डॉ. प्रियंका जैन

इन कारणों से लक्ष्मी उपासकों का त्याग कर देती  हैं..


     जब-जब दीपावली का पवित्र पर्व आता है,हम बड़े ही मनोयोग से भगवती लक्ष्मी की कृपा प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं। विविध मंत्रों की उपासना,स्तोत्रों के पाठ, अलग-अलग यन्त्रों व तन्त्र का आश्रय लेते हैं। कुछ समय तक तो सब-कुछ ठीक रहता है और उसके बाद फिर से वही आर्थिक समस्याएं हमें पीड़ित करने लगती हैं।हमारा विश्वास हमारे धर्म और हमारी मान्यताओं से हटने लगता है और स्वयं व अपने दुर्भाग्य को कोसने के बाद दूसरे निन्दित धर्म व उपास्य का आश्रय ग्रहण कर लेते हैं।हिन्दू धर्म में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि हम इस जीवन में स्वयं द्वारा किए गए कर्मों का ही फल भोगते हैं।सम्पन्नता या दरिद्रता भी हमारे कर्मों का ही कर्मफल है। हम अपने कर्मों से ही किसी दिव्य शक्ति को प्रसन्न भी कर सकते हैं और वही शक्ति हमारे द्वारा किए गए निन्दित कर्मों के कारण रुष्ट भी हो सकती हैं। भगवती लक्ष्मी की उपासना भी इस दैवीय नियम का अपवाद नहीं है। महर्षि वेद व्यास ने अपनी महान रचना महाभारत में जन कल्याण के सामान्य विषयों के साथ साथ अत्यन्त गूढ़ विषयों पर भी पर्याप्त चर्चा की है | सामान्यतया भगवती लक्ष्मी को चंचला कहा जाता है और इसे शाश्वत सत्य मान लिया जाता है परन्तु सत्य इससे किंचित भिन्न है | मनुष्यमात्र अपने आचार-व्यवहार तथा आचरण से लक्ष्मी की चिर कृपा का भी पात्र भी हो सकता है और उनकी उपेक्षा  का भी | महाभारत के शांति पर्व में जब युधिष्ठिर ने ठीक यही प्रश्न पितामह भीष्म से किया था और पूछा था कि –

कीदृशे पुरुषे तात स्त्रीषु वा भरतर्षभ |
श्री: पद्मा वसते नित्यं तन्मे ब्रूहि पितामह ||

 अर्थात् हे पितामह!आप मुझे यह बताने की कृपा करें कि भगवती लक्ष्मी किस प्रकार के पुरुषों और कैसी स्त्रियों के पास नित्य अर्थात् स्थिर रूप से निवास करतीं हैं, तो पितामह भीष्म ने भगवती लक्ष्मी और कृष्णप्रिया रुक्मणी के सम्वाद का आश्रय ले कर इस सम्बन्ध में अत्यन्त विस्तार से वर्णन कर युधिष्ठिर की शंकाओं का समाधान किया था | इस सम्वाद में यह वर्णित है की विष्णुप्रिया लक्ष्मी किस स्त्री या पुरुष का वरण करती है या किस स्त्री-पुरुष का त्याग कर देती
 हैं ? श्रीपद्मा का स्थाई निवास क्या है और वो किन स्थलों पर प्रसन्नतापूर्वक निवास करती हैं ?

लक्ष्मी की कृपा हेतु पुरुष के गुण

  युधिष्ठिर की जिज्ञासा का शमन करने के प्रसङ्ग में पितामह भीष्म सर्वप्रथम पुरुषों के उन गुणों का वर्णन करते हैं जिनके कारण श्रीलक्ष्मी की कृपा सहज ही प्राप्त होती है और वे स्थायी रूप से उन पुरुषों के यहां निवास करती हैं। इस क्रम में पितामह भीष्म बताते हैं कि स्वयं भृगुपुत्री कमला श्री लक्ष्मी की उक्ति है की जो पुरुष सौभाग्यशाली, निर्भीक, कार्यकुशल, कर्मपरायण, क्रोधरहित, देवाराधनतत्पर, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय, बढे हुए सत्व गुण से युक्त, स्वभावतः स्वधर्म परायण , धर्मज्ञ ,बड़े-बूढ़े की सेवा में तत्पर, मन को वश में रखने वाले, क्षमाशील, सामर्थ्यशाली, जो समय को कभी व्यर्थ नहीं जाने देते, सदैव दान एवं शौचाचार में तत्पर, ब्रहमचर्य-तपस्या-ज्ञान-गौ और द्विज के अनुरागी हैं उन पुरुषों में मैं सदैव निवास करती हूं | स्पष्ट है कि स्थिर लक्ष्मी प्राप्ति के आकांक्षी पुरुषों को उपरोक्त गुणों के धारण हेतु प्रयत्नशील होना चाहिए।

लक्ष्मी की उपेक्षा के भागी पुरूषों के अवगुण

कई बार ऐसा देखने में आता है कि पूर्वजों द्वारा प्राप्त अथवा स्वयं के पुरुषार्थ द्वारा अर्जित धन प्रतिष्ठा आदि का नाश अथवा क्षय हो जाता है। मनुष्य निरंतर पूजा, पाठ, अनुष्ठान व अपने कार्यों के द्वारा धन संपत्ति अर्जित करता है और उसमें निरंतर वृद्धि चाहता है। परंतु ऐसा सामान्यतया देखा गया है के बार-बार प्रयास करने पर भी और शास्त्रविहित कर्मों के निष्पादन के बाद भी लक्ष्मी स्थिर नहीं रह पाती हैं। यह समस्या पुरातन काल से है और ऋषियों और महर्षिर्यों ने इस समस्या के समाधान के लिए कई प्रयास किए हैं। इसी क्रम में महर्षि वेदव्यास ने अपनी कालजयी रचना महाभारत में इस विषय पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है। स्वयं पितामह भीष्म के मुख से महर्षि ने इस समस्या का समाधान प्रस्तुत किया है। पितामह भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं की नारायणप्रिया की इस विषय में उक्ति है की जो पुरुष अकर्मण्य, नास्तिक, वर्णसंकर, कृतघ्न, दुराचारी, क्रूर, चोर, गुरुजनों में दोष देखने वाला,तेज-बल-सत्व-गौरव की अल्पमात्रा वाला,हर बात में यत्र-तत्र खिन्न हो जानेवाला,मन में कुछ भाव रखना और ऊपर से कुछ और दिखाना ,जो अपने लिए कुछ नहीं चाहता,जिसका अंतःकरण मूढ़ता से ढका हो,जो थोड़े में ही संतोष कर लेता हो ऐसे पुरुषों का मैं शीघ्र ही त्याग कर देती हूं |

लक्ष्मी की अनुकम्पा हेतु स्त्री के गुण

किसी भी कुल की मान-प्रतिष्ठा व समृद्धि का आधार उस कुल में निवास करने वाले समस्त स्त्री व पुरुषों का व्यवहार ही होता है। केवल स्त्री को अथवा केवल पुरुष को इसका उत्तरदायी नहीं मान सकते। अतः लक्ष्मी देवी की कृपा प्राप्ति हेतु स्त्री व पुरुष दोनों को ही समान प्रयत्न करने चाहिए। महर्षि वेदव्यास ने महाभारत में स्त्री के उन समस्त गुणों को रेखांकित किया है जिसके आधार पर हम निश्चित कर सकते हैं कि देवी लक्ष्मी की अनुकंपा किन स्त्रियों को प्राप्त होती है। रुक्मणी तथा लक्ष्मी के संवाद के आधार पर पितामह भीष्म युधिष्ठिर को उस प्रसंग का उपदेश करते हैं जिसमें चंद्रमुखी देवी लक्ष्मी इस विषय पर स्वयं उद्घोषित करतीं हैं कि क्षमाशीला, जितेन्द्रिया, सत्यवादिनी, सरलता से युक्त, देवता तथा द्विजों की पूजा करनेवाली, कमनीय गुणों से युक्त, घर के बर्तन आदि को शुद्ध तथा स्वच्छ रखने वाली, गौओं की सेवा करने में तत्पर, धान्य की संग्रह में निपुण,सत्यवादिनी, सौम्य वेशभूषा के कारण देखने में प्रिय, सौभाग्यशालिनी ,सद्गुणवती, पतिव्रता, कल्याणमय आचरण व आचार विचार वाली , कुमारी कन्याओं में , सदा वस्त्राभूषण से युक्त स्त्रियों में सदैव निवास करती हूं | स्पष्ट है कि जिन स्त्रियों को अपने कुल में समृद्धि संपत्ति व सुख की कामना हो उन्हें उपरोक्त गुणों को अपने आचरण में सम्मिलित करना चाहिए तथा जो पुरुष स्थिर लक्ष्मी के अभिलाषी हैं वे अपनी कुल स्त्रियों को उपरोक्त आचरण व व्यवहार रखने के लिए प्रेरित करें।
   

 देवी लक्ष्मी की उपेक्षा के भागी स्त्रियों  के लक्षण

         महर्षि वेदव्यास ने महाभारत में लक्ष्मी प्राप्ति के उपायों के साथ साथ उन कारणों को भी रेखांकित किया है जिनके कारण भगवती लक्ष्मी रुष्ट हो जाती हैं तथा अपने उपासकों का भी त्याग कर देती हैं। स्त्रियों के लिए उन समस्त निन्दित कर्मों की एक विस्तृत सूची प्रस्तुत की है जो लक्ष्मी प्राप्ति के मार्ग में बाधक होने के साथ-साथ प्राप्त लक्ष्मी के विनाश का भी कारण बन सकती हैं। पितामह भीष्म महाराज युधिष्ठिर को उसी दिव्य प्रसंग को आधार मानकर इस तथ्य का ज्ञान देते हैं जिसमें देवी पद्मा रुक्मणी से कहती हैं कि जो स्त्रियां घर के बर्तनों को सुव्यवस्थित नहीं रखती हैं, घर का सामान इधर उधर बिखेर कर रखती हैं, सोच-समझ कर काम नहीं करती हैं, सदैव अपने पति के प्रतिकूल बोलती हैं, दूसरों के घरों में घूमने फिरने में आसक्त रहती हैं, लज्जा को सर्वथा त्याग बैठती हैं, निर्दयतापूर्वक पापाचार में तत्पर रहतीं हैं, अपवित्र, चटोर, धैर्यहीन, कलहप्रिया, नींद में बेसुध होकर सदैव बिस्तर पर पड़ी रहे ऐसी स्त्रियों से में सदैव दूर रहती हूं। स्पष्ट है कि स्थिर लक्ष्मी के अभिलाषी स्त्रियों को उपरोक्त दुर्गुणों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए तभी वे अपने इष्ट की प्राप्ति में सफल हो सकती हैं।

देवी लक्ष्मी के प्रिय निवास स्थल

  ‘कानीह भूतान्युप्सेवसे त्वं संतिष्ठसे कानिव सेवसे त्वं '
         अर्थात् हे लक्ष्मी ! आपको कौन से स्थान प्रिय हैं और आप किन स्थानों पर नित्य निवास करती हैं इस प्रश्न का उत्तर भगवती लक्ष्मी देवी रुक्मणी को देती हैं।महाभारत के शांति पर्व में जब पितामह भीष्म युधिष्ठिर से उन समस्त सद्गुणों तथा दुर्गुणों का निरूपण कर चुके होते हैं जिनके कारण किसी भी स्त्री या पुरुष को देवी लक्ष्मी का अनुग्रह प्राप्त होता है अथवा वे देवी की अनुकंपा से वंचित रह जाते हैं और उनके तिरस्कार के भी भागी बनते हैं। तब पितामह भीष्म युधिष्ठिर को उन स्थलों के विषय में बताते हैं जहां देवी लक्ष्मी नैसर्गिक रूप से निवास करती हैं और जो स्थल उन्हें अत्यंत प्रिय हैं। ऐसे स्थानों का निश्चय करने के प्रसंग में पितामह उस संदर्भ को उद्धृत करते हैं जहां भगवती लक्ष्मी रुक्मणी देवी के इस प्रश्न का उत्तर देती हैं ।विष्णुप्रिया देवी लक्ष्मी के इस सन्दर्भ में वचन हैं कि सुन्दर सवारियों में, आभूषणों में, यज्ञों में, वर्षा करने वाले मेघों में, खिले हुए कमलों में, शरद ऋतु की नक्षत्र मालाओं में, हाथियों में, गोशालाओं में, सुन्दर आसनों में, खिले हुए कमलों से सुशोभित सरोवरों में, हंसों की मधुर ध्वनि से युक्त-क्रौंच पक्षी के कलरव से गुंजायमान वृक्षों की श्रेणियों से शोभायमान तटों से युक्त-तपस्वी, सिद्ध, ब्राह्मणों की निवास स्थल वाले-बहुत अधिक जल से भरे हुए-सिंह व हाथियों के स्नान स्थल से युक्त नदियों में, मतवाले हाथियों, सांढ़ों, राजा, सिंहासन, सत्पुरुषों में मेरा निवास है | इसके अतिरिक्त जिन घरों में लोग अग्नि में आहुति देते हैं, गौ-ब्राह्मण-देवताओं की पूजा करते हैं, समय समय पर जहाँ देवताओं को पुष्पों का उपहार समर्पित करते हैं, सदैव वेदों के स्वाध्याय में तत्पर ब्राह्मणों, स्वधर्मपरायण क्षत्रियों, कृषि कर्म में लगे वैश्यों तथा नित्य मेरे सेवा में अनुरागी शूद्रों के यहाँ भी मैं सदा निवास करती हूँ | 

देवी लक्ष्मी का नित्य निवास

यह प्रश्न अनादि काल से श्रीलक्ष्मी के उपासकों के मध्य पूछा जाता रहा है कि देवी लक्ष्मी का नित्य निवास कहां है? देवी लक्ष्मी की उपासना किन के साथ की जाए जिसके आधार पर स्थिर लक्ष्मी की प्राप्ति हो और उपासक का दुर्भाग्य सर्वदा के लिए नष्ट हो जाए। महाभारत का महत्व इस कारण से भी है कि इस महान ग्रंथ ने मानव जाति के समस्त अनुत्तरित प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत किया है। देवी लक्ष्मी के उपासकों के इस अनुत्तरित प्रश्न का उत्तर भी इस विशालकाय ग्रंथ में उपलब्ध है। यहां पुनः शांति पर्व के उस प्रसंग का आश्रय लेना होगा जब देवव्रत भीष्म और ज्येष्ठ पांडु पुत्र युधिष्ठिर के मध्य लक्ष्मी प्राप्ति का संवाद हुआ था। इस संवाद में देवी लक्ष्मी द्वारा देवी रुक्मिणी को इस प्रश्न का भी उत्तर दिया गया और कहा गया कि केवल और केवल नारायण के साथ ही उनका नित्य निवास है।

नारायणे त्वेकमना वसामि सर्वेण भावेन शरीरभूता ’ 
        ऐसा कहकर भगवती लक्ष्मी इस शाश्वत सत्य की स्थापना करती हैं कि वे सदैव मूर्तिमति तथा अनन्यचित्त भाव से केवल भगवान् नारायण में ही निवास करती हैं क्योंकि उनमें महान धर्म संनिहित है | अपने भक्तों तथा उपरोक्त गुणों से युक्त स्त्री-पुरुष या स्थलों पर वे केवल भावना द्वारा निवास करती हैं और जहाँ भी उनका निवास होता है वहां धर्म, यश, धन और काम सदैव वृद्धि को प्राप्त होता रहता है |


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