भारतीय मनीषियों ने विश्व में उपलब्ध समस्त विषयों का दार्शनिक पृष्ठभूमि में विश्लेषण करने की परम्परा का सूत्रपात अत्यन्त प्राचीन काल से ही कर दिया था। भौतिक पदार्थों से लेकर, मोक्षादि दृष्टातीत व अलौकिक विषय भी इससे अछूते नहीं रहे थे। ‘स्वप्न’ तथा इससे जुड़े समस्त विषयों का विस्तृत विवेचन प्राचीन संस्कृत साहित्य में प्राप्त होता है। ज्ञान विज्ञान की प्रत्येक शाखा अपने मूल रूप में वेदों में प्राप्त होती है। उपनिषदों, पुराणों तथा अन्य साहित्यिक ग्रंथों में इस विषय पर बारम्बार चर्चा की गई है।
क्या है स्वप्न ?
प्रत्येक चलायमान वस्तु को विश्राम की आवश्यकता होती है। मनुष्य पूरे दिन की भागदौड़ के बाद जब मानसिक तथा शारीरिक आराम पाने के लिए निंद्रा का आश्रय लेता है, तभी से ‘स्वप्न’ की एक आकर्षक, गूढ़, गम्भीर तथा आध्यात्मिक सृष्टि का प्रारंभ हो जाता है। स्वप्न नींद के समय का मस्तिष्क का जीवन है - ऐसा जीवन, जिसमें हमारे जाग्रत जीवन का भी अंश होता है तथा इसके अतिरिक्त कुछ अन्य अनबूझे तथा गूढ विषय भी सम्मिलित होते हैं। भारतीय ट्टषियों ने इस सृष्टि में ‘आत्मा’ तथा ‘परमात्मा’ इन दोनों तत्त्वों के अस्तित्व को स्वीकार किया है। आत्मा की मुख्यतया तीन अवस्थाएँ होती हैं -
(क) जाग्रतावस्था - इस अवस्था में मनुष्य अपनी सम्पूर्ण चेतना पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों, पाँच प्राण तथा चारों अंतःकरण से युक्त होकर इस लोक के समस्त विषयों का साक्षात्कार व उपभोग करता है।
(ख) स्वप्नावस्था - इस लोक में अपनी दिनचर्या से थका मनुष्य विश्राम करने के लिए निंद्रा का आश्रय लेता है। निंद्रा प्रारंभ होेते ही ‘स्वप्न’ की संभावना प्रारंभ हो जाती है। इस अवस्था में मनुष्य अपने अवचेतन मन के सहयोग से स्वप्न की एक नई सृष्टि का सृजन कर लेता है।
(ग) सुषुप्ति - यह निंद्रा की गहरी अवस्था है। स्वप्नावस्था के बाद की अवस्था। इस अवस्था में मनुष्य ‘स्वप्नादि’ का अनुभव नहीं करता है।
इन तीनों अवस्थाओं के अतिरिक्त एक ‘तुरीयावस्था’ का भी अस्तित्व है, परन्तु इस अवस्था से सामान्य मानवों का साक्षात्कार नहीं हो पाता है। तुरीयावस्था में योगीजन ही जा पाते हैं जाग्रतावस्था में मानव अपने समस्त ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा मन की सहायता से इस संसार में उपलब्ध समस्य विषयों का साक्षात्कार एवं भोग करता रहता है। लौकिक कार्यों को सम्पादित करने से थका-हरा मनुष्य स्वयं को मानसिक तथा शारीरिक आराम देने के लिए निंद्रा का आश्रय लेता है। निंद्रा अवस्था में जाते ही ‘स्वप्न दर्शन’ की संभावना का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। ‘स्वप्न’ की इस अवस्था में समस्त कर्मेन्द्रियाँ तथा ज्ञानेन्द्रियाँ मन में विलीन हो जाती हैं, केवल मन क्रियाशील रहता है। मन की इसी अवस्था में मनुष्य अपनी अतृप्त इच्छाओं, पूर्व जन्म के संस्कारों तथा दैवीय प्रेरणा से प्रेरित होकर स्वप्नों का दर्शन करता है। निंद्रा के अत्यधिक गहन हो जाने के बाद मन हृदय में प्रविष्ट होता है, जहाँ परमात्मा अंगुष्ठमात्र परिमाण से उपस्थित रहते हैं। मन के हृदय में पहुँचते ही स्वप्नावस्था का अंत हो जाता है तथा ‘सुषुप्ति’ की अवस्था प्रारंभ हो जाती है। ‘सुषुप्ति’ की अवस्था में स्वप्न नहीं आते हैं।
‘स्वप्न’ की उत्पत्ति (भारतीय मत)
क्या है स्वप्न ?
प्रत्येक चलायमान वस्तु को विश्राम की आवश्यकता होती है। मनुष्य पूरे दिन की भागदौड़ के बाद जब मानसिक तथा शारीरिक आराम पाने के लिए निंद्रा का आश्रय लेता है, तभी से ‘स्वप्न’ की एक आकर्षक, गूढ़, गम्भीर तथा आध्यात्मिक सृष्टि का प्रारंभ हो जाता है। स्वप्न नींद के समय का मस्तिष्क का जीवन है - ऐसा जीवन, जिसमें हमारे जाग्रत जीवन का भी अंश होता है तथा इसके अतिरिक्त कुछ अन्य अनबूझे तथा गूढ विषय भी सम्मिलित होते हैं। भारतीय ट्टषियों ने इस सृष्टि में ‘आत्मा’ तथा ‘परमात्मा’ इन दोनों तत्त्वों के अस्तित्व को स्वीकार किया है। आत्मा की मुख्यतया तीन अवस्थाएँ होती हैं -
(क) जाग्रतावस्था - इस अवस्था में मनुष्य अपनी सम्पूर्ण चेतना पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों, पाँच प्राण तथा चारों अंतःकरण से युक्त होकर इस लोक के समस्त विषयों का साक्षात्कार व उपभोग करता है।
(ख) स्वप्नावस्था - इस लोक में अपनी दिनचर्या से थका मनुष्य विश्राम करने के लिए निंद्रा का आश्रय लेता है। निंद्रा प्रारंभ होेते ही ‘स्वप्न’ की संभावना प्रारंभ हो जाती है। इस अवस्था में मनुष्य अपने अवचेतन मन के सहयोग से स्वप्न की एक नई सृष्टि का सृजन कर लेता है।
(ग) सुषुप्ति - यह निंद्रा की गहरी अवस्था है। स्वप्नावस्था के बाद की अवस्था। इस अवस्था में मनुष्य ‘स्वप्नादि’ का अनुभव नहीं करता है।
इन तीनों अवस्थाओं के अतिरिक्त एक ‘तुरीयावस्था’ का भी अस्तित्व है, परन्तु इस अवस्था से सामान्य मानवों का साक्षात्कार नहीं हो पाता है। तुरीयावस्था में योगीजन ही जा पाते हैं जाग्रतावस्था में मानव अपने समस्त ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा मन की सहायता से इस संसार में उपलब्ध समस्य विषयों का साक्षात्कार एवं भोग करता रहता है। लौकिक कार्यों को सम्पादित करने से थका-हरा मनुष्य स्वयं को मानसिक तथा शारीरिक आराम देने के लिए निंद्रा का आश्रय लेता है। निंद्रा अवस्था में जाते ही ‘स्वप्न दर्शन’ की संभावना का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। ‘स्वप्न’ की इस अवस्था में समस्त कर्मेन्द्रियाँ तथा ज्ञानेन्द्रियाँ मन में विलीन हो जाती हैं, केवल मन क्रियाशील रहता है। मन की इसी अवस्था में मनुष्य अपनी अतृप्त इच्छाओं, पूर्व जन्म के संस्कारों तथा दैवीय प्रेरणा से प्रेरित होकर स्वप्नों का दर्शन करता है। निंद्रा के अत्यधिक गहन हो जाने के बाद मन हृदय में प्रविष्ट होता है, जहाँ परमात्मा अंगुष्ठमात्र परिमाण से उपस्थित रहते हैं। मन के हृदय में पहुँचते ही स्वप्नावस्था का अंत हो जाता है तथा ‘सुषुप्ति’ की अवस्था प्रारंभ हो जाती है। ‘सुषुप्ति’ की अवस्था में स्वप्न नहीं आते हैं।
‘स्वप्न’ की उत्पत्ति (भारतीय मत)
ऋग्वेद के ‘दुःस्वप्ननाशन’ सूक्त तथा यजुर्वेद के ‘शिवसंकल्प सूक्त’ में ‘स्वप्न’ की उत्पत्ति के मौलिक सिद्धान्त प्राप्त होते हैं। यजुर्वेद के शिवसंकल्प सूक्त में मन की चेतन तथा अवचेतन दोनों ही अवस्थाओं के साथ-साथ स्वप्न का भी वर्णन किया गया है - यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवेति। इसी प्रकार ऋग्वेद का ‘दुःस्वप्ननाशन सूक्त’ स्वप्नों के शुभाशुभत्व का निर्देश करता है। परन्तु उपनिषदों में, विशेषकर ‘प्रश्नोपनिषद्’ तथा ‘माण्डूक्योपनिषद’ में स्वप्न के क्रिया विज्ञान पर विशेष प्रकाश डाला गया है। इसके अनुसार जिस प्रकार सूर्य के अस्त होने के समय उसकी किरणें समस्त संसार से सिमटकर सूर्य में समा जाती है, ठीक उसी तरह गहरी निंद्रा के समय समस्त इन्द्रियाँ मन में विलीन हो जाती हैं। उस समय इन्द्रियों के समस्त कार्य समाप्त हो जाते हैं। मनुष्य के जागने पर पुनः ये समस्त इन्द्रियाँ मन से पृथक् होकर पुनः अपने-अपने कार्य में ठीक उसी प्रकार लग जाती हैं, जिस प्रकार सूर्योदय होते ही सूर्य की किरणें पुनः चारों ओर फैल जाती है। मानव शरीर में व्याप्त पंचवायु में से उदानवायु, मन को निंद्रा के समय हृदय में उपस्थित परमात्मा के पास ले जाती है, जहाँ मन के द्वारा मनुष्य निंद्रा से उत्पन्न विश्राम रूपी सुख का अनुभव करता है। ‘स्वप्न’ की उत्पत्ति का सिद्धान्त ‘प्रश्नोपनिषद्’ के इस मंत्र में सन्निहित है -अत्रैष देवः स्वप्ने महिमामनुभवति। यद् दृष्टं दृष्टमनुपश्यति श्रुतं श्रुतमेवार्थमनु शृणोति। देशदिगन्तरैश्च प्रत्यनुभूतं पुनः पुनः प्रत्यनुभवति दृष्टं चादृष्टं च श्रुतं चाश्रुतं चानुभूतं चाननुभूतं च सच्चाचच्च सर्वं पश्यति सर्वः पश्यति।
अर्थात् मानव शरीर में स्थित जीवात्मा ही मन और सूक्ष्म इन्द्रियों के द्वारा स्वप्न का अनुभव करता है। जीवात्मा स्वयं द्वारा पूर्व में देखे गए, सुने गए, अनुभव किए गए और संपादित किए गए घटनाओं का उसी प्रकार स्वप्न में भी अनुभव करता है। परन्तु यह आवश्यक नहीं कि सिर्फ निंद्रा से पूर्व की जाग्रतावस्था में घटित विभिन्न घटनाएँ ही ‘स्वप्न’ के विषय होते हैं। जाग्रतावस्था में घटित अलग-अलग घटनाओं के विभिन्न अंश आपस में मिलकर एक नए स्वप्न की पटकथा तैयार करते हैं। इसके अतिरिक्त पूर्वजन्म के संस्कार, दबी हुई आकांक्षाएँ तथा परमपिता की प्रेरणा, ‘स्वप्नों’ की उत्पत्ति के कारण होते हैं। भारतीय ऋषियों ने स्वप्न को भविष्य में होने वाली घटनाओं का शुभाशुभ सूचक माना है। विभिन्न पुराणों तथा धर्म ग्रन्थों में उपलब्ध अाख्यान भी इस तथ्य का समर्थन करते हैं।
स्वप्नों की उत्पत्ति के पाश्चात्य सिद्धान्त
पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने भी ‘स्वप्न’, इसके कारणों तथा इसकी उत्पत्ति विज्ञान पर विशेष रूप से विचार किया है। इन विचारकों में सिगमण्ड फ्रायड, युंग, अर्नेस्ट हार्मेन आदि प्रमुख हैं। फ्रायड के मतानुसार हमारे सारे स्वप्न, ‘काम-प्रवृत्ति’ से सम्बन्धित इच्छाओं की पूर्त्ति के साधन होते हैं। केवल कुछ ही स्वप्न हैं जो हमारी शारीरिक इच्छाओं जैसे भूख, प्यास आदि से नियंत्रित होती है। जैसे उपवास के साथ भोजन का स्वप्न, प्यास के समय किसी नदी, झरने या पानी पीने का स्वप्न। इन विचारकों का मत है कि मनुष्य की दमित तथा अपूर्ण इच्छाओं, कामवासनाओं तथा तात्कालिक परिस्थितियों के कारण मनुष्य को स्वप्न आते हैं। स्वप्न में दिखनेवाले विषय ठीक वर्त्तमान परिस्थिति के समान हो सकते हैं अथवा ये स्वप्न सांकेतिक रूप में भी हो सकते हैं। इन मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि स्वप्न किसी इच्छा के कारण पैदा होते हैं और स्वप्न की वस्तु उस इच्छा को प्रकट करती है। जैसे परीक्षा के समय विद्यार्थी को आनेवाले स्वप्न, किसी आत्मीय संबंधी के बीमार होने पर आनेवाले स्वप्न, अपूर्ण यौन इच्छाओं से संबंधित स्वप्न, घर में विवाहादि उत्सवों से संबंधित स्वप्न आदि उपरोक्त सिद्धान्तों को प्रथमदृष्ट्या सत्य मानने पर बाध्य करते हैं। परंतु उपरोक्त सिद्धान्त स्वप्नों के स्वरूप का एकांगी स्वरूप ही दिखाते हैं, क्योंकि कभी-कभी ऐसे स्वप्न भी आते हैं जिनका मनुष्य के भूत, भविष्य या वर्त्तमान से कोई संबंध नहीं होता है। सी.जी. युंग का विचार इससे कुछ विपरीत है। उनके मतानुसार स्वप्न अप्रमाणित सत्य की आध्यात्मिक घोषणाओं की, भ्रम, की, परिकल्पना की, स्मृतियों की, योजनाओं की, पूर्वानुमानों की, अतार्किक अनुभवों की यहाँ तक की पराचित्त ज्ञान की अभिव्यक्ति हो सकते हैं। भौतिकतावादी होने के कारण अधिकतर पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक स्वप्न की आध्यात्मिक उत्पत्ति विधि तथा इसकी महत्ता को समझ नहीं सके हैं। फिर भी युंग, अल्फ्रेड एडलर सदृश पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक स्वप्न की आध्यात्मिकता को समझने के करीब पहुँच चुके थे।
स्वप्न के प्रकार - स्वप्नों के दो प्रकार माने गए हैं - (क) दिवास्वप्न तथा (ख) निशास्वप्न। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि दिवास्वप्न दिन में देखे जाने वाले स्वप्न हैं जबकि निशास्वप्न रात्रिकालीन स्वप्न हैं। इन दोनों स्वप्नों में कुछ मौलिक अंतर भी हैं -
(क) दिवास्वप्नों में व्यक्ति अपनी इच्छा से ही अपनी अतृप्त इच्छाओं की कल्पना में पूर्त्ति कर लेता है। परन्तु निशास्वप्नों में अचेतन मन की अतृप्त इच्छाएँ व्यक्ति की इच्छा न होने पर भी प्रकट होती हैं।
(ख) दिवास्वप्नों में व्यक्ति अपनी अतृप्त इच्छाओं को उसी ढंग से तृप्त करने की चेष्टा करता है, जिस ढंग से होनी चाहिए निशास्वप्नों में इन इच्छाओं की तृप्ति का ढंग सांकेतिक होता है। जिसका विश्लेषण करने पर इन अतृप्त इच्छाओं का स्वरूप समझा जा सकता है।
(ग) दिवास्वप्न सदा अतृप्त इच्छाओं से प्रेरित होते हैं, परन्तु सभी निशास्वप्नों पर यह बात लागू नहीं होती। कुछ निशास्वप्नों में भविष्य से संबंधित सूचनाएँ भी छिपी होती हैं।
स्वप्न घटनाओं के सूचक या एक सामान्य मनोवैज्ञानिक घटना
भारतीय विचारधारा तथा पाश्चात्य विचारधारा के सम्यक् अवलोकन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि न तो समस्त स्वप्न एक मनोवैज्ञानिक घटना मात्र हैं और न ही भविष्य में घटने वाली शुभाशुभ घटनाओं के सूचक। किसी भी स्वप्न का विश्लेषण करने से पूर्व यदि स्वप्न द्रष्टा मनुष्य की पृष्ठभूमि का गहन अध्ययन किया जाए तो स्वप्न की प्रकृति को स्पष्टतया समझा जा सकता है। किसी सांसारिक घटना से प्रभावित स्वप्न निष्फल होते हैं। जैसे यदि किसी मनुष्य के घर में शादी की बात चल रही हो और उसने शादी का सपना देखा तो यह स्वप्न व्यर्थ होगा। इसी प्रकार यदि व्यक्ति वैष्णो देवी माता का दर्शन करने का कार्यक्रम बना रहा हो और उसने माता का अथवा पहाड़ पर चढ़ने का सपना देखा तो यह स्वप्न भी निष्फल ही होगा। परंतु जब हम शुभाशुभ फल अथवा भविष्य में घटनेवाली किसी घटना की सूचना देने में समर्थ स्वप्न की प्रकृति पर विचार करते हैं, तो यह अनिवार्य है कि यह स्वप्न किसी भी रूप से उस मनुष्य की मानसिक, वैचारिक अथवा कार्यशैली से प्रभावित न हों। संस्कृत साहित्य के विभिन्न ग्रंथों तथा पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों की रचनाओं में ऐसे सहस्रों उदाहरण भरे पड़े हैं जिससे स्वप्नों को भविष्य में घटनेवाली शुभाशुभ सूचनाओं का सूचक होने के सिद्धान्त की पुष्टि होती है। हम दैनिक जीवन में भी स्वप्नों के इस सामर्थ्य का अनुभव करते रहते हैं। अतः आवश्यक है कि स्वप्नों से संबंधित फलादेश करने में पर्याप्त सर्तकता बरती जाए।
विभिन्न सम्प्रदायों में स्वप्न - विश्व में प्रचलित सभी मुख्य सम्प्रदायों ने स्वप्न को मान्यता दी है। हिन्दू धर्म में ‘स्वप्न’ को विशेष मान्यता दी गई है। भारतीय दर्शन में इसका आश्रय लेकर ब्रह्मतत्व को समझाने का प्रयास किया जाता रहा है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, महाभारत, रामायण इन समस्त ग्रंथों में यत्र-तत्र स्वप्न से संबंधित आख्यान प्राप्त होते हैं। कुरान की कई आयतें हजरत पैगम्बर मुहम्मद साहब के स्वप्न में भी अवतरित हुई थीं। बौद्ध धर्म के संस्थापक भगवान बुद्ध के जन्म से पूर्व उनकी माता को स्वप्न में सफेद हाथी के दर्शन हुए। महावीर स्वामी के जन्म से पूर्व उनकी माता महारानी त्रिशला ने भी 14 अत्यन्त शुभ स्वप्न देखे थे।
स्वप्न का शुभाशुभत्व - भारतीय परम्परा ‘स्वप्न’ की आध्यात्मिकता के साथ-साथ इसके शुभाशुभ को भी समान रूप से स्वीकार करती है। विभिन्न पुराणों में स्वप्नों के शुभाशुभ फलों पर विशेष रूप से चर्चा की गई है। ब्रह्मवैवर्त्त पुराण तथा अग्नि पुराण में इस विषय पर विशेष रूप से चर्चा की गई है।
स्वप्नफलदायक कब?
समस्त स्वप्न शुभ अथवा अशुभ फल बताने में समक्ष नहीं होते हैं। किसी घटना के कारण आनेवाले स्वप्न निष्फल होते हैं। दिन में सोते समय दिखने वाले स्वप्न भी अपना फल नहीं देते हैं। शुभ स्वप्न देखने के बाद जागरण तथा हरिनाम का जप करते हुए रात्रि व्यतीत करने पर ही शुभ फलों की प्राप्ति होती है। पुनः सो जाने पर स्वप्न का शुभ अथवा अशुभ फल नष्ट हो जाता है। बिना किसी पूर्व घटना अथवा तनाव से प्रभावित होकर आनेवाले स्वप्न ही शुभाशुभ फलप्रद होते हैं। चिन्तायुक्त, जडतुल्य, मल-मूत्र के वेग से पीडि़त, भय से व्याकुल, नग्न और उन्मुक्त केश व्यक्ति को अपने देखे हुए स्वप्न का कोई फल प्राप्त नहीं होता है।
‘स्वप्न’ फल की प्राप्ति की अवधि
भारतीय ऋषियों ने स्वप्नजन्य शुभाशुभ फलों की प्राप्ति में लगनेवाले समय का भी निर्धारण किया है। सम्पूर्ण रात्रि को चार प्रहरों में विभक्त किया गया है। रात्रि के प्रथम पहर में देखे गए स्वप्न का शुभाशुभ फल एक वर्ष में प्राप्त होता है। द्वितीय प्रहर के स्वप्न का फल आठ मास में मिलता है। यदि स्वप्न रात्रि के तृतीय प्रहर में आए तो व्यक्ति को इस स्वप्न का फल तीन महीने में प्राप्त है। रात्रि का चतुर्थ प्रहर अत्यन्त शुभ माना जाता है। समस्त सात्त्विक शक्तियाँ इस काल में सक्रिय रहती हैं। यह समय ‘ब्रह्ममुहूर्त्त’ के नाम से प्रसिद्ध है। ब्रह्ममुहूर्त्त में देखे गए स्वप्न का फल एक पक्ष अर्थात् 15 दिन के अन्दर प्राप्त हो जाता है। सूर्योदय के समय का स्वप्न 10 दिन की कालावधि के मध्य ही अपना शुभाशुभ फल प्रदान कर देता है। यदि व्यक्ति ने प्रातःकाल स्वप्न देखा हो तथा स्वप्न दर्शन के पश्चात् ही उसकी नींद खुल गई हो तो यह स्वप्न तत्काल फलदायी होता है।
जहाँ तक रात्रि के विभिन्न प्रहरों में आए स्वप्नों से संबंधित फलों की प्राप्ति में लगने वाले समय का प्रश्न है, यह एक अत्यन्त ही जटिल विषय है। तथापि इस विषय को निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है। सूर्य सिद्धान्त के अनुसार मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं के एक अहोरात्र के बराबर होता है। भारतीय दार्शनिक चिंतन की विचारधारा मनुष्य के भीतर स्थित जीवात्मा तथा परमात्मा में अभेद मानती है। निंद्रा की अवस्था में जीवात्मा का ‘मन’ मनुष्य की हृदयगुहा में स्थित परमात्मा से मिलता है, अतः इस जीवात्मा तथा परमात्मा में ऐक्य हो जाता है। इस सम्पूर्ण निंद्रा काल को उस देव वर्ष या दिव्य वर्ष के रूप में स्वीकार किया जा सकता है जो मनुष्य के 360 दिन के सौर वर्ष के बराबर होता है। इसी निंद्रा काल की अलग-अलग कालावधि अथवा प्रहरों में आनेवाले विभिन्न स्वप्नों को ऋषियों ने अपने अंतर्ज्ञान, सूक्ष्मदृष्टि तथा पर्यवेक्षण के आधार पर उपरोक्त समय-सीमा में निबद्ध किया है।