Sunday 30 September 2018

राहु - केतु और फलित ज्योतिष


भारतीय फलित ज्योतिषशास्त्र के मूल आधार नवग्रह ही हैं। इन्हीं नवग्रहों के शुभाशुभ स्थिति के आधार पर ही फलादेश की परम्परा रही है। नवग्रहों में सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु की गणना की जाती है।1 राहु तथा केतु शेष अन्य ग्रहों से किञ्चित भिन्न ग्रह हैं। इन दोनों ग्रहों का कोई भौतिक स्वरूप नहीं होता है। यही कारण है कि ये ग्रह, छाया ग्रह के रूप में प्रतिष्ठित हैं। यद्यपि राहु तथा केतु दृष्टिगोचर नहीं होते तथापि भारतीय फलित ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में इन दोनों को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। विंशोत्तरी दशा विचार क्रम में मनुष्य की आयु 120 वर्ष मानी गई है। राहु (18 वर्ष) तथा केतु (7 वर्ष) दोनों मिलकर मनुष्य के जीवन के 25 वर्ष पर अपना प्रभाव रखते हैं।
राहु तथा केतु संबंधी फलादेश की प्रक्रिया में इन ग्रहों की प्रकृति तथा व्यवहार को विशेष रूप से ध्यान में रखा जाता है। इन ग्रहों से विचारणीय विषय, कारकत्व, उच्च-नीच-मूलत्रिकोणादि राशियाँ, दृष्टिविचार, मारकत्व, योगकारकत्व आदि तथ्यों का ज्ञान सटीक फलादेश हेतु अत्यन्त अनिवार्य होता है। अतः राहु तथा केतु संबंधी फलादेश प्रक्रिया में भी इन समस्त तथ्यों का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है। राहु तथा केतु की गणना पापग्रहों के रूप में की जाती है।
राहु का कारकत्व
इस विषय में कालिदास की रचना उत्तरकालामृतम् अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। छत्र, चँवर, राज्य, संग्रह, कुतर्क, मर्मछेदी वाक्य, अन्त्यज, पाप, स्त्री, चारों ओर से सुसज्जित यान, अधार्मिक मनुष्य, जुआ, संध्या समय बली, दुष्ट स्त्री गमन, अन्य देश गमन, गन्दगी, हड्डी, प्लीहा का बढ़ जाना, झूठ, अधोदृष्टि, भ्रम, जादू आदि, गरूड़, दक्षिणाभिमुख, म्लेच्छादि तथा अन्य नीच जनों का आश्रय, सूजन, महान वन, विषम स्थानों में भ्रमण, पर्वत, पीड़ा, बाहर का स्थान, दक्षिण पश्चिम दिशा, प्रिय, वात कफ से क्लेश, सर्प, रात्रि की हवाएँ, तीक्ष्णता, दीर्घ रेंगने वाले साँप, सकल गुप्त वस्तुएँ, मृत्यु का समय, वृद्ध, वाहन, नागलोक (साँपों की जगह), माता, पिता अथवा नाना, वायु का तेज दर्द, खाँसी, श्वास की बीमारी, महान प्रताप, वन, दुर्गापूजा, दुष्टता, पशुओं से मैथुन, दाँई ओर से लिखी जाने वाली भाषा (उर्दू आदि) कठोर भाषण आदि विषयों पर राहु का सीधा प्रभाव रहता है।
केतु का कारकत्व
केतु जिन विषयों को प्रभावित करता है उनमें चण्डीश्वर, गणेशादि देवताओं की उपासना, डॉक्टर, कुत्ता, मुर्गा, गिद्ध, मोक्ष, हरेक प्रकार का ऐश्वर्य, क्षयरोग, पीड़ा, ज्वर, गंगा स्नान, महान तप, वायु-विकार, स्नेह, सम्पदा का प्रदान, पत्थर, घाव, मन्त्रशास्त्र, चंचलता, ब्रह्मज्ञान, कुक्षि, अज्ञानता, काँटा, मृग, आत्मज्ञान, मौनव्रत, वेदान्त, सब-प्रकार की भोग-सामग्री, भाग्य, शत्रुओं से पीड़ा, थोड़ा खानेवाला, संसार से विरक्त, दादा, भूख, पेट में तीव्र पीड़ा, फोड़े-फुंसी, सींगों वाले पशु, शिव के दास, बन्धन की आज्ञा का रोकना, शूद्रसभा तथा ध्वजादि प्रमुख हैं।
राहु केतु की उच्चादि राशियाँ
इस विषय में कहा गया है -
'तुङ्गतद्वृषभश्च वृश्चिक इति स्याद्राहुकेत्वोर्गृहौ
कुम्भोऽलीमिथुनाङ्गने तु भवतो मूलत्रिकोणाभिधे।
सिंहः कर्कटको द्वयो रिपुगृहौ तौली मृगो मित्रभे,
ऽजोदेवेज्यगृहे समेऽखिलबलं तुङ्गादिगौ तौ यदि।।'
      अर्थात् राहु तथा केतु वृषभ तथा वृश्चिक राशि में क्रमशः उच्च होते हैं। उनकी स्वक्षेत्र राशियाँ क्रमशः कुम्भ तथा वृश्चिक हैं। मूल त्रिकोण राशियाँ क्रमशः मिथुन तथा कन्या हैं। सिंह तथा कर्क उनके लिए क्रमशः शत्रु राशियाँ हैं। तुला तथा मकर राशि इन दोनों छाया ग्रहों की क्रमशः मित्र राशियाँ हैं। मेष तथा गुरु की दोनों राशियाँ अर्थात् धनु तथा मीन इनकी तटस्थ राशियाँ हैं। जब ये छाया ग्रह उच्च हों तो अतीव बलवान होते हैं। अन्य स्थानों में इनका बल स्थान की शुभता अथवा अशुभता के अनुरूप होता है।
राहु केतु की दृष्टियाँ
राहु तथा केतु की दृष्टि पर विद्वानों में प्रबल मतभेद हैं। कुछ विद्वान कहते हैं -
'सुते सप्तमे पूर्णदृष्टि तमस्य तृतीये रिपौ पाददृष्टिर्नितान्तम्।
धने राज्यगेहेऽर्धदृष्टिं वदन्ति स्वगेहे त्रिपादं भवे चैव केतोः।।
अर्थात् पञ्चम-सप्तम स्थानों पर राहु की पूर्ण दृष्टि होती है। तीसरे तथा छठे स्थान पर एक चरण दृष्टि होती है। द्वितीय तथा दशम स्थान में आधी दृष्टि होती है। जबकि अपने घर में त्रिपाद दृष्टि होती है। ठीक यही दृष्टि केतु की भी होती है। कुछ ग्रन्थों में कहा गया है कि 5, 7, 9 तथा 12 भावों पर राहु की पूर्ण दृष्टि होती है। 12 तथा 10वें स्थान पर त्रिपाद, 3, 6, 4, 8 स्थानों पर अर्ध दृष्टि तथा अपने स्थान पर तथा 11वें स्थान पर राहु की दृष्टि नहीं होती है -
'सुतमदनवान्त्ये पूर्णदृष्टिः सुरारेर्युगलदशमराशौ दृष्टिमात्रत्रयार्हः।
सहजरिपुचतुर्थेष्वष्टमे चार्धदृष्टिः स्थितिभवनमुपान्त्यं नैवदृश्यं हि राहोः।।'
जबकि केतु को दृष्टिहीन ग्रह कहा गया है - केतुर्दृष्टिहीनोऽन्धः
राहु केतु का फलदातृत्व
राहु तथा केतु को छाया ग्रह कहा गया है। ये दोनों ग्रह अपना शुभाशुभ फल अन्य ग्रहों के प्रभाव में आकर देते हैं। महर्षि पराशर कहते हैं -

'यद्यदभावगतौ वापि यद्यदभावेशसंयुतौ।
तत्तफलानि प्रबलौ प्रदेशितां तमोग्रहौ।'
अर्थात् ये छाया ग्रह जिस भाव में स्थित हों अथवा जिन भावाधिपतियों से संयुक्त हों, उनसे सम्बन्धित फल को और अधिक बढ़ाकर जातक को प्रदान करते हैं। सामान्यतया राहु तथा केतु अशुभ ग्रह माने गए हैं। ये ग्रह अपनी दशान्तर्दशा में अपने नैसर्गिक गुण के आधार पर फल प्रदान करते हैं। राहु दीर्घ शरीर, नीला रंग, म्लेच्छ जाति, शरीर में खुजली तथा चर्म रोग वाला, अधार्मिक, पाखण्डमति, झूठा, कपटी, कोढ़ी, बुद्धिहीन तथा दूसरों की निन्दा करने वाला है। केतु का स्वभाव, लाल आँखें, उग्र स्वभाव, वाणी में विष, ऊँचा शरीर, शस्त्रयुक्त, धूम्रवर्ण, धूम्रपान करने वाला, घावों के निशान से युक्त, कृश शरीर, क्रूर तथा अत्याचार करने वाला है। इन लक्षणों को ध्यान में रखने से फलादेश में काफी तीक्ष्णता आती है। माना कि यदि जातक की जन्मपत्रिका के द्वितीय भाव में केतु हो तो वह कठोर वचन बोलनेवाला होगा। लग्न में राहु आ जाए तो जातक अधार्मिक, पाखण्डी आदि गुणों से युक्त हो जाए।
इन ग्रहों से सम्बन्धित फलादेश क्रम में इनके बली होने पर शुभ फलों की अधिकता आ जाती है। राहु वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मेष तथा कुंभ राशि और दशम स्थान में बली होता है। रात्रिकाल, धनु, वृष, मीन तथा कन्या राशि में केतु बली होता है। अशुभ ग्रह होने के कारण पापस्थानों (त्रिषडाय, त्रिक) में ये ग्रह विशेष शुभफलदायक होते हैं।जबकि शुभ स्थानों में (केन्द्र त्रिकोण) आकर ये ग्रह पाप फलद होते हैं। ज्योतिषशास्त्र का नियम है कि शुभ ग्रह शुभ स्थानों में तथा पाप ग्रह पाप स्थानों में शुभ फलद होते हैं। सप्तम, चतुर्थ, नवम, एकादश तथा दशम भाव में स्थित राहु योगकारक होता है, जबकि केतु तृतीय भाव में राजयोग कारक होता है -
'स्मरगृहज्ञानाय मानस्थितो राहुर्योगकरस्तृतीयनिलयेकेतुस्तु योगप्रदः'
राहु यदि शुभ स्थिति में हो तो अपनी दशा में सब प्रकार की भलाई करता है, महान् राज्य देता है। धर्म तथा धन की प्राप्ति, पुण्य तीर्थों की यात्रा, ज्ञान तथा प्रभाव शुभत्व प्राप्त राहु के विशेष फल है। यही राहु अशुभ हो तो व्यक्ति को सर्पविष से भय, सब अङ्गों में रोग, शस्त्र तथा अग्नि से भय, नीचों से विरोध, वृक्ष से पतन तथा शत्रु से पीड़ा देता है।
केतु शुभ हो तो अपनी दशा में विजय प्रदान करता है। क्रूर कार्यों द्वारा धन प्राप्ति कराता है। अन्य देश के प्रशासन अर्थात् विदेश से भाग्योदय कराता है। पद्य रचना प्रारंभ करना तथा शत्रुनाश इस केतु के विशेष शुभ फल हैं। यदि केतु अशुभ हो तो जातक को महान कष्ट, असफलता, हानि, उद्यम का नाश, हृदय में पीड़ा, टी.बी., कम्पन आदि नसों का रोग, ब्राह्मण वर्ण से द्वेष तथा महान मूर्खता आदि अशुभ फल देता है।
राहु केतु की योगकारकता
यदि ये ग्रह द्वितीय तथा सप्तम स्थान में स्थित हों और उससे त्रिकोण भाव के स्वामी से युति अथवा दृष्टि हो तो धन तथा आयु को देने वाले होते हैं - 'नेत्रद्यूनगतौ त्रिकोणपतियुग्दृष्टौ धनायुःप्रदौ'
इसी प्रकार द्विस्वभाव राशियों में स्थित होने तथा अधिष्ठित राशियों के स्वामियों तथा केन्द्र व त्रिकोणभावों के स्वामी से युक्त अथवा दृष्ट होने पर भी ये छाया ग्रह प्रबल योगकारक होते हैं -
'स्यातां केतुविद्युन्तुदौ द्वितनुभे केन्द्रत्रिकोणेश्वरे-
र्युक्तौ वा तदधीश्वरौ यदि तयोः पाकेऽर्थराज्यप्रदो।।'
इन छाया ग्रहों के स्थिर अथवा चर राशि में स्थित होने तथा केन्द्र और त्रिकोण भावों के स्वामी से युक्त होने पर भी ये ग्रह महान भाग्य प्रदान करते हैं। यदि राहु तथा केतु केन्द्र, त्रिकोण में स्थित हों और केन्द्र या त्रिकोणपति से युत या दृष्ट हों तो भी ये योगकारक होते हैं। इन ग्रहों के तृतीय, एकादश तथा केन्द्र स्थान में स्थित होकर बलवान योगकारक ग्रहों से युक्त होने पर जातक को संपत्ति, सुख, पुत्र, धन, राज्य, वाहन तथा अधिकार प्रदान करनेवाले होते हैं।
' लग्नात्कोणगतौ च वित्तमदनस्थानेश्वाराभ्यां तमः
खेटौ संयुतवीक्षितौ निजदशाकले हि मृत्युप्रदौ।।'
ये छाया ग्रह राहु व केतु यदि पापभाव में स्थित होकर शुभग्रहों से युत हों तो महान् मारक सिद्ध होते हैं -
'तौ द्वौ पापगृहस्थितौ शुभयुतौ स्यातां महामारकौ'
इन छाया ग्रहों की षष्ठ, अष्टम तथा द्वादश भाव में स्थिति तथा इन्हीं किसी भावेश के साथ युति भी मृत्युप्रद होती है। यद्यपि राहु की मारकता काफी तीक्ष्ण होती है तथापि अरिष्टभंग क्रम में यही राहु लग्न से तृतीय, षष्ट अथवा एकादश भाव में स्थित होकर तथा शुभ ग्रहों से दृष्ट होकर समस्त अरिष्टों का नाश कर देता है -
'लग्नातृतीयारिभवे च राहुः पापैर्विमुक्तः शुभद्रश्यमानः।
विनाशयत्याशु समस्तरिष्टं तूलं यथा वायुबलस्य वेगः।।'
मेष, वृष तथा कर्क राशि में लग्न में राहु की उपस्थिति मात्र ही समस्त अरिष्टों की नाशक होती है -
'अजवृषकर्किणि लग्ने रक्षति राहुः समस्तपीडाभ्यः।
पृथिवीपतिः प्रसन्नः कृतापराधं यथा पुरूषम्।।'
इस प्रकार राहु-केतु के फलादेश प्रक्रिया में पाराशरी सिद्धान्तों का अनुकरण फलादेश की सटीकता को बढ़ा देता है। राहु तथा केतु के कारण बननेवाले योगों में कालसर्प योग भी प्रमुख है। यद्यपि इस योग का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में अनुपलब्ध है, तथापि अनुसंधान तथा प्रयोग की दृष्टि से यह योग काफी महत्त्वपूर्ण है। जब समस्त ग्रह, राहु तथा केतु के मध्य आ जाते हैं तो इस कालसर्पयोग का सृजन होता है। इस योग में जातक का जीवन प्रबल संघर्षों से भर जाता है। ज्योतिषशास्त्र सहस्रों वर्षों से मानव मात्र के कल्याण में तत्पर रहा है। इस शास्त्र में हुए नवीन अनुसन्धानों तथा दैवज्ञों की व्यक्तिगत अन्वेषण पद्धतियों ने इस आध्यात्मिक विद्या को समृद्ध ही किया है। अतः नवीन अनुसन्धानों के कारण अस्तित्त्व में आए इस कालसर्पयोग की अनदेखी करना उचित नहीं है।

Friday 28 September 2018

पञ्चाङ्ग







ऊपरी बाधा



 जीवन और मृत्यु का शाश्वत चक्र अनादि काल से अस्तित्व में है। जीवन के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जीवन की इस सतत् प्रक्रिया के मध्य कुछ अवकाश रह जाता है और इसी रिक्त स्थान में अशरीरी आत्माओं अर्थात् भूत-प्रेत, पिशाचादि के रूप में भी जीवात्मा कुछ काल व्यतीत करता है। इस काल का निर्धारण मृत्यु के प्रकार से होता है। अर्थात् यदि मृत्यु प्राकृतिक रूप से हुई हो तथा अन्त्येष्टि क्रिया पूर्ण विधि- विधान साथ हुई हो तो यह कालावधि काफी कम होता है जबकि अकाल मृत्यु (दुर्घटना, हत्या, आत्महत्या, सद्यःमृत्यु आदि ) होने तथा अन्त्येष्टि आदि की प्रक्रिया में त्रुटि के कारण प्रेतशरीर के रूप में जीवन की अवधि काफी लम्बी हो जाती है।

सूक्ष्म शरीर तथा पञ्चमहाभूतों से मानव शरीर बना है तथा मृत्यु के उपरान्त अन्त्येष्टि क्रियाओं (अग्निदाह, भूमि में दबाना, जल प्रवाह) के कारण स्थूल शरीर का तो नाश हो जाता है परन्तु सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व बना रहता है। यही सूक्ष्म शरीर अपनी अतृप्त वासनाओं के कारण प्रेत शरीर को प्राप्त करती है। स्थूल शरीर तथा इन्द्रियों के अभाव के कारण ये आत्माएँ अपनी अधूरी इच्छाओं की पूर्ति स्वयमेव नहीं कर पाती है और यही कारण है कि वे किसी अन्य जीवित मानव शरीर में प्रवेश कर अपनी अपूर्ण इच्छाओं को पूरा करने का प्रयास करती हैं और यही स्थिति प्रेतबाधा कही जाती है। प्रेतबाधा के तो वैसे कई कारण हैं परन्तु सर्वप्रमुख कारण अशुचिता, आत्मबल की कमी, कमजोर मनःस्थिति, भीरूता आदि हैं। यही कारण है कि बच्चे तथा स्त्री (विशेष रूप से ऋतुकाल तथा गर्भावस्था) प्रेतबाधा के शिकार अधिक होते हैं। प्रत्येक रोग के समान ही प्रेतबाधा या ऊपर बाधा के भी दो कारण हैं-

(1)आन्तरिक कारण, तथा
(2)बाह्य कारण
आन्तरिक कारण के अन्तर्गत शारीरिक दुर्बलता, अस्वस्थता, संकल्पहीनता, इच्छाशक्ति का अभाव, व्यसन, व्यभिचार, कुण्ठा, अपूर्ण या दमित इच्छाएँ, पूर्वजन्मों के कर्मफल का परिपाक आदि आती हैं। जबकि बाह्य कारणों में मृत व्यक्ति का अपमान, प्रेतग्रस्त व्यक्ति का उपहास, श्मशान-कब्रिस्तान आदि में मल-मूत्र का त्याग, प्रेतबाधा ग्रस्त मकान में निवास, प्रेतबाधा ग्रस्त व्यक्ति से शारीरिक संबंध बनाना, किसी के द्वारा प्रेरित अभिचार कर्म, सन्ध्याकाल में संभोग, चौराहे पर रात्रिकाल में अकेले घूमना, रजस्वला स्त्री से सम्पर्क, ग्रहण काल, नग्न स्नान-शयन आदि करना, धार्मिक कर्म अथवा पूजन कर्म में व्यतिक्रम आदि अनेक कारण शामिल हैं। किसी व्यक्ति पर प्रेतात्मा के आक्रमण करने की प्रक्रिया ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार किसी के घर पर बलपूर्वक अधिकार जमाना। किसी और के घर पर बलपूर्वक अधिकार का प्रयास करने के क्रम में उस घर में पहले से रहने वाले व्यक्ति जिस प्रकार विरोध करते हैं ठीक उसी प्रकार प्रेतों के आवेश के समय भी मानव शरीर में स्थित सूक्ष्म शरीर द्वारा भी विरोध किया जाता है। परन्तु यदि प्रेतात्मा अधिक बलशाली हुई और मनुष्य मानसिक तथा इच्छाशक्ति के आधार पर कमजोर हुआ तो प्रेतात्मा उस शरीर पर अपना अधिकार जमा लेती है और अपनी अपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति उस मानव के इन्द्रियों (कर्मेन्द्रिय तथा ज्ञानेन्द्रियों) द्वारा करती है। इनके अतिरिक्त कई अन्य देव योनियाँ भी हैं जो अनेक कारणों से मनुष्य को पीडि़त करती हैं और यह भी ऊपरी बाधा की ही श्रेणी में आता है।

* सूर्य- ब्रह्मराक्षस
* चन्द्र- बालग्रह(दुर्गा, आयुर्वेद, शास्त्रोक्त भूत ग्रह, किन्नर, यक्षिणी)
* मंगल- राक्षस, गन्धर्व
* बुध- गन्धर्व
* गुरु- विद्याधर, यक्ष,किन्नर,सर्पयोगिनी,
* शुक्र- यक्षिणी,मातृगण,पूतना 
* शनि- पिशाच,प्रेत, निकृष्ट आत्मा 
* राहु- पिशाच,प्रेत,जिन्न
* केतु-  प्रेत,भूत
     निम्नलिखित ज्योतिषीय योग प्रेतबाधा के सूचक माने गए हैं -
* नीच राशि में स्थित राहु के साथ लग्नेश हो तथा सूर्य, शनि व अष्टमेश से दृष्ट हो।
* पञ्चम भाव में सूर्य तथा शनि हो, निर्बल चन्द्रमा सप्तम भाव में हो तथा बृहस्पति बारहवें भाव में हो।
* जन्म समय चन्द्रग्रहण हो और लग्न, पञ्चम तथा नवम भाव में पाप ग्रह हों तो जन्मकाल से ही पिशाच बाधा का भय होता है।
* षष्ठ भाव में पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट राहु तथा केतु की स्थिति भी पैशाचिक बाधा उत्पन्न करती है।
* लग्न में शनि, राहु की युति हो अथवा दोनों में से कोई भी एक ग्रह स्थित हो अथवा लग्नस्थ राहु पर शनि की दृष्टि हो।
* लग्नस्थ केतु पर कई पाप ग्रहों की दृष्टि हो।
* निर्बल चन्द्रमा शनि के साथ अष्टम में हो तो पिशाच, भूत-प्रेत, मशान आदि का भय।
* निर्बल चन्द्रमा षष्ठ अथवा बारहवें भाव में मंगल, राहु या केतु के साथ हो तो भी पिशाच भय।
* चर राशि (मेष, कर्क, तुला, मकर) के लग्न पर यदि षष्ठेश की दृष्टि हो।
* एकादश भाव में मंगल हो तथा नवम भाव में स्थिर राशि (वृष, सिंह, वृश्चिक, कुंभ) और सप्तम भाव में द्विस्वभाव राशि (मिथुन, कन्या, धनु, मीन) हो।
* लग्न भाव मंगल से दृष्ट हो तथा षष्ठेश, दशम, सप्तम या लग्न भाव में स्थित हों।
* मंगल यदि लग्नेश के साथ केन्द्र या लग्न भाव में स्थित हो तथा छठे भाव का स्वामी लग्नस्थ हो।
* पापग्रहों से युक्त या दृष्ट केतु लग्नगत हो।
* शनि, राहु, केतु या मंगल में से कोई भी एक ग्रह सप्तम स्थान में हो।
* जब लग्न में चन्द्रमा के साथ राहु हो और त्रिकोण भावों में क्रूर ग्रह हों।
* अष्टम भाव में शनि के साथ निर्बल चन्द्रमा स्थित हो।
* राहु, शनि से युक्त होकर लग्न में स्थित हो।
* लग्नेश एवं राहु अपनी नीच राशि का होकर अष्टम भाव या अष्टमेश से संबंध करे।
* राहु नीच राशि का होकर अष्टम भाव में हो तथा लग्नेश, शनि के साथ द्वादश भाव में स्थित हो।
* द्वितीय में राहु, द्वादश में शनि, षष्ठ में चन्द्र तथा लग्नेश भी अशुभ भावों में हो।
* चन्द्रमा तथा राहु दोनों ही नीच राशि के होकर अष्टम भाव में हो।
* चतुर्थ भाव में उच्च का राहु हो, वक्री मंगल द्वादश भाव में हो तथा अमावस्या तिथि का जन्म हो।
* नीचस्थ सूर्य के साथ केतु हो तथा उस पर शनि की दृष्टि हो तथा लग्नेश भी बीच राशि का हो।

            जिन जातकों की कुण्डली में उपरोक्त योग हों, उन्हें विशेष सावधानीपूर्वक रहना चाहिए तथा संयमित जीवन शैली का आश्रय ग्रहण करना चाहिए। जिन बाह्य परिस्थितियों के कारण प्रेत बाधा का प्रकोप होता है उनसे विशेष रूप से बचें। अधोलिखित उपाय भी जातक को प्रेतबाधा से मुक्त रखने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं -
* शारीरिक शुचिता के साथ-साथ मानसिक पवित्रता का भी ध्यान रखें।
* नित्य हनुमान चालीसा तथा बजरङ्ग बाण का पाठ करें।
* मंगलवार का व्रत रखें तथा सुंदरकाण्ड का पाठ करें।
* पुखराज रत्न से प्रेतात्माएँ दूर भागती हैं, अतः पुखराज रत्न धारण करें।
* घर में नित्य शंख बजाएँ।
* नित्य गायत्री मन्त्र की एक माला का जाप करें।
* रामचरितमानस की चौपाई -
'मामभिरक्षय रघुकुलनायक।
धृत वर चाप रूचिर कर सायक।।'
               अथवा
'प्रनवऊँ पवन कुमार खलबल पावक ग्यान धन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सरचाप धर।।'
   से हवन सामग्री की 108 आहुतियाँ देकर इसे सिद्ध कर लें और आवश्यकता पड़ने पर तीन बार पढ़ें, सभी प्रकार की बुरी आत्माओं से रक्षा होती है।
* रक्षा-सूत्र अवश्य धारण करें।
* निम्नलिखित चौंसठिया मात्र को मंगलवार के दिन भोजपत्र पर अष्टगंध अथवा रक्त चन्दन की स्याही और अनार की कलम से लिखें। इस यन्त्र को प्रत्येक कमरे में स्थापित करें तथा ताबीज के रूप में गले या बाजू में धारण करें। अनुभूत तथा सिद्ध प्रयोग है।

Wednesday 19 September 2018

सूर्यसिद्धान्त में युग- विषयक अवधारणा


        ज्योतिषशास्त्र के सिद्धान्त स्कन्ध की रचनाआें में सूर्य-सिद्धान्त का स्थान अन्यतम माना जाता है। ज्योतिष वेदाङ्ग के पञ्चस्कन्धों में सिद्धान्त स्कन्ध के वर्ण्यविषय के सन्दर्भ में कहा गया है कि 'त्रुटि से लेकर कल्पकाल तक की कालगणना, सौर चान्द्र-सावन- नाक्षत्र-पैत्र्य-बार्हस्पत्य वर्ष, विभिन्न प्रकार के मास, ग्रह-गतियों का निरूपण, व्यक्त-अव्यक्त गणित का प्रयोजन, विविध प्रश्नोत्तर विधि, ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति, नाना प्रकार के तुरीय-नालिकादि यन्त्रों की निर्माण विधि, देश व काल ज्ञान के अनन्यतम उपयोगी अंग-अंगक्षेत्र सम्बन्धी अक्षज्या, लम्बज्या, द्युज्या, कुज्या, समशंकु इत्यादि का आनयन रहता है।
     सूर्यसिद्धान्त के दो संस्करण उपलब्ध होते हैं- (1) आर्ष सूर्य सिद्धान्त (2) पञ्चसिद्धान्तिका प्रोक्त सूर्यसिद्धान्त। वराहमिहिर की पञ्चसिद्धान्तिका में जिन सौरादि पाँच सिद्धान्तों का वर्णन है, वे सम्प्रति उपलब्ध नहीं हैं। ये पाँच सिद्धान्त ग्रन्थ 'प्राचीन सिद्धान्तपञ्चक' कहे जाते हैं। प्राचीन सिद्धान्तपञ्चक के अन्तर्गत पितामह सिद्धान्त, वशिष्ठ सिद्धान्त, रोमक सिद्धान्त, पुलिश सिद्धान्त तथा सूर्य सिद्धान्त आते हैं। इनका काल शकपूर्व पाँचवीं शताब्दी माना गया है। जबकि वर्त्तमान सिद्धान्तपञ्चक के अन्तर्गत सूर्य सिद्धान्त (आधुनिक), सोम सिद्धान्त, वशिष्ठ सिद्धान्त, रोमश सिद्धान्त तथा शाकल्योक्त ब्रह्मसिद्धान्त आते हैं। सिद्धान्त ग्रन्थों की इस समृद्ध परम्परा में सूर्य सिद्धान्त को सर्वाधिक शुद्ध सिद्धान्त ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है, जिसके समर्थन में कहा गया है-           'स्पष्टा ब्राह्मस्तु सिद्धान्तस्तस्यासनस्तु रोमशः।
सौरः स्पष्टतरोऽस्पष्टौ वसिष्ठः पौलिशश्चतौ।।'
    अर्थात् ब्राह्मसिद्धान्त सूक्ष्म है, रोमशसिद्धान्त भी ब्राह्मसिद्धान्त जैसा ही है, सूर्यसिद्धान्त सबसे अधिक सूक्ष्म अर्थात् स्पष्टतर है जबकि वशिष्ठसिद्धान्त तथा पौलिशसिद्धान्त अस्पष्ट हैं। सूर्य सिद्धान्त में वर्णित युग विषयक सिद्धान्त तथा वेदाङ्ग ज्योतिष में वर्णित युग विषयक परिकल्पना में पर्याप्त मतभेद है। जहाँ वेदाङ्ग ज्योतिष में ‘पञ्चसम्वत्सरात्मकं युगम्’ अर्थात् पाँच सम्वत्सर वाले युग की बात कही गई है, वहीं ‘सूर्यसिद्धान्त’ वर्णित युग विषयक परिचर्चा अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत है। ‘सूर्यसिद्धान्त’ ग्रन्थ के आरम्भ में ही ‘कृत’ शब्द द्वारा सर्वप्रथम युग विषयक संकेत उपलब्ध होता है। ‘युग’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग मध्यमाधिकार के श्लोक संख्या आठ में हुआ है- 'युगे युगे महर्षीणां' तथा इसके ठीक बाद श्लोक संख्या नौ में भी यह शब्द प्रयुक्त हुआ है- 'युगानां परिवर्त्तेन---।' सूर्यांश पुरुष द्वारा मयासुर को ज्योतिषशास्त्रविषयक परम पुण्यप्रद तथा गोपनीय ज्ञान देने के प्रसङ्ग में काल का द्विविध विभाजन किया गया-
(1) लोकानामन्तकृत काल तथा
(2) कलनात्मक काल।
     कलनात्मक काल की विशद् चर्चा के प्रसङ्ग में ही आगे चलकर युग व महायुग विषयक परिकल्पना का अत्यन्त विस्तृत व गूढ़ वर्णन प्राप्त होता है। सूर्य-मयासुर संवाद प्रसङ्ग  में कलनात्मक काल विषयक अवधारणा को स्पष्ट किया गया है और कहा गया है कि छः प्राण के तुल्य एक विनाडी होती है तथा साठ विनाडी की एक नाडी होती है। इन्हीं साठ नाडियों के काल परिमाण तुल्य एक नाक्षत्र अहोरात्र होता है। काल के इस वर्गीकरण में सर्वप्रथम ‘प्राण’ शब्द प्रयुक्त हुआ है तथा ‘प्राण’ कालमान के विषय में कहा गया है कि दस दीर्घाक्षर उच्चारण काल के तुल्य इस ‘प्राण’ संज्ञक कालखण्ड का मान होता है। नाक्षत्र अहोरात्र को स्पष्ट करने के उपरान्त अहोरात्र के तीन अन्य प्रकारों अर्थात् सावन, सौर तथा चान्द्र तिथियों के सन्दर्भ में भी सूर्यांश पुरुष ने मयासुर को उपदेश दिया है। एक नक्षत्रोदय से दूसरे नक्षत्रोदय के मध्य का काल नाक्षत्र अहोरात्र, एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय के मध्य का काल सावन दिन, चन्द्रमा की एक कला तुल्य तिथि तथा सूर्य द्वारा एक अंश के भोगकाल को एक सौर अहोरात्र कहते हैं। उपरोक्त चतुर्विध अहोरात्रें के समान ही चतुर्विध मास तथा चतुर्विध वर्ष भी कहे गए हैं। तीस नाक्षत्र अहोरात्रों का एक नाक्षत्र मास, तीस चान्द्र तिथियों का एक चान्द्रमास, तीन सावन दिनों का एक सावन मास तथा तीस सौर अहोरात्रों  या सूर्य द्वारा एक राशि का भोग करने में लगने वाले समय को एक सौर मास कहते हैं। इन चार प्रकार के मास के समान ही चतुर्विध वर्ष भी कहे गए हैं- नाक्षत्र वर्ष, सौर वर्ष, सावन वर्ष तथा चान्द्र वर्ष। बारह नाक्षत्र मासों का एक नाक्षत्र वर्ष, बारह चान्द्र मासों का एक चान्द्र वर्ष, बारह सौर मासों का एक सौर वर्ष तथा बारह सावन मासों का एक सावन वर्ष कहा गया है। स्पष्ट है- 'मासै र्द्वादशभिर्वर्षं' अर्थात् बारह मासों का एक वर्ष कहा गया है। युग विषयक काल-गणना के सन्दर्भ में सौर कालमान ही ग्राह्य है। सौर वर्ष की गणना के क्रम में कहा गया है कि सूर्य छः मास उत्तरायण तथा छः मास दक्षिणायन रहते हैं। एक सौर वर्ष का मान एक दिव्य अहोरात्र के तुल्य कहा गया है।अभिप्राय यह है कि दिव्यकालमान के अनुसार छः मास का दिन तथा छः मास की रात्रि होती है। दिव्यकालमान के प्रसङ्ग में यह ध्यातव्य है कि यह कालमान देवताओं तथा असुरों के सन्दर्भ में ही ग्राह्य है। पृथिवी के उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवाें पर क्रमशः देवताओं तथा असुरों का निवास स्थान माना गया है। ‘सूर्यसिद्धान्त’ के अनुसार 360 सौर वर्षों या 360 दिव्य अहोरात्रों के तुल्य एक दिव्य वर्ष होता है अर्थात् 360 सौर वर्ष = 1 दिव्य वर्ष। एक चतुर्युग अर्थात् सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग तथा कलियुग का मान बताते हुए कहा गया है कि देवताओं तथा असुरों के वर्ष प्रमाण तुल्य अर्थात् दिव्य वर्ष के प्रमाण से बारह हजार दिव्य वर्षों का एक चतुर्युग या महायुग होता है, अर्थात् 12,000 दिव्य वर्ष = 1 महायुग (सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग)। महायुग अर्थात् चतुर्युग के कालमान को यदि सौर वर्ष में परिवर्त्तित किया जाय तो इस विषय में सूर्य सिद्धान्त की उक्ति है- 'सूर्याब्दसंख्यया द्वित्रिसागरैरयुताहतैः' अर्थात् 43,20,000 सौर वर्षों के तुल्य एक महायुग होता है। दिव्य वर्षों को सौर वर्षों में परिवर्त्तित करने के लिए यहाँ एक सामान्य गणितीय संक्रिया गुणन का आश्रय लिया गया है। सूर्य सिद्धान्त के मतानुसार एक दिव्य वर्ष 360 सौर वर्षों के तुल्य माना गया है, अतः दिव्य वर्ष को सौर वर्षों में परिवर्त्तित करने के लिए दिव्य वर्ष के मान में 360 से गुणन द्वारा इसे सौर वर्ष में परिणत किया जा सकता है- 12000 दिव्य वर्ष × 360 = 4320000 सौर वर्ष।
   इस प्रसङ्ग में कुछ गणितीय सूत्र भी उपलब्ध हो जाते हैं- (1) दिव्य वर्ष × 360 = सौर वर्ष तथा (2) सौर वर्ष ÷ 360 = दिव्य वर्ष। ‘सूर्यसिद्धान्त’ में बारह हजार दिव्य वर्षों के तुल्य एक चतुर्युग का मान बताया गया है, परन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि एक महायुग के अन्तर्गत जो चार युग हैं, उनका कालमान समान नहीं होता है। इसे स्पष्ट करते हुए सूर्य सिद्धान्त में कहा गया है कि कृतयुगादि प्रत्येक युगों के सन्ध्या तथा संध्यांशों से युक्त कालमान का आधार धर्मपाद व्यवस्था है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग तथा कलियुग में धर्म की अवस्था अलग-अलग होती है, अभिप्राय यह है कि सतयुग में धर्म अपने चारों चरणों से स्थित रहता है, त्रेता युग में धर्म के तीन चरण स्थित होते हैं, द्वापर में धर्म अपने दो चरणों से उपस्थित रहता है जबकि कलियुग में धर्म अपने एकमात्र चरण द्वारा स्थित रहता है। स्पष्ट है कि सतयुग में धर्म के चार चरण, त्रेता में धर्म के तीन चरण, द्वापर में दो चरण तथा कलियुग में धर्म का एक चरण स्थित होता है। इसी धर्मपाद व्यवस्था के अनुसार ही चतुर्युग में भी चारों युगों का अलग-अलग कालमान होता है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि सूर्य सिद्धान्त के अनुसार चतुर्युगों की कुल वर्षात्मक संख्या के चार पाद तुल्य सतयुग, तीन पाद तुल्य त्रेतायुग, दो पाद तुल्य द्वापर युग तथा एक पाद तुल्य कलियुग का मान होता है। इसे और अधिक स्पष्ट करना चाहें तो हम कह सकते हैं कि चतुर्युगों की कुल पाद संख्या को यदि हम क्रमशः जोड़ें तो कुल पादों की संख्या 4(सतयुग) + 3(त्रेतायुग) + 2(द्वापरयुग) + 1(कलियुग) = 10 होती है, अर्थात् चतुर्युगों के सम्पूर्ण काल का दशमांश ही एक पाद के तुल्य होता है। इसी तथ्य को ‘सूर्यसिद्धान्त’ के मध्यमाधिकार के श्लोक संख्या 17 में स्पष्ट रूप से कहा गया है-
'युगस्य दशमो भागश्चतुस्त्रिद्वेकसंगुणः।'
     चतुर्युग के कालमान संख्या के इसी दशमांश में क्रमशः चार, तीन, दो तथा एक से गुणा करने पर सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग का वर्षात्मक मान उसके सन्ध्या तथा सन्ध्यांशों सहित ज्ञात होता है। उपरोक्त सिद्धान्त के आधार पर यदि कृतादि युगों का मान सन्ध्या तथा सन्ध्यांशों के साथ स्पष्ट करें तो सर्वप्रथम चतुर्युग अर्थात् महायुग के कालमान का दशमांश ज्ञात करना होता है- 12000 दिव्य वर्ष ÷10 = 1200 दिव्य वर्ष। अर्थात् चतुर्युग के दशमांश का मान 1200 दिव्य वर्ष के तुल्य होता है। अब धर्मपाद व्यवस्था के अनुसार इस दशमांश में क्रमशः चार, तीन, दो तथा एक से गुणा करने पर   सतयुग = 1200 × 4 = 4800 दिव्य वर्ष,
त्रेतायुग = 1200 × 3 = 3600 दिव्य वर्ष,
द्वापरयुग = 1200 × 2 = 2400 दिव्य वर्ष तथा कलियुग = 1200 × 1 = 1200 दिव्य वर्ष प्रमाण का कालमान प्राप्त होता है। यहाँ ध्यातव्य है कि कृतादि चारों युगों के ये दिव्य वर्षात्मक मान सन्ध्या तथा सन्ध्यांशों से युक्त हैं। इसी कालमान को यदि सौरवर्ष में ज्ञात करना हो तो सूर्य सिद्धान्त के मतानुसार सतयुग = 4800 दिव्य वर्ष × 360 = 1728000 सौर वर्ष, त्रेतायुग = 3600 दिव्य वर्ष × 360 = 1296000 सौर वर्ष, द्वापरयुग = 2400 दिव्य वर्ष × 360 = 864000 सौर वर्ष तथा कलियुग = 1200 दिव्य वर्ष × 360 = 432000 सौर वर्ष मान सिद्ध होता है। इन चारों युगों के सौर वर्षात्मक मान का यदि योग किया जाय तो 1728000+1296000+864000+432000 = 4320000 सौर वर्ष प्राप्त होता है जो सूर्य सिद्धान्त प्रोक्त महायुग के सौरमान के तुल्य है। सूर्य सिद्धान्त में युग विषयक सिद्धान्तों के प्रतिपादन के प्रसङ्ग में बारम्बार ‘सन्ध्या’ तथा ‘सन्ध्यांश’ शब्द का प्रयोग किया गया है। उपरोक्त कृतादि युगों के कालमान भी सन्ध्या तथा सन्ध्यांशों से युक्त ही हैं। प्रत्येक युग के आरम्भ तथा समाप्ति के बाद सन्धि काल होता है। कृतादि चारों युगों के आरम्भ व समाप्ति के उपरान्त यह सन्धिकाल आता है तथा इन चारों युगों के सन्धिकाल का मान भी समान न होकर परस्पर भिन्न होता है। ‘सूर्यसिद्धान्त’ इस सन्दर्भ में अत्यन्त स्पष्ट रूप से कहता है-
'क्रमात् कृतयुगादीनां षष्ठांशः सन्ध्ययोः स्वकः'
     अर्थात् कृतादि चारों युगों का अपने-अपने युगमान के षष्ठांश तुल्य दोनों सन्धियों का मान होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार कृतादि चारों युगों की सन्धियों का पृथक्-पृथक् मान स्पष्ट किया जा सकता है। अतः कृतयुग सन्धि = 4800 ÷ 6 = 800 दिव्य वर्ष, त्रेतायुग सन्धि = 3600 ÷ 6 = 600 दिव्य वर्ष, द्वापरयुग सन्धि = 2400 ÷ 6 = 400 दिव्य वर्ष तथा कलियुग सन्धि = 1200 ÷ 6 = 200 दिव्य वर्ष के तुल्य होता है। प्रत्येक युग के सन्ध्या तथा सन्ध्यांशों का यह सम्मिलित मान है। प्रत्येक युग के आरम्भ तथा समाप्ति पर होने वाले सन्ध्या तथा सन्ध्यांशों का मान क्रमशः इस प्रकार होता है- सतयुग - 800 ÷ 2 = 400 दिव्य वर्ष,
त्रेतायुग - 600 ÷ 2 = 300 दिव्य वर्ष,
द्वापरयुग - 400 ÷ 2 = 200 दिव्य वर्ष तथा कलियुग - 200 दिव्य वर्ष ÷ 2 = 100 दिव्य वर्ष। इन सन्ध्या तथा सन्ध्यांशों के पृथक्-पृथक् मान को यदि सौर वर्षों में परिवर्त्तित किया जाए तो ये क्रमशः सतयुग = 400 दिव्य वर्ष × 360 = 144000 सौर वर्ष, त्रेतायुग = 300 दिव्य वर्ष × 360 = 108000 सौर वर्ष, द्वापरयुग = 200 दिव्य वर्ष × 360 = 72000 सौर वर्ष तथा कलियुग = 100 दिव्य वर्ष × 360 = 36000 सौर वर्ष के तुल्य होता है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि सतयुग के आरंभ तथा समाप्ति पर 400-400 दिव्य वर्षों का सन्धिकाल, त्रेतायुग के आरम्भ तथा समाप्ति पर 300-300 दिव्य वर्षों का सन्धिकाल, द्वापर युग के आदि तथा समाप्ति पर 200-200 दिव्य वर्षों का सन्धिकाल तथा कलियुग के आरम्भ तथा समाप्ति पर 100-100 दिव्य वर्षों के तुल्य सन्धि काल होता है।
    सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग के सन्धि तथा सन्ध्यंशों के कालमान स्पष्ट हो जाने के बाद सन्धि रहित सतयुगादि चारों युगों का कालमान भी स्पष्ट किया जा सकता है।
सतयुग का सन्धि रहित कालमान = 4800 दिव्य वर्ष - 800 दिव्य वर्ष = 4000 दिव्य वर्ष,
त्रेतायुग का सन्धि रहित कालमान = 3600 दिव्य वर्ष - 600 दिव्य वर्ष = 3000 दिव्य वर्ष,
द्वापर युग का सन्धि रहित कालमान = 2400 दिव्य वर्ष - 400 दिव्य वर्ष = 2000 दिव्य वर्ष तथा कलियुग का सन्धि रहित कालमान = 1200 दिव्य वर्ष -200 दिव्य वर्ष = 1000 दिव्य वर्ष।
   सन्ध्या तथा सन्ध्यांश से रहित युगमानों को यदि सौर वर्ष में परिवर्त्तित किया जाय तो कृतयुग का सन्ध्या तथा सन्ध्यांश रहित कालमान = 4000 दिव्य वर्ष × 360 = 1440000 सौर वर्ष, त्रेतायुग का सन्ध्या तथा सन्ध्यांश रहित कालमान = 3000 दिव्य वर्ष × 360 = 1080000 सौर वर्ष, द्वापर युग का सन्ध्या तथा सन्ध्यांश रहित कालमान = 2000 दिव्य वर्ष × 360 = 720000 सौर वर्ष तथा कलियुग का सन्ध्या व सन्ध्यांशरहित कालमान = 1000 दिव्य वर्ष × 360 = 360000 सौर वर्ष सिद्ध होता है।
     सूर्य सिद्धान्त में वर्णित उपरोक्त युग विषयक परिकल्पना अत्यन्त ही स्पष्ट तथा सूक्ष्म सिद्ध होता है। चतुर्विध अहोरात्र मान से लेकर सौर काल मान को आधार मानते हुए मास, अयन, वर्ष व महायुग विषयक सिद्धान्तों को अत्यन्त सरल व सुबोध शैली में प्रस्तुत करना इस ग्रन्थ के वैशिष्ट्य को प्रमाणित करता है। सूर्य सिद्धान्त प्रोक्त इस युग विषयक सिद्धान्त व कालगणना को परवर्ती दैवज्ञों तथा गणितशास्त्र के विद्वानों ने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया है। सूर्यसिद्धान्त की प्राचीनता सिद्ध है तथा इतने प्राचीन ग्रन्थ में कालविषयक गणना, कैलेण्डर पद्धति, गणितीय संक्रियाओं का शुद्ध व सूक्ष्म प्रयोग तत्कालीन समाज में गणितशास्त्र व खगोलशास्त्र के ज्ञान व अध्ययन परम्परा की समृद्धता को प्रस्तुत करता है। 

वैदिक गणित और भारतीय गणितशास्त्रीय परम्परा

              वेद शब्द की व्युत्पत्ति ‘विद्’ धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है ‘ज्ञान’ (विद्-ज्ञानेन), जिससे वेद का अर्थ ‘ज्ञान संग्रह’ स्पष्ट होता है। पाश्चात्य विद्वान भी इस शब्द का प्रयोग इसी सन्दर्भ में करते हैं और दोनों ही परम्पराओं के सामञ्जस्य से वेद की परिभाषा 'साक्षात्कार किए हुए ज्ञान का संग्रह' सिद्ध होता है। वैदिक संहिताओं को न केवल आर्य जाति का प्रमाणस्वरूप माना जाता है, अपितु यह समस्त विश्व संस्कृति के आधार स्तम्भ के रूप में भी समादृत हैं। वेदों में ज्ञान और विज्ञान का अनन्त भण्डार उपलब्ध होता है। प्राचीन ऋषि-महर्षियों ने गहन चिन्तन व मनन द्वारा विज्ञान के समस्त विषयों का वर्णन इस ज्ञान सरिता में किया है। वेदों के इसी सार्वभौमिकता और सर्वज्ञान युक्त होने का समर्थन मनुस्मृति में भी किया गया है- 'सर्वज्ञानमयो हि सः'
गणितशास्त्र
       विज्ञान व ज्ञान की अन्य शाखाओं के समान ही गणितशास्त्र भी अपने बीज रूप अथवा मूलरूप में वैदिक संहिताओं में उपलब्ध होता है। विभिन्न प्रकार की छोटी-बड़ी संख्याओं तथा ज्यामितीय संरचनाओं से संबंधित विपुल वर्णन का इन ग्रन्थों में उपलब्ध होना तत्कालीन समाज में गणितशास्त्र की उपस्थिति को सहज ही सिद्ध कर देता है। परन्तु यह तथ्य भी उतना ही सत्य है कि आधुनिक काल में उपलब्ध गणित का स्वरूप प्राचीनकाल में पूर्णतया उपलब्ध नहीं था और वैदिक काल के गणित को आधुनिक काल तक के विकासक्रम में सहस्रों वर्षों के कालक्रम से गुजरना पड़ा है।  
गणित शब्द की व्युत्पत्ति तथा अर्थ
           गणित शब्द ‘गण्’ धातु में क्त प्रत्यय के योग से निष्पन्न होता है तथा ‘गण’ धातु का सामान्य अर्थ होता है गिनना। अर्थात् कहा जा सकता है कि जिस शास्त्र में ‘गणना’ ही मूल कर्म है ‘गणितशास्त्र’ है। भारत में गिनती के लिए ‘गणन’ शब्द का प्रयोग होता है और इसी शब्द से ‘गणित’ की उत्पत्ति हुई है। इससे स्पष्ट है कि गणित विषय का विकास व उत्पत्ति गिनती से ही आरम्भ हुआ है। संस्कृत व्याकरण में सामान्य रूप से ‘क्त’ प्रत्यय भूतकाल के अर्थ में प्रयुक्त होता है, अतः इस प्रकार ‘गणित’ शब्द गिने हुए अर्थ का बोधक है। गणितशास्त्र के महत्त्व को महर्षि लगध ने अपनी रचना वेदाङ्ग ज्योतिष में भी स्वीकार किया है और कहा है-
' यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्वद् वेदाङ्गशास्त्रणां गणितं मूर्धनिस्थितम्।।'
         न केवल वैदिक संहिताओं में अपितु जैन गणितज्ञ महावीराचार्य ने भी अपनी रचना ‘गणितसार संग्रह’ में गणित के महत्त्व को स्वीकार किया है और कहा है कि इस चराचर जगत् में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसके मूल में गणित न हो।
भारतीय गणितशास्त्र का विकास क्रम
        भारतीय संस्कृति के दृष्टिकोण से देखा जाय तो वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक गणितशास्त्र के विकास की सतत् प्रक्रिया चल रही है। परन्तु इस विकास यात्रा को काल के बंधन में बांधना अनिवार्य हो जाता है। इस प्रकार हम देखें तो गणितशास्त्र की परम्परा को आदिकाल, शैशवकाल अथवा अंधकार युग, मध्यकाल अथवा स्वर्णयुग, उत्तरकाल तथा वर्त्तमान काल में विभक्त किया जा सकता है। ऋग्वेद का यह मंत्र
'द्वादशारं हि तज्जराय वर्वति चक्रं परिधामृतस्य '          वैदिक काल में विभिन्न संख्याओं के प्रयोग को दर्शाता है। इसी प्रकार 'भिनद् वलस्य परिधीन इव त्रितः' मन्त्र परिधि, व्यास आदि ज्यामितीय शब्दावली के वैदिक प्रयोग को पुष्ट करता है।
'चतुर्भिः साकंनवतिं च नामभिः चक्रं न वृत्तं व्यतींरवीविपत्।' मन्त्र भी वैदिक ऋषियों के ज्यामितीय ज्ञान को प्रदर्शित करता है। कहा जाता है कि प्राचीन भारतवर्ष में किसी विज्ञान ने न तो स्वाधीन अस्तित्व ही प्राप्त किया और न ही उसका स्वतन्त्र रूप से विकास ही हुआ। वैदिक कालीन भारत में जिस किसी भी विज्ञान का जो विकास हुआ है उसकी उत्पत्ति और विकास किसी न किसी वेदाङ्ग के अन्तर्गत हुआ है। गणितशास्त्र भी इसका अपवाद नहीं है और वेदपुरुष के नेत्रस्थानीय वेदाङ्ग ‘ज्योतिष’ के द्वारा इस गणितशास्त्र का अभूतपूर्व विकास संभव हो पाया। जहाँ ऋग्वेद के कई सूक्त और मन्त्र गणितशास्त्र के प्रमुख अङ्ग संख्या आदि का वर्णन करते हैं वहीं यजुर्वेद में स्पष्टतया ‘गणक’ शब्द का प्रयोग हुआ है। इसी तरह शुल्ब काल में रेखागणित का विशेष विस्तार हुआ। इन ग्रन्थों में विभिन्न प्रकार के यज्ञवेदियों के निर्माण प्रसङ्ग में ज्यामितीय विषयों का विशेष विकास हुआ। बौधायन शुल्बसूत्र (लगभग 1000 ई.पू.) में स्पष्टतया कहा गया कि- 'दीर्घचतुरश्रस्याक्ष्ण्यारज्जुः पार्श्वमानी तिर्यघ्मानी च यत्पृथग्भूतेकुरुतस्तदुभयं करोति।' पाइथागोरस का प्रमेय इसी ज्यामितीय सिद्धान्त पर आधारित है। इसी ग्रन्थ में π (पाई) का मान  बताया गया है और कहा है- 'यूपावटाः पदविष्कम्भाः त्रिपदरिणाहानि यूपोपराणीति।' गणितशास्त्र में मूलरूपेण आठ परिकर्म माने गए हैं- संकलन, व्यकलन, गुणन, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन तथा घनमूल। 
 

   जैन गणितज्ञ इससे कुछ अलग विषयों की गणना करते हैं- परिकर्म, व्यवहार, रज्जु (रस्सी अर्थात् क्षेत्र गणित), राशि (त्रैराशिक), कला सवर्णन (भिन्नसम्बन्धी परिकर्म), यावत्तावत् (जितना उतना अर्थात् अज्ञात राशि का प्रयोग, वर्ग, घन, वर्गावर्ग (चतुर्घात) तथा विकल्प (क्रमचय और संचय) जैन गणितज्ञों ने गणितशास्त्र को अतिसूक्ष्म सिद्ध किया है और इसकी तुलना वज्र से की है- 'गणितं सूक्ष्मं गणितं संकलानादि तदेव सूक्ष्मं, सूक्ष्मबुद्धिगम्यत्वात्, श्रूयते च वज्रान्तं गणितममिति।' वक्षाली पाण्डुलिपि, गणित तिलक, गणितसार संग्रह, पाटी गणित, गणित कौमुदी आदि ग्रन्थों में गणितशास्त्र विषयक सिद्धान्तों पर पर्याप्त चर्चा उपलब्ध होती है। ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त में स्पष्टतया गणित की 20 क्रियाओं तथा 8 व्यवहारों को स्वीकार किया गया- 'परिकर्मविंशतिं यः संकलिताद्यां पृथग्विजानाति। अष्टौ च व्यवहारान् छायान्तान् भवति गणकः सः।'
        इस प्रकार ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों तथा दैवज्ञों, गणकों के अथक परिश्रम से गणित स्वतंत्र शास्त्र बनकर नित्य ही उन्नति की ओर अग्रसर हुआ और बीजगणित, रेखागणित, क्षेत्रगणित, त्रिकोणमिति, गतिविज्ञान, स्थिति विज्ञान, सांख्यिकी आदि अनेक शाखाओं के रूप में विस्तार को प्राप्त हुआ। विस्तार को प्राप्त होने के कारण गणितशास्त्र के विषय भी विस्तृत हुए और गणित के परिकर्मों तथा व्यवहारों में काफी जटिलताएँ भी उत्पन्न हुई। इन्हीं जटिलताओं का प्रभाव आज भी प्रारम्भिक, माध्यमिक अथवा उच्च कक्षाओं के छात्रों पर दृष्टिगोचर होता है। गणितीय परिकर्मों की  के सरलीकरण की दिशा में 'जगद्गुरु स्वामी श्री भारतीय कृष्णतीर्थ ' द्वारा दृष्ट वैदिक गणित के सूत्रों का महत्त्व अद्वितीय है।
वैदिक गणित व इसके द्रष्टा ऋषि 
     वैदिक गणित जैसा कि सुनने से ही प्रतीत होता है कि यह रचना किसी वैदिक संहिता से सम्बद्ध है। परन्तु ऐसा नहीं है, हाँ इतना अवश्य है कि वैदिक गणित के सूत्रों तथा उपसूत्रों के प्राप्ति की विधि अवश्य वैदिक है। ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए कहा गया है- 'ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः' इसी वैदिक परिभाषा के अनुरूप ही स्वामी जी को इन मन्त्रों का साक्षात्कार हुआ। वैदिक गणित के अन्तर्गत 16 मुख्य सूत्र हैं- एकाधिकेन पूर्वेण, निखिलम् नवतश्चरमं दशतः, उर्ध्वातिर्यगभ्याम्, परावर्त्य योजयेत्, शून्यम् साम्यसमुच्चये, आनुरुप्ये (शून्य मन्यत्), संकलन व्यवकलनाभ्याम्, पूरणापूरणाभ्याम्, चलनकलनाभ्याम्, यावदूनम्, व्यष्टिसमष्टिः, शेषण्यघ्केन चरमेण, सोपान्त्यद्वयमन्त्यम्, एकन्यूनेन पूर्वेण, गुणितसमुच्चयः, गुणकसमुच्चयः। इसी प्रकार 16 उपसूत्र अथवा उपप्रमेय भी हैं- आनुरुप्येण शिष्यते शेषसंज्ञः, आद्यमाद्येनान्त्यमन्त्येन, केवलैः सप्तकं गुण्यात्, वेष्टनम्, यावदूनं तावदूनम्, यावदूनं तावदूनीकृत्य वर्गं चयोजयेत्, अन्त्ययोर्दशकेऽपि, अन्त्ययोरेव, समुच्चयगुणितः, लोपनस्थापनाभ्याम्, विलोकनम्, गुणित समुच्चयः समुच्चयगुणितः।        

 उपरोक्त सूत्रों, उपसूत्रों अथवा उपप्रमेयों द्वारा गणित के क्लिष्ट परिकर्मों को सहज ही संपादित किया जा सकता है। गणितशास्त्र की पारम्परिक विधि द्वारा जिन परिकर्मों को करने में काफी समय लगता है तथा मानसिक ऊहापोह से गुजरना पड़ता है, वहीं वैदिक गणित के सूत्र उन्हीं परिकर्मों को सहज ही संपादित कर देते हैं। एकाधिकेन पूर्वेण सूत्र दी गई संख्या से अगली संख्या प्राप्त करने के लिए प्रयुक्त होता है। निखिलम् नवनश्चरमं दशतः सूत्र क्रियात्मक आधार से पूरक ज्ञात करने के सन्दर्भ में प्रयोग में आता है। इसी तरह उर्ध्वतिर्यगम्याम् गुणन करने में प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार अन्य सूत्रों का प्रयोग संख्या की प्रवृत्ति जानने में, क्रियात्मक आधार से पूरक तथा अधिकाय ज्ञात करने हेतु, युग्पत समीकरण में एक चर का मान ज्ञात करने के लिए, गुणनखंड संभव न होने वाले द्विघात के मूलों को जानने हेतु, औसत व महत्तम समापवर्त्तक निकालने के लिए, किसी भिन्न को दशमलव में प्रकट करने आदि के लिए किया जाता है। सामान्य गणितीय परिकर्मों तथा व्यवहारों के अतिरिक्त ये सूत्र बड़ी गिनती तथा अन्य क्लिष्ट गणना के सन्दर्भ में भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। वैदिक गणित के सूत्रों, उपसूत्रों अथवा उपप्रमेयों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय ऋषि, महर्षि, ज्योतिषीयों, गणितज्ञों की ज्ञान परम्परा के अनन्त और अजस्र प्रवाह में यह रचना अतीव महत्त्वपूर्ण है। गणितीय व्यवहारों व परिकर्मों के विशेष सन्दर्भ में ये सूत्र न केवल विद्वानों व वैज्ञानिकों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं अपितु सामान्य कक्षा के छात्र भी इस प्रक्रिया का आश्रय लेकर गणितशास्त्र में सहज ही प्रवेश पा सकते हैं। संगणकीय प्रयोग हेतु इन सूत्रों का परीक्षण अभी शेष है तथा इस दृष्टिकोण से भी इन सूत्रों का परीक्षण वैदिक गणित की वैज्ञानिकता को स्थापित करने वाला ही सिद्ध होगा।

मंगलदोष शान्ति और लाल किताब



         
 भारतीय ज्योतिषशास्त्र न केवल जातक के भावी जीवन में होने वाली घटनाओं को सूचित करता है, अपितु अनिष्ट परिहार और ईष्ट प्राप्ति से संबंधित क्रियाओं का भी प्रावधान करता है। अनिष्ट, दुःख, कष्टादि से मुक्ति के उपाय वैदिक काल से ही प्रचलित हैं, और ज्योतिषशास्त्र की प्रत्येक परम्परा यथा-पाराशरी, जैमिनी, भृगु, वशिष्ठ इन सभी में ग्रहदोष तथा अशुभ ग्रहयोग शान्ति के संदर्भ में पर्याप्त चर्चा की गई है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र के प्रवर्त्तक आचार्यों में से एक महर्षि पराशर ने अपनी रचना पाराशरी होरा में मंगलदोष की चर्चा की है और कहा है कि स्त्री तथा पुरुष जातक की जन्मपत्रिका के लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादश भाव में यदि मंगल उपस्थित हो तो जातक कुजदोष से पीडि़त होता है। जिसके फलस्वरूप जातक का वैवाहिक जीवन कष्टप्रद हो जाता है। ज्योतिषशास्त्र की शास्त्रीय परम्परा के ग्रन्थों में इस दोष से मुक्ति के लिए कई उपाय बताए गए हैं, जो श्रमसाध्य और काफी खर्चीले हैं। ज्योतिषशास्त्रीय उपायों की श्रमसाध्यता और व्यय की अधिकता को ध्यान में रखकर ही बीसवीं शताब्दी के मध्य में जालंधर में रहने वाले पंडित रूपचंद जोशी जी ने अद्वितीय ज्योतिष पद्धति का आविष्कार किया जो अपने सरल उपायों के कारण शीघ्र ही जनसामान्य में लोकप्रिय हो गया और 'लाल किताब' की नाम से प्रसिद्ध हुआ।        

  इस ज्योतिषीय पद्धति में कुण्डली के विभिन्न भावों में स्थित ग्रहों के आधार पर फलादेश की पद्धति को विकसित किया गया और काफी सरल, अल्प व्यय और अल्प श्रम से युक्त ज्योतिषीय उपायों को जनसामान्य के लिए बताया गया। जन्मकुण्डली के विभिन्न भावों में स्थित मंगल के कारण ही कुजदोष होता है और इन पाँच भावों (लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादश) में स्थित मंगल की शान्ति के उपाय अत्यन्त विस्तार से लाल किताब में वर्णित हैं, जिन उपायों को करने से कुजदोष के कुप्रभावों से शीघ्र ही मुक्ति मिलती है।

लग्नस्थ मंगल

       जातक साधुसंतों की सेवा में निरत रहे। जिद और दुस्साहस का परित्याग करे। भोजन के बाद सौंफ और मिश्री का प्रयोग स्वयं भी करें और आगत अतिथियों को भी कराएँ। भाईयों, सहोदरों से मिल जुलकर रहें। सूर्य और चन्द्र की वस्तुओं का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करें। चने की दाल-बेसन-हल्दी आदि का मंदिर में दान करें। किसी से दान या मुफ्त में कोई वस्तु न लें। हाथी दाँत का सामान घर पर बिल्कुल न रखें। झूठ बोलने से बचें। शुद्ध चाँदी धारण करें। बरगद की जड़ में दूध की धार दें और उसी गीली मिट्टी से तिलक करें। घर की छत पर देशी खाण्ड रखें। मिट्टी के बरतन में शहद भरकर खाली मैदान में दबाएँ। घर के दरवाजे पर चाँदी की कील ठोकें। चिडि़यों को मीठा भोजन दें।
चतुर्थभावस्थ मंगल
       बरगद के पेड़ की जड़ में मीठा दूध डालें और और उसकी गीली मिट्टी से 43 दिन तक लगातार तिलक लगाएँ। यही उपाय नीम के वृक्ष के साथ करें। चाँदी का चौकोर टुकड़ा अपने पास रखें। मंगलवार को 400 ग्राम चावल, दूध से धोकर बहते जल में प्रवाहित करें। आठ मीठी रोटी तन्दूर से लगवाकर आठ अलग-अलग कुत्तों को दें। त्रिधातु (स्वर्ण-चाँदी-ताँबा) समभाग की अँगूठी पहनें। जातक मृगचर्म का उपयोग करें। 400 ग्राम रेवडि़याँ बहते पानी में छोड़ें। मामा पक्ष की सेवा करें। स्त्री से कलह ना करें, हमेशा प्रसन्न रखने का प्रयास करें।
सप्तमस्थ मंगल
     बुआ या बहन को लाल कपड़े का दान यथावसर करें। मकान, दीवार आदि बनाएँ। चाँदी की ठोस गोली अपनी जेब में रखें। पति पत्नी स्नानादि से निवृत्त होकर लालवस्त्र धारण करें और ताँबे के बर्त्तन में चावल भरकर चन्दन का लेप लगाकर हनुमान मंदिर में दान दें। साली, मौसी, नौकरानी, तोता, मैना, बकरी, चौड़े पत्ते वाले पौधों से परहेज करें। छोटी सी दीवार बनाएँ फिर उसे गिरा दें, यह प्रक्रिया दुहराते रहें। घर में आए मेहमानों को विदाई के समय मुँह जरूर मीठा कराएँ। चाँदी की ठोस गोली घर में रखें। नारियल, उड़द, तेल व बादाम का दान करें। घर आई बहन को कुछ न कुछ मीठी वस्तु देकर विदा करें। चारित्रिक पतन के प्रति सतर्क रहें। लाल मसूर की साबुत दाल को जलप्रवाह दें।
अष्टमस्थ मंगल
     तन्दूर की बनी मीठी रोटी कुत्तों को खिलाएँ। गले में चाँदी की ठोस चेन पहनें। घर में तन्दूर लगाने से बचें। रसोईघर में बैठकर भोजन करें। मिट्टी के बर्त्तन में देसी खाण्ड या गुड़ भरकर उसे श्मशान भूमि में दबा दें। तवे को गर्म कर ठंडे पानी से छींटे मारने के बाद फिर रोटी बनाएँ। आठ किलो या 800 ग्राम रेवडि़याँ या पताशे को नदी में बहाएँ। त्रिधातु की अँगूठी पहनें। मृगछाला का प्रयोग में लाएँ। लाल मसूर की दाल को जल प्रवाह दें। 400 ग्राम अजवाइन को बहते जल में प्रवाह दें। दादी से चाँदी की माला दान में लेने का प्रयास करें और आजीवन धारण करें। मकान के आखिरी कोने में अँधेरी कोठरी बनवाएँ। मंदिर में चावल, गुड़ और चने की दाल यथाशक्य दान करें।
द्वादश भावस्थ मंगल
      कुत्ते को मीठी तंदूरी रोटी दें। घर में खुले हथियार न रखें। सोते वक्त सिराहने में सौंफ रखे। 12 दिनों तक गुड़ को प्रवाहित करें। मंगलवार को हनुमान मंदिर में लड्डू या पताशे बाँटें। बड़े भाई की सेवा करें। सिर पर चोटी रखे। खाकी रंग की टोपी/स्कार्फ धारण करना लाभप्रद है। चावल या चाँदी अपने पास रखें। अतिथियों को मीठा भोजन कराएँ। पानी में गुड़ डालकर सूर्य को अर्ध्य दें। दूध से बना हलवा मित्रों के साथ बैठकर खाएँ। गुरु तथा ब्राह्मण की सेवा करें।
        उपरोक्त लाल किताब के उपायों को श्रद्धापूर्वक करने से कुजदोष की तीव्रता में काफी कमी आती है। जातक को चाहिए कि लाल किताब के उपायों के साथ-साथ शिवजी तथा हनुमान जी की भी उपासना करनी चाहिए। लाल किताब के उपरोक्त प्रयोग चमत्कारिक प्रभाव उत्पन्न करते हैं, और शीघ्र ही वैवाहिक विलम्ब, तनाव, कलह, तलाक आदि कष्टों से मुक्ति प्रदान करते हैं।

Tuesday 18 September 2018

क्या आप सच में मांगलीक हैं ??

       भारतीय ज्योतिषशास्त्र ने वैदिक काल से ही कष्ट, दुःख और सन्ताप से पीडि़त मानवता को आधार और सम्बल प्रदान किया है। जब प्रत्यक्ष, अनुमान आदि के आश्रय से भी समस्याओं का समाधान नहीं मिल पाता था तो ज्योतिषशास्त्र अपनी प्रभा से मानव मात्र के अज्ञान, कष्ट, दुःख व अंधकारादि को नष्ट कर सर्वत्र प्रसन्नता व संतोष के वातावरण का निर्माण करता रहा है। मनुष्य के जन्म से लेकर उसकी मृत्युपर्यन्त समस्त महत्त्वपूर्ण घटनाओं का पूर्वानुमान और अनिष्टों का परिहार ही ज्योतिषशास्त्र का उद्देश्य है। मनुष्य के जीवन की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना विवाह है और इस महत्त्वपूर्ण विषय को प्रभावित करने वाले ग्रहयोगों में मंगलदोष अथवा कुजदोष अपने अशुभ प्रभावों के कारण सर्वाधिक कुख्यात ज्योतिषीय ग्रहयोग है।
क्या है यह कुजदोष या मंगल दोष ?
    इस ज्योतिषीय ग्रहयोग के विषय में सर्वप्रथम सूचना हमें महर्षि पराशर प्रणीत वृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् ग्रन्थ में उपलब्ध होती है। भारतीय फलित ज्योतिषशास्त्र के इस आधारभूत रचना में महर्षि ने कहा है-
' लग्ने व्यये सुखेवाऽपि सप्तमे वाऽपिचाष्टमे।       शुभदृग्योगहीने च पतिं हन्ति न संशयः।'
      अर्थात् यदि स्त्री की जन्मकुण्डली के लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश भाव में मंगल स्थित हो तो, इस स्त्री के पति का विनाश होता है। अभिप्राय यह है कि इस प्रकार की ग्रहस्थिति में उत्पन्न स्त्री का वैवाहिक जीवन सुखी नहीं होता अपितु विभिन्न प्रकार के कष्टों से परिपूर्ण होता है। यह ग्रहस्थिति न केवल स्त्री जातक में अपितु पुरुष जातक के जन्माङ्ग में भी कुजदोष को उत्पन्न करता है। जन्माङ्ग के अतिरिक्त चन्द्रकुण्डली में भी यदि उपरोक्त ग्रहयोग हो तो भी कुजदोष का निर्माण होता है।
कुजदोष क्या केवल मंगल ग्रह से ही संबंधित है ?
      हाँ! जब हम कुजदोष या मंगल दोष की बात करते हैं, तो यह ग्रहयोग मंगल ग्रह से ही संबंधित है। अभिप्राय यह है कि केवल मंगल ग्रह की जन्माङ्ग के लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश भावों की उपस्थिति ही कुजदोष या मंगलदोष की उत्पत्ति का कारण बनती है। परन्तु एक महत्त्वपूर्ण तथ्य ध्यातव्य है कि भारतीय ज्योतिषशास्त्र पूर्णतया शोध, प्रयोग, प्रत्यक्षता व निरीक्षण पर आधारित है तथा सहस्रों वर्षों की परम्परा में इस शास्त्र में कई शोध हुए हैं। परवर्ती दैवज्ञों एवं ऋषितुल्य विद्वानों ने कुजदोष की भी नवीन व्याख्या की और इसे ‘भौमपञ्चक दोष’ संज्ञा से अभिहित किया। अर्थात् न केवल मंगल अपितु सूर्य, शनि, राहु और केतु ये समस्त पाँचों ग्रह उपरोक्त भावों में स्थित होकर कुजदोष का ही प्रभाव उत्पन्न करते हैं। यह स्पष्ट है कि विवाह संबंधी प्रसङ्ग में कुजदोष तक सीमित न रहकर अन्य क्रूर ग्रहों की स्थिति पर भी गंभीरतापूर्वक विचार करना आवश्यक है।
क्या इस दोष का कोई परिहार है ?
  हाँ! महर्षि पराशर ने ही इस दोष का परिहार अपने ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है और कहा है-
  'स्त्रीहन्ता परिणीता चेत् पतिहन्त्री कुमारिका।
तदा वैधव्य योगस्य भङ्गगो भवति निश्चयात्।।'
   अर्थात् कुजदोष से पीडि़त स्त्री अथवा पुरुष का विवाह यदि इसी दोष से पीडि़त स्त्री-पुरुष से किया जाए तो इस अशुभ ग्रहयोग का प्रभाव पूर्णतया समाप्त हो जाता है। साथ ही यही कुजदोष नवदम्पत्ति के लिए सुख व समृद्धि का कारण बनता है। परवर्त्ती ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में उपरोक्त परिहार के अतिरिक्त भी अनेक ऐसे ग्रह योग बताए गए हैं, जिनकी जन्माङ्ग में उपस्थिति कुजदोष के प्रभाव को समाप्त कर देती है अथवा उसमें न्यूनता ले आती है।
कुजदोष परिहार में समर्थ वे ग्रहयोग कौन से हैं ?
      कुजदोष परिहार में सक्षम ऐसे ग्रहयोगों की एक लम्बी  शृंखला है। ऐसे ही कुछ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रहयोग अधोलिखित हैं-
* मंगल स्वराशि अथवा उच्च का हो।
* मंगल वक्री, नीच अथवा अस्त हो।
* द्वादश भाव में मंगल, बुध तथा शुक्र की राशियों (मिथुन, कन्या, वृष, तुला) में स्थित हो।
* चतुर्थ सप्तम अथवा द्वादश में मेष या कर्क का मंगल हो।
* मंगल लग्न में मेष अथवा मकर राशि, चतुर्थ में वृश्चिक राशि, सप्तम में वृष अथवा मकर राशि, अष्टम में कुंभ अथवा मीन राशि तथा द्वादश में धनु राशि में स्थित हो।
* बली गुरु या शुक्र स्वराशि, उच्च अथवा त्रिकोणस्थ होकर लग्न या सप्तम भाव में हों।
* केन्द्र त्रिकोण में शुभ ग्रह तथा तृतीय, षष्ठ तथा एकादश भाव में पापग्रह और सप्तमेश सप्तम भाव में हों।
* मंगल-गुरु, मंगल-राहु या मंगल-चन्द्र का योग उपरोक्त भावों में हो।
* सप्तमस्थ मंगल पर गुरु की दृष्टि हो।
* सप्तम भाव गुरु द्वारा दृष्ट हो।
* जन्माङ्ग के दूसरे भाव में शुक्र हो, मंगल राहु के साथ हो अथवा मंगल गुरु द्वारा दृष्ट हो।
      ये समस्त ग्रहयोग कुजदोष को भङ्ग कर देते हैं।
तो फिर समस्या कहाँ है ?
    यह बात ठीक है कि कुजदोष परिहार से संबंधित कई योगों की चर्चा अनेक ग्रन्थों में की गई है और प्रयोग में भी इस ग्रहयोगों के कारण जातक के जीवन में मंगल दोष विषयक कष्टों का अभाव अथवा न्यूनता भी दृष्टिगत होती है। परन्तु समस्या उन 'कुजदोषपरिहारकारक ग्रहयोगों' से है जिसमें मंगल पर शुभग्रहों यथा गुरु, शुक्र, चन्द्रमा तथा छाया ग्रहों राहु व केतु की दृष्टि अथवा युति को इस दोष की समाप्ति में समर्थ माना गया है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जिन-जिन भावों अथवा ग्रहों पर शुभ ग्रहों (गुरु, शुक्र, पूर्णचन्द्र, अकेला बुध) की दृष्टि अथवा युति हो उन-उन भावों अथवा ग्रहों से संबंधित फलों में वृद्धि होती है-
  'यद्भे सन्तस्तस्य पुष्टिं विदध्युः',
'यो यो भावः स्वामिदृष्टो युतो वा सौम्यैर्वा स्यात्तस्य तस्यास्ति वृद्धिः'
   तो स्पष्ट है कि यदि मंगल अष्टम भाव में स्थित हो और द्वितीय भावस्थ गुरु अथवा शुक्र उस पर दृष्टिपात कर रहे हों तो इस परिस्थिति में कुजदोष का परिहार ने होकर कुजदोष के प्रभाव में अत्यधिक वृद्धि होगी। इसी प्रकार का नकारात्मक प्रभाव कुजदोषोत्पत्ति कारक मंगल के शुभग्रहों से युक्त होने पर होता है और मंगल के नकारात्मक प्रभाव में वृद्धि होती है न कि कमी।
               इसी प्रकार राहु-केतु के सन्दर्भ में भी विचारणीय है कि राहु व केतु की युति ग्रहों व भावों के लिए फलवृद्धिकारक होती है-
' यद्यद्भावगतौ वापि यद्यद्भावेश संयुतौ। तत्ततफलानि प्रबलौ प्रदिशेतां तमोग्रहौ।'
     अतः कुजदोष का निर्माण कर रहे मंगल के साथ राहु व केतु की युति कुजदोष को बढ़ाएगी न कि उसको समाप्त करेगी। हम जानते हैं कि पाप ग्रहों की दृष्टि भाव फल तथा ग्रहयोगजन्य फल का नाश करने वाली होती है-
'पापैरेवंतस्य भावस्य हानिर्निदिष्ट्व्यात्।'
      इस सिद्धान्त के अनुसार लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश भावस्थ मंगल पर पापग्रहों की दृष्टि तथा राहु-केतु व्यतिरिक्त पापग्रहों (सूर्य, शनि) की युति मंगलदोष को भङ्ग करेगी। इसी प्रकार शुभग्रहों की सप्तम व लग्नभाव पर दृष्टि कुजदोष परिहार अथवा कुजदोष भङ्ग में सक्षम होगी बशर्ते लग्न व सप्तम भाव में मंगल स्थित न हो।
आखिर संशय उत्पन्न कहाँ से हुआ ?
     वृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् में महर्षि पराशर की उक्ति है-
'लग्ने व्यये सुखे वाऽपि सप्तमे वाऽपि चाष्टमे। शुभदृग्योगहीने च पतिं हन्तिं न संशयः।।'
     यही वह श्लोक है जिसमें कुजदोष से संबंधित ग्रहस्थितियों तथा कुजदोषभङ्ग योग का एक ही स्थान पर निर्देश किया गया है। उपरोक्त श्लोक का 'शुभ दृग्योगहीने' शब्द संशय का मूलकारण प्रतीत होता है। ‘शुभदृग्योगहीन’ शब्द मंगल के लिए न प्रयुक्त होकर विवाह के कारक सप्तम भाव तथा सप्तमेश के लिए प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है। तभी इस विरोधाभास की परिस्थिति से मुक्त हुआ जा सकता है। अतः आवश्यक है कि कुण्डली मिलान के समय ज्योतिषशास्त्र के मूलभूत सिद्धान्तों, ऋषि वचनों, आद्य शब्दों को प्रमाण मानते हुए ऊहापोह-पूर्वक ही कुजदोष निर्णय में किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए।  

द्वादश ज्योतिर्लिंग और कालसर्पदोष निवारण

 कालसर्पयोग की जन्माङ्ग में उपस्थिति मात्र से जनसामान्य के मन मे आतंक और भय की भावना का उदय हो जाता है। कालसर्पयोग से पीडि़त कुण्डली वाले जातकों का सम्पूर्ण जीवन अभाव, अनवरत अवरोध, निरंतर असफलता, सन्तानहीनता, वैवाहिक जीवन में कष्टादि अनेक अनिष्टों से युक्त हो जाता है। 

भारतीय ज्योतिषशास्त्र की फलित शाखा सहस्राधिक वर्षों से पीडि़त मानवता के कल्याण हेतु आध्यात्मिक उपायों को भी प्रकट करती रही है। आज जबकि इस योग से पीडि़त जातकों की संख्या करोड़ों में है, तो इस दिशा में ज्योतिषशास्त्र के विद्वानों की जिम्मेदारी और भी अधिक बढ़ जाती है। इस कष्टप्रद योग की शान्ति संबंधी विविध उपायों पर चर्चा से पूर्व इस ज्योतिषीय योग का सामान्य परिचय देना आवश्यक है।
कालसर्प योग
   किसी भी जातक की जन्मकुण्डली में जब समस्त ग्रह राहु तथा केतु के बीच स्थित रहते हैं तो यह ग्रहस्थिति ‘कालसर्प योग’ के नाम से जानी जाती है।
  राहु तथा केतु की विभिन्न भावों में स्थिति के आधार पर इनका विशिष्ट नामकरण भी किया गया है जो निम्नलिखित हैं-
* राहु की स्थिति प्रथम भाव में तथा केतु की स्थिति सप्तम भाव में होने पर अनंत कालसर्पयोग
* राहु की स्थिति द्वितीय भाव में तथा केतु की स्थिति अष्टम भाव में हो तो कुलिक कालसर्पयोग
* तृतीय भाव में राहु तथा नवम भाव में केतु हो तो वासुकि कालसर्पयोग
* चतुर्थ भाव में राहु तथा दशम भाव में केतु हो तो शंखपाल कालसर्पयोग
* राहु पञ्चम भाव में तथा केतु एकादश भाव में हो तो पद्मकालसर्पयोग
* षष्ठ भाव में राहु और द्वादश भाव में केतु होने पर महापद्मकालसर्पयोग
* सप्तम भाव में राहु तथा लग्न भाव में केतु होने पर तक्षक कालसर्पयोग
* अष्टम भाव में राहु और द्वितीय भाव में केतु हो तो कर्कोटक कालसर्पयोग
* नवम भाव में राहु और तृतीय भाव में केतु होने पर शंखनाद कालसर्पयोग
* राहु दशम भाव में तथा केतु चतुर्थ भाव में हो तो पातक कालसर्पयोग
* एकादश भाव में राहु तथा पञ्चम भाव में केतु हो तो विषाक्त कालसर्पयोग
* द्वादश भाव में राहु तथा षष्ठ भाव में केतु हो तो शेषनाग संज्ञक कालसर्पयोग होता है।
        ये बारह प्रकार के कालसर्प योग उदित तथा अनुदित दो प्रकार के होते हैं। राहु के मुख में सातों ग्रहों के आ जाने पर उदित कालसर्प योग होता है। जबकि सारे ग्रह राहु के पीछे आने पर अनुदित कालसर्प योग होता है।
        भारतीय ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन मनीषियों ने विभिन्न कुयोगों क वर्णन के साथ-साथ उनकी शान्ति अथवा शमन के लिए भी अनेक मार्ग बताए हैं। इन शान्ति मार्गों में मन्त्र, मणि, औषधि आदि प्रमुख हैं। कालसर्पयोग की शान्ति हेतु कई उपायों का वर्णन ज्योतिषशास्त्र के विद्वानों ने किया है। ये उपाय मन्त्र शास्त्र, तन्त्रशास्त्र, लाल किताब आदि पर आधारित हैं। कालसर्पयोगों की शान्ति हेतु सर्वाधिक प्रचलित तथा प्रभावी विधियों का क्रमशः वर्णन किया जा रहा है-
कालसर्पयोग शान्ति अनुष्ठान
      कालसर्पयोग शान्ति का सम्पूर्ण अनुष्ठान त्रिपिंडी श्राद्ध, नारायण बलि, नागबलि तथा नागपूजन द्वारा सम्पन्न होता है। कालसर्पयोग के जन्माङ्ग में उपस्थिति का मूल-कारण पितृशाप माना गया है। अतः पितरों की शान्ति के लिए त्रिपिंडी श्राद्ध आवश्यक है। त्रिपिंडी श्राद्ध संबंधी विस्तृत वर्णन ‘श्राद्ध-चिंतामणि’ ग्रन्थ में उपलब्ध होता है। यदि जातक विवाहित है तो उसे अपनी पत्नी के साथ नवीन श्वेत वस्त्र धारण कर उचित नक्षत्र मुहूर्त्तादि में त्रिपिंडी श्राद्ध करना चाहिए। इसी प्रकार नारायणबलि-नागबलि का भी विद्वान आचार्यों द्वारा अनुष्ठान करवाना चाहिए। यहाँ यह ध्यातव्य है कि नारायणबलि और नागबलि दोनों ही अलग कर्म हैं। इसमें पहले नारायण बलि तथा उसके बाद नागबलि कराना चाहिए। जिन जातको की जन्मकुंडली में नागहत्या आदि का दोष प्रतीत हो रहा हो, उन्हें भी यह कर्म अवश्य कराना चाहिए, क्योंकि नागहत्या के दोष के कारण जातक को संतानहीनता का कष्ट उठाना पड़ता है।
नागपूजन
    नागपूजन में नवनाग-अनन्त, वासुकि, शेष, पद्मनाभ, कम्बल, शंखपाल, धृतराष्ट्र, तक्षक तथा कालिय नागों की स्थापना का विधान है। जबकि नागिनी में कुल बारह जरत्कारू, जगद्गौरी, मनसा, सिद्धयोगनी, वैष्णवी, नागभागिनी, शैवी, नागेश्वरी, जरत्कारूप्रिया, आस्तिकमाती, विषहारा तथा महाज्ञानयुता का पूजन करना चाहिए। इस पूजन में गणपति पूजन, शिवाम्बिका तथा नवग्रहपूजन भी अनिवार्य है। यदि इस सम्पूर्ण अनुष्ठान में कालसर्पदोषशमन यन्त्र की भी प्रतिष्ठा की जाय तो अत्युत्तम फलप्रदान करता है। पूजन के अन्त मे नवग्रह, अधिदेवता, प्रत्यधिदेवता, पञ्चलोकपाल, दशदिक्पाल, क्षेत्रपाल, योगिनी आदि के निमित्त हवन सामग्री से आहुति देनी चाहिए। पूजन में स्थापित किए गए स्वर्ण-रजत तथा ताम्र के नागों को जल में प्रवाहित कर देना चाहिए।
कालसर्प योग शान्ति हेतु बटुकभैरव अराधना
      कालसर्पयोगजनित अनिष्टों की शान्ति के सन्दर्भ में काल-भैरव की उपासना शीघ्रफलदायक मानी गई है। कहा भी गया है-
‘‘भैरवस्तोत्र पाठेन कालसर्पं विनश्यति’’।
बटुक भैरवस्तोत्र, बटुकभैरव कवच, श्रीभैरवाष्टकस्तोत्र और आद्यगुरुशंकराचार्य प्रणीत ‘कालभैरवाष्टकम्’ इस दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। लक्ष्मी प्राप्ति तथा दरिद्रता के नाश के सन्दर्भ में जिस प्रकार ‘कनकधारास्तोत्र’ चमत्कारी प्रभाव रखता, ठीक इसी प्रकार ‘कालभैरवाष्टक’ भी कालसर्पयोगशान्ति हेतु शीघ्रशुभफलदायक है। कालभैरव रूद्र के तामसिक रूप में स्वीकृत है, अतः इनकी उपासना अत्यन्त सावधानीपूर्वक करनी चाहिए। किसी विद्वान आचार्य द्वारा ही शुभ मुहूर्त्त, नक्षत्रदि में श्रीभैरव अनुष्ठान कराना ही श्रेष्ठ होता है। जहाँ तक जनसामान्य हेतु स्तोत्र का प्रश्न है तो आद्यगुरू शंकराचार्य प्रणीत ‘श्रीकालभैरवाष्टकम्’ का जातक द्वारा किया गया नित्य 11 पाठ कालसर्पदोषजनित समस्त अनिष्टों का नाश सहज ही कर देता है। पाठकों की सुविधा के लिए श्रीभैरवाष्टक स्तोत्र तथा आद्यगुरू शंकराचार्य प्रणीत कालभैरवाष्टकम् प्रस्तुत किया जा रहा है-
।।श्रीभैरवाष्टक-स्तोत्रम्।।
चण्डं प्रतिचण्डं करधूतदण्डं कृतरिपुखण्डं सौख्यकरं, लोकं सुखयन्तं विलसितसन्तं प्रकटितदन्तं नृत्यकरम्।।
डमरुध्वनिमन्तं तरलतरं तं मधुरहसन्तं लोभकरं, भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम्।।1।।
चर्चित-सिन्दूरं रणभूवि शूरं दुष्टविदूरं श्रीनिकरं, किघह्नणिगणरावं त्रिभुवनपावं खर्परसावं पुण्यभरम्।
करुणामयवेषं सकलसुरेशं मुक्तसुकेश पापहरं, भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम्।।2।।
कलिमलसंहारं मदनविहारं फणिपतिहारं शीघ्रकरं, कलुषं शमयन्तं परिभूतसन्तं मत्तछगं तं शुद्धतरम्।
गतिनिन्दितहंसं नरनुतहंसं स्वच्छशुकं सन्-मुण्डकरं, भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम्।।3।।
कठिनस्तनकुम्भं सुकृतसुलम्भं कालीडिम्भं खड्गधरं, वृतभूतपिशाचं स्फुटमृदुवाचं स्निग्धसुकाचं भक्तभरम।
तनुभाजितशेषं विमलसुदेशं सर्वसुरेशं प्रीतिपरं, भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम्।।4।।
ललिताननचन्द्रं सुमुखवितन्द्रं बोधितमन्द्रं श्रेष्ठवरं, सुखिताखिललोकं परिहृतशोकं शुद्धविलोकं पुष्टिकरम्।
वरदाभयहारं तरलिततारं क्षुद्रविहारं तुष्टिकरं, भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम्।।5।।
सकलायुधभारं विजनविहारं विश्वविसारं भुष्टमलं, शरणागतपालं मृगमदभालं संजितकालं स्वेष्टवलम्।
पदनूपुरशि=जं त्रिनयनक=जं गुणिजनर=जं कुष्ठहरं, भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम्।।6।।
मदयुत-संरावं प्रकटितभावं विश्वसुभावं ज्ञानपदं, रत्तफ़ांशुक्रजोषं परकृततोषं नाशितदोषं सन्मतिदम्।
कुटिलभ्रुकुटीकं ज्वरधनवीकं विसरन्ध्रीकं प्रेमभरं, भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम्।।7।।
परिनिर्जितकामं विलसितवामं परमभिरामं योगेशं, बहुमद्यनाथं गीत सुगाथं कृष्टसुनाथं वीरेशम्।
कलयन्तमशेषं भृतजनदेशं नुत्यसुरेशं दत्तवरं, भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम्।।8।।
आद्यगुरूशंकराचार्यप्रणीत ‘‘कालभैरवाष्टकम्’’
देवराजसेव्यमानपावनांघ्रिपंकजम्, व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम्।
नारदादियोगिवृन्दवन्दितंदिगम्बरं, काशिकापुराधिनाथकालभैरवंभजे।।
भानुकोटिभास्वरंभवाब्धितारकं परं, नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकंत्रिलोचनम्।
कालकालमम्बुजाक्षमक्षशूलमक्षरं, काशिकापुराधिनाथकालभैरवंभजे।।
शूलटघडक्कपाशदण्डपाणिमादिकारणं, श्यामकायमादिदेवमक्षरंनिरामयम्।
भीमविक्रमंप्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं, काशिकापुराधिनाथकालभैरवंभजे।।
भुत्तिफ़मुत्तिफ़दायकं प्रशस्तचारुविग्रहं, भत्तफ़वत्सलस्थितं समस्तलोकविनिग्रहम्।
विनिक्वणः मनोज्ञहेमकिंकिणीलसत्कटिं, काशिकापुराधिनाथकालभैरवंभजे।।
धर्मसेतुपालकंत्वधर्ममार्गनाशकं, कर्मपाशमोचकं सुशर्मदायकंविभुम्।
स्वर्णवर्णशेषपाशशोभिताघ”मण्डलं, काशिकापुराधिनाथकालभैरवंभजे।।
रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं, नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरन्जनम्।
मृत्युदर्पनाशनंकरालदंष्ट्रमोक्षणं, काशिकापुराधिनाथकालभैरवंभजे।।
अटðहासभिन्नपद्मजाडकोशसन्तति, दृष्टिपातनष्टपापजालमुग्रशासनम्।
अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकन्धरं, काशिकापुराधिनाथकालभैरवंभजे।।
भूतसंघनायकंविशालकीर्तिदायकं, काशिवासलोकंपुण्यपापशोधकंविभुम्।
नीतिमार्गकोविदंपुरातनं जगत्पतिं, काशिकापुराधिनाथकालभैरवंभजे।।
कालभैरवाष्टकंपठन्तिये मनोहरं, ज्ञानमुत्तिफ़साधनंविचित्रपुण्यवर्धनम्।
शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनम्, तेप्रयान्तिकालभैरवांध्रिसन्निधिंध्रुवम्।।
     कालसर्पदोष शमन हेतु उपरोक्त बटुकभैरव प्रयोग अत्यन्त उपयोगी, हितकर व शास्त्रसंगत है तथा इसकी प्रामाणिकता अनुभव सिद्ध है। 
मंत्र प्रयोग
    भारतीय ज्योतिषशास्त्र में ग्रहयोगजनित दोषों के शमन हेतु उपासनाविधि के संबंध में कई संकेत प्राप्त होते हैं। जहाँ तक कालसर्पयोग के शमन में मंत्र प्रयोग का प्रश्न है तो राहु-केतु की शान्ति हेतु प्रयुक्त मंत्र यहां भी अपना शुभ प्रभाव उत्पन्न करते हैं-
* राहुगायत्री मन्त्र ‘‘ऊँ नीलवर्णाय विद्महे सैंहिकेयाय धीमहि तन्नो राहुः प्रचोदयात’’ की एक माला नित्य पढ़ें।
* राहु तांत्रिक मन्त्र - ‘‘ऊँ भ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः।’’ की 11 मालाएँ नित्य पढ़ें।
* राहु पौराणिक मन्त्र - ‘‘ऊँ अर्धकायं महावीर्यं चन्द्रादित्यविमर्दनम्।
सिंहिकागर्भसम्भूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम्।।’
का नियमित पाठ करें।
* इसके साथ केतु गायत्री मन्त्र - ‘‘ऊँ धूम्रवर्णाय विद्महे कपोतवाहनाय धीमहि तन्नः केतु प्रचोदयात’’ से एक माला का पाठ नित्य करें।
* केतु तान्त्रिक मन्त्र - ‘‘ऊँ प्रां प्रीं प्रौं सः केतवे नमः’’। की 11 मालाएँ नित्य जपें।
* केतु पौराणिक मन्त्र - ‘‘ऊँ पलाशपुष्पसंकाशं तारकाग्रहमस्तकम्।
रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्ययहम्।।’’
का नियमित पाठ करें।
* 11 दिन तक लगातार रूद्राभिषेक करें।
* संकटमोचन हनुमानाष्टक की निम्नलिखित पंक्तियों का नित्य 11 बार पाठ करें-
‘रावण जुद्ध अजान कियो तब। नाग की फाँस सबै सिर डारो।
श्रीरघुनाथ समेत सबैदल। मोह भयो यह संकट भारो।
आनि खगैस तबै हनुमान जु। बंधन काटि सुत्रस निवारो।’
* रूद्र सूक्त का नित्य पाठ करें। तथा शिवार्चन के जल को अपने स्नान के जल में मिलाकर स्नान करें।
स्नानदान
* साढे एक पल परिमाण का स्वर्ण नाग प्रतिमा बनवाएँ उसके फण पर नाग के वजन के चौथाई  वजन का मोती जड़वाएं। इस नाग को चन्द्रग्रहण के समय देशी घी से भरे कांस्यपात्र में रखें तथा अपना मुख देखकर दान करेें।
* सोने से बने सांप के जोड़े को तिल के तेल से भरे फाँसे के बर्तन में रखें तथा वस्त्र व दक्षिणा सहित दान दें।
* सूर्योदय के समय रजत पात्र या स्वर्णपात्र में अपनी छाया देखकर दान दें।
* सोना, शीशा, काले तिल, नीलावस्त्र, घोड़ा, नारियल, आदि का दान करें।
* किसी सँपेरे से साँप खरीद लें, पुनः उसे सूर्योदय से पूर्व हो नदी में छोड़ आएं।
*नागपञ्चमी के दिन व्रत करें तथा नागस्तोत्र का पाठ करें।
* स्वर्ण, रजत, ताम्र अथवा अष्टधातु से बनी 11 नाग प्रतिमाओं को सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण तथा नागपंचमी के दिन नदी में प्रवाह दें। प्रवाह के समय निम्नलिखित मन्त्र को तीन बार पढ़ें-
‘‘ऊँ नमोस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथ्वीमनु।
ये अन्तरिक्षे ये दिवितेभ्यः सर्पेभ्यो नमः।।’’
* स्नान के जल में पठानी लोध का चूर्ण, कुशा, नीम के पत्ते-छाल व फल तथा नागरमोथा के साथ इत्र को डालकर स्नान करें।
* पलाश के फूल को गोमूत्र में भिंगोकर सुखा लें तथा इसे चूर्ण बना लें। स्नान के जल में डालकर नित्य प्रयोग में लाएँ।
* कस्तूरी, तारपीन, हाथीदांत, लोबान तथा मोथा मिले जल से स्नान करना इस दोष में न्यूनता लाता है।
* 108 नारियल लें। इसे राहु के मन्त्र ‘‘ऊँ भ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः’’ से 108 बार अभिमन्त्रिक करें। बाद में इन नारियलों का उतारा कर बहते जल में प्रवाह दें।
रत्न, मुद्रिका तथा मणि (लॉकेट) धारण
* सवा सात रती का उत्तम गोमेद लें। उसे स्वर्ण अथवा अष्टधातु की मुद्रिका में स्थापित कर बुधवार के दिन सूर्योदय से एक घंटे के अंदर धारण करें।
* तांबे से बनी सर्प की अंगूठी धारण करें।
* अष्टधातु अथवा स्वर्ण से एक सर्प बनाएं जिसके फण पर गोमेद तथा पूंछ पर लहसुनिया (दोनों सवा पांच रती) जड़ा हो। इसे अंगूठी का रूप दें। बुधवार के दिन प्राणप्रतिष्ठा के बाद मध्यमा अंगुली में सूर्योदय के एक घंटे के अंदर धारण करें।
* उपरोक्त सर्प को लॉकेट का स्वरूप देकर गले मे भी पहना जा सकता है।
* स्वर्ण पत्र के एक ओर राहुयंत्र तथा दूसरी ओर केतु यंत्र बनाकर लॉकेट के रूप में धारण करें।
* कालसर्प दोषशमन यन्त्र को प्राणप्रतिष्ठित कर नित्य, पूजा, अर्चना करें।
      जिन जातकों के पास जन्मपत्रिका नहीं है परन्तु कालसर्पदोष से संबंधित विभिन्न कष्टों जैसे- डरावने सपने, खाद्य सामग्री में बाल का मिलना, ऊँचाई से भय, उड़ने का स्वप्न, स्वप्न में नागों का दिखना, सोते समय सर्पों का अनुभव, सन्तानहीनता, अकारण विवाह में बिलम्ब, परिश्रम के अनुसार सफलता न मिलना आदि से पीडि़त हों तो उन्हें अधोलिखित उपाय श्रद्धापूर्वक करने चाहिए-
* अपने वजन के बराबर कच्चे कोयले को बुधवार के दिन बहते हुए जल में प्रवाहित करें।
* रात्रि को सोते समय एक मुट्ठी जौ पोटली में बांध सिराहने मे रखें तथा प्रातः काल ये दाने चिडि़यों को खिला दें।
* ताजी मूली का दान बुधवार को करें।
* भंगी को मसूर की दाल का दान और कुछ रूपए भी दें।
* रसोई-घर में बैठ कर भोजन करें।
* 43 दिन तक लगातार कच्चे नारियल को जल में प्रवाह दें।
* गौमूत्र से दांत साफ करें तथा घर में भी रखें।
कालसर्पयोग शान्ति व ज्योेतिर्लिंग उपासना    
        कालसर्पयोग से उत्पन्न होने वाले कष्टों के शमन हेतु जितने भी उपाय विद्वानों द्वारा बताए गए हैं, उनमें रूद्र तथा उनके विभिन्न स्वरूपों की उपासना सर्वप्रमुख है। शिवोपासना, बटुकभैरव उपासना तथा हनुमत् उपासना इस सन्दर्भ में अत्यन्त चमत्कारी माने गए हैं। इस तरह स्पष्ट है कि शिव की उपासना राहु व केतु जनित अनिष्टों तथा कालसर्पदोष की शान्ति मे अत्यन्त उपयोगी है। द्वादश ज्योतिर्लिंग की अराधना कालसर्पयोग की शान्ति में अचूक उपाय के रूप में माना जा सकता है। कहा भी गया है कि इन ज्योतिर्लिङ्गों के दर्शन तथा नामस्मरण से सात जन्मों में किए गए पापों का नाश हो जाता है और कालसर्पयोग भी पूर्वजन्मकृत नागहत्या, विष-प्रयोग, पूर्वजों के श्राद्ध में अनियमितता आदि का ही दुष्परिणाम है-
‘एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रातः पठेन्नरः। सहस्रजन्मकृतं पापं स्मरेण विनश्यति।।
स्तेषां दर्शनादेव पातकं नैव तिष्ठति। कर्मक्षयो भवेत्तस्य यस्य तुष्टो महेश्वराः।।’
        द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों और उनके स्थान का वर्णन करते हुए शिव पुराण में कहा गया है-
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। उज्जयिन्यां महाकालमोघड्ढारममलेश्वरम्।।
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशघड्ढरम्। सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारूकावने।।
वाराणस्यां तु विश्वेशं =यम्बकं गौतमीतटे। हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये।
                  स्पष्ट है कि सोमनाथ, श्रीमल्किार्जुन, श्रीमहाकाल, श्री ऊँकारेश्वर, श्रीवैद्यनाथ, श्रीभीमशङ्कर, श्रीरामेश्वरम्, श्रीनागेश्वर, श्री विश्वनाथ, श्रीत्रयम्बकेश्वर, श्रीकेदारनाथ और श्रीघुमेश्वर। भारतवर्ष के विभन्न स्थलों पर विराजमान इन द्वादशज्योतिर्लिङ्गों के नामस्मरण मात्र से सात जन्मों का किया गया पापसमूह नष्ट हो जाता है। इन पुण्यस्थलों पर शिवार्चन तथा रूद्राभिषेक अनुष्ठान करने से कालसर्पयोग जनित समस्त अनष्टिों का नाश सहज ही हो जाता है। ।   

राहु-केतु दशाफल निर्णय

        भारतीय ज्योतिषशास्त्र में तो वैसे कई दशा प्रकार प्रचलित हैं, परन्तु विंशोत्तरी दशा को सर्वश्रेष्ठ माना गया है तथा इसका समर्थन ज्योतिषपितामह महर्षि पराशर ने अपनी रचना ‘लघुपाराशरी’ में भी किया है। इस दशाक्रम के अनुसार मनुष्य की आयु 120 वर्ष मानी गई है और प्रत्येक ग्रहों को कुछ वर्षों का दशेश बनाया गया है। दशावर्ष की दृष्टि से राहु तथा केतु अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये दोनों मिलकर मानव जीवन के कुल 25 वर्ष (राहु 18 वर्ष तथा केतु 7 वर्ष) पर अपना प्रभाव रखते हैं। अतः आवश्यक है कि राहु तथा केतु दशाफल पर पर्याप्त विचार किया जाए।
राहु महादशाफल-
राहु की गणना क्रूर व पाप ग्रह के रूप में की जाती है अतः इसकी दशा सामान्यतया अशुभफलप्रद ही मानी गई है। राहु वृष में उच्च का होता है जबकि इसकी मूलत्रिकोण राशि कुम्भ है। राहु की महादशा में जातक को सुख-धन-धान्य आदि की हानि, स्त्री-पुत्रादि के वियोग से उत्पन्न कष्ट, रोगों की अधिकता, प्रवास, झगड़ालू मानसिकता आदि अशुभ फल प्राप्त होते हैं। इस सन्दर्भ में यह ध्यातव्य है कि लग्नादि द्वादश भावों में राहु की स्थिति महादशा के फल को भी प्रभावित करती है।
विभिन्न भावों में स्थित राहु का दशाफल-
* लग्न- ऐसे राहु की महादशा में जातक के सोचने समझने की शक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। विष, अग्नि तथा शस्त्रादि से इसके बान्धवों का विनाश होता है। मुकदमें तथा युद्ध में पराजय, दुःख, रोग और शोक की प्राप्ति भी होती है।
* द्वितीय भाव- धन तथा राज्य की हानि, नीच स्वभाव तथा नीच कर्म वाले अधिकारी का अधीनस्थ होना, मानसिक रोग, असत्यभाषण और क्रोध की अधिकता रहती है।
* तृतीय भाव- सन्तति, धन, स्त्री तथा सहोदरों का सुख, कृषि से लाभ, अधिकार मे वृद्धि,विदेश यात्रा और राजा से सम्मान मिलता है।
* चतुर्थ भाव- माता अथवा स्वयं को मरणतुल्य कष्ट, कृषि व धन की हानि, राजप्रकोप, स्त्री की चारित्रक-भ्रष्टता, दुःख, चोर-अग्नि व बंधन का भय, मनोरोग, स्त्री-पुत्रदि को पीड़ा तथा सांसारिक सुखों से विरक्ति हो जाती है।
* पञ्चम भाव- बुद्धिभ्रम, निर्णय लेने की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव, उत्तम भोजन का अभाव, भूख की कमी, विद्या के क्षेत्र में विवाद, व्यर्थ का विवाद, राजभय तथा पुत्र हानि का भय होता है।
* षष्ठ भाव- चोर, डाकू, लुटेरे, जेबकतरे, अग्नि, बिजली तथा राजप्रकोप का भय, श्रेष्ठ जनों की मृत्यु, प्रमेह, पाचनसंबंधी विकार, क्षयरोग, पित्तरोग, त्वचा विकार, एलर्जी तथा मृत्यु आदि का भय।
* सप्तम भाव- पत्नी की आकस्मिक मृत्यु या मरणतुल्य कष्ट, अकारण तथा निष्फल प्रवास, कृषि तथा व्यवसाय में हानि, भाग्यहानि, सर्पभय तथा पुत्र व धन की हानि होती है।
* अष्टम भाव- मरणतुल्य कष्ट, पुत्र तथा धन का नाश, चोर-डाकू, अग्नि तथा प्रशासन से भय, अपने लोगों से शत्रुता, विश्वासघात, स्थानच्युति तथा हिंसक पशुआें से भय की प्राप्ति होती है। इष्टबन्धुओं का नाश, स्त्री पुत्रादि को पीड़ा तथा व्रण भय।
* नवम भाव- पिता की मृत्यु या मरण तुल्य कष्ट, दूर देश की अकारण यात्रा, गुरूजनों या प्रियजनों की मृत्यु, अवनति, पुत्र व धन की हानि तथा समुद्र स्नान के योग बनते हैं।
* दशम भाव- यदि राहु पाप प्रभाव में हो तो कर्म के प्रति अनिच्छा का भाव, पुत्र-स्त्री आदि को कष्ट, अग्नि भय तथा कलंक लगना आदि अशुभ फल मिलते हैं। जबकि शुभ प्रभाव से युक्त राहु धर्म के प्रति आकर्षण उत्पन्न करता है।
* एकादश भाव- शासन से सम्मान, पदोन्नति, धनलाभ, स्त्रीलाभ, आवास, कृषि भूमि आदि की प्राप्ति होती है।
* द्वादश भाव- स्थानच्युति, मानसिक रोग, परिवार से वियोग, प्रवास, सन्तानहानि, कृषि में घाटा, पशु तथा धन-धान्य की चिंता बनी रहती है। व्रण भय, चोरभय, राजभय, स्त्री-पुत्रदि को पीड़ा तथा इष्ट बन्धुओं का नाश।
           इस सन्दर्भ में यह ध्यातव्य है कि यदि राहु उच्च अर्थात् वृष राशि के हों तो अपनी महादशा में राज्याधिकार प्रदान करते हैं और साथ ही साथ मित्रवर्ग के सहयोग से जातक के धन-धान्य में भी प्रचुर मात्रा में वृद्धि होती है। राहु यदि शुभ तथा अशुभ दोनों ही प्रभावों से युक्त हों तो इनकी महादशा के आरम्भ में कष्ट, दशामध्य में सुख व यश प्राप्ति तथा दशा के अन्त में जातक को स्थानच्युति, गुरू व पुत्रादि संबंधी शोक प्राप्त होता है। इन कष्टों की शान्ति हेतु महर्षि पराशर ने राहु की अराधना-जप-दानादि शान्तिकारक कार्य शास्त्रोक्त विधान से कराने का आदेश दिया है, जिससे जातक को सम्पत्ति व आरोग्यादि का लाभ होता है-
‘‘सदा रोगो महाकष्टं शान्तिं कुर्याद्यथाविधि।
आरोग्यं सम्पदश्चैव भविष्यन्ति तदा द्विज।।’’
केतु महादशा फल-
केतु की गणना तामसिक ग्रह के रूप में होती है तथा ये सामान्यतया अशुभ फल ही देते हैं। केतु की उच्च राशि वृश्चिक है जबकि मूलत्रिकोण राशि सिंह है। महादशेश होने पर इनकी दशावधि 7 वर्ष की होती है। इनकी दशा में जातक को वात-पित्त प्रकोप से उत्पन्न रोग, नीच तथा दुर्जन जनों से विवाद, दुःस्वप्नों की अधिकता, दीनता, बुद्धि व विवेकशून्यता, व्याधियों का आधिक्य, व्याकुलता, पापकर्मों में वृद्धि तथा सुखों में कमी बनी रहती है।
लग्नादि भावों में स्थित केतु दशाफल-
* लग्नभाव- महाभय, ज्वर, अतिसार, प्रमेह, दस्त, हैजा, तपेदिक आदि रोगों से संबंधित कष्ट होता है।
* द्वितीय भाव- धन की हानि, वाणी में कठोरता, मुखरोग, दुःख का आधिक्य, मन में विचलन, निन्दित अन्न की प्राप्ति तथा भोजन की कमी बनी रहती है।
* तृतीय भाव- इस महादशा में जातक को किञ्चित सुख प्राप्त होता है पर मन में व्याकुलता बनी रहती है और सहोदर भाईयों के साथ परस्पर द्वेष बना रहता है।
* चतुर्थ भाव- सुख का नाश तथा स्त्री पुत्रदि से वियोग होता है। परन्तु घर में अन्न, धन आदि की अधिकता रहती है।
* पञ्चम भाव- पुत्र हानि अथवा पुत्र की ओर से कष्ट, मन में भ्रम की स्थिति, राजकोप तथा धन नाश के योग बनते हैं।
* षष्ठ भाव- भय का आधिक्य, चोर तथा अग्नि से हानि होती है। विष प्रयोग का भी भय बना रहता है।
* सप्तम भाव- अनेक प्रकार के भय, पत्नी-पुत्र तथा धन का नाश, मूत्र संबंधी रोग तथा मानसिक रोगों से मन व्याकुल रहता है।
* अष्टम भाव- पिता की मृत्यु या मरणतुल्य कष्ट, खांसी, श्वासरोग, संग्रहणी, क्षय आदि रोगों का भय होता है। हृदयरोग, मानहानि, धनधान्य और पशुओं का क्षय, स्त्री-पुत्र को पीड़ा तथा मानसिक चञ्चलता का भय रहता है।
* नवम भाव- जातक के पिता अथवा गुरू को कष्ट, विविध प्रकार के दुःख तथा शुभ कर्मों की हानि होती है।
* दशम भाव- जातक को सुख प्राप्ति होती है। मान सम्मान की हानि, जाड्यता का भाव, अपयश तथा मानसिक रोगों का भी भय निरन्तर बना रहता है।
* एकादश भाव- सुख की प्राप्ति, भाई का सुख, मित्र वर्ग से सहयोग, यज्ञ-दानादि धार्मिक कार्यों में वृद्धि होती है।
* द्वादश भाव- कष्ट, स्थानभ्रष्टता, प्रवास, राज्यपक्ष से पीड़ा तथा नेत्र हानि अथवा नेत्र रोग का भय होता है। हृदयरोग, मानहानि, धनधान्य और पशुओं का क्षय, स्त्री-पुत्र को पीड़ा तथा मानसिक चञ्चलता का भय रहता है।
     यद्यपि केतु की महादशा सामान्यता अशुभ फल देने वाली होती है, परन्तु यदि यह केतु शुभ ग्रहों से दृष्ट हों तो अपनी महादशा में सुख, राज्य-धन तथा ग्रह प्राप्ति, राज्यपूज्यता तथा मन की दृढता प्रदान करता है। केतु महादशा के आरम्भ में जातक को सुख प्राप्त होता है जबकि दशा मे मध्य में भय होता है। महादशा के अन्त में राजभय, शरीर में पीड़ा अर्थात् लकवा आदि रोगों का भय होता है। केतु की महादशा में प्राप्त होनेवाले कष्टों की शान्ति हेतु सप्तशती का पाठ, मृत्युञ्जय जप तथा विष्णुसहस्रनाम का पाठ करवाना चाहिए। राहु तथा केतु की महादशा पर विचार करने से पूर्व यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ये ग्रह यदि स्वोच्च, स्वराशि, स्वमूलत्रिकोण आदि के हों तो अपनी दशान्तर्दशा में शुभ फल देते हैं-
‘‘स्वोच्चे स्वगेहे यदि वा त्रिकोणे वर्गे स्वकीयेऽथ चतुष्टये वा।
नाऽस्तंगतो नोऽशुभदृष्टियुक्तो जन्माधिपः स्याच्छुभदः स्वपाके।।’’

क्या है कालसर्पयोग ?


 कालसर्पयोग को लेकर ज्योतिष जगत में पर्याप्त विरोधाभास है। दैवज्ञों का एक वर्ग इस ज्योतिषीय योग को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानता है। जबकि दूसरा वर्ग इस कालसर्पयोग के अस्तित्व पर ही प्रश्न खड़ा कर देता है। ज्योतिषशास्त्र के विद्वानों के बीच का यह विवाद आज जनसामान्य में संशय उत्पन्न कर रहा है। इसलिए आवश्यक है कि ‘कालसर्पयोग’ संज्ञक इस ज्योतिषीय योग की वैज्ञानिकता पर पर्याप्त विचार किया जाय जिससे कि इस योग की महत्ता या निरर्थकता पर निर्णय कर पाना सरल हो सके।
कालसर्पयोग का शाब्दिक अर्थ-
‘कालसर्पयोग’ शब्द तीन शब्दों काल,सर्प और योग के मिलने से बना है। ‘काल’ शब्द का प्रयोग वैदिक काल से होता आ रहा है और आज का सम्पूर्ण ज्योतिषशास्त्र ‘काल’ पर ही आश्रित है- ‘‘ज्योतिषं कालविधानशास्त्रम्’’। ‘सूर्य-सिद्धान्त’ में काल के दो स्वरूप कहे गये हैं एक गणनात्मक काल और दूसरा लोकादि का संहारक काल-‘लोकानामन्तकृत कालः कालोऽन्यं कलनात्मकः’ इस कालसर्पयोग शब्द में प्रयुक्त ‘काल’ शब्द दोनों ही अर्थों से युक्त है। अभिप्राय यह है कि यह ज्योतिषीय योग जातक के सम्पूर्ण जीवन पर अपना प्रभाव डालता है और नकारात्मक फलोत्पादक होने के कारण भय भी उत्पन्न करता है। इस योग का दूसरा शब्द है-‘सर्प’।
यह ‘‘सर्प’’ शब्द भौतिक सरीसृप जीव ‘सर्प’ से भिन्न है और इसका अर्थ है-राहु केतु नामक छाया ग्रह। भारतीय ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रन्थ ‘बृहत्संहिता’ में एक सर्प की कल्पना की गई है जिसका शिर राहु और पुच्छ केतु के रूप में स्वीकृत है
-‘मुखं पुच्छ विभक्तांगं भुजंगमाकारमुपदिशन्त्यन्ये’
इस ज्योतिषीय योग का आखिरी शब्द है ‘योग’। योग शब्द का अर्थ है ‘जुड़ना’। यह शब्द विभिन्न ग्रहों के मध्य संबंधों को दर्शाता है। ऐसे अवसर या संयोग जिसमें दो या दो से अधिक ग्रह-राशि-नक्षत्रादि संयुक्त होकर दुःखद या सुखद स्थितियों का निर्माण करते हैं ‘योग’ कहे जाते हैं। इस तरह मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि- ‘‘राहु तथा केतु द्वारा जन्मांग में बननेवाला वह योग जो जातक के लिए आजीवन कष्टप्रद होता है, कालसर्प योग कहा जाता है।’’
कैसे बनता है कालसर्प योग-
यदि किसी व्यक्ति के जन्मकाल में समस्त ग्रह राहु तथा केतु के मध्य हों तो कालसर्प योग का निर्माण होता है। कहा भी गया है-
‘‘राहुतः केतुमध्ये आगच्छन्ति यदा ग्रहाः।
कालसर्पस्तु योगोऽयं कथितं पूर्वसूरिभिः।’’
राहु तथा केतु की लग्नादि द्वादश भावों में स्थिति के आधार पर ये प्रमुख रूप से बारह प्रकार के माने गए हैं। अभिप्राय यह है कि राहु लग्न भाव में तथा केतु सप्तम भाव में स्थिति होकर कालसर्प योग का निर्माण कर रहें हो तो यह अनंत कालसर्पयोग कहा जाएगा। इसी प्रकार जन्मकुण्डली के अन्य भावों में राहु तथा केतु की स्थिति के आधार पर इनका नामकरण इस प्रकार किया गया है-
* राहु की स्थिति प्रथम भाव में तथा केतु की स्थिति सप्तम भाव में होने पर अनंत कालसर्पयोग
* राहु की स्थिति द्वितीय भाव में तथा केतु की स्थिति अष्टम भाव में हो तो कुलिक कालसर्पयोग
* तृतीय भाव में राहु तथा नवम भाव में केतु हो तो वासुकि कालसर्पयोग
* चतुर्थ भाव में राहु तथा दशम भाव में केतु हो तो शंखपाल कालसर्पयोग
* राहु पञ्चम भाव में तथा केतु एकादश भाव में हो तो पद्मकालसर्पयोग
* षष्ठ भाव में राहु और द्वादश भाव में केतु होने पर महापद्मकालसर्पयोग
* सप्तम भाव में राहु तथा लग्न भाव में केतु होने पर तक्षक कालसर्पयोग
* अष्टम भाव में राहु और द्वितीय भाव में केतु हो तो कर्कोटक कालसर्पयोग
* नवम भाव में राहु और तृतीय भाव में केतु होने पर शंखनाद कालसर्पयोग
* राहु दशम भाव में तथा केतु चतुर्थ भाव में हो तो पातक कालसर्पयोग
* एकादश भाव में राहु तथा पञ्चम भाव में केतु हो तो विषाक्त कालसर्पयोग
* द्वादश भाव में राहु तथा षष्ठ भाव में केतु हो तो शेषनाग संज्ञक कालसर्पयोग होता है।
क्या इस योग का वर्णन प्राचीन ग्रन्थों में हैं?-
इसका सीधा सा जवाब है - नहीं। ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों जैसे गौरीजातकम्, वृहत्पराशरहोराशास्त्र, जैमिनीसूत्रम् वृहज्जातक, सारावली, सर्वार्थचिन्तामणि, जातकाभरणम्, फलदीपिका आदि में ‘कालसर्पयोग’ नाम से किसी भी ज्योतिषीय योग का उल्लेख नहीं मिलता है। यहां तक कि अपेक्षाकृत नवीन रचनाओं जैसे ‘लाल-किताब’ में भी इस योग का नाम तक नहीं लिया गया है। हाँ इतना आवश्यक है कि इन प्राचीन ग्रन्थों में सर्पयोग नाम के कई ग्रहयोगों का विशद् वर्णन मिलता है।

तब तो कालसर्पयोग की प्रमाणिकता संदिग्ध ही मानी जाए?-
किसी भी निर्णय पर आने से पूर्व तथ्यों का गहन अध्ययन आवश्यक है। यह सत्य है कि प्राचीन ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में ‘कालसर्पयोग’ नामक किसी ग्रहयोग का वर्णन नहीं मिलता है परन्तु ‘सर्पयोगों’ के उल्लेख को इस अतिविशिष्ट ‘‘कालसर्पयोग’’ का मूल माना जा सकता है। इस तथ्य के समर्थन हेतु प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध कुछ सन्दर्भों पर दृष्टिपात करते हैं-
नाभसयोगों में से एक ‘सर्पयोग’ के सन्दर्भ में महर्षि पराशर ने कहा है कि ऐसा व्यक्ति कुटिल, क्रूर, निर्धन, दुःखी, दीन तथा दूसरों के अन्न पर निर्भर रहने वाला होता है। इसी योग के सन्दर्भ में वराहमिहिराचार्य, कल्याणवर्मा, ढुंढिराज, मीनराज आदि ने भी पर्याप्त दृष्टि डाली है। इन ग्रन्थों के विभिन्न शापों का भी उल्लेख है और इसमें ‘सर्पशाप’ भी एक है। सन्तानहीनता के सन्दर्भ में यह ‘‘सर्पशाप’’ अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है। ‘कर्त्तरी’ संबंधी ज्योतिषशास्त्रीय अवधारणा भी इस सन्दर्भ में विचारणीय है। पाप कर्त्तरी के मध्य फंसा कोई भी ग्रह शुभफलोत्पादक नहीं हो पाता है साथ ही यह अशुभ फल भी देता है। यदि गम्भीरता से विचार करें तो स्पष्ट हो जाता है कि ‘कालसर्पयोग’ भी एक वृहत् पापकर्त्तरी ही है जिसके बीच सारे ग्रह फंसे होते हैं। यही कारण है कि समस्त ग्रह पीडि़त होकर शुभफल उत्पन्न करने में असमर्थ हो जाते हैं साथ ही जातक का सम्पूर्ण जीवन कष्टप्रद हो जाता है।
दूसरी बात यह कि यदि केवल प्राचीन ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में उल्लेख को ही योगों की प्रामाणिकता का आधार माना जाए तो आज के सन्दर्भ में ज्योतिषशास्त्र की उपादेयता संदेह के घेरे में आ जाएगी। जैसे आज के समाज में सर्वाधिक महत्वपूर्ण पदों आई.ए.एस., आई.पी.एस., प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, विधायक, सांसद, कम्प्यूटर इंजीनियर, आदि का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में नहीं मिलता है। साथ ही इन प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित, चक्रवर्ती सम्राट, सामन्त, नगरपति आदि पद भी आज अस्तित्व में नहीं है। परन्तु आप दैवज्ञों द्वारा इन प्राचीन योगों के सन्दर्भ मे ही तारतम्यतापूर्वक फलादेश की प्रक्रिया को सफलतापूर्वक प्रयोग में लाया जाता है। प्रत्येक शास्त्र में शोध के लिए पर्याप्त अवसर होता है और भारतीय ज्योतिषशास्त्र इसका अपवाद नहीं हैं। यही कारण है कि 36 श्लोकों वाले ‘आर्च ज्योतिष’ नामक लघुकाय ग्रन्थ से प्रारम्भ होकर यह ज्योतिष वेदांग लाखों ग्रन्थों से समृद्ध शास्त्र बना तभी तो यह उक्ति प्रसिद्ध हुई- ‘‘चतुर्लक्षं तु ज्यौतिषम्’’।
यदि हमारे प्राचीन मनीषियों ने भी इसी प्रकार योगों के सन्दर्भ में प्राचीन शास्त्रों में उल्लेख के प्रति आग्रह रखा होता तो हमारे पास आज भी वही एक मात्र 36 श्लोकों वाला ‘ऋक् ज्योतिष’ नामक ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थ होता। परन्तु यह हमारा सौभाग्य है कि आज ऐसा नहीं है। हमारे प्राचीन मनीषियों तथा दैवज्ञों ने ज्योतिषशास्त्र के क्षेत्र में हुए शोधों का सदैव स्वागत किया है और यही कारण है कि ज्योतिषशास्त्र हजारों वर्षों के बीतने पर भी सतत प्रगति के पथ पर अग्रसर होता जा रहा है।
प्रत्यक्षं ज्यौतिषं शास्त्रम्- ज्योतिषशास्त्र का आधार प्रत्यक्षता है और इस कालसर्पयोग के सन्दर्भ में भी हमें प्रत्यक्षता को ही आधार मानना चाहिए। कालसर्प योग से पीडि़त जातकों के जीवन में कष्टों का आधिक्य, संतानहीनता, रोग, निर्धनता, परिश्रम के बाद भी उचित फल न मिलना आदि अशुभ प्रभाव इस योग के अस्तित्व तथा इसकी गंभीरता को प्रदर्शित करने के लिए पर्याप्त हैं। अतः आवश्यक है कि जनसामान्य के साथ-साथ ज्योतिष समाज का प्रबुद्ध विद्वद्वर्ग भी ज्योतिषशास्त्र के क्षेत्र में हुए इस वैज्ञानिक शोध की महत्ता को स्वीकार करें और इस अशुभ योग से पीडि़त जातकों के कल्याण हेतु आगे आएँ।