Sunday 30 December 2018

सन्तान सुख में विलम्ब : कारण और निवारण

   
                   संतति को गृहस्थाश्रमरूपी उपवन के सर्वाधिक सुगंधित और आकर्षक पुष्पवल्ली के रूप में स्वीकृत किया जाता रहा है। सन्तान अथवा पुत्र की महिमा का वर्णन वैदिक साहित्य में भी उपलब्ध होता है। माना जाता है कि पूर्वजन्मों के शुभकर्मों के उदय के कारण ही संतानोत्पत्ति का सुख प्राप्त होता है - "तत्प्राप्तिधर्ममूला’’     
                          मनुष्य सदैव से ही अपनी वंशबेल को विकसित तथा संवर्द्धित करने की दिशा में प्रयासरत रहा है। उसके इसी प्रयास ने वर्णाश्रम व्यवस्था को अस्तित्व में लाने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है विभिन्न संस्कारों को भी इसी दिशा में किए गए प्रयासों का सार्थक फल समझा जा सकता है। विवाह संस्कार के द्वारा ही सामाजिक मान्यताओं में रहकर अपनी वंश परम्परा को बढ़ाया जा सकता है। जब हम संतानहीनता के सन्दर्भ में विचार करते हैं तो पाते हैं कि यद्यपि विवाह के प्रारम्भिक एक दो वर्षों तक नवदम्पत्ति संतानप्राप्ति के विषय को गंभीरता से नहीं लेते हैं। भारतीय शास्त्रों में अनेक प्रकार के ऋणों की चर्चा की गई है और इससे मुक्त होने की दिशा में सदैव प्रयासरत रहने का भी निर्देश किया गया है। इस सन्दर्भ में पितृऋण महत्वपूर्ण है और सन्तानोत्पत्ति के द्वारा ही इस ऋण से मुक्त हुआ जा सकता है। परन्तु एक लम्बी अवधि बीत जाने के बाद भी जब सन्तान प्राप्ति की दिशा में कोई शुभ संकेत प्राप्त नहीं होते तब वे इस समस्या को गम्भीरता से लेते हैं। समस्या के निवारण की दिशा में सर्वप्रथम चिकित्सा पद्धति का आश्रय लेते हैं।अपेक्षित सफलता न मिलने की दशा में अंततः दैवज्ञों का आश्रय ग्रहण करते हैं। यह उचित भी है क्योंकि कई बार ऐसा देखने में आता है कि चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से पति तथा पत्नी दोनों के समर्थ तथा स्वस्थ होने पर भी सन्तान की प्राप्ति नहीं होती तथा आधुनिक चिकित्सक इसका कोई स्पष्ट कारण बताने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं। भारतीय ज्योतिषशास्त्र की फलित शाखा के ग्रन्थों में इस सन्दर्भ में काफी चर्चा की गई है। ज्योतिषशास्त्र त्रिकाल का दर्शन कराने वाला शास्त्र माना गया है। सम्यकविधि द्वारा इस शास्त्र का अध्ययन और अवगाहन भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालों का बोध कराने में समर्थ या सक्षम है।
             'भूतं चैव भविष्यं च वर्तमानं तथैव च। 
             सर्वप्रदर्शकं शास्त्रं सिद्धिदं मोक्षकारणम्।’’  
                             संतानहीनता संबंधी ग्रहयोगों के उपस्थापन के बाद ही इस समस्या के मूलकारण को समझ पाना संभव हो सकता है, अतः ऐसी ग्रह स्थितियों को सूचीबद्ध किया जा रहा है, जिसके कारण जातक संतान सुख से वंचित रहता है-
 * पंचमेश 6, 8, 12 भाव में हो तो जातक पुत्र रहित होता है।  
* पंचमेश अस्त हो या निर्बल होकर पापाक्रान्त हो तो जातक को सन्तान नहीं होता या होकर मृत्यु को प्राप्त होता है।  
* पंचमेश षष्ठ स्थान में हो और लग्नेश मंगल से युक्त हो तो एक सन्तान होकर मृत्यु को प्राप्त होता है।  
* यदि बृहस्पति से पंचम स्थान का स्वामी तथा 1, 5, 9 भावों के स्वामी त्रिक स्थानों में स्थित हों तो सन्तानहीनता होती है।  
* पंचमभाव में चन्द्रमा या शुक्र का वर्ग हो और उस पर शनि या मंगल की दृष्टि हो तो संतानहीनता होती है।  
* पंचमेश के साथ द्वितीयेश भी निर्बल हो और पंचम भाव पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो अनेक पत्नियाँ होने पर भी संतान सुख नहीं मिलता।  
* बृहस्पति, लग्नेश, सप्रमेश और पंचमेश यदि ये सब निर्बल हों तो जातक निःसन्तान होता है।  
* समस्त ग्रह निर्बल हों, अर्थात् शत्रुराशि अथवा नीच राशि के होकर अस्त, त्रिकस्थ या षड्वर्ग में हीनबली हों तो भी जातक सन्तानहीन होता है।  
* लग्न में सूर्य, सप्तम भाव में शनि अथवा सप्तम भाव में सूर्य शनि का योग हो और दशम भाव गुरू से दृष्ट हो तो गर्भ नहीं रहता।  
* मंगल और शनि की युति षष्ठ अथवा चतुर्थ भाव में हो तो संतानहीनता।  
* शनि षष्ठेश के साथ षष्ठ भाव में और चन्द्रमा सप्तम भाव में हो तो अनपत्य योग बनता है।  
* पंचम भाव का स्वामी यदि पंचम भाव में हो तो उसका पुत्र जीवित नहीं रहता है।  
* पंचमेश अष्टम स्थान में हो तो जातक के पुत्र नष्ट होते हैं।  
* यदि पंचमेश पाप ग्रह होकर द्वादश स्थान में हो तो जातक पुत्रहीन होता है।  
* लग्न में शनि स्थित हो तथा शुक्र अस्तभाव की अन्त्य सन्धि की राशियों (कर्क-वृश्चिक-मीन) के अंतिम अंश में स्थित हो तो स्त्री के बन्ध्यत्व के कारण संतानसुख प्राप्त नहीं होता।  
* लग्न से पंचम भाव में मंगल हो तो पुत्रभाव।  
* पंचम भाव शुभग्रह या पंचमेश से युत या दृष्ट न हो तो जातक बन्ध्या स्त्री का पति होने के कारण सन्तानसुख से हीन होता है।  
* लग्न, चन्द्र, और बृहस्पति से पंचम स्थान पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट हों तथा उन स्थानों में न तो शुभ ग्रह स्थित हों और ना ही ये स्थान शुभ ग्रहों से दृष्ट हों।  
* लग्न, चन्द्रमा और बृहस्पति से पंचम स्थानों के अधिपति दुःस्थानों में स्थित हों। लग्न, चन्द्रमा और बृहस्पति से पंचम स्थान पापकर्त्तरि में स्थित हों।  
* पुत्रभाव तथा पुत्रेश पाप ग्रहों के मध्य हों तथा पुत्रकारक पापग्रहों से युक्त हो तो संतान का नाश होता है।  
* पंचम भावस्थ मंगल स्त्रीजातक को विशेष रूप से अपुत्रिणि बनाता है।  
* पंचम भाव में उच्च या नीच का केतु हो और यह केतु किसी भी ग्रह से दृष्ट न हो तो जातक कई स्त्रियों का पति होने पर भी संतान सुख प्राप्त नहीं कर सकता।  
* पंचमस्थ शानि गर्भपात कराता है जबकि पंचमस्थ राहु गर्भधारण ही नहीं होने देता।  
* पंचम भाव में द्वयाधिक पाप ग्रह हों अथवा पंचमभाव द्वयाधिक पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो दंपत्ति ही बन्ध्यात्व को प्राप्त होते हैं।  
* बलवान लग्न या चन्द्र से पंचम में केवल पाप ग्रह हो तथा शुभदृष्टि भी न हो तो सन्तान का अभाव होता है।  
* पंचम भाव पर सूर्य, मंगल या शनि की युति या दृष्टि हो तो सन्तान नहीं होती।  
* मंगल या शुक्र पंचम में नीच राशि या नवांश में हो या ग्रह युद्ध में पराजित हों तो मृत सन्तति का ही जन्म होता है।  
* पंचम भाव में पाप राशियों में बलवान पाप ग्रह हों तथा उन पर किसी शुभग्रह की भी दृष्टि न हो तो संतानहीनता होती है।  
* दशम भाव में चन्द्रमा, सप्तम में शुक्र तथा चतुर्थ भाव में कई पाप ग्रह हों तो जातक का वंश नहीं चलता।  
* पंचम भाव में पाप ग्रह की राशि हो उसमें केवल पाप ग्रह ही स्थित हों तथा इस भाव पर किसी शुभ ग्रह भी दृष्टि न हो तो जातक सन्तानहीन होता है।  
* सप्तम भाव में शुक्र, दशम में चन्द्रमा और चतुर्थ भाव में पाप ग्रहों की स्थिति भी सन्तानहीनता उत्पन्न करती है।  
* पंचमेश से 5,6 तथा 12 भावों में यदि केवल पाप ग्रह हों तो सन्तान नहीं होती यदि हो भी तो जीवित नहीं रहती।  
* पंचमेश राहु या मंगल से युक्त अथवा राहु या मंगल के मध्य हो तो संतानहीनता।  
* निर्बल पंचमेश अस्त होकर पाप ग्रह से युक्त हो तो भी अनपत्यता होती है।  
* लग्न में गुरू व चन्द्रमा, सप्तम भाव में बुध तथा मंगल और चतुर्थ भाव में पाप ग्रह हों तो जातक वंशहीन हो जाता है।  
* शनि पंचमस्थ हो तो जातक सन्तानहीन होता है।  
* पंचम भाव में शनि यदि अपनी शत्रु राशि में स्थित हो तो अनपत्यता के योग बनते हैं।  
* गुरू अधिष्ठित राशि से पंचम स्थान का स्वामी यदि 6, 8, 12 भाव में हो तथा लग्नेश, पंचमेश, नवमेश त्रिक भावों में हो तो पुत्रहीनता होती है।  
* लग्न का स्वामी मंगल की राशियों में हो तथा पंचम भाव का स्वामी षष्ठ भाव में हो तो जातक का प्रथम सन्तान उत्पन्न होकर विनष्ट हो जाती है और उसके बाद पुनः सन्तान नहीं होती।  
* सूर्य पंचम भाव में अपनी नीच राशि (तुला) में स्थिति हो तो मनुष्य के पुत्र होकर भी नष्ट हो जाते हैं।  
                       स्पष्ट है कि सन्तानहीनता संबंधी परिचर्चा में पंचमभाव, पंचमेश, पंचमात्-पंचम् अर्थात् नवम भाव, बृहस्पति तथा बृहस्पति अधिष्ठित राशि से पंचम भाव तथा लग्नेश निर्णायक भूमिका में रहते हैं। उपरोक्त अवयवों का पाप प्रभाव में होना अथवा निर्बल होना सन्तानहीनता की सम्भावना को और अधिक प्रबल बनाता है। उपरोक्त भाव तथा भावेशों का अशुभ भाव तथा भावाधिपतियों से सम्बन्ध भी जातक के सन्तानसुख में बाधा उत्पन्न करता है। पापग्रहों यथा राहु, केतु, शनि तथा क्रूर ग्रहों सूर्य मंगल आदि का उपरोक्त भावों पर प्रभाव गर्भनाश की परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है।

कालसर्प योग , लाल किताब

लाल किताब में वर्णित समाधान सूत्र
    लाल किताब में कालसर्पयोग का वर्णन नहीं है, परन्तु राहु व केतु की शान्ति हेतु किए जाने वाले उपायों से भी कालसर्पयोग जनित अनिष्टों की शान्ति होती है। अनन्तादि 12 कालसर्पयोग तथा उनकी शान्ति हेतु प्रयुक्त उपायों को निम्नलिखित तालिका में प्रस्तुत किया जा रहा है-
कालसर्पयोगशान्ति उपाय
* अनन्त कालसर्प योग  
     बिल्ली की जेर को लाल रंग के कपड़े में डालकर धारण करें। दूध का दान करें।  चाँदी की थाली में भोजन करें। काले तथा नीले रंग के कपड़े पहनने से बचे। जेब में लोहे की साबुत गोलियाँ रखना भी लाभप्रद होता है।
*कुलिक कालसर्प योग 
   चाँदी की ठोस गोली अपने पास रखें। सोना, केसर अथवा पीली वस्तुएँ धारण करें। चारित्रिक फिसलन से बचें। दोरंगा काला सफेद कंबल धर्म स्थान में दान दें। कान का छेदन भी लाभप्रद होता है। हाथी के पांव की मिट्टी कुएं में डालें। 

*वासुकि कालसर्प याेग
   हाथी दांत की वस्तु भूल कर भी अपने पास न रखें। चारपाई के पायों पर ताँबे की कील लगवा लें। रात्रि सिराहने अनाज रखें तथा प्रातः यह अनाज पक्षियों को खिला दें। झूठ बोलने से बचें। स्वर्ण की अंगूठी या कोई भी स्वर्ण आभूषण धारण करें। केसर का तिलक लगाएँ।  झूठ बोलने से बचें। 
*शंखनाद कालसर्प योग
    गंगा स्नान करें। चांदी की अंगूठी धारण करना लाभप्रद रहेगा। मकान की छत पर कोयला रखने से बचें। यदि रोग ज्यादा परेशान कर रहे हों तो 400 ग्राम बादाम नदी में प्रवाहित करें। चांदी की डिब्बी में शहद भरकर घर से बाहर सुनसान स्थान में दबा दें।

*पद्म कालसर्प योग 
    अपनी स्त्री के साथ समस्त रीति-रिवाजों के साथ दूसरी बार शादी करें। घर में गाय या कोई भी दुुधारू पशु पालें। चांदी का छोटा सा ठोस हाथी अपने पास रखें। दहलीज बनाते समय जमीन के नीचे चांदी का पत्तर डाल दें। पराई स्त्री से दूर रहें। नित्य सरस्वती स्तोत्र का पाठ करें।
*महापद्म कालसर्प योग 
     घर में पूरा काला कुत्ता पालें। काला चश्मा पहनना शुभ होगा। भाईयों या बहनों के साथ किसी भी रूप में झगड़ा न करें। चाल-चलन पर संयम रखें। कुँआरी कन्याओं का आर्शीवाद लेते रहें। सरस्वती की आराधना कष्ट दूर करने मे सहायक होगी।

*तक्षक कालसर्प योग 
    भूलकर भी कुत्ता न पालें। चलते पानी में नारियल बहाएँ। विवाह के समय चांदी की ईंट अपनी पत्नी को दें। ध्यान रहे इस ईंट का बेचना विनाश का कारण होता है। अतः हमेशा संभालकर रखें। घर में चांदी की ईंट रखें। किसी बर्तन मे नदी का जल लेकर उसमें एक चांदी का टुकड़ा रखकर धर्मस्थान में दें। ताँबे की वस्तुओं को दान में न दें। ताँबें की गोली अपने पास रखें।
*कार्कोटक कालसर्प योग 
    माथे पर तिलक लगाएँ। भड़भूजे की भट्ठी में ताँबे का पैसा डालें। चार नारियल नदी में बहाएँ। बेईमानी से पैसे न कमाएँ। सूखे मेवे चाँदी के बर्त्तन में डालकर धर्मस्थान में दें। जन्म के आठवें मास से कुछ बादाम मंदिर ले जाएँ आधे वहीं छोड़ दें बाकी बचे बादाम अपने पास रख लें। यह क्रिया अगले जन्मदिन आने तक करें। चांदी का चौकोर टुकड़ा जेब में रखें। 
*शंखचूड़ कालसर्प योग 
    कुत्ते या दुनियावी तीन कुत्ते (ससुर के घर जमाई, बहन के घर भाई तथा नाना के घर दोहता) का पूरी ईमानदारी से पालन करें। सोना धारण करें। केसर का तिलक लगाएँ। पीला वस्त्र धारण करें। सुबह-सुबह पक्षियों को दाना-पानी डालें।

*घातक कालसर्प योग
     सिर खाली न रखें। टोपी या साफा कोई भी चीज सिर पर हमेशा रखें। सरस्वती का पूजन करें। चांदी का चौकोर टुकड़ा जेब में रखें। सोने की चेन पहनें। हल्दी का तिलक लगाएँ। मसूर दाल (बिना छिलके वाली) नदी में प्रवाहित करें। 
*विषाक्त कालसर्प योग 
    मंदिर में दान करें। ताँबे या लाल वस्तु दान न दें। अस्त्र-शस्त्र घर में न रखें। सोने की अंगूठी पहनें। चार नारियल को जल में प्रवाह देना इस योग के अशुभ फलों में न्यूनता लाएगा। चांदी के ग्लास में पानी पीएँ। रात में दूध ना पीएँ।

*शेषनाग कालसर्प योग 
     लाल मसूर दाल का दान दें। धर्म स्थान में ताँबे के बर्तन दान में दें। चांदी का ठोस हाथी घर में रखें। सोने की चेन पहनें। सरस्वती का पूजन नीले पुष्पों से करें। कन्या तथा बहन को उपहार देते रहें।

Friday 28 December 2018

जुड़वाँ शिशु और ज्योतिष

         
            'भूतं चैव भविष्यं च वर्तमानं तथैव च।
             सर्वप्रदर्शकं शास्त्रं सिद्धिदं मोक्षकारणम्।’’
                              ज्योतिषशास्त्र त्रिकाल का दर्शन कराने वाला शास्त्र माना गया है। सम्यकविधि द्वारा इस शास्त्र का अध्ययन और अवगाहन भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालों का बोध कराने में समर्थ या सक्षम है। मनुष्य सदैव से ही अपनी वंशबेल को विकसित तथा संवर्द्धित करने की दिशा में प्रयासरत रहा है। उसके इसी प्रयास ने वर्णाश्रम व्यवस्था को अस्तित्व में लाने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। विभिन्न संस्कारों को भी इसी दिशा में किए गए प्रयासों का सार्थक फल समझा जा सकता है। विवाह संस्कार के द्वारा ही सामाजिक मान्यताओं में रहकर अपनी वंश परम्परा को बढ़ाया जा सकता है। भारतीय शास्त्रों में अनेक प्रकार के ऋणों की चर्चा की गई है और इससे मुक्त होने की दिशा में सदैव प्रयासरत रहने का भी निर्देश किया गया है। इस सन्दर्भ में पितृऋण महत्वपूर्ण है और सन्तानोत्पत्ति के द्वारा ही इस ऋण से मुक्त हुआ जा सकता है। सन्तान अथवा पुत्र की महिमा का वर्णन वैदिक साहित्य में भी उपलब्ध होता है। संतति को गृहस्थाश्रमरूपी उपवन के सर्वाधिक सुगंधित और आकर्षक पुष्पवल्ली के रूप में स्वीकृत किया जाता रहा है। माना जाता है कि पूर्वजन्मों के शुभकर्मों के उदय के कारण ही संतानोत्पत्ति का सुख प्राप्त होता है -    "तत्प्राप्तिधर्ममूला’’     
                 सामान्यतया गर्भधारण के उपरान्त माताएँ एक ही शिशु को जन्म देती हैं। परन्तु जीववैज्ञानिक कारणों-यथा भ्रूण के  विभाजन अथवा दो या उससे अधिक अण्डाणुओं के निषेचित होने के कारण गर्भधारण के उपरान्त दो या अधिक शिशुओं का जन्म होता है।  आधुनिक चिकित्साविज्ञान में इस सन्दर्भ में काफी चर्चा हुई है तथा इससे सम्बन्धित समस्त तथ्य हस्तामलकवत स्पष्ट हो चुके हैं। साथ ही इस सन्दर्भ में भारतीय ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों में भी विपुल चर्चा प्राप्त होती है। गर्भाधान को ज्योतिषशास्त्र में अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है और इसे समस्त जीवों की उत्पत्ति का साधन कहा गया है।  सामान्य गर्भधारण बिना सम्भोग के संभव नहीं अतः संभोग सूचक ग्रहस्थिति के सन्दर्भ में कहा गया है कि स्त्री की जन्म राशि से उपचय भवनों में चन्द्रमा के रहते हुए बृहस्पति से चन्द्रमा दृष्ट हो या चन्द्रमा मित्रग्रहों से दृष्ट हो,विशेषतया शुक्र से तो स्त्री पुरूष का संयोग होता है  तथा गर्भधारण का मार्ग प्रशस्त होता है। इन प्राचीन महर्षियों तथा अर्वाचीन ग्रन्थकारों ने इस सन्दर्भ में ऐसी अनेक ग्रहस्थितियों का उल्लेख किया  है, जिसके कारण एक से अधिक शिशुओं का जन्म एक ही गर्भकाल के उपरान्त होता है। इस सन्दर्भ में अधोलिखित सिद्धान्त अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं- 
 * सूर्य गुरू-चन्द्र लग्न अथवा सूर्य गुरु द्विस्वभाव राशियों में स्थित होकर बुध द्वारा दृष्ट हों तो यमल जातक का जन्म होता है। इस युग्म सन्ततियों में एक पुत्र तथा एक पुत्री होती है।   
* शुक्र एवं चन्द्रमा सम राशियों में स्थित हों तथा विषमराशि में बुध, मंगल, लग्न तथा गुरू स्थित हों और पुरूष ग्रहों द्वारा दृष्ट हों तो भी जुड़वाँ सन्तान होती है। 
* लग्न एवं चन्द्रमा समराशि में हों अथवा समनवांश में हों तो भी यमल सन्तान की उत्पत्ति होती है। 
* बुध अपने नवांश में स्थित हो और द्विस्वभाव राशि में बैठे ग्रह तथा लग्न को देखता हो तो तीन सन्तानों का जन्म होता है। 
* आधान लग्न में धनु राशि का अन्तिम नवांश हो तथा उसी नवांश में बलवान ग्रह बैठे हों तथा उन ग्रहों पर बली बुध एवं शनि की दृष्टि हो तब गर्भ में द्वयाधिक सन्तानें होती हैं। 
* आधानकाल में सूर्य व बृहस्पति मिथुन तथा धनु राशियों में बुध से युत या दृष्ट हों तो युग्म संतति का जन्म होता है और दोनों सन्तान पुत्रें का युगल होता है। 
* कन्या तथा मीन राशियों में शुक्र, चन्द्र तथा मंगल भी बुध से दृष्ट हो तो दो कन्याओं का जन्म होता है। 
* लग्न तथा चन्द्रमा समराशि में हों तथा बलवान ग्रहों से दृष्ट हो तो भी युग्म संतति का जन्म होता है। 
* चन्द्रमा तथा शुक्र समराशि में हो और गुरु, मंगल, बुध, लग्न विषय राशियों में हो या द्विस्वभाव राशियों में बलवान हों तो युग्म संतति उत्पन्न होती है। 
* इस सन्दर्भ में चन्द्र, शुक से पुत्री युगल तथा गुरू मंगल आदि से पुत्र युगल का निर्णय करना चाहिए। 
* लग्न व चन्द्रमा दोनों सम राशियों में हो तथा पुरूष ग्रहों से देखे जाते हों। 
* लग्न, बुध,मंगल तथा गुरू बलवान होकर सम राशि में हों तथा पुरूष ग्रह से देखे जाते हों। 
* सूर्य, चन्द्र, गुरू, शुक्र और मंगल द्विस्वभाव राशियों के नवांश में स्थित हों तथा बुध द्वारा दृष्ट हों। 
* सूर्य, गुरू मिथुन और धनु राशियों में तथा बुध द्वारा दृष्ट हों तो दो बालकों का जन्म। 
* मंगल, चन्द्रमा, शुक्र द्विस्वभाव अर्थात कन्या, मीन में स्थित होकर बुध द्वारा दृष्ट हो तो दो कन्याओं का जन्म। 
* यदि समस्त पुरूष तथा ग्रह द्विस्वभाव राशियों में विद्यमान होकर बुध से दृष्ट हों तो यमलों में एक पुत्र तथा एक कन्या होती है। 
* चन्द्र और शुक्र दोनों समराशियों में स्थित हों तथा बुध, मंगल, गुरू और लग्नेश सभी विषम राशियों में स्थित हों तो यमल में एक पुत्र तथा एक पुत्री। 
* लग्नेश और चन्द्रमा समराशि में स्थित हों तथा पुरूष ग्रहों से दृष्ट हों तो भी एक बालक और एक बालिका का जन्म। 
* मंगल, बुध, गुरू तथा लग्नेश पूर्णबली होकर समराशि में स्थित हाें। 
* तीन वर्गों का किसी नपुंसक ग्रह से सम्बन्ध हो तो यमल सन्तति का जन्म। 
* प्रश्नकालीन कुण्डली में किन्हीं चार भिन्न-भिन्न स्थानों में दो-दो ग्रह बैठे हों तो युग्म सन्तति का जन्म। 
* आधानकाल में लग्न में द्विस्वभाव राशि और चन्द्रमा, स्वराशिस्थ बुध तथा शनि एकादश भाव में हो। 
* द्विस्वभाव लग्नस्थ चन्द्रमा बुध से दृष्ट हो। 
* द्विस्वभावराशियों में बृहस्पति, सूर्य, मंगल, शुक्र, चन्द्रमा हों तथा बुध द्वारा दृष्ट हों। 
* कन्या, तथा मीन के नवांश में मंगल, शुक्र तथा चन्द्रमा स्थित हों तो दो कन्या सन्तति का जन्म। 
* मिथुन तथा धनु राशियों में कहीं भी सूर्य व बृहस्पति बुधदृष्ट होकर स्थित हों तो पुत्रों का युग्म। 
* द्वादशांश, द्रेष्काण, नवमांश यदि द्विस्वभाव राशि के हों तथा द्विस्वभाव राशि में सर्वोत्तम बली ग्रह हों तो जुड़वाँ सन्तानें होती हैं। 
* गर्भाधानकाल में यदि द्वादश भाव में बुध हो अथवा लग्न में हो अथवा बुध की इन भावों पर दृष्टि हो, द्वादशस्थ, लग्नस्थ अथवा दशमस्थ राशियों में से कोई एक स्त्री और कोई एक पुरूष राशि हो तो यमल बालक का योग बनता है। 
* समराशि में चन्द्रमा तथा शुक्र हों और द्वादश भाव में उदित बुध की स्थिति हो तथा विषम राशि में मंगल और बृहस्पति हों तो यमल सन्तति। 
                       इस प्रकार स्पष्ट है कि यमल जातकों के सन्दर्भ में पुरूष ग्रहों तथा स्त्री ग्रहों का द्विस्वभाव राशियों में स्थित होना महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहण करता है। साथ ही साथ नपुंसक ग्रह बुध की इन ग्रहस्थितयों पर दृष्टि यमल जातकों के जन्म को सुनिश्चित करती है।

Monday 24 December 2018

रत्नधारण विधि-विधान





          भारतीय ज्योतिषशास्त्र के फलित स्कन्ध के विकास के मूल आधार के रूप में महर्षि पराशर के सिद्धान्त के योगदान को एकमत से स्वीकार किया गया है। फलित ज्योतिषशास्त्र के प्रत्येक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त के विषय में महर्षि पराशर के विचारों को विश्वसनीय मार्गदर्शक माना जाता है। रत्नधारण के सन्दर्भ में भी महर्षि पराशर ने अपने विचारों से परवर्ती दैवज्ञों तथा सामान्य जनमानस के प्रति अपने सिद्धान्तों का अत्यन्त करुणापूर्वक प्रकटीकरण किया है। विविध लग्न हेतु रत्नधारण विषयक सिद्धान्तों की महर्षि ने अपने ग्रन्थ ‘वृहत्पाराशरहोराशास्त्रम्’ में स्थापना की है। इन्होंने प्रत्येक लग्न में उत्पन्न जातकों के लिए योगकारक ग्रहों का निर्धारण किया है तथा इन्हीं योगकारक ग्रहों की सबलता तथा निर्बलता के आधार पर जातक को उसके जीवन में प्राप्त होने वाले सुख-दुख विषयक फलादेश को भी प्रस्तुत किया है। महर्षि पराशर के अनुसार मेषादि द्वादश लग्नों में उत्पन्न जातक के लिए कौन से ग्रह योगकारक हैं तथा उनके लिए कौन रत्न प्रशस्त हैं और कौन रत्न निषिद्ध हैं इस सिद्धान्त को अधोलिखित प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है।

मेष
 लग्न
मेष लग्न में उत्पन्न जातक के लिए शनि, बुध और शुक्र ये तीन ग्रह पाप फलदायक होते हैं। सूर्य, मंगल और गुरु शुभ फलदायक होते हैं। शुक्र मुख्य रूप से मारक होता है। इस प्रकार इस लग्न में जन्म लेने वाले जातकों को मूँगा, माणिक्य और पुखराज धारण करना चाहिए। हीरा, पन्ना तथा नीलम रत्न ऐसे जातकों के लिए अशुभ फ़ल देने वाले हैं।


वृष लग्न

 
 इस लग्न में उत्पन्न जातक के लिए शनि और सूर्य शुभफलदायक, बुध अल्प शुभ फलप्रद तथा शनि राजयोगकारक होते हैं। गुरु, शुक्र तथा चन्द्रमा वृष लग्न वाले जातक के लिए अशुभ होंगे तथा गुरु, शुक्र और मंगल मारक होते हैं। अतः इस लग्न के जातकों के लिए नीलम, माणिक्य तथा पन्ना शुभ फलोत्पादक होंगे जबकि पुखराज, हीरा, मोती तथा मूँगा अशुभ फल देने वाले होंगे।

मिथुन लग्न
मिथुन लग्न में जन्म लेने वाले जातक के लिए एक मात्र शुक्र शुभ फल देने वाला होता है। मंगल, गुरु तथा सूर्य पाफलद होते हैं जबकि चन्द्रमा मुख्य मारक होता है। अतः इस लग्न के जातक हेतु हीरा धारण करना अत्यन्त शुभफलद होता है। परन्तु मोती, मूँगा, पुखराज और माणिक्य धारण करना अशुभ है। 


कर्क लग्न 
इस लग्न में मंगल, बृहस्पति तथा चन्द्रमा शुभफलद होते हैं। मंगल विशेष रूप से पूर्णयोग कारक होता है। शुक्र तथा बुध पाफलदायक होते हैं, जबकि शनि पूर्ण मारक होता है। इस लग्न में सूर्य की प्रवृत्ति साहचर्य से फल देने की होती है। अतः इस लग्न के जातकों के लिए मूँगा, पुखराज व मोती शुभ हैं, जबकि माणिक्य धारण के सन्दर्भ में विशेष परामर्श की आवश्यकता होती है। ये जातक नीलम, हीरा व पन्ना नहीं पहनें तो उचित रहेगा।


सिंह लग्न 
 इस लग्न के जातकों के लिए मंगल, बृहस्पति तथा सूर्य विशेष शुभ फलदायक होते हैं। चन्द्रमा साहचर्य से शुभ फल देता है। बुध, शुक्र और शनि पाप फलद होते हैं और इसमें भी शनि मारक होता है। इस प्रकार सिंह लग्न में उत्पन्न जातकों के लिए मूँगा, पुखराज तथा माणिक्य धारण करना प्रशस्त है, जबकि पन्ना, हीरा और नीलम धाारण करना निषिद्ध है।


कन्या लग्न  
कन्या लग्न में जन्म लेने वालों जातकों के लिए बुध और शुक्र अत्यन्त शुभफलप्रद तथा योगकारक होते हैं। मंगल, बृहस्पति तथा चन्द्रमा पाप फल उत्पन्न करने वाले होते हैं। इस लग्न के लिए शुक्र मारक भी है तथा सूर्य साहचर्य से फल देता है। अतः कन्या लग्न के जातकों के लिए पन्ना व हीरा धारण करना शुभ है, जबकि मूँगा, पुखराज व मोती अशुभ फल देने वाला होता है। 


तुला लग्न  
इस लग्न में चन्द्रमा, बुधा और शनि शुभ फलदायक होते हैं साथ ही चन्द्रमा व बुध में रोजयोग प्रदान करने का भी सामर्थ्य होता है। गुरु, सूर्य और मंगल पाप फलदायक होते हैं। मंगल व गुरु मारक होते हैं तथा शुक्र सम स्वभाव का होता है। अतः इस लग्न के जातकों के लिए मोती, पन्ना व नीलम अत्यन्त शुभ होंगे तथा पुखराज, मूँगा व माणिक्य अनिष्टकारक हो सकते हैं। 


वृश्चिक लग्न

  इस लग्न में उत्पन्न जातक के लिए गुरु और चन्द्रमा शुभफल देने वाले जबकि सूर्य व चन्द्रमा योगकारक होते हैं। शुक्र, बुध और शनि पापफल प्रदान करते हैं तथा मंगल सम होता है। इस तरह वृश्चिक लग्न के जातक पुखराज, मोती व माणिक्य धारण कर सकते हैं। हीरा, पन्ना और नीलम धारण करना अशुभ प्रभाव देने वाला हो सकता है।

धनु लग्न  
 धनु लग्न में समुत्पन्न जातकों के लिए मंगल और सूर्य शुभ फल देने वाले होते हैं तथा सूर्य व बुध योगकारक होते हैं। शनि मारक होता है तथा शुक्र में मारक लक्षण होते हैं। अतः धनु लग्न के जातक मूँगा, माणिक्य व पन्ना धारण कर शुभफल की प्राप्ति कर सकते हैं जबकि हीरा व नीलम धारण करना अशुभ फल उत्पन्न कर सकता है। 

मकर लग्न
 मकर लग्न में उत्पन्न जातकों के लिए शुक्र व बुध शुभ फल देने वाले होते हैं। मंगल, बृहस्पति व चन्द्रमा पाप फल देते हैं सूर्य सम फल देने वाला होता है। इस लग्न में शनि लग्नेश होते हैं अतः स्वयं मारक नहीं होते अपितु मंगल आदि पाप ग्रह मारक प्रभाव उत्पन्न करने वाले होते हैं। अतएव इस लग्न के जातकों के लिए हीरा व पन्ना अत्यन्त शुभफलद सिद्ध हो सकता है। इस लग्न में मूँगा, पुखराज व मोती अशुभ प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं। अतः इन रत्नों को धारण करना निषिद्ध है। 

कुम्भ लग्न 
  इस लग्न में समुत्पन्न जातकों के लिए शुक्र व शनि शुभफलदायक होते हैं तथा शुक्र विशेष रूप से राजयोगकारक होता है। गुरु, सूर्य व मंगल मारक प्रभाव से युक्त होते हैं तथा बुध मध्यम फलदायक होता है। स्पष्ट है कि शुक्र रत्न हीरा व शनि का रत्न नीलम इस लग्न के जातकों के लिए शुभ है जबकि पुखराज, माणिक्य व मूँगा अत्यन्त अशुभ रत्न सिद्ध हो सकते हैं।

मीन लग्न
 
 मीन लग्न के जातकों की जन्म पत्रिका के अनुसार मंगल, चन्द्रमा व गुरु शुभफलद होते हैं। इनमें से भी मंगल व गुरु विशेष रूप से अत्यन्त योगकारक होते हैं। शनि, शुक्र, सूर्य व बुध इस लग्न के जातकों के लिए अशुभ प्रभावोत्पादक होते हैं। शनि व बुध मारक होते हैं। इसलिए मीन लग्न के जातकों के लिए मूँगा, मोती व पुखराज धारण करने योग्य रत्न हैं। जबकि शनि रत्न नीलम, शुक्र रत्न हीरा, सूर्य रत्न माणिक्य व बुध रत्न पन्ना का परित्याग करना चाहिए। 

      
         महर्षि पराशर ने बृहत्पराशरहोराशास्त्रम् के योगकारकाध्याय में इस सन्दर्भ में अत्यन्त विस्तार से चर्चा की है। योगकारक अर्थात् अत्यन्त शुभफलद व राजसुख प्रदान करने वालो ग्रहों के निर्धाारण के सन्दर्भ में महर्षि पराशर के ये सिद्धान्त स्वर्णिम सूत्र सिद्ध होते हैं।   


Tuesday 18 December 2018

त्रिकोण भाव समीक्षा: पाराशरी ज्योतिष के आलोक में


   

   भारतीय फलित ज्योतिष शास्त्र के ग्रन्थों में कुण्डली के विभिन्न भावों की पृथक्-पृथक् संज्ञा की गई है। महर्षि पराशर अपनी प्रसिद्ध रचना वृहत्पाराशरहोराशास्त्र में इन भावों का नामकरण करते हुए कहते हैं - ‘तनु, धन, सहोदर, बन्धु, पुत्र, शत्रु, स्त्री, रन्ध्र, धर्म, कर्म, लाभ एवं व्यय’ ये लग्न से द्वादश भावों के नाम हैं।   द्वादश भावों के इस नामकरण के अतिरित्तफ़ एक अन्य नामकरण की पद्धति भी ज्योतिष शास्त्र में प्राप्त होती है। इस पद्धति के अनुसार कुछ भावों के समूह के लिए विशिष्ट संज्ञाओं का प्रयोग किया जाता है। इस प्रसंग में महर्षि पराशर स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि लग्न, चतुर्थ, सप्तम, दशम की ‘केन्द्र’ संज्ञा है। 2, 5, 8, 11 की ‘पणफर’ संज्ञा है और 3, 6, 9, 12 की ‘आपोक्लिम’ संज्ञा है। लग्न से 5-9 की कोण संज्ञा है, 6,8,12 की दुष्ट स्थान और त्रिक संज्ञा है। 4, 8 को चतुरस्र कहते हैं एवं 3, 6, 10, 11 की उपचय (वृद्धि) संज्ञा होती हैं।  प्रस्तुत शोध आलेख में त्रिकोणभाव विचारणीय हैं अतः यहाँ विशेष रूप से पाराशरी ज्योतिष के आलोक में विषय की समीक्षा की जा रही है ।  सर्वप्रथम हम त्रिकोण भाव को समझने का प्रयास करते हैं । इसके लिए त्रिकोण भाव सम्बन्धी ऋषियों औरआचायों के मत, त्रिकोण भाव में परिगणित कुण्डली के विविध भावों के कारक ग्रह , इन भावों से विचारणीय विषय व त्रिकोण भावों के लिए ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में प्रयुक्त विभिन्न संज्ञाओं पर क्रमशः विचार करना अनिवार्य है ।
त्रिकोण भाव - भारतीय फलित ज्योतिषशास्त्र में त्रिकोण संज्ञक भाव को लेकर पर्याप्त मतभेद प्राप्त होता है। महर्षि पराशर के अनुसार लग्न से नवम तथा प×चम भाव की ‘कोण’ संज्ञा है।   आचार्य वराहमिहिर अपनी रचना वृहज्जातक में ‘प×चम भाव को ही त्रिकोण संज्ञक मानते हैं।   जबकि जातकपारिजातकार के अनुसार लग्न से प×चम तथा नवम भावों की त्रिकोण संज्ञा है।   गणेशकवि कृत जातकालंकार में भी इसी मत का समर्थन करते हुए कहा गया है कि नवम तथा प×चम भाव ही त्रिकोण भाव हैं।  इस प्रकार स्पष्ट है कि प×चम तथा नवम भाव त्रिकोण संज्ञक हैं। परन्तु ज्योतिषशास्त्र के कतिपय ग्रन्थों में लग्न को भी त्रिकोणसंज्ञक माना गया है। लोमश संहिता में महर्षि लोमश लग्न, प×चम तथा नवम तीनों ही भावों को त्रिकोण संज्ञक मानते हैं।  महर्षि पराशर की अन्य रचना लघुपाराशरी भी लग्न को त्रिकोण भाव के अन्तर्गत परिगणित करती है। लघुपाराशरी के संज्ञाध्याय में एक श्लोक प्राप्त होता है -‘सर्वे त्रिकोणनेतारो ग्रहा शुभफलप्रदाः। पतयस्त्रिषडायानां यदि पापफलप्रदाः।।’ इस श्लोक में त्रिकोण भाव के रूप में लग्न की भी गणना की गई है। इसी अभिप्राय से त्रिकोण नेतारः बहुवचनान्त पाठ का प्रयोग किया गया है। यदि त्रिकोण भाव के रूप में केवल प×चम व नवम दो ही स्थान महर्षि पराशर का अभिप्रेत रहता तो त्रिकोणनेतारौ ऐसा द्विवचनान्त पाठ रऽा जाता। इसके अतिरित्तफ़ ‘त्रिकोण’ इस शब्द में भी ‘त्रि’ शब्द का प्रयोग है। अतः तीन स्थानों का त्रिकोण संज्ञक होना ही समीचीन है। अतः त्रिकोण शब्द से 1/5/9 तीनों स्थान ग्राह्य हैं। प्रथम त्रिकोण भाव अर्थात् लग्न भारतीय फलित ज्योतिष शास्त्र के ग्रन्थों में लग्न को अत्यन्त शुभ भाव माना गया है। महर्षि पराशर ने भी त्रिकोण भाव को भद्र अर्थात् शुभ कहा है।  जातकालंकार में लग्न भाव की महत्ता का वर्णन करते हुए गणेश दैवज्ञ ने कहा है कि लग्न भाव विशेषतया सभी सुऽों का आशय है। अतः विद्वान् दैवज्ञों को इसी लग्न के आधार पर मनुष्यों के शुभाशुभ का निर्णय करना चाहिए।
लग्न भाव से विचारणीय विषय - ज्योतिषशास्त्र में प्रत्येक भाव से विशेष विषयों पर विचार का प्रावधान है। लग्न भाव अर्थात् प्रथम त्रिकोण से जातक के शारीरिक गठन, वर्ण, आकृति, लक्षण, यश, गुण, स्थान, सुऽ, प्रवास, तेजस्विता, दौर्बल्यादि का विचार किया जाता है।  आचार्य मन्त्रेश्वर अपनी रचना फलदीपिका में इस विषय पर अपना मत प्रस्तुत करते हुए लिऽते हैं कि लग्न, होरा, कल्प (प्रभाव, सूर्याेदय अर्थात् प्रारंभ), देह, उदय, रूप, सिर, वर्त्तमान काल, जन्म इन सबका विचार प्रथम भाव से करें।  कवि कालिदास का मत है कि लग्न भाव से सामूहिक रूप से शरीर-शरीर के अवयव (लग्नस्थ राशि तथा उसके स्वामी द्वारा), सुऽ, दुःऽ, जरावस्था, ज्ञान, जन्म का स्थान, यश, स्वप्न, बल, गौरव, राज्य, नम्रता, आयु, शान्ति, वय, बाल, आकृति, अभिमान, काम-धन्धा, दूसरों से जुआ, निशान, मान, त्वचा, नींद, दूसरों का धन हर लेना, दूसरों का अपमान करना, स्वभाव, आरोग्य, वैराग्य, कार्य का करण, पशु पालन, मर्यादा का सर्वनाश, वर्ण तथा निज अपमान इत्यादि विषयों का विचार किया जाता है।
लग्न भाव के कारक ग्रह - ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में प्रत्येक भाव के कारक के रूप में ग्रहों की कल्पना की गई है। जातक पारिजात में आचार्य वैद्यनाथ ने लग्न भाव के कारक ग्रह के रूप में सूर्य को प्रस्तुत किया है।  महर्षि पराशर भी लग्न के कारक ग्रह के रूप में सूर्य को ही स्वीकृत करते हैं।
लग्न भाव की अन्य संज्ञाएँ - भारतीय फलित ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में एक ही भाव के लिए अनेक संज्ञाओं का प्रयोग किया गया है। श्री गणेशकवि जातकालंकार में लग्नभाव के पर्याय शब्दों के विषय में कहते हैं - ‘लग्न के मूर्त्ति (शरीर), अंग, उदय, वपु, कल्प, आद्य आदि नाम हैं।’  आचार्य वैद्यनाथ लग्नभाव के अन्य नामों के विषय में लिऽते हैं - ‘लग्न भाव के लिए प्रयुत्तफ़ अन्य संज्ञाओं में कल्पए उदय, आद्य, तनु, जन्म, लग्न, विलग्न, होरा प्रमुऽ हैं।
द्वितीय त्रिकोण (प×चम भाव)
भाव कारकत्व - प×चम भाव से विभिन्न विषयों पर विचार किया जाता है। सन्तान, पिता के पुण्यकर्म, राजा, मन्त्री, सदाचार, शिल्प, मन, विद्या, गर्भ, छत्र, विवेक, धर्मकथा, कुशल समाचार, वस्त्र, नाना काम्य कर्मों के अनुष्ठान, पैतृक धन, दूरदर्शिता, स्त्री सम्बन्धी वैभव, वारांगनाओं की संगति, गम्भीरता, दृढ़ता, गोपनीयता, नम्रता, वृत्तान्तलेऽन, क्षेम, मैत्री, प्रबन्धकाव्य-रचना, कार्यारम्भ, उदर, मन्त्र, तन्त्र की उपासना, प्रसन्नतापूर्ण वैभव, अन्नदान, पाप-पुण्य की समझ, मन्त्र-जप, समालोचना करने की प्रज्ञा, धनार्जन का ढंग, मृदंगादि वाद्य, महान सन्तुष्टि, पाण्डित्य, परम्परागत मन्त्रिपद या परामर्शदाता का कार्य ये सभी प×चम भाव से विचारणीय विषय हैं।  उपरोत्तफ़ विषयों का वर्णन भारतीय फलित ज्योतिष शास्त्र के ग्रन्थों में किया गया है।
प×चम भाव का कारक ग्रह - भारतीय ज्योतिषशास्त्र में प्रत्येक भाव के लिए एक कारक ग्रह की कल्पना की गई है। जातक पारिजात के अनुसार प×चम भाव का कारक बृहस्पति है।  आचार्य जीवनाथ झा भी प×चम भाव के कारक के रूप में बृहस्पति ग्रह को ही स्वीकृत करते हैं।  ज्योतिष पितामह महर्षि पराशर की रचना वृहत्पराशरहोराशास्त्र में भी प×चम भाव के कारक ग्रह के रूप में बृहस्पति ग्रह का ही वर्णन किया गया है।
नवम भाव (त्रित्रिकोण) - नवम भाव त्रिकाण भावों में अन्तिम त्रिकोण है। यह तीसरा त्रिकोण भाव है अतः त्रित्रिकोण संज्ञक भी है।
नवम भाव से विचारणीय विषय - नवम भाव से विचार करने योग्य विषय इस प्रकार हैं - दान, धर्म, तीर्थयात्र, तप, गुरुजनों में भत्तिफ़, औषधि, चित्त की पवित्रता, देवपूजा, विद्या के लिए श्रम, वैभव, सवारी, भाग्य, नम्रता, प्रताप, धार्मिक कथा, यात्र, राज्याभिषेक, पुष्टि, साधुसंग, पुण्य, पिता का धन, पुत्र, पुत्री, हर प्रकार का ऐश्वर्य, घोड़े-हाथी, भैंसे, राज्याभिषेक का स्थान,  ब्रह्म ज्ञान की स्थापना, वैदिक यज्ञ, धन का दान।  इसी विषय में एक अन्य ग्रन्थ का मत है कि नवम स्थान में बावड़ी, कुंआ, तालाब, प्याऊ, मठ, मंदिर, दीक्षा,नई विद्या का आरंभ, पुण्य के कार्य, भाग्य, गुरु, तप, चर्चा आदि विषयों के बारे में जानना चाहिए।  आचार्य मन्त्रेश्वर इस विषय में अपना मत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि आचार्य (गुरु), देवता (आराध्य देव), पिता, पूजा, पूर्वभाग्य, तप, सत्कर्म, पौत्र, उत्तम वंशादि का विचार नवम भाव से करना चाहिए।  इस भाव को शुभ स्थान भी कहते हैं।

नवम भाव के कारक ग्रह -नवम भाव के कारक ग्रह के रूप में आचार्य वैद्यनाथ ने सूर्य और बृहस्पति दोनों ग्रहों को स्वीकार किया है।  महर्षि पराशर ने अपनी रचना ‘वृहत् पराशरहोराशास्त्रम’ में नवम भाव के कारक के रूप में गुरु को स्वीकृत किया है।
नवम भाव की संज्ञाएँ - प्रत्येक भाव के लिए ज्योतिष ग्रंथों में अनेक संज्ञाओं का प्रयोग किया गया है। नवम भाव के लिए जिन संज्ञाओं का प्रयोग किया गया है, उनके विषय में श्री गणेश कवि अपनी रचना जातकालंकार में उनका नामोल्लेऽ इस प्रकार करते हैं - गुरु, धर्म, शुभ, तप, आदि ।
महर्षि पराशर ने अपनी रचना लघुपाराशरी में इस सन्दर्भ में विस्तृत चर्चा की है । उन्होंने पहली बार ग्रहों की नैसर्गिक शुभाशुभत्व के स्थान पर भावाधिपतित्व को विशेष महत्व दिया है । त्रिकोणभाव के रूप में लग्न पंचम और नवम भाव को स्वीकार करने के बाद वे इन भावों के शुभत्व और इन भाव और भावेशों के कारण उत्पन्न राजयोगों पर भी विस्तृत चर्चा करते हैं त्रिकोणभावों के शुभत्व का निर्धारण करते हुए वे कहते हैं- सर्वे त्रिकोणनेतारोग्रहाः शुभफलप्रदाः अर्थात् जन्मकुंडली के त्रिकोणभावों के स्वामी शुभ फल देनेवाले होते हैं महर्षि का अभिप्राय यह है कि लग्न, पंचम और नवम भाव के अधिपति जातक को शुभफल देनेवाले होते हैं । यहाँ यह स्पष्ट कर दे ना आवश्यक है कि इन भावों के अधिपति ग्रह नैसर्गिक रूप से शुभ हों या अशुभ वे जातक को शुभ फल ही प्रदान करेंगे । अष्टमभाव के अधिपति के फलनिर्णय के अवसर पर भी महर्षि त्रिकोणभाव के महत्व और उसके शुभत्व को स्थापित करते हैं और कहते हैं दृ ‘भाग्यव्ययाधिपत्येनरन्ध्रेशो न शुभप्रदः’अर्थात् अष्टमेश अशुभ फल देने वाला इसलिए है क्योंकि वह भाग्य स्थान अर्थात् नवमभाव के व्यय स्थान का अधिपति है । इसी तथ्य को और अधिक बल देने के लिए महर्षि कर्क लग्न की कुण्डली का उदाहरण भी देते हैं और यहाँ मंगल के शुभत्व का कारण उसके त्रिकोणेशत्व को मानते हैं ना कि उसके केन्द्रेशत्व को ‘कुजस्य कर्मनेतृत्वेप्रयुक्ता शुभकारिता--’  जब समस्त त्रिकोणभावों के अधिपतियों को शुभफल देनेवाला बता दिया गया तो यह जिज्ञासा सहज उत्पन्न होती है इन तीनों भावाधिपतियों में बलाबल का निर्धारण कैसे हो ? इस शंका का समाधान प्रस्तुत करते हुए महर्षि पराशर सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं- ‘ प्रबलाश्चोत्तरोत्तरम् ’ अर्थात् ये त्रिकोण स्थान और उनके अधिपति क्रमशः बलवान होते हैं । अभिप्राय है कि सबसे कम बलवान त्रिकोण भाव लग्न, उससे अधिक बलवान पंचम और पंचम से अधिक बलवान त्रिकोण स्थान नवम भाव  है और इसी क्रम से इनके स्वामी भी बलवान होते हैं । इस तरह नवमेश सर्वाधिक बली त्रिकोणेश और लग्नेश सबसे कम बलवान त्रिकोणेश सिद्ध होता है ।  त्रिकोणेशों के बलाबल निर्धारण के अतिरिक्त महर्षि इन भावेशों के द्वारा विविध राजयोगों की उत्पत्ति विषयक सिद्धान्तों का प्रणयन करते हैं इस क्रम में त्रिकोण भाव के स्वामियों का केन्द्रेशों के साथ विविध सम्बन्धों के कारण राजयोगों के निर्माण से सम्बन्धित कई सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं तदुपरान्त त्रिकोणेशों के मध्य परस्पर सम्बन्ध के कारण उत्पन्न एक विशिष्ट राजयोग को प्रस्तुत करते हुए उनकी उक्ति है- ‘ धर्मलग्नाधिनेतारावन्योन्याश्रयसंस्थितौ । राजयोगाविति प्रोक्तं विख्यातो विजयी भवेत् ।।’ अर्थात् यदि जातक की कुण्डली में नवम भाव का स्वामी लग्न भाव में स्थित हो और लग्नेश नवम भाव में स्थित हो तो जातक विख्यात और सर्वत्र विजयी होता है ।
अतः स्पष्ट है कि  फलित ज्योतिष के सन्दर्भ में महर्षि पराशर के उपरोक्त त्रिकोण भाव विषयक सिद्धांत स्वर्णिम सूत्र सिद्ध होते हैं । इन्हीं सिद्धांतों के आलोक में परवर्ती आचायों ने फलादेश विषयक ग्रंथों की रचना की और ये सिद्धांत आज भी जातकशास्त्र के जिज्ञासुओं के लिए मार्गदर्शक हैं ।

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