संतति को गृहस्थाश्रमरूपी उपवन के सर्वाधिक सुगंधित और आकर्षक पुष्पवल्ली के रूप में स्वीकृत किया जाता रहा है। सन्तान अथवा पुत्र की महिमा का वर्णन वैदिक साहित्य में भी उपलब्ध होता है। माना जाता है कि पूर्वजन्मों के शुभकर्मों के उदय के कारण ही संतानोत्पत्ति का सुख प्राप्त होता है - "तत्प्राप्तिधर्ममूला’’
मनुष्य सदैव से ही अपनी वंशबेल को विकसित तथा संवर्द्धित करने की दिशा में प्रयासरत रहा है। उसके इसी प्रयास ने वर्णाश्रम व्यवस्था को अस्तित्व में लाने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है विभिन्न संस्कारों को भी इसी दिशा में किए गए प्रयासों का सार्थक फल समझा जा सकता है। विवाह संस्कार के द्वारा ही सामाजिक मान्यताओं में रहकर अपनी वंश परम्परा को बढ़ाया जा सकता है। जब हम संतानहीनता के सन्दर्भ में विचार करते हैं तो पाते हैं कि यद्यपि विवाह के प्रारम्भिक एक दो वर्षों तक नवदम्पत्ति संतानप्राप्ति के विषय को गंभीरता से नहीं लेते हैं। भारतीय शास्त्रों में अनेक प्रकार के ऋणों की चर्चा की गई है और इससे मुक्त होने की दिशा में सदैव प्रयासरत रहने का भी निर्देश किया गया है। इस सन्दर्भ में पितृऋण महत्वपूर्ण है और सन्तानोत्पत्ति के द्वारा ही इस ऋण से मुक्त हुआ जा सकता है। परन्तु एक लम्बी अवधि बीत जाने के बाद भी जब सन्तान प्राप्ति की दिशा में कोई शुभ संकेत प्राप्त नहीं होते तब वे इस समस्या को गम्भीरता से लेते हैं। समस्या के निवारण की दिशा में सर्वप्रथम चिकित्सा पद्धति का आश्रय लेते हैं।अपेक्षित सफलता न मिलने की दशा में अंततः दैवज्ञों का आश्रय ग्रहण करते हैं। यह उचित भी है क्योंकि कई बार ऐसा देखने में आता है कि चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से पति तथा पत्नी दोनों के समर्थ तथा स्वस्थ होने पर भी सन्तान की प्राप्ति नहीं होती तथा आधुनिक चिकित्सक इसका कोई स्पष्ट कारण बताने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं। भारतीय ज्योतिषशास्त्र की फलित शाखा के ग्रन्थों में इस सन्दर्भ में काफी चर्चा की गई है। ज्योतिषशास्त्र त्रिकाल का दर्शन कराने वाला शास्त्र माना गया है। सम्यकविधि द्वारा इस शास्त्र का अध्ययन और अवगाहन भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालों का बोध कराने में समर्थ या सक्षम है।
'भूतं चैव भविष्यं च वर्तमानं तथैव च।
सर्वप्रदर्शकं शास्त्रं सिद्धिदं मोक्षकारणम्।’’
संतानहीनता संबंधी ग्रहयोगों के उपस्थापन के बाद ही इस समस्या के मूलकारण को समझ पाना संभव हो सकता है, अतः ऐसी ग्रह स्थितियों को सूचीबद्ध किया जा रहा है, जिसके कारण जातक संतान सुख से वंचित रहता है-
मनुष्य सदैव से ही अपनी वंशबेल को विकसित तथा संवर्द्धित करने की दिशा में प्रयासरत रहा है। उसके इसी प्रयास ने वर्णाश्रम व्यवस्था को अस्तित्व में लाने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है विभिन्न संस्कारों को भी इसी दिशा में किए गए प्रयासों का सार्थक फल समझा जा सकता है। विवाह संस्कार के द्वारा ही सामाजिक मान्यताओं में रहकर अपनी वंश परम्परा को बढ़ाया जा सकता है। जब हम संतानहीनता के सन्दर्भ में विचार करते हैं तो पाते हैं कि यद्यपि विवाह के प्रारम्भिक एक दो वर्षों तक नवदम्पत्ति संतानप्राप्ति के विषय को गंभीरता से नहीं लेते हैं। भारतीय शास्त्रों में अनेक प्रकार के ऋणों की चर्चा की गई है और इससे मुक्त होने की दिशा में सदैव प्रयासरत रहने का भी निर्देश किया गया है। इस सन्दर्भ में पितृऋण महत्वपूर्ण है और सन्तानोत्पत्ति के द्वारा ही इस ऋण से मुक्त हुआ जा सकता है। परन्तु एक लम्बी अवधि बीत जाने के बाद भी जब सन्तान प्राप्ति की दिशा में कोई शुभ संकेत प्राप्त नहीं होते तब वे इस समस्या को गम्भीरता से लेते हैं। समस्या के निवारण की दिशा में सर्वप्रथम चिकित्सा पद्धति का आश्रय लेते हैं।अपेक्षित सफलता न मिलने की दशा में अंततः दैवज्ञों का आश्रय ग्रहण करते हैं। यह उचित भी है क्योंकि कई बार ऐसा देखने में आता है कि चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से पति तथा पत्नी दोनों के समर्थ तथा स्वस्थ होने पर भी सन्तान की प्राप्ति नहीं होती तथा आधुनिक चिकित्सक इसका कोई स्पष्ट कारण बताने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं। भारतीय ज्योतिषशास्त्र की फलित शाखा के ग्रन्थों में इस सन्दर्भ में काफी चर्चा की गई है। ज्योतिषशास्त्र त्रिकाल का दर्शन कराने वाला शास्त्र माना गया है। सम्यकविधि द्वारा इस शास्त्र का अध्ययन और अवगाहन भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालों का बोध कराने में समर्थ या सक्षम है।
'भूतं चैव भविष्यं च वर्तमानं तथैव च।
सर्वप्रदर्शकं शास्त्रं सिद्धिदं मोक्षकारणम्।’’
संतानहीनता संबंधी ग्रहयोगों के उपस्थापन के बाद ही इस समस्या के मूलकारण को समझ पाना संभव हो सकता है, अतः ऐसी ग्रह स्थितियों को सूचीबद्ध किया जा रहा है, जिसके कारण जातक संतान सुख से वंचित रहता है-
* पंचमेश 6, 8, 12 भाव में हो तो जातक पुत्र रहित होता है।
* पंचमेश अस्त हो या निर्बल होकर पापाक्रान्त हो तो जातक को सन्तान नहीं होता या होकर मृत्यु को प्राप्त होता है।
* पंचमेश षष्ठ स्थान में हो और लग्नेश मंगल से युक्त हो तो एक सन्तान होकर मृत्यु को प्राप्त होता है।
* यदि बृहस्पति से पंचम स्थान का स्वामी तथा 1, 5, 9 भावों के स्वामी त्रिक स्थानों में स्थित हों तो सन्तानहीनता होती है।
* पंचमभाव में चन्द्रमा या शुक्र का वर्ग हो और उस पर शनि या मंगल की दृष्टि हो तो संतानहीनता होती है।
* पंचमेश के साथ द्वितीयेश भी निर्बल हो और पंचम भाव पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो अनेक पत्नियाँ होने पर भी संतान सुख नहीं मिलता।
* बृहस्पति, लग्नेश, सप्रमेश और पंचमेश यदि ये सब निर्बल हों तो जातक निःसन्तान होता है।
* समस्त ग्रह निर्बल हों, अर्थात् शत्रुराशि अथवा नीच राशि के होकर अस्त, त्रिकस्थ या षड्वर्ग में हीनबली हों तो भी जातक सन्तानहीन होता है।
* लग्न में सूर्य, सप्तम भाव में शनि अथवा सप्तम भाव में सूर्य शनि का योग हो और दशम भाव गुरू से दृष्ट हो तो गर्भ नहीं रहता।
* मंगल और शनि की युति षष्ठ अथवा चतुर्थ भाव में हो तो संतानहीनता।
* शनि षष्ठेश के साथ षष्ठ भाव में और चन्द्रमा सप्तम भाव में हो तो अनपत्य योग बनता है।
* पंचम भाव का स्वामी यदि पंचम भाव में हो तो उसका पुत्र जीवित नहीं रहता है।
* पंचमेश अष्टम स्थान में हो तो जातक के पुत्र नष्ट होते हैं।
* यदि पंचमेश पाप ग्रह होकर द्वादश स्थान में हो तो जातक पुत्रहीन होता है।
* लग्न में शनि स्थित हो तथा शुक्र अस्तभाव की अन्त्य सन्धि की राशियों (कर्क-वृश्चिक-मीन) के अंतिम अंश में स्थित हो तो स्त्री के बन्ध्यत्व के कारण संतानसुख प्राप्त नहीं होता।
* लग्न से पंचम भाव में मंगल हो तो पुत्रभाव।
* पंचम भाव शुभग्रह या पंचमेश से युत या दृष्ट न हो तो जातक बन्ध्या स्त्री का पति होने के कारण सन्तानसुख से हीन होता है।
* लग्न, चन्द्र, और बृहस्पति से पंचम स्थान पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट हों तथा उन स्थानों में न तो शुभ ग्रह स्थित हों और ना ही ये स्थान शुभ ग्रहों से दृष्ट हों।
* लग्न, चन्द्रमा और बृहस्पति से पंचम स्थानों के अधिपति दुःस्थानों में स्थित हों। लग्न, चन्द्रमा और बृहस्पति से पंचम स्थान पापकर्त्तरि में स्थित हों।
* पुत्रभाव तथा पुत्रेश पाप ग्रहों के मध्य हों तथा पुत्रकारक पापग्रहों से युक्त हो तो संतान का नाश होता है।
* पंचम भावस्थ मंगल स्त्रीजातक को विशेष रूप से अपुत्रिणि बनाता है।
* पंचम भाव में उच्च या नीच का केतु हो और यह केतु किसी भी ग्रह से दृष्ट न हो तो जातक कई स्त्रियों का पति होने पर भी संतान सुख प्राप्त नहीं कर सकता।
* पंचमस्थ शानि गर्भपात कराता है जबकि पंचमस्थ राहु गर्भधारण ही नहीं होने देता।
* पंचम भाव में द्वयाधिक पाप ग्रह हों अथवा पंचमभाव द्वयाधिक पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो दंपत्ति ही बन्ध्यात्व को प्राप्त होते हैं।
* बलवान लग्न या चन्द्र से पंचम में केवल पाप ग्रह हो तथा शुभदृष्टि भी न हो तो सन्तान का अभाव होता है।
* पंचम भाव पर सूर्य, मंगल या शनि की युति या दृष्टि हो तो सन्तान नहीं होती।
* मंगल या शुक्र पंचम में नीच राशि या नवांश में हो या ग्रह युद्ध में पराजित हों तो मृत सन्तति का ही जन्म होता है।
* पंचम भाव में पाप राशियों में बलवान पाप ग्रह हों तथा उन पर किसी शुभग्रह की भी दृष्टि न हो तो संतानहीनता होती है।
* दशम भाव में चन्द्रमा, सप्तम में शुक्र तथा चतुर्थ भाव में कई पाप ग्रह हों तो जातक का वंश नहीं चलता।
* पंचम भाव में पाप ग्रह की राशि हो उसमें केवल पाप ग्रह ही स्थित हों तथा इस भाव पर किसी शुभ ग्रह भी दृष्टि न हो तो जातक सन्तानहीन होता है।
* सप्तम भाव में शुक्र, दशम में चन्द्रमा और चतुर्थ भाव में पाप ग्रहों की स्थिति भी सन्तानहीनता उत्पन्न करती है।
* पंचमेश से 5,6 तथा 12 भावों में यदि केवल पाप ग्रह हों तो सन्तान नहीं होती यदि हो भी तो जीवित नहीं रहती।
* पंचमेश राहु या मंगल से युक्त अथवा राहु या मंगल के मध्य हो तो संतानहीनता।
* निर्बल पंचमेश अस्त होकर पाप ग्रह से युक्त हो तो भी अनपत्यता होती है।
* लग्न में गुरू व चन्द्रमा, सप्तम भाव में बुध तथा मंगल और चतुर्थ भाव में पाप ग्रह हों तो जातक वंशहीन हो जाता है।
* शनि पंचमस्थ हो तो जातक सन्तानहीन होता है।
* पंचम भाव में शनि यदि अपनी शत्रु राशि में स्थित हो तो अनपत्यता के योग बनते हैं।
* गुरू अधिष्ठित राशि से पंचम स्थान का स्वामी यदि 6, 8, 12 भाव में हो तथा लग्नेश, पंचमेश, नवमेश त्रिक भावों में हो तो पुत्रहीनता होती है।
* लग्न का स्वामी मंगल की राशियों में हो तथा पंचम भाव का स्वामी षष्ठ भाव में हो तो जातक का प्रथम सन्तान उत्पन्न होकर विनष्ट हो जाती है और उसके बाद पुनः सन्तान नहीं होती।
* सूर्य पंचम भाव में अपनी नीच राशि (तुला) में स्थिति हो तो मनुष्य के पुत्र होकर भी नष्ट हो जाते हैं।
स्पष्ट है कि सन्तानहीनता संबंधी परिचर्चा में पंचमभाव, पंचमेश, पंचमात्-पंचम् अर्थात् नवम भाव, बृहस्पति तथा बृहस्पति अधिष्ठित राशि से पंचम भाव तथा लग्नेश निर्णायक भूमिका में रहते हैं। उपरोक्त अवयवों का पाप प्रभाव में होना अथवा निर्बल होना सन्तानहीनता की सम्भावना को और अधिक प्रबल बनाता है। उपरोक्त भाव तथा भावेशों का अशुभ भाव तथा भावाधिपतियों से सम्बन्ध भी जातक के सन्तानसुख में बाधा उत्पन्न करता है। पापग्रहों यथा राहु, केतु, शनि तथा क्रूर ग्रहों सूर्य मंगल आदि का उपरोक्त भावों पर प्रभाव गर्भनाश की परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है।
* पंचमेश अस्त हो या निर्बल होकर पापाक्रान्त हो तो जातक को सन्तान नहीं होता या होकर मृत्यु को प्राप्त होता है।
* पंचमेश षष्ठ स्थान में हो और लग्नेश मंगल से युक्त हो तो एक सन्तान होकर मृत्यु को प्राप्त होता है।
* यदि बृहस्पति से पंचम स्थान का स्वामी तथा 1, 5, 9 भावों के स्वामी त्रिक स्थानों में स्थित हों तो सन्तानहीनता होती है।
* पंचमभाव में चन्द्रमा या शुक्र का वर्ग हो और उस पर शनि या मंगल की दृष्टि हो तो संतानहीनता होती है।
* पंचमेश के साथ द्वितीयेश भी निर्बल हो और पंचम भाव पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो अनेक पत्नियाँ होने पर भी संतान सुख नहीं मिलता।
* बृहस्पति, लग्नेश, सप्रमेश और पंचमेश यदि ये सब निर्बल हों तो जातक निःसन्तान होता है।
* समस्त ग्रह निर्बल हों, अर्थात् शत्रुराशि अथवा नीच राशि के होकर अस्त, त्रिकस्थ या षड्वर्ग में हीनबली हों तो भी जातक सन्तानहीन होता है।
* लग्न में सूर्य, सप्तम भाव में शनि अथवा सप्तम भाव में सूर्य शनि का योग हो और दशम भाव गुरू से दृष्ट हो तो गर्भ नहीं रहता।
* मंगल और शनि की युति षष्ठ अथवा चतुर्थ भाव में हो तो संतानहीनता।
* शनि षष्ठेश के साथ षष्ठ भाव में और चन्द्रमा सप्तम भाव में हो तो अनपत्य योग बनता है।
* पंचम भाव का स्वामी यदि पंचम भाव में हो तो उसका पुत्र जीवित नहीं रहता है।
* पंचमेश अष्टम स्थान में हो तो जातक के पुत्र नष्ट होते हैं।
* यदि पंचमेश पाप ग्रह होकर द्वादश स्थान में हो तो जातक पुत्रहीन होता है।
* लग्न में शनि स्थित हो तथा शुक्र अस्तभाव की अन्त्य सन्धि की राशियों (कर्क-वृश्चिक-मीन) के अंतिम अंश में स्थित हो तो स्त्री के बन्ध्यत्व के कारण संतानसुख प्राप्त नहीं होता।
* लग्न से पंचम भाव में मंगल हो तो पुत्रभाव।
* पंचम भाव शुभग्रह या पंचमेश से युत या दृष्ट न हो तो जातक बन्ध्या स्त्री का पति होने के कारण सन्तानसुख से हीन होता है।
* लग्न, चन्द्र, और बृहस्पति से पंचम स्थान पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट हों तथा उन स्थानों में न तो शुभ ग्रह स्थित हों और ना ही ये स्थान शुभ ग्रहों से दृष्ट हों।
* लग्न, चन्द्रमा और बृहस्पति से पंचम स्थानों के अधिपति दुःस्थानों में स्थित हों। लग्न, चन्द्रमा और बृहस्पति से पंचम स्थान पापकर्त्तरि में स्थित हों।
* पुत्रभाव तथा पुत्रेश पाप ग्रहों के मध्य हों तथा पुत्रकारक पापग्रहों से युक्त हो तो संतान का नाश होता है।
* पंचम भावस्थ मंगल स्त्रीजातक को विशेष रूप से अपुत्रिणि बनाता है।
* पंचम भाव में उच्च या नीच का केतु हो और यह केतु किसी भी ग्रह से दृष्ट न हो तो जातक कई स्त्रियों का पति होने पर भी संतान सुख प्राप्त नहीं कर सकता।
* पंचमस्थ शानि गर्भपात कराता है जबकि पंचमस्थ राहु गर्भधारण ही नहीं होने देता।
* पंचम भाव में द्वयाधिक पाप ग्रह हों अथवा पंचमभाव द्वयाधिक पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो दंपत्ति ही बन्ध्यात्व को प्राप्त होते हैं।
* बलवान लग्न या चन्द्र से पंचम में केवल पाप ग्रह हो तथा शुभदृष्टि भी न हो तो सन्तान का अभाव होता है।
* पंचम भाव पर सूर्य, मंगल या शनि की युति या दृष्टि हो तो सन्तान नहीं होती।
* मंगल या शुक्र पंचम में नीच राशि या नवांश में हो या ग्रह युद्ध में पराजित हों तो मृत सन्तति का ही जन्म होता है।
* पंचम भाव में पाप राशियों में बलवान पाप ग्रह हों तथा उन पर किसी शुभग्रह की भी दृष्टि न हो तो संतानहीनता होती है।
* दशम भाव में चन्द्रमा, सप्तम में शुक्र तथा चतुर्थ भाव में कई पाप ग्रह हों तो जातक का वंश नहीं चलता।
* पंचम भाव में पाप ग्रह की राशि हो उसमें केवल पाप ग्रह ही स्थित हों तथा इस भाव पर किसी शुभ ग्रह भी दृष्टि न हो तो जातक सन्तानहीन होता है।
* सप्तम भाव में शुक्र, दशम में चन्द्रमा और चतुर्थ भाव में पाप ग्रहों की स्थिति भी सन्तानहीनता उत्पन्न करती है।
* पंचमेश से 5,6 तथा 12 भावों में यदि केवल पाप ग्रह हों तो सन्तान नहीं होती यदि हो भी तो जीवित नहीं रहती।
* पंचमेश राहु या मंगल से युक्त अथवा राहु या मंगल के मध्य हो तो संतानहीनता।
* निर्बल पंचमेश अस्त होकर पाप ग्रह से युक्त हो तो भी अनपत्यता होती है।
* लग्न में गुरू व चन्द्रमा, सप्तम भाव में बुध तथा मंगल और चतुर्थ भाव में पाप ग्रह हों तो जातक वंशहीन हो जाता है।
* शनि पंचमस्थ हो तो जातक सन्तानहीन होता है।
* पंचम भाव में शनि यदि अपनी शत्रु राशि में स्थित हो तो अनपत्यता के योग बनते हैं।
* गुरू अधिष्ठित राशि से पंचम स्थान का स्वामी यदि 6, 8, 12 भाव में हो तथा लग्नेश, पंचमेश, नवमेश त्रिक भावों में हो तो पुत्रहीनता होती है।
* लग्न का स्वामी मंगल की राशियों में हो तथा पंचम भाव का स्वामी षष्ठ भाव में हो तो जातक का प्रथम सन्तान उत्पन्न होकर विनष्ट हो जाती है और उसके बाद पुनः सन्तान नहीं होती।
* सूर्य पंचम भाव में अपनी नीच राशि (तुला) में स्थिति हो तो मनुष्य के पुत्र होकर भी नष्ट हो जाते हैं।
स्पष्ट है कि सन्तानहीनता संबंधी परिचर्चा में पंचमभाव, पंचमेश, पंचमात्-पंचम् अर्थात् नवम भाव, बृहस्पति तथा बृहस्पति अधिष्ठित राशि से पंचम भाव तथा लग्नेश निर्णायक भूमिका में रहते हैं। उपरोक्त अवयवों का पाप प्रभाव में होना अथवा निर्बल होना सन्तानहीनता की सम्भावना को और अधिक प्रबल बनाता है। उपरोक्त भाव तथा भावेशों का अशुभ भाव तथा भावाधिपतियों से सम्बन्ध भी जातक के सन्तानसुख में बाधा उत्पन्न करता है। पापग्रहों यथा राहु, केतु, शनि तथा क्रूर ग्रहों सूर्य मंगल आदि का उपरोक्त भावों पर प्रभाव गर्भनाश की परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है।