामान्य के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है। इसी सन्दर्भ में ज्योतिषशास्त्र के जिज्ञासुओं के समक्ष एक संज्ञा उपस्थित होती है- ‘भद्रा’। यद्यपि यह संज्ञा श्रवणगोचर होते ही शुभद प्रतीत होती है, परन्तु इसके अशुभ प्रभावों को ही अधिक महत्त्व दिया गया है। अतः ‘भद्रा’ के स्वरूप को ज्योतिषशास्त्र के सिद्धान्तों के आधाार पर प्रस्तुत करना ही उचित होगा। लोक व्यवहार में ‘भद्र’ शब्द ‘सज्जन’ अर्थ में प्रयुक्त होता है अर्थात् ‘भद्र पुरुष’ शब्द का अर्थ हुआ सज्जन पुरुष। अथर्ववेद, ऐतरेय ब्राह्मण, तैत्तिरीय संहिता व शतपथ ब्राह्मण आदि अनेक वैदिक ग्रन्थों में ‘भद्र’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद के इन्द्र सूक्त में भी भद्र प्राप्ति की प्रार्थना की गई है,जबकि उषस् सूक्तों में भद्र वस्त्रों का वर्णन मिलता है। कोश ग्रन्थों में भी ‘भद्र’ शब्द का अर्थ “भला, शुभ, भाग्यवान, कृपालु, प्रिय, सुन्दर, कल्याणप्रद” आदि किया गया है। स्पष्ट है कि ‘भद्र’ शब्द शुभ फ़ल व शुभ अर्थ के रूप में रूढ़ हो गया है। परन्तु जब सहृदय पाठक संस्कृत के ‘भद्र’ शब्द का अर्थ जान लेने के बाद ज्योतिषशास्त्रीय मुहूर्त्त ग्रन्थों में वर्णित ‘भद्रा’ शब्द पर दृष्टिपात करता है और उससे संबंधित शुभाशुभत्व का अधययन करता है तो उसके मन में एक सहज जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती है कि शुभ व सज्जन अर्थ के सूचक ‘भद्र’ शब्द से पर्याप्त साम्य रखने के बाद भी ‘भद्रा’ शब्द अशुभ सूचक, अशुभ फ़लोत्पादक व अशुभ कैसे और क्यों है? इस जिज्ञासा का समाधान प्राप्त करने के लिए हमें सर्वप्रथम मुहूर्त्तशास्त्र व पौराणिक साहित्य में वर्णित ‘भद्रा’ के स्वरूप को समझना अनिवार्य हो जाता है। ‘भद्रा’ शब्द का प्रयोग ज्योतिषशास्त्र में मुख्यतः दो प्रसङ्गों में प्राप्त होता है- 1. तिथि के प्रसङ्ग में तथा
2.करण के सन्दर्भ में।
      पंचाङ्ग इस वेदाङ्ग का प्रमुख आधार है। पंचाङ्ग में- तिथि, वार, योग, नक्षत्र तथा करण की गणना की जाती है। शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष दोनों की पन्द्रह-पन्द्रह तिथियों की विशेष संज्ञाएँ कही गई हैं- नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा। ज्योतिषशास्त्रीय संहिता ग्रन्थों के अनुसार
प्रथमा- षष्ठी-एकादशी, ‘नन्दा’ संज्ञक, द्वितीया-सप्तमी तथा द्वादशी ‘भद्रा’ संज्ञक, तृतीया-अष्टमी तथा  त्रयोदशी जया संज्ञक, चतुर्थी-नवमी तथा चतुर्दशी ‘रिक्ता’ संज्ञक जबकि पंचमी-दशमी, पूर्णिमा तथा अमावस्या ‘पूर्णा’ संज्ञक हैं। इन विशिष्ट तिथियों के विशेष सन्दर्भ में विहित तथा निषिद्ध कार्यों पर भी इन संहिता ग्रन्थों में पर्याप्त चर्चा उपलब्ध होती है। ‘भद्रा’ संज्ञक तिथियों के विशेष सन्दर्भ में कहा गया है कि ‘राजा के सप्ताङ्ग चिह्न अर्थात् राजा, अमात्य, दण्ड, मित्र, दुर्ग, कोष तथा गुप्तचर विषयक कार्य, वस्तु, व्रतबन्ध, प्रतिष्ठा, सम्पूर्ण मङ्गल कार्य, यात्रा, विवाह, सम्पूर्ण भूषण-आभूषण, समस्त शुभ कार्य किए जा सकते हैं।’ ‘भद्रा’ तिथियों पर विहित कार्यों पर विचार करने के प्रसङ्ग में वशिष्ठ संहिता के उपरोक्त सिद्धान्त का परवर्त्ती ग्रन्थकारों तथा आचार्यों ने भी समर्थन किया है। ‘भद्रा’ तिथि विषयक यह सिद्धान्त स्पष्टतया प्रमाणित करता है कि तिथियों के प्रसङ्ग में प्रयुक्त ‘भद्रा’ शब्द अशुभत्व का सूचक नहीं है अथवा अशुभ प्रभाव उत्पन्न करने वाला नहीं है।
अब जिज्ञासा के दूसरे बिन्दु अर्थात् करण के प्रसङ्ग में प्रयुक्त ‘भद्रा’ संज्ञा पर विचार करना आवश्यक है। पंचाङ्ग के एक अवयव के रूप में करण की भी गणना की गई है और कहा गया है- “तिथ्यर्द्धं करणम्” अर्थात् तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं। बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि संज्ञक चर तथा शकुनि, चतुष्पद, नाग और किंस्तुघ्न संज्ञक स्थिर करण होते हैं। इन ग्यारह करणों में से कुछ शुभ तथा कुछ अशुभ प्रकृति के माने गए हैं। ‘नारद संहिता’ इस विषय में स्पष्ट रूप से कहता है कि “बव से लेकर वणिज् तक अर्थात् बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर और वणिज ये करण शुभ होते हैं तथा अंतिम के करण अर्थात् विष्टि, शकुनि, चतुष्पद, नाग और किंस्तुघ्न से पाँच अशुभ प्रवृत्ति के हैं तथा इनमें से भी विष्टि मंगल कार्य के लिए सर्वथा निषि) है।” प्रत्येक मास के कुल आठ तिथ्यर्धों में ही भद्रा करण का वास होता है। शुक्ल पक्ष की अष्टमी तथा पूर्णिमा तिथि का पूर्वार्द्ध, चतुर्थी व एकादशी तिथि का उत्तरार्द्ध, कृष्ण पक्ष की तृतीय तथा दशमी तिथि का उत्तरार्द्ध तथा सप्तमी व चतुर्दशी तिथि के पूर्वार्ध में भद्रा का वास माना गया है।
        एकादश करणों में परिगणित ‘विष्टि’ करण की ही एक अन्य संज्ञा ‘भद्रा’ भी है।इन आठ तिथियों में रहने वाली भद्रा का पृथक् नामकरण किया गया है और ये क्रमशः कराली, नन्दिनी, रौद्री, सुमुखी, दुर्मुखी, त्रिशिरा, वैष्णवी तथा हंसी संज्ञा से जानी जाती हैं। तिथि के पूर्वार्द्ध में जो भद्रा होती है उसे दिवा भद्रा कहा गया है, जबकि तिथि के उत्तरार्द्ध में भद्रा हो तो वह रात्रि-भद्रा कही जाती है। दिवा भद्रा दिन में तथा रात्रि-भद्रा रात्रि में हो तो ‘क्रमागत’ कही जाएगी, जबकि दिवा भद्रा दिन में तथा रात्रि भद्रा दिन में होने पर ‘अक्रमागत’ कही जाती है। इसी तरह पक्ष के आधार पर भी ‘भद्रा’ का विशेष नामकरण किया गया है, शुक्ल पक्ष की तिथियों वाली भद्रा ‘सर्पिणी’ तथा कृष्ण पक्ष की भद्रा ‘वृश्चिकी’ संज्ञा से जानी जाती है। सम्पूर्ण भद्रा काल को उसके अङ्गों यथा- मुख, कण्ठ, हृदय, नाभि, कटि प्रदेश तथा पुच्छ में विभाजित करने का विधान है। सम्पूर्ण भद्रा काल का षष्ठांश उसका मुख, तीसवाँ भाग कण्ठ, तृतीयांश  हृदय, षष्ठांश नाभि, पंचमांश कटिप्रदेश तथा शेष घट्यात्मक काल भद्रा की पुच्छ होती है। अर्थात् यदि भद्रा का मध्यम मान 30 घटी स्वीकृत करें तो इसका षष्ठांश अर्थात् 5 घटी भद्रा का मुख कहा जाएगा, 1 घटी कण्ठ, 10 घटी हृदय, 5 घटी नाभि, 6 घटी कटि तथा शेष 3 घटी भद्रा का पुच्छ माना जाएगा। भद्रा काल में चन्द्रमा जिस राशि में हो उसके आधार पर भद्रा की स्थिति, पाताल, भूमि या स्वर्ग में कही गई है। यदि भद्रा काल में मीन, धनु, कन्या एवं तुला में चन्द्रमा हो तो उस समय भद्रा को पाताल में माना गया है। वृश्चिक, वृष, मिथुन एवं सिंह राशिगत होने पर भद्रा भूलोक में तथा शेष राशि अर्थात् मेष, कर्क, मकर व कुम्भस्थ चन्द्रमा होने पर भद्रा की स्थिति स्वर्ग में कही जाती है। वार के आधार पर महर्षि भृगु ने भद्रा का नामकरण किया है- सोमवार व शुक्रवार की भद्रा ‘कल्याणी’, शनिवार की भद्रा ‘वृश्चिकी’, गुरुवार की भद्रा ‘पुण्यवती’ तथा इनके अतिरिक्ति वारों अर्थात् रविवार, मंगलवार व बुधवार की ‘भद्रा’, ‘भद्रिका’ संज्ञक होती है। करणों के स्वामियों की चर्चा भी ज्योषशास्त्रीय ग्रन्थों में मिलती है, ‘विष्टि’ या भद्रा करण का स्वामी यम को माना गया है।
    इसी प्रकार चतुर्थी आदि तिथियों में भद्रामुख क्रम से वरुण, अग्नि, कुबेर, राक्षस, रुद्र, यम, वायु व इन्द्र की दिशाओं में होता है। अभिप्राय है कि चतुर्थी तिथि में भद्रा का मुख पश्चिम दिशा में, अष्टमी तिथि को आग्नेय कोण में, एकादशी तिथि को उत्तर दिशा में, पूर्णिमा को नैऋत्य दिशा में, तृतीया तिथि को ईशान कोण में, सप्तमी तिथि को दक्षिण दिशा में, दशमी तिथि को वायव्य कोण में, तथा चतुर्दशी तिथि को भद्रा मुख पूर्व दिशा में होता है। भद्रा स्वरूप अर्थात् भद्रा की उत्पत्ति तथा उनके शारीरिक स्वरूप के सन्दर्भ में मुहूर्त्तशास्त्र के ग्रन्थों में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध होती है। 
ब्रह्मपुराण आदि पौराणिक ग्रन्थों में अनेक कथाएँ प्राप्त होती हैं, जिनमें भद्रा को छाया व मार्तण्ड की पुत्री विष्टि कहा गया है। भद्रा के विकृत व भयानक स्वरूप का होने के कारण उसका विवाह त्वष्टा पुत्र विश्वरूप से हुआ तथा इसके ही कनिष्ठ पुत्र हर्षण ने बाद में नारायण की अराधना द्वारा अपने माता-पिता के लिए भद्रता प्राप्त की थी। यहाँ धयातव्य है कि ‘भद्रा’ के समान विश्वरूप का स्वरूप भी अत्यन्त भयङ्कर था। शास्त्रों के अनुसार मूल नक्षत्र, शूलयोग, रविवार, दशमी तिथि, फ़ाल्गुन मास तथा कृष्ण पक्ष को भद्रा का प्रादुर्भाव हुआ। ‘वशिष्ठ संहिता’ में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “भगवान शिव के मस्तक के नेत्र अर्थात् तृतीय नेत्र के अग्नि की ज्वाला समूह से भद्रा की उत्पत्ति हुई थी।” पौराणिक मान्यता के अनुसार एक बार देवासुर संग्राम में देवताओं की पराजय निश्चित होता हुआ जानकर देवाधिदेव महादेव को भयङ्कर क्रोध उत्पन्न हुआ और उनकी दृष्टि उनके हृदय पर पड़ जाने से एक शक्ति उत्पन्न हुई, जिसका मुख गदहे के समान था, सात भुजाओं से युक्त, धूम्र वर्ण की कान्ति से युक्त, सिंह के सदृश गर्दन वाली, बड़ी उग्र विकट मुखवाली, बड़ी भयङ्कर दाढों से युक्त, अग्नि की शिखा से व्याप्त, कृश उदर प्रदेश वाली, तीन पैरों वाली, आँखें कौड़ी के समान, बादलों की तरह घोष वाली, शववस्त्र (कफ़न)धारण करने वाली, प्रेतारूढा तथा पुच्छ से युक्त थी और जिसने उस भीषण संग्राम में दैत्यों का संहार किया था। उसके बाद भगवान शिव की आज्ञा से देवताओं ने इसे अपने कानों के समीप स्थापित किया तथा इसकी गणना करणों में की जाने लगी। आचार्य चण्डेश्वर का मत है कि यह भद्रा काल के समान रंग वाली लम्बी नाक व दाढ से युक्त, पुष्ट हनु अर्थात् ठोढी वाली, मोटी जङ्घाओं वाली तथा चारों ओर से सहस्र अग्नि ज्वालाओं से युक्त होकर भूमध्य में कार्यनाश के लिए पतित होती है। स्पष्ट है कि पौराणिक ग्रन्थों व मुहूर्त्तशास्त्र के ग्रन्थों में वर्णित भद्रा का यह अत्यन्त भयानक व विकट स्वरूप सामान्य जन के मन-मस्तिष्क में भद्रा के प्रति सहज ही भय उत्पन्न कर देता है। इसके अतिरिक्त मुहूर्त्त ग्रन्थों के अनुसार भद्रा काल में शुभ कार्यों को करना निषिद्ध माना गया है, साथ ही साथ इस काल में किए गए कार्यों का निश्चित ही नष्ट हो जाना भी बताया गया है- ‘विष्टिर्नेष्टा तु मङ्गले ’
     ‘वशिष्ठ संहिता’ इस सन्दर्भ में स्पष्ट रूप से कहता है कि यदि व्यक्ति जीवन की इच्छा रखता हो तो कभी भी विष्टि अर्थात् भद्रा नामक करण में माङ्गलिक कार्य नहीं करने चाहिए। यदि अज्ञानवश इस करण में कोई व्यक्ति शुभ कार्य का सम्पादन करता है तो वह शीघ्र ही सम्पूर्ण रूप से नाश को प्राप्त हो जाता है। भगवान शङ्कर के तृतीय नेत्र की अग्नि की ज्वाला समूहों से उत्पन्न यह भद्रा पृथ्वी पर समस्त माङ्गलिक कार्यों को दग्ध कर देती है। इसलिए अनुकूल या विपरीत समस्त माङ्गलिक कार्यों में इस विष्टि या भद्रा नामक करण का त्याग अवश्य ही कर देना चाहिए। इसके महात्म्य को न जानते हुए भी भद्रा करण में यदि माङ्गलिक कार्य सम्पादित किए जाएँ तो निश्चित ही उस व्यक्ति के वंश का क्षय करते हुए उसके समस्त माङ्गलिक कार्य नष्ट हो जाते हैं। इसलिए भद्रा या विष्टि करण में शुभ कर्मों को मन से भी नहीं सम्पन्न करना चाहिए- “तस्मात्तत्र शुभं कर्म मनसापि न कारयेत।” भद्रा करण में माङ्गलिक कार्यों का निषेध करने के क्रम में वशिष्ठ पुनः कहते हैं कि भद्रा के मुख में कार्य करने पर कार्य का नाश, कण्ठ में कार्य करने पर मृत्यु, वक्षस्थल में कार्य करने पर धन की हानि, भद्रा के नाभि में कार्य करने पर विघ्न तथा कटि में माङ्गलिक कार्य सम्पादित करने से बुद्धि का नाश होता है। इसी तरह महर्षि नारद का कथन प्राप्त होता है कि भद्रा के मुख की घडि़यों में माङ्गलिक कार्य आरम्भ करने से कार्य की हानि होती है, गले की घडि़यों में कार्य करने से मृत्यु, वक्षस्थल की घडि़यों में कार्यारम्भ से दरिद्रता, कटि पर कार्य करने से भ्रमण तथा नाभि की घडि़यों पर कार्य करने पर हानि प्राप्त होती है।
     ज्योतिर्विदाभरण ग्रन्थ में कालिदास की उक्ति प्राप्त होती है कि भगवान शिव के प्रसाद से वह ‘भद्रा’ विष्टि काल में किए गए मंगल कार्यों की सिद्धि को अपनी अग्नितुल्य जिह्वा से खाती है, अतः अपना हित चाहने वाले व्यक्ति को भद्रा अर्थात् विष्टिकाल में विवाहादि शुभकार्य नहीं करना चाहिए। इनका भी मत है कि भद्रामुख में किया गया कार्य विनष्ट हो जाता है, गले में करने से लय अर्थात् मृत्यु, हृदय में कार्यारम्भ करना कार्य की हानि करने वाला, नाभि में किया गया माङ्गलिक कार्य कलह कारक तथा कटि में कार्यारम्भ करने से शीघ्र की बुद्धि का विनाश हो जाता है। कालिदास ने प्राचीन ऋषियों का मत उद्धृत करते हुए कहा है- “भद्राननं भीतिवहं निरुक्तं कृत्योद्यमानामृषिभिः क्रमेण”अर्थात् भद्रामुख में किया गया कार्य भय उत्पन्न करने वाला होता है। मुहूर्त्तशास्त्र के उपरोक्त ग्रन्थों के अनुसार भद्रा काल में शुभ कार्यों को करना अनिष्ट फ़लोत्पादक माना गया है। लोकव्यवहार में भद्रा काल अर्थात् विष्टि करण के इन अशुभ प्रभावों का ही अत्यधिक प्रचार-प्रसार हुआ है तथा प्रचलन में अर्थात् लोक व्यवहार में भी भद्रा के इन्हीं अशुभ प्रभावों को अधिक महत्त्व दिया जाता है। जबकि इन्हीं मुहूर्त्तशास्त्र के ग्रन्थों में विष्टि करण की शुभता के विषय में भी पर्याप्त उल्लेख मिलता है। ‘शुद्धिदीपिका’ में कहा गया है कि विष्टिकरण अर्थात् भद्रा युद्धादि कार्यों तथा विषप्रदान में श्रेष्ठ होता है जबकि विष्टि भद्रा की पुच्छ अर्थात् शेष तीन दण्ड का समय समस्त कार्यों के लिए शुभ होता है। महर्षि नारद ने भी कहा है- “पुच्छे धा्रुवो जयः” अर्थात् भद्रा पुच्छ में किया जाने वाला कार्य विजय प्रदान करता है अर्थात् अवश्य सिद्ध होता है। कन्या, तुला, मकर व धनु राशियों में चन्द्रमा के रहने पर भद्रा की स्थिति पाताल लोक में, मेष, वृष, मिथुन व वृश्चिक के चन्द्रमा होने पर स्वर्गलोक तथा कुम्भ, मीन, कर्क व सिंह के चन्द्रमा होने पर भद्रा भूलोकस्थ होती है तथा जब भद्रा भूलोकस्थ हो तो सर्वथा वर्जित है और अन्य लोक में हो तो शुभ प्रद है। स्पष्ट है कि चन्द्रमा के कन्या, तुला, मकर, धनु, मेष, वृष, मिथुन व वृश्चिक राशि में स्थित होने पर भद्रा शुभदायक होती है।
    इसी तरह, विषविषयक कार्य, बन्धन, वध, आयुधादि विषयक कार्यों सहित, भैंस, ऊँट, अश्व के पालन और इनसे जुड़े कार्यों में भी भद्रा को ग्राह्य माना गया है। आचार्य वशिष्ठ का भी मत है- “जयः संयति पुच्छ भागे”। ज्योतिषसार के अनुसार पाताल लोक में स्थित भद्रा सुख प्रदान करने वाली होती है, जबकि स्वर्गलोक में स्थित भद्रा धन प्रदान करती है। ब्रह्मयामल के अनुसार “यदि दिनवाली भद्रा रात्रि में हो तथा रात्रिवाली भद्रा दिन में हो तो भद्रा का दोष नहीं होता, अपितु यह भद्रा कल्याण करने वाली होती है, इसी मत का समर्थन ‘मुहूर्त्त चिंतामणि’ में भी किया गया है। युद्ध, राजदर्शन, भय, स्थान, घात, पात, हठ, चिकित्सक का आगमन, जलतरण, शत्रु भगाना, संघट्ट, रोग निवारण, हाथी-घोड़ा, ऊँट-हिरण आदि का संग्रह, स्त्री सेवा, ऋतुमज्जन, शकट सम्बन्धी कार्य, विवाद, शत्रुहनन, ईख आदि से सम्बन्धित कार्यों के सम्पादन में भी भद्रा काल को श्रेष्ठ माना गया है। मुहूर्त्तगणपति के अनुसार गदहा व घोड़े की उत्पत्ति, दुर्गा पूजा, दान, दाह और घातादि कार्यों के लिए भद्रा श्रेष्ठ मानी गई है। कालिदास का इसी सन्दर्भ में कथन है कि हरितालिका पूजन विधि में, उत्सर्ग विधि में, जातकर्म, विनिमय में, शिवपार्वती के पूजन में, श्रावणी कर्म में, होलिका, जलाशय की पूजा में, पाक क्रिया में, यज्ञकार्य में, यज्ञकार्यों के आरम्भ में, इष्टपूजन में तथा राजा को कोई वस्तु प्रदान करने में भद्रा सदैव फ़लदायिनी होती है। भद्रा काल में विहित कार्यों को प्रस्तुत करने के बाद ‘ज्योतिर्विदाभरण’ ग्रन्थ में स्पष्ट कहा गया है कि कार्य करने से पूर्व शिव की अराधना करने से वही भद्रा मनुष्यों के कार्यों को सफ़ल कराती है- “नृणां सफ़लयत्यर्थं सा वा भर्गसपर्यया”। मुहूर्त्तशास्त्र के उपरोक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘विष्टि’ संज्ञक करण का ही दूसरा नाम ‘भद्रा’ है। असुरों के विनाश तथा देवताओं के कल्याण व प्रसन्नार्थ ‘भद्रा’ की उत्पत्ति हुई थी। यद्यपि उत्पत्ति के समय ‘भद्रा’ ने अपने नाम के अनुकूल ही देवताओं के कल्याण हेतु स्वयं को प्रस्तुत किया तथा असुरों के पराजय व विनाश के रूप में देवताओं को उनका इष्ट फ़ल प्रदान किया तथापि पौराणिक आख्यान के अनुसार ‘भद्रा’ की उत्पत्ति भगवान शिव के तृतीय नेत्र के अग्नि की भयङ्कर ज्वालाओं से हुआ तथा स्वयं ‘भद्रा’ का स्वरूप भी अत्यन्त भयानक है। परन्तु भगवान शिव की आज्ञा से देवताओं ने इन्हें अपने कर्ण पर स्थापित किया तथा इसे ‘करण’ के रूप में परिगणित किया जाने लगा। यद्यपि भगवान शङ्कर की आज्ञा से ‘भद्रा’ भूमण्डल में स्थित होने पर समस्त माङ्गलिक कार्यों का अपने दग्धा जिह्वा से भक्षण करती हैं, तथापि सम्पूर्ण भद्रा काल अशुभ नहीं होता है, भद्रा पुच्छ की घडि़याँ शुभ फ़लोत्पादक तथा शुभ कार्यों के लिए प्रशस्त मानी गई हैं। इसके अतिरिक्त कई अन्य ऐसी परिस्थितियों को भी इन्हीं मुहूर्त्तशास्त्रीय ग्रन्थों में प्रस्तुत किया गया है जिनमें भद्रा शुभ फ़लद होती है। साथ ही साथ मानव जीवन के अनेक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए भी भद्रा काल को प्रशस्त माना गया है। अतः सम्पूर्ण विष्टि करण या भद्रा काल को अशुभ नहीं कहा जा सकता अपितु इसमें भी शुभ व माङ्गलिक कार्यों का सम्पादन किया जा सकता है। साथ ही शास्त्रविहित युद्धादि अनेक क्रूर कर्मों के लिए भी भद्रा काल का चयन किया जा सकता है। अतः ‘भद्र’ शब्द में निहित अर्थ तथा मुहूर्त्तशास्त्र में वर्णित ‘भद्रा’ करण की प्रकृति में पर्याप्त भिन्नता सिद्ध होती है।
                 

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