Sunday 14 April 2019

वेदांग ज्योतिष और गणितीय संक्रियाएँ


ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों मे लगध मुनि प्रणीत वेदांग ज्योतिष की गणना की जाती है। इन प्राचीन ग्रन्थों में ‘गणित’ शब्द तो प्राप्त होता ही है, साथ ही साथ गणित को वेदांग- साहित्य में सर्वश्रेष्ठ भी घोषित किया गया है।यद्यपि वेदांग-ज्योतिष गणित शास्त्र विषयक प्राचीनतम ग्रंथ है फिर भी इसे गणित शास्त्र का मूलग्रन्थ नहीं कह सकते। ग्रंथकार महर्षि लगध ने स्वंय भी इस ग्रन्थ को यज्ञार्थ कालनिर्णय के लिए ही श्रेष्ठ माना है। परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि बिना गणितीय संक्रियाओं के काल निर्णय संभव नहीं है।  यही कारण है कि वेदांग- ज्योतिष के प्रत्येक संस्करण अर्थात् ऋक्, याजुष् तथा आथर्वण में उपलब्ध गणितीय सामग्रियों में संख्याओं का उल्लेख जोड़, घटाव, गुणा, भाग, त्रैराशिक नियम आदि सम्मिलित हैं। अतः आवश्यक है कि वेदांग- ज्योतिष में प्राप्त गणित विषयक अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए प्रत्येक संस्करण पर अलग-अलग दृष्टिपात किया जाय। 
ऋक् ज्योतिष-
महर्षि लगध प्रणीत इस ग्रन्थ में गणित विषयक अनेक तथ्य उपलब्ध हैं। इन तथ्यों को गणित के विभिन्न विषयों के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इस संस्करण में कुल 36 श्लोक हैं और इनमें जोड़, घटाव, गुणा, भाग के साथ-साथ कई संख्याओं का भी उल्लेख किया गया है। 
 संख्याएँ-
इन ग्रन्थ में जिन संख्याओं का प्रयोग हुआ है वे एक अंक दो अंक तथा तीन अंकों वाली संख्याएँ हैं। 
(क) एक अंक वाली संख्याएं-एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ, नौ। स्पष्ट है कि एक अंक वाली समस्त संख्याओं का प्रयोग इस ग्रन्थ में हुआ है। यह इस बात का सूचक है कि ग्रन्थकर्त्ता को इन संख्याओं का ज्ञान अवश्य था। इन संख्याओं के लिए जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है वे निम्नलिखित है-
1- एक 2- द्वि 3- त्रि 4-चतुर्थ 5- पंच
6- षट् 7- सप्तम 8- अष्टम 9- नव

(ख) दो अंकाें वाली संख्याएँ- 
एक अंकवाली संख्याआें के अतिरिक्त दो अंकों वाली संख्याओं का भी प्रयोग इस ग्रन्थ में प्रचुरता से किया गया है। ये अंक है-दस, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, पन्द्रह, उन्नीस, तीस, पचास, साठ, एकसठ, बासठ और बहत्तर । इन संख्याओं के लिए प्रयुक्त शब्द अधोलिखित है-

दस-दश ,ग्यारह-एकादश, बारह-द्वादश,  तेरह-त्रयोदश, चौदह-चतुर्दश,पन्द्रह-पंचदश, उन्नीस-एकान्नविंशति, तीस-त्रिंशत, पचास-पंचाशत, साठ-षष्टिः,एकसठ-एकषष्टिः, बासठ-षष्ट्या युतं द्वाभ्यां,बहत्तर-द्विसप्तति

(ग) तीन अंकों वाली संख्याएँ-
एक अंकवाली संख्या तथा दो अंकों वाली संख्या के अतिरिक्त बड़ी संख्याओं के रूप में तीन अंकों वाली संख्याओं का भी प्रयोग भी इस ग्रन्थ में द्रष्टव्य है। इन बड़ी संख्याओं में छ: सौ तीन संख्या मिलती है। इस संख्या के लिए निम्नलिखित शब्द प्रयुक्त हुआ है- 
‘‘छः सौ तीन-षट्शती त्र्यधिका’’
 गणितीय संक्रियाएँ-
ऋक् ज्योतिष में अनेक गणितीय संक्रियाओं जैसे कि जोड़, घटाव गुणा तथा भाग आदि का वर्णन उपलब्ध होता है। 
(क) जोड़ या संकलन-
गणित की इस संक्रिया का उल्लेख ऋक् ज्योतिष में अनेक स्थानों पर मिलता है।तिथि नक्षत्र में संस्कार विशेष के निरूपण प्रसंग में प्राप्त तिथिमांश को नव अंशों से जोड़ने का निर्देश है। ठीक इसी प्रकार इष्टतिथि के तुल्य होने पर गत नक्षत्र में उसके कलानयन की प्रक्रिया के सन्दर्भ में भी कला तथा सप्तगुणित तिथि को जोड़ने का निर्देश मिलता है। ऋक् ज्योतिष में ऐसे कई प्रसंग है जहाँ जोड़ अर्थात् संकलित की प्रक्रिया का निर्देश मिलता है। उन समस्त प्रसंगों को यहां सूचीबद्ध किया जा रहा है-
- पाँच संवत्सरात्मक युग की वर्तमान संवत्सर संख्या में से एक घटाकर शेष में बारह का गुणा करें उसमें गत माह जोड़ें योग को द्विगुणित करे साठ के प्रत्येक पर्यय में दो-दो जोड़े यही पर्वों की राशि कही जाती है।
- वर्तमान अब्द में बारह मासों में प्राप्त को अभीष्ट पक्ष करें व पक्ष ग्यारह से गुणित होने पर चन्द्रमा के अंश होते हैं, यदि चन्द्रमा शुक्ल पक्ष में हो तो पूर्व आगत अंश में आधा जोड़ें। 
- एक वर्ष में चार अष्टकाएँ होती हैं, अंशों को अष्टका स्थान में उन्नीस कलाएँ करें, हीन अष्टका स्थान में बारह सहित बहत्तर का क्षेप करें।
- पूर्व प्रकार से पर्व समय में जो भांश ग्रहण कला प्राप्त होती है, उसमे सात गुणित तिथि जोड़ तिथि के समान गत नक्षत्र के होने पर ग्रहण करने योग्य कला समझें। यदि पर्व से गत तिथि संख्या समान ही नक्षत्र मान हो तब पर्व नक्षत्र ग्रहण कला में सात से गुणित तिथि को जोडे़ं। 
- अयन के आरम्भ दिन से उत्तर अयन का जो गत भूमि दिनमान हो तथा दक्षिणायन आरम्भ दिन से दक्षिणायन का जो गत भूमि दिनमान हो उसे अयनान्तर्गत कुदिन मान से घटाकर जो शेष दिनमान बचे उसे दो से गुणा कर गुणनफल में एक सठ का भाग देने पर और लब्ध में बारह जोड़ने से मुहूर्त्तात्मक दिनमान होता है।
- प्रत्येक पर्व में चान्द्र दिन भाग को जो आधा शेष हो उसे चान्द्र सौर पर्वान्तर पर्वों की संख्या के साथ जोड़ने पर जो आये उसे इष्ट पर्व समय में रवि चन्द्र पर्वान्तर समान ऋतु शेष जानना चाहिए। 
- पन्द्रह तिथ्यात्मक पक्ष से ऊपर अर्थात् शुक्ल पक्ष के अवसान पर जो तिथिभांश प्राप्त हो उसे नव अंशों में जोड़ युक्तांश वास्तव भांश होगा, उस भांशमान को कहें, यदि नक्षत्रवश सावन दिन अपेक्षित हो तो एक कुदिन तथा सात कलामित प्रति नक्षत्र सम्बन्धी कुदिन होता है। 
उपरोक्त प्रसंग गणित के संलग्न संक्रिया वेदांग ज्योतिषीय प्रयोग के लिए प्रमाण सिद्ध होते है। 
(ख) व्यकलन-
गणित शास्त्र के इस मौलिक प्रक्रिया का भी प्रयोग इस ग्रन्थ में हुआ है। व्यकलन से संबन्धित कुछ प्रसंग अधोलिखित हैं- 
- सूर्य के उत्तरायण में जल के एक प्रस्थ समान दिन बढ़ता है और रात घटती है। दक्षिणायन की स्थिति इसके विपरीत होती है और अयन में छः मुहूर्त्त दिन-रात में अन्तर होता है।
- पाँच संवत्सरात्मक युग की वर्तमान संवत्सर संख्या में से एक घटाकर शेष में बारह का गुणा करें, उसमें गत माह जोड़ें योग को द्विगुणित करे, साठ के प्रत्येक पर्यय में दो-दो जोड़े यह पर्वों की राशि होती है। 
- सूर्योदय से बीते हुए पर्व के उन्नतांश जो एक सावन दिन में एक सौ चौबीस होते हैं उनसे द्विगुणित तिथि को शोधित करें, शेष उन रात-दिन के वृत्त भागों में जब सूर्य आता है तब वह सूर्य तिथिमान के अन्त को प्राप्त करता है।
- अयन के आरम्भ दिन से उत्तर अयन का जो गत भूमि दिनमान हो तथा दक्षिणायन आरम्भ दिन से दक्षिणायन का जो गत भूमि दिनमान बचे उसे दो से गुणा कर गुणनफल में एकसठ से भाग देने पर और लब्ध में बारह जोड़ने पर मुहूर्त्तात्मक दिनमान प्राप्त होता है।
- समान दिन-रात काल विषुवत को दो से गुणित कर एक-एक घटायें उसे छः से गुणित करें, लब्ध पर्व होगा, उसका आधा तिथि होगा।
उपरोक्त उद्धरण ऋक् ज्योतिष में गणितशास्त्र के व्यकलन विषयक प्रयोग की प्रौढ़ता को प्रदर्शित करते हैं। 
(ग) गुणन-
गुणन गणितशास्त्र की मूलभूत संक्रियाओं में से एक है और इसका प्रयोग ऋक् ज्योतिष में बहुलता से प्राप्त होता है। इस प्रसंग में निम्नलिखित उद्धरण विशेष महत्वपूर्ण हैं। 
- सत्ताईस भगण में से घनिष्ठा से जो इष्ट काल भाग हो उसे गुणित किया जाता है। उन भागों को घनिष्ठा से गिनकर पूर्व दिशा में भांशों का निर्देश करें स्व नाक्षत्र मासों को छः से गुणित करके चन्द्र सम्बन्धी ऋतुओं को जाना जा सकता है। सूर्योदय से बीते हुए पर्व के उन्नतांश जो एक सावन दिन में एक सौ चौबीस होते है, उनसे द्विगुणित तिथि को शोधित करें शेष उन रात-दिन के वृत्त भागों में जब सूर्य आता है। तब वह सूर्य तिथिमान के अन्त को प्राप्त करता है।
- पूर्व प्रकार से पर्व समय में जो भांश ग्रहण कला प्राप्त हुई, उसमें सात से गुणित तिथि को जोड़ें, तिथि के समान गत नक्षत्र के होने पर ग्रहण करने योग्य कला होती है। यदि पर्व से गत तिथि संख्या समान ही नक्षत्र मान हो तब पर्व नक्षत्र ग्रहण कला में सात से गुणित तिथि को जोड़ें। 
- अयन के आरम्भ दिन से उत्तर अयन का जो गत भूमि दिनमान हो तथा दक्षिणायन आरम्भ दिन से दक्षिणायन का जो गत भूमि दिनमान को उसे अयनान्तर्गत कुदिन मान से घटाकर जो शेष दिनमान बचे उसे दो से गुणाकर गुणनफल में एकसठ से भाग देने पर और लब्ध में बारह जोड़ने से मुहूर्त्तात्मक दिनमान होता है।

- पाँच संवत्सरात्मक युग की वर्त्तमान संवत्सर संख्या में से एक घटाकर शेष में बारह का गुणा करें उसमें गत माह जोड़े, योग को द्विगुणित करें साठ के प्रत्येक में दो-दो जोड़े यह पर्वों की राशि कही जाती है। 
- वर्तमान अब्द में बारह मासों में प्राप्त अभीष्ट पक्ष करें वे पक्ष ग्यारह से गुणित होने प्र चन्द्रमा के भांश होेंगे यदि चन्द्रपक्ष ग्यारह से गुणित होने पर चन्द्रमा के भांश होंगे यदि चन्द्रपक्ष शुक्ल् पक्ष में हो तो पूर्व आगत भांश में आधा जोड़ें।
उपरोक्त उद्धरणों में विभिन्न कालमान आनयन के लिए गुणन का प्रयोग किया गया है। 
(घ) भाग-
भाग की संक्रिया का प्रयोग वेदांग- ज्योतिष के ऋक् संस्करण में बहुलता से किया गया है। भाग की इस संक्रिया के स्वरूप को समझने के लिए अधोलिखित प्रसंग द्रष्टव्य हैं- 
- समान दिन-रात काल विषुवत् को दो से गुणित कर एक घटायें, उसे छः से गुणित करें वही लब्ध पर्व होता है तथा उसका आधा भाग (1/2) तिथि होती है।
- वेध से ज्ञात राशि में प्राप्त किसी पदार्थ को जानकर ज्ञेय राशि में उस पदार्थ को ले आने को लिए-ज्ञान राशि सम्बन्धी गत पदार्थ से गुणित ज्ञेय राशि कोे ज्ञान राशि से विभाजित करें फल ज्ञेय राशि सम्बन्धी उस पदार्थ का मान होगा, इसी प्रकार ज्ञान राशि से पुनः पुनः सावनदिनादि जानें।
- अयन के आरम्भ दिन से उत्तर अयन का जो गत भूमि दिनमान हो तथा दक्षिणायन आरम्भ दिन से दक्षिणायन का जो गत भूमि दिनमान हो उसे अयनान्तर्गत कुदिन मान से घटाकर जो शेष दिनमान बचे उसे दो से गुणा कर गुणनफल में एकसठ से भाग देने पर और लब्ध में बारह जोड़ने से मुहूर्त्तात्मक दिनमान होगा।
- चन्द्रमा जितने समय में नक्षत्र से युक्त होता है वह समय सात कला अधिक एक रवि सावन दिन होता है। इसी प्रकार सूर्य जितने काल में एक नक्षत्र भोगता है वह काल तेरह सावन दिन तथा पाँच बटा नव (5/9) भाग होता है। पाँच गुरू अक्षरों के उच्चारण समकाल की एक काष्ठा होती है।
- प्रत्येक पर्व में चान्द्र दिन भाग को जो आधा (1/2) शेष हो उसे चान्द्र सौर पर्वान्तर की संख्या के साथ जोड़ने पर जो आये उसे इष्ट पर्व समय में रवि चन्द्र पर्वान्तर समान ऋतु शेष जानें। 
गणित की इस संक्रिया के ये प्रयोग ग्रन्थकार के गणित विषयक ज्ञान की सूक्षमता को सिद्ध करते है। 
त्रैराशिक नियम-
ऋक् ज्योतिष में त्रैराशिक नियम की उपस्थिति के सन्दर्भ में चर्चा करने से पूर्व आवश्यक है कि ‘‘त्रैराशिक नियम’’ को जान लिया जाय। इस नियम को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि- त्रिराशि अर्थात् प्रमाण राशि फल तथा इच्छा राशि से संबन्धित होने के कारण इसको त्रैराशिक नियम कहते है। इस नियम की भारतीय गणित शास्त्र में बड़ी प्रशंसा की गई है। इस नियम में दी गई तीन राशियों अर्थात् प्रमाण राशि फलराशि तथा इच्छा राशि के आधार पर अज्ञात राशि का मान ज्ञात करने का विधान होता है और अधोलिखित सूत्र द्वारा समझा जा सकता है-
अज्ञात राशि = इच्छा राशि × फल राशि
प्रमाण राशि
इसी नियम को ऋक् ज्योतिष में प्रयुक्त किया गया है और कहा गया है वेध से ज्ञात राशि में प्राप्त किसी पदार्थ को जानकर ज्ञेय राशि में उस पदार्थ को ले आने के लिए ज्ञान राशि में उस पदार्थ को ले आने के लिए ज्ञान राशि सम्बन्धी गत पदार्थ से गुणित ज्ञेय राशि को ज्ञान राशि से विभाजित करें। फल ज्ञेय राशि सम्बन्धी उस पदार्थ का मान होगा, इसी प्रकार ज्ञान राशि से पुनः पुनः सावनादि दिन जाने। इसी त्रैराशिक नियम को सन्दर्भ में आर्यभट का कथन है कि-त्रैराशिक के प्रश्नों में फल राशि केा इच्छा राशि से गुणा करना चाहिए और गुणनफल को प्रमाण राशि से भाग चाहिए। इस प्रकार भाग करने से जो लब्धि प्राप्त होती है वही इच्छा फल है। त्रैराशिक की विभिन्न राशियों के पारिभाषिक शब्दावली में भी कुछ मतान्तर हैं। इस सन्दर्भ में आर्यभट्ट का कथन है कि ‘‘पहली राशि को मान’’ कहते हैं, मध्य राशि को विनियम कहते है और अन्तिम राशि को इच्छा कहते है। पहली और अंतिम राशियाँ एक जाति की होती है। मध्य राशि को अन्तिम राशि से गुणा करके गुणनफल को पहली राशि से भाग देने पर इच्छा फल मिलता है। त्रैराशिक के उपरोक्त नियम का प्रयोग ऋक् ज्योतिष में कई बार किया गया है। 


याजुष् ज्योतिष-
वेदांग ज्योतिष के इस संस्करण में भी अनेक गणित विषय प्रसंग और सिद्धान्त उपलब्ध होते हैं। जोड़, घटाव, गुणा, भाग, त्रैराशिक का सिद्धान्त तथा संख्याओं का उल्लेख इस दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है। 
संख्याएं- 
याजुष् ज्योतिष में संख्याओं का विशेष् प्रयोग मिलता है। एक अंकवाली संख्या, दो अंक वाली संख्या तथा तीन अंकवाली संख्याओं का प्रयोग इस वेदांग में किया गया है। 
(क) एक अंक वाली संख्याएं-
एक अंक वाली संख्या में एक से लेकर नौ तक की समस्त संख्याओं अर्थात् एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ तथा नौ इन शब्दों का प्रयोग प्राप्त होता है। इन संख्याओं के लिए जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है वे निम्नलिखित हैं-
एक-एक, दो-द्वि, तीन-त्रि ,चार-चतुर्थ ,पाँच-पंच,
छः-षट् ,सात-सप्त, आठ-अष्ट, नौ-नव, दस-दश
स्पष्ट है कि एक अंकवाली इन संख्याओं के लिए जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है वे आज भी संस्कृत साहित्य में सुरक्षित हैं। 
(ख) दो अंकों वाली संख्याएं-
जहां तक दो अंकों वाली संख्याओं का प्रश्न है ये संख्याएं 10 से प्रारम्भ होकर 99 तक है। इन समस्त संख्याओं का प्रयोग इस लघुकाय वेदांग ग्रन्थ में तो उपलब्ध नहीं होेता, परन्तु प्रसंगवश दो अंक वाली अनेक संख्याओं का प्रयोग इस ग्रन्थ में अवश्य दृष्टिगत होता है। ये संख्याएं है- दस, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, इक्कीस, तीस, इक्तीस, पचास, साठ, एकसठ, बासठ ,सरसठ, बहत्तर। 

(ग) तीन अंक वाली संख्याएं-
तीन अंक वाली संख्याओं से तात्पर्य सैकड़े वाली संख्याओं से है और ये संख्याएँ 100 से प्रारम्भ होकर 999 तक की है। इस ग्रन्थ में ऐसी सभी संख्याएं तो नहीं मिलती हैं परन्तु कुछ संख्याओं का उल्लेख अवश्य मिलता है। ये संख्याएं है- एक सौ चौबीस, एक सौ चौतीस, एक सौ पैतीस, तीन सौ छयासठ, और छः सौ तीन।
गणितीय परिकर्म-
वेदांग ज्योतिष के इस याजुष् संस्करण में गणित के विभिन्न परिकर्मों यथा-संकलन (जोड़) व्यकलन (घटा), गुणन, भाग, त्रैराशिक आदि का प्रयोग किया गया है। इन परिकर्मों से संबंधित प्रसंगों पर दृष्टिपात करने के बाद ही वेदांग ज्योतिष की गणितीय शैली को जाना जा सकता है- 
(क) संकल-
संकलन से तात्पर्य जो संख्याओं को जोड़ने तथा उनमें वृद्धि से है। इससे सम्बन्धित प्रसंग निम्नलिखित हैं- 
-सूर्य के उत्तरायण में जाने पर जल के एक परिणाम मात्र दिन बड़ा और रात छोटी होती है अयन से रात और दिन में छह मुहूर्त्त की वृद्धि होती है।
-वर्तमान सौराब्द मान को, एक हीन कर बारह से गुणित कर गुणनफल को दूना करे, उसमें गत पर्व को जोड़े हुए को साठ-साठ पदों से युत करे यही चान्द्र पर्वों की राशि होती है। 
-वर्तमान शब्द में बारह मासों मे प्राप्त को अभीष्ट पक्ष करें। वे पक्ष ग्यारह से गुणित होने पर चन्द्र के अंश होते है। यदि चान्द्र पक्ष शुक्ल पक्ष में हो तो पूर्व आगत भाश में आधा जोड़े।
-एक वर्ष में चार अष्टकाएँ होती है। भांशों के अष्टका स्थान से उन्नीस कलाएँ करें हीन स्थान में गणक सूर्य अर्थात् बारह से युक्त बहत्तर का प्रक्षेप करें।
-पर्व के नक्षत्रंश से युक्त तिथि को बारह और दस से गुणा करें उसे नक्षत्र समूह अर्थात् 124 से विभाजित कर लब्ध को तिथि संबंधी नक्षत्र जाने।
-पर्व समय में जो भांश ग्रहण कला प्राप्त हुई उसमें सात से गुणित तिथि को जोड़कर गणक तिथि के समान गत नक्षत्र के होने पर ग्रहण करने योग्य कला जानें। यदि पर्व से गत तिथि संख्या समान ही गत नक्षत्र मान हो तब पर्व नक्षत्र ग्रहण कला में सात से गुणित तिथि को जोड़े।
उपरोक्त प्रसंगों के अतिरिक्त कुछ अन्य स्थानों पर भी गणित विषयक संक्रिया का उल्लेख किया गया है। 
(ख) व्यकलन-
व्यकलन अर्थात् घटाव से सम्बन्धित अनेक प्रसंग याजुष ज्योतिष में उपलब्ध है। इस विषय में अधोलिखित उद्धरण द्रष्टव्य हैं-
-वर्तमान सौराब्द मान को एक हीन कर बारह से गुणित कर गुणनफल को दूना करे। उसमें गत पर्व को जोड़े, जोड़े हुए को साठ-साठ पदों से युत करे।
-तिथिमान आनयन प्रकार सूर्योदय से गत पर्वों के युक्त भाग को दो से गुणा कर तिथियेां को उनमें से घटा दे। उस अहोरात्र वृत्त भाग में सूर्य के होने पर सूर्य पर, सूर्य की तिथि में स्थित तिथि का मान गत होता है।
-विषुव संख्या के संख्यात्मक मान है, उसमें दो से गुणा करें, गुणित पफ़ल को एक से रहित करें, शेष को छः से गुणा करें, यही गुणनफल अपने विषुवत में युगादि से पक्ष होता है।
-वर्तमान सूर्य नक्षत्र के जो भुक्त भाग है उनमें नौ से भाग देकर फल ग्रहण करें, उस फल को दो बार से गुणित कर गुणितफल दिनांशमान से पूर्वागत फल दिनात्मक को हीनकर, शेष ग्रहण करें, वही शेष सूर्य की दिनोपभुक्ति होगा।
-युगीन सावन दिन की संख्या के साथ पाँच योग करने से तत्संख्यक सावन दिन में धनिष्ठा नक्षत्र की उदय संख्या होती है। उक्त सावन दिन संख्या से बासठ घटाने पर चन्द्र की सावन दिन संख्या होती है तथा इक्कीस घटाने पर चन्द्र के नक्षत्र भोग की संख्या मिलती है।
-अयन के आरम्भ दिन से उत्तर अयन का जो गत भूमि दिनमान हो तथा दक्षिणायन आरम्भ दिन से दक्षिणायन का जो गत भूमि दिनमान हो उसे अयनान्तर्गत कुदिन मान से घटाकर जो शेष दिनमान हो, उसे दो से गुणा कर गुणनफल में एकसठ का भाग देने पर लब्ध में बारह जोड़ने पर मुहूर्त्तात्मक दिनमान होगा।
उपरोक्त उद्धरण गणित की व्यकलन परिकर्म पर आधारित है। इन समस्त उदाहरणों में कालमान निर्धारण हेतु व्यकलन क्रिया का आश्रय लिया गया है। इनके अतिरिक्त कई अन्य स्थानों पर भी घटाव क्रिया का वर्णन है।           

(ग) गुणन-
गुणन परिकर्म से सम्बन्धित अनेक उदाहरण याजुष् ज्योतिष में प्राप्त होते है। इस दृष्टि से अधोलिखित उद्धरण अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं- 
-वर्तमान सौराब्द मान को एक हीन कर बारह से गुणित कर गुणनफल को दूना करे। उसमें गतवर्ष को जोड़े हुए को साठ-साठ पदों से युत करे।
-वर्तमान शब्द में बारह मासों में प्राप्त को अभीष्ट पक्ष किया जाय। वे पक्ष ग्यारह से गुणित होने पर चन्द्र के भांश हो। यदि चान्द्र पक्ष शुक्ल पक्ष में हो तो पूर्व आगत भांश से आधा जोड़े। 
-विषम पक्ष अर्थात् शुक्ल पक्ष के अवसान होने पर पन्द्रहवीं तिथि के उपस्थित होने पर प्राप्त भांश को नवभांशों से वर्धित (गुणित) करें तब वास्तव भांशमान होगा। अनन्तर गतभांश सात गुने से युत होने पर सावयव रवि सावन दिन होता है। 
-पर्व के नक्षत्रंश से युक्त तिथि को बारह और दस से गुणा कर उसे नक्षत्र समूह अर्थात् 124 से विभाजित कर लब्ध को तिथि सम्बन्धी नक्षत्र जाने।
-सूर्योदय से बीते हुए पर्व के अन्नतांश जो एक सावन दिन में एक सौ चौबीस होते हैं, उनसे द्विगुणित तिथि को गजक शोधित करें, शेष उन दिन-रात को वृत्त भागों में जब सूर्य आता है तब वह सूर्य तिथिमान के अन्त को प्राप्त करता है।
-विषुवत के संख्यात्मक मान को दो से गुणा करें, गुणित फल को एक से रहित करें, शेष को छः से गुणा करे, यह गुणनफल अपने विषुवत् में युगादि से पक्ष होता है।
-युगादि से वर्त्तमान पर्व पर्यन्त जितने पर्व हो, उन्हें ग्यारह से गुणित कर फिर पर्व के अनन्तर जो तिथि हो उस तिथि की संख्या को नौ से गुणा कर दोनेां को एकत्रित कर युग में जितने पर्व हों उस संख्या से लब्धफल पर्वमान के सहित किया जाय तो वह क्रम से सूर्य नक्षत्र होता है। 
याजुष् ज्योतिष में उपरोक्त उद्धरणों के अतिरिक्त अन्य कई प्रसंग प्राप्त होते है, जिनमें गुणन की विधि का वर्णन प्राप्त होता है। 
(घ) भाग-
गणित की इस प्रक्रिया का भी याजुष् ज्योतिष में बाहुल्य है। ऐसे अनेक प्रसंग है जिनमें भाग की विधि का उल्लेख तथा प्रयोग किया गया है। ऐसे कुछ उद्धरण निम्नलिखित हैं- 
-पर्व के नक्षत्रंश से युक्त तिथि को बारह और दस से गुणा कर उसे नक्षत्र समूह अर्थात् 124 से विभाजित कर लब्ध को तिथि सम्बन्धी नक्षत्र जानें।
-वर्तमान सूर्य नक्षत्र के जो मुक्त भाग हो उन्हें नव से विभाजित कर फल ग्रहण करे, उस पफ़ल को दो बार दो से गुणित कर गुणित फल दिनांशमान से पूर्वागत फल दिनात्मक को हीन कर शेष ग्रहण करें, वही शेष सूर्य की दिनांपभुक्ति होगा। 
-सौर नक्षत्रमान युग में एक सौ पैंतीस होता है, यह मान एक कम अर्थात् एक सौ चौतीस युग में चन्द्र का अयन होते हैं। युग में जो चन्द्रपर्व एक सौ चौबीस होते है उनका चतुर्थांश (चौथा भाग) पर्वपाद कहा जाता है।
-चन्द्रमा जितने समय में नक्षत्र से युक्त होता है, वह समय सात कला अधिक एक रवि सावन दिन होता है। इसी प्रकार सूर्य जितने काल में एक नक्षत्र का भोग करता है वह काल तेरह सावन दिन तथा दिन का पाँच भागा नव (5/9) होता है। 
-अयन के आरम्भ दिन से उत्तर अयन का जो गत भूमि दिनमान हो तथा दक्षिणायन आरम्भ दिन से दक्षिणायन का जो गत भूमि दिनमान हो उसे अयनान्तर्गत कुदिनमान से घटाकर जो शेष दिनमान हो उसे दो से गुणा गुणनफल में एकसठ का भाग दोने पर लब्ध में बारह जोड़ने पर मुहूर्त्तात्मक दिनमान प्राप्त होता है।
-पूर्व प्रतिपादित विधि से वेधोपाय का उपदेश समझे-वेध से ज्ञात राशि में प्राप्त किसी पदार्थ को जानकर ज्ञेयराशि में उस पदार्थ को ले आने के लिए ज्ञान राशि सम्बन्धीा गत पदार्थ से गुणित ज्ञेयराशि को ज्ञान राशि से विभाजित करें, फल ज्ञेयराशि सम्बन्धी उस पदार्थ का मान होता है। 
उपरोक्त उद्धरणों में सामान्य भाग की क्रिया का उल्लेख तो किया गया ही है। साथ ही साथ भिन्न का भी प्रयोग किया गया है। 
त्रैराशिक नियम-
त्रैराशिक शब्द का अर्थ है तीन राशियां अर्थात् तीन राशियों से सम्बन्ध रखने वाला नियम। क्योंकि इस संक्रिया में न्याय और करण के लिए तीन राशियों की आवश्यकता पड़ती है अतएव यह नियम त्रैराशिक कहलाता है। ऋक् ज्योतिष में वर्णित त्रैराशिक नियम के समान ही इस वेदांग में भी यह सिद्धान्त वर्णित है। 
इस नियम की भारतीय गणित परम्परा में बड़ी ही प्रतिष्ठा है और इसे समस्त अंकगणित का मूल कहा गया है और विमलबुद्धि ही बीज गणित है अर्थात् समस्त अंकगणित त्रैराशिक से ओतप्रोत है। 


3- आथर्वण ज्योतिष-
आथर्वण ज्योतिष वेदांग ज्योतिष के विभिन्न संस्करणों में सर्वाधिक अर्वाचीन माना जाता है। अतः इस ग्रन्थ में गणित के अनेक अवयव यथा संख्याओं का प्रयोग, घटाव, गुणा व भाग आदि का प्रयोग मिलता है। 
संख्याएं-
संख्याओं में एक अंकवाली संख्या ,दो अंकों वाली संख्या और तीन अंकों वाली संख्याआें का उल्लेख है। इन संख्याओं का विभिन्न प्रसंगों में बार-बार उल्लेख किया गया है।
(क) एक अंक वाली संख्याएं-
एक अंक वाली संख्याओं में एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ तथा नौ इन समस्त संख्याओं का उल्लेख आथर्वण ज्योतिष में प्राप्त होता है। 
(ख) दो अंकों वाली संख्याएं-
दो अंकों वाली संख्याएं दस (10) से प्रारम्भ होकर निन्यानवे (99) तक है। इन समस्त संख्याओं का उल्लेख आथर्वण ज्योतिष में तो नहीं मिलता पर इतना अवश्य है कि दो अंको वाली अनेक संख्याओं का यहां उल्लेख अवश्य हुआ है। इन संख्याओं में दस, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, पंद्रह, सोलह, सत्रह, अठारह, उन्नीस, बीस, इक्कीस, बाईस, तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, तीस, बत्तीस, साठ, नब्बे, छियानवे सम्मिलित हैं। उपरोक्त संख्याओं के लिए जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है वे आज भी प्रयुक्त होते है। 
(ग) तीन अंकों वाली संख्या-
आथर्वण ज्योतिष में तीन अंकों वाली एक मात्र संख्या का प्रयोग हुआ है और वह संख्या सौ है और इसके लिए शत शब्द प्रयुक्त है।
आथर्वण ज्योतिष में संख्याओं के प्रयोग में एक नवीन शैली का प्रयोग हुआ है। संख्याओं के लिए शब्दों का प्रयोग इस ग्रन्थ की विशेषता है। सात के लिए अर्थात् अश्व शब्द का प्रयोग है जबकि पन्द्रह के लिए पूर्ण शब्द प्रयुक्त है। शब्द संकेत के अलावा कुछ संकेतों का भी प्रयोग इस ग्रन्थ में मिलता है जैसे चार के लिए चः शब्द का प्रयोग सम तथा विषम संख्याओं का उल्लेख भी यहाँ मिलता है। सम संख्याओं के लिए युग्म शब्द तथा विषम संख्याओं के लिए अयुग्म शब्द का प्रयोग होता है। इन विषम संख्याओं के लिए विकल शब्द भी प्रयोग में आया हैं। 
गणितीय संक्रियाएं-
आथर्वण ज्योतिष ग्रन्थ में गणित की विभिन्न संक्रियाएं यथा व्यकलन ,गुणन तथा भाग का प्रयोग किया गया है। इन संक्रियाओं का प्रयोग विभिन्न प्रसंगों में हुआ है। 
(क) व्यकलन-
करण निर्धारण के प्रसंग में गणित की इस संक्रिया का प्रयोग हुआ है। यहाँ कहा गया है कि जिस तिथि में करण जानना है उस तिथि को शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से गिनकर जो संख्या मिले, उसे दूना कर फिर उसमें एक संख्या घटा दें, जो शेष रहे उसमें सात का भाग दें, भाग देने पर जो शेष बचे उसको बव से विष्टि पर्यन्त क्रमशः करण समझा जाता है। गर्भाधान प्रसंग में भी व्यवकलन का प्रयोग हुआ है। 
(ख) गुणन- गुणन की प्रक्रिया भी इस ग्रन्थ में अनेक स्थान पर वर्णित है। इस विषय पर निम्नलिखित सन्दर्भ द्रष्टव्य है-
-जैसे पति के विदेश जाने पर या बीमार अथवा मर जाने पर पत्नी सभी कार्यों को करती है, उसी प्रकार चन्द्रमा के कृष्ण पक्ष में न रहने पर तिथि एक गुना तथा नक्षत्र चौगुना शुभदायी कहा गया है, अर्थात् तिथि का एक गुण और नक्षत्र का चार गुण मान्य होता है।
-वार अर्थात् दिन का आठ गुनाफल करण का सोलह गुणाफल योग का बत्तीस गुणाफल तारा का साठ गुणा फल होता है।
-चन्द्रमा का फल सौ गुणा होेता है, इसलिए चन्द्रमा का बलाबल अवश्य देखना चाहिए क्योंकि अन्य ग्रह भी चन्द्रमा के बलाबल के अनुसार ही शुभ या अशुभ फल देते हैं।
उपरोक्त उद्धरण गणित के गुणन संक्रिया के महत्वपूर्ण उदाहरण है। 
(ग) भाग-
भाग की प्रक्रिया का उल्लेख आथर्वण ज्योतिष में उपलब्ध है। निम्नलिखित प्रसंग द्रष्टव्य हैं-
-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्व तथा शूद्र इन सभी वर्णों के सम्बन्ध में मध्यादिन अभिजित मुहूर्त्त श्रेष्ठ माना गया है। इस उदाहरण में मध्यदिन का मान बिना भाग की क्रिया के संभव नहीं।
-जिस तिथि का करण जानना हो उस तिथि को शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से गिनकर जो संख्या मिले, उसे दूना कर फिर उसमें एक संख्या घटा दें। जो शेष रहे उसमें सात का भाग दें भाग देने पर जो शेष मिले उसको सात का भाग दें, भाग देने पर जो शेष मिले उसको वव से विष्टि पर्यन्त क्रमशः करण समझें।
गणित की संक्रियाओं में से संकलन अर्थात् जोड़ का प्रयोग आथर्वण ज्योतिष में नहीं मिलता है। पर इसके अतिरिक्त व्यवकलन गुणन तथा भाग का प्रयोग इस ग्रन्थ में अवश्य मिलता है। वेदांग ज्योतिष के तीनों संस्करणों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि गणितशास्त्र से संबंधित विभिन्न सिद्धान्तों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया गया है। गणितीय संक्रियाओं के ये प्रयोग स्पष्ट करते हैं कि प्राचीन भारतीय ऋषियों ने गणित के क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति कर ली थी और इस दिशा में महर्षि लगध प्रणीत वेदांग ज्योतिष अत्यधिक महत्वपूर्ण रचना है।


Wednesday 20 March 2019

स्वप्न : क्या..क्यों..कैसे


          भारतीय मनीषियों ने विश्व में उपलब्ध समस्त विषयों का दार्शनिक पृष्ठभूमि में विश्लेषण करने की परम्परा का सूत्रपात अत्यन्त प्राचीन काल से ही कर दिया था। भौतिक पदार्थों से लेकर, मोक्षादि दृष्टातीत व अलौकिक विषय भी इससे अछूते नहीं रहे थे। ‘स्वप्न’ तथा इससे जुड़े समस्त विषयों का विस्तृत विवेचन प्राचीन संस्कृत साहित्य में प्राप्त होता है। ज्ञान विज्ञान की प्रत्येक शाखा अपने मूल रूप में वेदों में प्राप्त होती है। उपनिषदों, पुराणों तथा अन्य साहित्यिक ग्रंथों में इस विषय पर बारम्बार चर्चा की गई है।

क्या है स्वप्न ?
    प्रत्येक चलायमान वस्तु को विश्राम की आवश्यकता होती है। मनुष्य पूरे दिन की भागदौड़ के बाद जब मानसिक तथा शारीरिक आराम पाने के लिए निंद्रा का आश्रय लेता है, तभी से ‘स्वप्न’ की एक आकर्षक, गूढ़, गम्भीर तथा आध्यात्मिक सृष्टि का प्रारंभ हो जाता है। स्वप्न नींद के समय का मस्तिष्क का जीवन है - ऐसा जीवन, जिसमें हमारे जाग्रत जीवन का भी अंश होता है तथा इसके अतिरिक्त कुछ अन्य अनबूझे तथा गूढ विषय भी सम्मिलित होते हैं। भारतीय ट्टषियों ने इस सृष्टि में ‘आत्मा’ तथा ‘परमात्मा’ इन दोनों तत्त्वों के अस्तित्व को स्वीकार किया है। आत्मा की मुख्यतया तीन अवस्थाएँ होती हैं -
(क) जाग्रतावस्था - इस अवस्था में मनुष्य अपनी सम्पूर्ण चेतना पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों, पाँच प्राण तथा चारों अंतःकरण से युक्त होकर इस लोक के समस्त विषयों का साक्षात्कार व उपभोग करता है।
(ख) स्वप्नावस्था - इस लोक में अपनी दिनचर्या से थका मनुष्य विश्राम करने के लिए निंद्रा का आश्रय लेता है। निंद्रा प्रारंभ होेते ही ‘स्वप्न’ की संभावना प्रारंभ हो जाती है। इस अवस्था में मनुष्य अपने अवचेतन मन के सहयोग से स्वप्न की एक नई सृष्टि का सृजन कर लेता है।
(ग) सुषुप्ति - यह निंद्रा की गहरी अवस्था है। स्वप्नावस्था के बाद की अवस्था। इस अवस्था में मनुष्य ‘स्वप्नादि’ का अनुभव नहीं करता है।
इन तीनों अवस्थाओं के अतिरिक्त एक ‘तुरीयावस्था’ का भी अस्तित्व है, परन्तु इस अवस्था से सामान्य मानवों का साक्षात्कार नहीं हो पाता है। तुरीयावस्था में योगीजन ही जा पाते हैं जाग्रतावस्था में मानव अपने समस्त ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा मन की सहायता से इस संसार में उपलब्ध समस्य विषयों का साक्षात्कार एवं भोग करता रहता है। लौकिक कार्यों को सम्पादित करने से थका-हरा मनुष्य स्वयं को मानसिक तथा शारीरिक आराम देने के लिए निंद्रा का आश्रय लेता है। निंद्रा अवस्था में जाते ही ‘स्वप्न दर्शन’ की संभावना का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। ‘स्वप्न’ की इस अवस्था में समस्त कर्मेन्द्रियाँ तथा ज्ञानेन्द्रियाँ मन में विलीन हो जाती हैं, केवल मन क्रियाशील रहता है। मन की इसी अवस्था में मनुष्य अपनी अतृप्त इच्छाओं, पूर्व जन्म के संस्कारों तथा दैवीय प्रेरणा से प्रेरित होकर स्वप्नों का दर्शन करता है। निंद्रा के अत्यधिक गहन हो जाने के बाद मन हृदय में प्रविष्ट होता है, जहाँ परमात्मा अंगुष्ठमात्र परिमाण से उपस्थित रहते हैं। मन के हृदय में पहुँचते ही स्वप्नावस्था का अंत हो जाता है तथा ‘सुषुप्ति’ की अवस्था प्रारंभ हो जाती है। ‘सुषुप्ति’ की अवस्था में स्वप्न नहीं आते हैं।

‘स्वप्न’ की उत्पत्ति (भारतीय मत) 


     ऋग्वेद के ‘दुःस्वप्ननाशन’ सूक्त तथा यजुर्वेद के ‘शिवसंकल्प सूक्त’ में ‘स्वप्न’ की उत्पत्ति के मौलिक सिद्धान्त प्राप्त होते हैं। यजुर्वेद के शिवसंकल्प सूक्त में मन की चेतन तथा अवचेतन दोनों ही अवस्थाओं के साथ-साथ स्वप्न का भी वर्णन किया गया है - यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवेति। इसी प्रकार ऋग्वेद का ‘दुःस्वप्ननाशन सूक्त’ स्वप्नों के शुभाशुभत्व का निर्देश करता है। परन्तु उपनिषदों में, विशेषकर ‘प्रश्नोपनिषद्’ तथा ‘माण्डूक्योपनिषद’ में स्वप्न के क्रिया विज्ञान पर विशेष प्रकाश डाला गया है। इसके अनुसार जिस प्रकार सूर्य के अस्त होने के समय उसकी किरणें समस्त संसार से सिमटकर सूर्य में समा जाती है, ठीक उसी तरह गहरी निंद्रा के समय समस्त इन्द्रियाँ मन में विलीन हो जाती हैं। उस समय इन्द्रियों के समस्त कार्य समाप्त हो जाते हैं। मनुष्य के जागने पर पुनः ये समस्त इन्द्रियाँ मन से पृथक् होकर पुनः अपने-अपने कार्य में ठीक उसी प्रकार लग जाती हैं, जिस प्रकार सूर्योदय होते ही सूर्य की किरणें पुनः चारों ओर फैल जाती है। मानव शरीर में व्याप्त पंचवायु में से उदानवायु, मन को निंद्रा के समय हृदय में उपस्थित परमात्मा के पास ले जाती है, जहाँ मन के द्वारा मनुष्य निंद्रा से उत्पन्न विश्राम रूपी सुख का अनुभव करता है। ‘स्वप्न’ की उत्पत्ति का सिद्धान्त ‘प्रश्नोपनिषद्’ के इस मंत्र में सन्निहित है -अत्रैष देवः स्वप्ने महिमामनुभवति। यद् दृष्टं दृष्टमनुपश्यति श्रुतं श्रुतमेवार्थमनु शृणोति। देशदिगन्तरैश्च प्रत्यनुभूतं पुनः पुनः प्रत्यनुभवति दृष्टं चादृष्टं च श्रुतं चाश्रुतं चानुभूतं चाननुभूतं च सच्चाचच्च सर्वं पश्यति सर्वः पश्यति।
अर्थात् मानव शरीर में स्थित जीवात्मा ही मन और सूक्ष्म इन्द्रियों के द्वारा स्वप्न का अनुभव करता है। जीवात्मा स्वयं द्वारा पूर्व में देखे गए, सुने गए, अनुभव किए गए और संपादित किए गए घटनाओं का उसी प्रकार स्वप्न में भी अनुभव करता है। परन्तु यह आवश्यक नहीं कि सिर्फ निंद्रा से पूर्व की जाग्रतावस्था में घटित विभिन्न घटनाएँ ही ‘स्वप्न’ के विषय होते हैं। जाग्रतावस्था में घटित अलग-अलग घटनाओं के विभिन्न अंश आपस में मिलकर एक नए स्वप्न की पटकथा तैयार करते हैं। इसके अतिरिक्त पूर्वजन्म के संस्कार, दबी हुई आकांक्षाएँ तथा परमपिता की प्रेरणा, ‘स्वप्नों’ की उत्पत्ति के कारण होते हैं। भारतीय ऋषियों ने स्वप्न को भविष्य में होने वाली घटनाओं का शुभाशुभ सूचक माना है। विभिन्न पुराणों तथा धर्म ग्रन्थों में उपलब्ध अाख्यान भी इस तथ्य का समर्थन करते हैं। 
स्वप्नों की उत्पत्ति के पाश्चात्य सिद्धान्त 
      पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने भी ‘स्वप्न’, इसके कारणों तथा इसकी उत्पत्ति विज्ञान पर विशेष रूप से विचार किया है। इन विचारकों में सिगमण्ड फ्रायड, युंग, अर्नेस्ट हार्मेन आदि प्रमुख हैं। फ्रायड के मतानुसार हमारे सारे स्वप्न, ‘काम-प्रवृत्ति’ से सम्बन्धित इच्छाओं की पूर्त्ति के साधन होते हैं। केवल कुछ ही स्वप्न हैं जो हमारी शारीरिक इच्छाओं जैसे भूख, प्यास आदि से नियंत्रित होती है। जैसे उपवास के साथ भोजन का स्वप्न, प्यास के समय किसी नदी, झरने या पानी पीने का स्वप्न। इन विचारकों का मत है कि मनुष्य की दमित तथा अपूर्ण इच्छाओं, कामवासनाओं तथा तात्कालिक परिस्थितियों के कारण मनुष्य को स्वप्न आते हैं। स्वप्न में दिखनेवाले विषय ठीक वर्त्तमान परिस्थिति के समान हो सकते हैं अथवा ये स्वप्न सांकेतिक रूप में भी हो सकते हैं। इन मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि स्वप्न किसी इच्छा के कारण पैदा होते हैं और स्वप्न की वस्तु उस इच्छा को प्रकट करती है। जैसे परीक्षा के समय विद्यार्थी को आनेवाले स्वप्न, किसी आत्मीय संबंधी के बीमार होने पर आनेवाले स्वप्न, अपूर्ण यौन इच्छाओं से संबंधित स्वप्न, घर में विवाहादि उत्सवों से संबंधित स्वप्न आदि उपरोक्त सिद्धान्तों को प्रथमदृष्ट्या सत्य मानने पर बाध्य करते हैं। परंतु उपरोक्त सिद्धान्त स्वप्नों के स्वरूप का एकांगी स्वरूप ही दिखाते हैं, क्योंकि कभी-कभी ऐसे स्वप्न भी आते हैं जिनका मनुष्य के भूत, भविष्य या वर्त्तमान से कोई संबंध नहीं होता है। सी.जी. युंग का विचार इससे कुछ विपरीत है। उनके मतानुसार स्वप्न अप्रमाणित सत्य की आध्यात्मिक घोषणाओं की, भ्रम, की, परिकल्पना की, स्मृतियों की, योजनाओं की, पूर्वानुमानों की, अतार्किक अनुभवों की यहाँ तक की पराचित्त ज्ञान की अभिव्यक्ति हो सकते हैं। भौतिकतावादी होने के कारण अधिकतर पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक स्वप्न की आध्यात्मिक उत्पत्ति विधि तथा इसकी महत्ता को समझ नहीं सके हैं। फिर भी युंग, अल्फ्रेड एडलर सदृश पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक स्वप्न की आध्यात्मिकता को समझने के करीब पहुँच चुके थे।
स्वप्न के प्रकार - स्वप्नों के दो प्रकार माने गए हैं - (क) दिवास्वप्न तथा (ख) निशास्वप्न। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि दिवास्वप्न दिन में देखे जाने वाले स्वप्न हैं जबकि निशास्वप्न रात्रिकालीन स्वप्न हैं। इन दोनों स्वप्नों में कुछ मौलिक अंतर भी हैं -
(क) दिवास्वप्नों में व्यक्ति अपनी इच्छा से ही अपनी अतृप्त इच्छाओं की कल्पना में पूर्त्ति कर लेता है। परन्तु निशास्वप्नों में अचेतन मन की अतृप्त इच्छाएँ व्यक्ति की इच्छा न होने पर भी प्रकट होती हैं। 
(ख) दिवास्वप्नों में व्यक्ति अपनी अतृप्त इच्छाओं को उसी ढंग से तृप्त करने की चेष्टा करता है, जिस ढंग से होनी चाहिए निशास्वप्नों में इन इच्छाओं की तृप्ति का ढंग सांकेतिक होता है। जिसका विश्लेषण करने पर इन अतृप्त इच्छाओं का स्वरूप समझा जा सकता है।
(ग) दिवास्वप्न सदा अतृप्त इच्छाओं से प्रेरित होते हैं, परन्तु सभी निशास्वप्नों पर यह बात लागू नहीं होती। कुछ निशास्वप्नों में भविष्य से संबंधित सूचनाएँ भी छिपी होती हैं।

स्वप्न घटनाओं के सूचक या एक सामान्य मनोवैज्ञानिक घटना
भारतीय विचारधारा तथा पाश्चात्य विचारधारा के सम्यक् अवलोकन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि न तो समस्त स्वप्न एक मनोवैज्ञानिक घटना मात्र हैं और न ही भविष्य में घटने वाली शुभाशुभ घटनाओं के सूचक। किसी भी स्वप्न का विश्लेषण करने से पूर्व यदि स्वप्न द्रष्टा मनुष्य की पृष्ठभूमि का गहन अध्ययन किया जाए तो स्वप्न की प्रकृति को स्पष्टतया समझा जा सकता है। किसी सांसारिक घटना से प्रभावित स्वप्न निष्फल होते हैं। जैसे यदि किसी मनुष्य के घर में शादी की बात चल रही हो और उसने शादी का सपना देखा तो यह स्वप्न व्यर्थ होगा। इसी प्रकार यदि व्यक्ति वैष्णो देवी माता का दर्शन करने का कार्यक्रम बना रहा हो और उसने माता का अथवा पहाड़ पर चढ़ने का सपना देखा तो यह स्वप्न भी निष्फल ही होगा। परंतु जब हम शुभाशुभ फल अथवा भविष्य में घटनेवाली किसी घटना की सूचना देने में समर्थ स्वप्न की प्रकृति पर विचार करते हैं, तो यह अनिवार्य है कि यह स्वप्न किसी भी रूप से उस मनुष्य की मानसिक, वैचारिक अथवा कार्यशैली से प्रभावित न हों। संस्कृत साहित्य के विभिन्न ग्रंथों तथा पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों की रचनाओं में ऐसे सहस्रों उदाहरण भरे पड़े हैं जिससे स्वप्नों को भविष्य में घटनेवाली शुभाशुभ सूचनाओं का सूचक होने के सिद्धान्त की पुष्टि होती है। हम दैनिक जीवन में भी स्वप्नों के इस सामर्थ्य का अनुभव करते रहते हैं। अतः आवश्यक है कि स्वप्नों से संबंधित फलादेश करने में पर्याप्त सर्तकता बरती जाए। 

विभिन्न सम्प्रदायों में स्वप्न - विश्व में प्रचलित सभी मुख्य सम्प्रदायों ने स्वप्न को मान्यता दी है। हिन्दू धर्म में ‘स्वप्न’ को विशेष मान्यता दी गई है। भारतीय दर्शन में इसका आश्रय लेकर ब्रह्मतत्व को समझाने का प्रयास किया जाता रहा है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, महाभारत, रामायण इन समस्त ग्रंथों में यत्र-तत्र स्वप्न से संबंधित आख्यान प्राप्त होते हैं। कुरान की कई आयतें हजरत पैगम्बर मुहम्मद साहब के स्वप्न में भी अवतरित हुई थीं। बौद्ध धर्म के संस्थापक भगवान बुद्ध के जन्म से पूर्व उनकी माता को स्वप्न में सफेद हाथी के दर्शन हुए। महावीर स्वामी के जन्म से पूर्व उनकी माता महारानी त्रिशला ने भी 14 अत्यन्त शुभ स्वप्न देखे थे।

स्वप्न का शुभाशुभत्व - भारतीय परम्परा ‘स्वप्न’ की आध्यात्मिकता के साथ-साथ इसके शुभाशुभ को भी समान रूप से स्वीकार करती है। विभिन्न पुराणों में स्वप्नों के शुभाशुभ फलों पर विशेष रूप से चर्चा की गई है। ब्रह्मवैवर्त्त पुराण तथा अग्नि पुराण में इस विषय पर विशेष रूप से चर्चा की गई है। 

स्वप्नफलदायक कब? 
    समस्त स्वप्न शुभ अथवा अशुभ फल बताने में समक्ष नहीं होते हैं। किसी घटना के कारण आनेवाले स्वप्न निष्फल होते हैं। दिन में सोते समय दिखने वाले स्वप्न भी अपना फल नहीं देते हैं। शुभ स्वप्न देखने के बाद जागरण तथा हरिनाम का जप करते हुए रात्रि व्यतीत करने पर ही शुभ फलों की प्राप्ति होती है। पुनः सो जाने पर स्वप्न का शुभ अथवा अशुभ फल नष्ट हो जाता है। बिना किसी पूर्व घटना अथवा तनाव से प्रभावित होकर आनेवाले स्वप्न ही शुभाशुभ फलप्रद होते हैं। चिन्तायुक्त, जडतुल्य, मल-मूत्र के वेग से पीडि़त, भय से व्याकुल, नग्न और उन्मुक्त केश व्यक्ति को अपने देखे हुए स्वप्न का कोई फल प्राप्त नहीं होता है।

‘स्वप्न’ फल की प्राप्ति की अवधि 
      भारतीय ऋषियों ने स्वप्नजन्य शुभाशुभ फलों की प्राप्ति में लगनेवाले समय का भी निर्धारण किया है। सम्पूर्ण रात्रि को चार प्रहरों में विभक्त किया गया है। रात्रि के प्रथम पहर में देखे गए स्वप्न का शुभाशुभ फल एक वर्ष में प्राप्त होता है। द्वितीय प्रहर के स्वप्न का फल आठ मास में मिलता है। यदि स्वप्न रात्रि के तृतीय प्रहर में आए तो व्यक्ति को इस स्वप्न का फल तीन महीने में प्राप्त है। रात्रि का चतुर्थ प्रहर अत्यन्त शुभ माना जाता है। समस्त सात्त्विक शक्तियाँ इस काल में सक्रिय रहती हैं। यह समय ‘ब्रह्ममुहूर्त्त’ के नाम से प्रसिद्ध है। ब्रह्ममुहूर्त्त में देखे गए स्वप्न का फल एक पक्ष अर्थात् 15 दिन के अन्दर प्राप्त हो जाता है। सूर्योदय के समय का स्वप्न 10 दिन की कालावधि के मध्य ही अपना शुभाशुभ फल प्रदान कर देता है। यदि व्यक्ति ने प्रातःकाल स्वप्न देखा हो तथा स्वप्न दर्शन के पश्चात् ही उसकी नींद खुल गई हो तो यह स्वप्न तत्काल फलदायी होता है।
जहाँ तक रात्रि के विभिन्न प्रहरों में आए स्वप्नों से संबंधित फलों की प्राप्ति में लगने वाले समय का प्रश्न है, यह एक अत्यन्त ही जटिल विषय है। तथापि इस विषय को निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है। सूर्य सिद्धान्त के अनुसार मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं के एक अहोरात्र के बराबर होता है। भारतीय दार्शनिक चिंतन की विचारधारा मनुष्य के भीतर स्थित जीवात्मा तथा परमात्मा में अभेद मानती है। निंद्रा की अवस्था में जीवात्मा का ‘मन’ मनुष्य की हृदयगुहा में स्थित परमात्मा से मिलता है, अतः इस जीवात्मा तथा परमात्मा में ऐक्य हो जाता है। इस सम्पूर्ण निंद्रा काल को उस देव वर्ष या दिव्य वर्ष के रूप में स्वीकार किया जा सकता है जो मनुष्य के 360 दिन के सौर वर्ष के बराबर होता है। इसी निंद्रा काल की अलग-अलग कालावधि अथवा प्रहरों में आनेवाले विभिन्न स्वप्नों को ऋषियों ने अपने अंतर्ज्ञान, सूक्ष्मदृष्टि तथा पर्यवेक्षण के आधार पर उपरोक्त समय-सीमा में निबद्ध किया है। 

Monday 18 March 2019

ऊपरी बाधा,निवारण और पञ्चमुखी हनुमत् उपासना



विश्व की प्रत्येक प्राचीन संस्कृति में जीवन तथा मृत्यु के साथ-साथ मरणोत्तर जीवन पर भी असीम विश्वास व्यक्त किया गया है। भारतीय संस्कृति भी इससे अछूती नहीं रही और वैदिक काल से ही इस विषय पर गहन चर्चा उपलब्ध होती है। अथर्ववेद का एक बहुत बड़ा भाग इसी मरणोत्तर जीवन से संबंधित तथ्यों को समर्पित है। भूत, प्रेत जैसी अशरीरी आत्माओं के साथ-साथ विभिन्न तान्त्रिक क्रियाओं का वर्णन इस वैदिक संहिता को अन्य संहिताओं से अलग बनाता है। विश्व की इन सर्वाधिक प्राचीनतम रचनाओं में अशरीरी आत्माओं के उत्पातादि का वर्णन इस समस्या की पुरातनता को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। वेदों के अतिरिक्त अनेक दार्शनिक सम्प्रदायों में भी स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर तथा आत्माविषयक विशद वर्णन उपलब्ध होता है। परन्तु तान्त्रिक ग्रन्थों में ये विषय अधिक मुखरित हैं। अतः आवश्यक है कि हम जान लें कि -

ऊपरी बाधा क्या, क्यों और कब?
क्या?


जीवन जितना सत्य है, उतनी ही मृत्यु भी और उतना ही सत्य है मृत्यु के बाद का जीवन। भारतीय चिन्तन धारा के मूल स्रोतों जैसे वेद, उपनिषद्, महाभारत आदि में इस विषय पर बड़ी ही विस्तृत चर्चा की गई है। मनुष्य मृत्युपर्यन्त आकाङ्क्षाओं के पीछे भागता रहता है और मृत्यु के बाद इन्हीं अधूरी इच्छाओं के कारण वह प्रेतयोनि को प्राप्त होता है। मानव की मृत्यु के बाद सूक्ष्म शरीर का इस पञ्चभूतात्मक शरीर से अलगाव हो जाता है। शास्त्रों में कहा गया है कि सूक्ष्म शरीर निराश्रय नहीं रह सकता-
'न तिष्ठति निराश्रयं लिङ्गम्'
अतः अगला स्थूल शरीर प्राप्त करने तक वह सूक्ष्म शरीर अपनी वासनाओं के अनुसार प्रेत शरीर को ग्रहण कर लेता है। इन्हीं प्रेत शरीरों तथा यदा कदा मनुष्य को आवेशित कर लेने के कारण विकट परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है और यही घटना प्रेतबाधा नाम से जानी जाती है। ऐसा नहीं है कि केवल प्रेतात्माओं के द्वारा ही मनुष्यों को कष्ट पहुँचाया जाता है। कभी-कभी विभिन्न देव योनियाँ जैसे देव, यक्ष, किन्नर, गंधर्व, नागादि भी कुपित होकर कष्टकारक हो जाते हैं। व्यक्ति के शरीर के तापमान में अत्यधिक वृद्धि, उन्माद की अवस्था, शरीर के वजन में वृद्धि या ह्रास आदि अनेक ऐसे संकेत हैं जिनसे ऊपरी बाधा का प्रकोप प्रकट हो जाता है।
क्यों ?


एक बात तो स्पष्ट ही है कि दुर्बल, रोगी, कातर (डरपोक), आत्मबल से हीन तथा कमजोर इच्छाशक्ति वाले लोगों पर यह ऊपरी बाधा अधिक होता हुआ देखा गया है। कभी-कभी दुष्ट तान्त्रिकों द्वारा भी धन के लालच में आकर निकृष्ट प्रेतात्माओं द्वारा मनुष्य को प्रेतबाधा से पीडि़त करने का दुष्कर्म किया जाता है। तीर्थ स्थलों तथा सिद्ध पीठों पर अपवित्र आचरण के कारण भी वहाँ उपस्थित दिव्यात्माएँ क्रोधित होकर कभी-कभी कष्ट पहुँचाने लगती हैं।
कब?
प्रेतात्माओं का आवेश विशेष रूप से दोपहर, सांयकाल तथा मध्यरात्रि के समय होता है। निर्जन स्थान, श्मशान, लंबे समय से खाली पड़े घर आदि भी प्रेतों के वासस्थान माने गए हैं इसलिए यहाँ जाने से बचें। स्त्रियों को बाल खुले रखने से बचना चाहिए विशेष रूप से सांयकाल में। छोटे बच्चों के अकेले रहने पर भी प्रेतों का आवेश हो जाता है।
ऊपरी बाधा निवारण


जहाँ तक ऊपरी बाधा के निवारण का प्रश्न है हनुमान जी की उपासना इस समस्या से मुक्ति के लिए अत्यन्त श्रेष्ठ मानी गई है। प्रसिद्ध ही है -
'भूत पिशाच निकट नहीं आवै।
महावीर जब नाम सुनावै।'
भूत-प्रेत-पिशाच आदि निकृष्ट अशरीरी आत्माओं से मुक्ति के उपायों पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि इनसे संबंधित मन्त्रों का एक बड़ा भाग हनुमान जी को ही समर्पित है। ऊपरी बाधा दूर करने वाले शाबर मन्त्रों से लेकर तांत्रिक मंत्रों में हनुमान जी का नाम बार-बार आता है। वैसे तो हनुमान जी के कई रूपों का वर्णन तन्त्रशास्त्र में मिलता है जैसे - एकमुखी हनुमान, पञ्चमुखी हनुमान, सप्तमुखी हनुमान तथा एकादशमुखी हनुमान। परन्तु ऊपरी बाधा निवारण की दृष्टि से पञ्चमुखी हनुमान की उपासना चमत्कारिक और शीघ्रफलदायक मानी गई है। पञ्चमुखी हनुमान जी के स्वरूप में वानर, सिंह, गरुड़, वराह तथा अश्व मुख सम्मिलित हैं और इनसे ये पाँचों मुख तन्त्रशास्त्र की समस्त क्रियाओं यथा मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि के साथ-साथ सभी प्रकार की ऊपरी बाधाओं को दूर करने में सिद्ध माने गए हैं। किसी भी प्रकार की ऊपरी बाधा होने की शङ्का होने पर पञ्चमुखी हनुमान यन्त्र तथा पञ्चमुखी हनुमान लॉकेट को प्राणप्रतिष्ठित कर धारण करने से समस्या से शीघ्र ही मुक्ति मिल जाती है।
प्राण प्रतिष्ठा की सुगम विधि
पञ्चमुखी हनुमान जी की प्रतिमा या चित्र, यंत्र तथा लॉकेट का पञ्चोपचार पूजन करें तथा उसके बाद निम्नलिखित विधि द्वारा उपरोक्त सामग्री को प्राणप्रतिष्ठित कर लें-

विनियोग
ऊँ अस्य श्री पञ्चमुखीहनुमत्कवचस्तोत्रमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः गायत्री छन्दः, श्री हनुमान् देवता, रां बीजम्, मं शक्तिः, चन्द्र इति कीलकम्, ऊँ रौं कवचाय हुं, ह्रौं अस्त्राय फट्। इति पञ्चमुखीहनुमत्कवचस्य पाठे विनियोगः।

ध्यानम्
अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि  शृणु सर्वांगसुन्दरम्।
यत्कृतं देवदेवेशि ध्यानं हनुमतः प्रियम्।।
पञ्चवक्त्रं महाभीमं कपियूथसमन्वितम्। बाहुभिर्दशभिर्युक्तं, सर्वकामार्थसिद्धिदम्।।
पूर्वं तु वानरं वक्त्रं कोटिसूर्यसमप्रभम्। दंष्ट्राकरालवदनं भृकुटीकुटिलेक्षणम्।।
अस्येव दक्षिणं वक्त्रं नारसिंहं महाद्भुतम्। अत्युग्रतेजोवपुषं भीषणं भयनाशनम्।।
पश्चिमे गारुडं वक्त्रं वक्रतुण्डं महाबलम्। सर्वनागप्रशमनं सर्वभूतादिकृन्तनम्।।
उत्तरे शौकरं वक्त्रं कृष्ण दीप्तनभोमयम्।
पाताले सिद्धिवेतालं ज्वररोगादिकृतनम्।।
ऊर्ध्वं ह्याननं घोरं दानवान्तकरं परम्।
येन वक्त्रेण विप्रेन्द्र ताटकाय महाहवे।।
दुर्गतेश्शरणं तस्य सर्वशत्रुहरं परम्।
ध्यात्वा पञ्चमुखं रुद्रं हनुमन्तं दयानिधिम्।।
खंगं त्रिशूलं खट्वांगं, पाशमंकुशपर्वतम्।
मुष्टौ तु मोदकौ वृक्षं धारयन्तं कमण्डलुम्।।
भिन्दिपालं ज्ञानमुद्रां दशमं मुनिपुंगव। एतान्यायुधजालानि धारयन्तं भयापहम्।।
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्य गन्धानुलेपनम्।
सर्वैश्वर्यमयं देवं हनुमद्विवश्वतोमुखम्।।
पञ्चास्यमच्युतमनेकविचित्रवर्णवक्त्रं सशंखविभृतं कविराजवीर्यम्।
पीताम्बरादिमुकुटैरपि शोभितांगं पिंगाक्षमञ्जनिसुतं ह्यनिशं स्मरामि।।
मर्कटस्य महोत्साहं सर्वशोकविनाशनम्।
शत्रुसंहारकं चैतत्कवचं ह्यपदं हरेत्।।
ॐ हरिमर्कटमर्कटाय फट् स्वाहा।।
ॐ नमो भगवते पञ्चवदनाय पूर्वकपिमुखाय सकलशत्रुसंहारणाय स्वाहा।।
ॐ नमो भगवते पञ्चवदनाय उत्तरमुखाय आदिवराहाय सकलसम्पत्कराय स्वाहा।।
ॐ नमो भगवते पञ्चवदनाय ऊर्ध्वमुखाय हयग्रीवाय सकलजनवश्यकराय फट् स्वाहा।।
           ।।इति मूल मन्त्रः।।

ॐ अस्य श्री पञ्चमुखीहनुमत्कवचस्तोत्रमन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषिःअनुष्टुप् छन्दः, श्रीरामचन्द्रो देवता, सीतेति बीजम्, हनुमानिति शक्तिः, हनुमत्प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।।
पुनर्हनुमानिति बीजम्। ॐ वायुपुत्र इति शक्तिः। अञ्जनीसुतायेति कीलकम्। श्री रामचन्द्रवरप्रसाद सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।।

करन्यास
ॐ हं हनुमते अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ऊँ वं वायुपुत्रय तर्जनीभ्यां नमः।
ऊँ अं अञ्जीनीसुताय मध्यमाभ्यां नमः।
ऊँ रां रामदूताय अनामिकाभ्यां नमः।
ऊँ रुं रुद्रमूर्तये कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
ऊँ सं सीताशोकनिवारणाय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।

हृदयादिन्यास
ऊँ अञ्जनीसुताय हृदयाय नमः।
ऊँ रुद्रमूर्तये शिरसे स्वाहा।
ऊँ वायुपुत्राय शिखायै वषट्।
ऊँ कपियूथपाय कवचाय हुम्।
ऊँ रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट्।
ऊँ पञ्चमुखीहनुमते अस्त्राय फट्।
ऊँ श्रीरामदूताय आञ्जनेयाय वायुपुत्राय महाबलाय सीताशोकनिवारणाय महाबलप्रचण्डाय लंकापुरीदहनाय फाल्गुनसखाय कोलाहलसकलब्रह्माण्डविश्वरूपाय सप्तसमुद्रनिरन्तरोल्लंघिताय पिंगलनयनायामितविक्रमाय सूर्यबिम्बफलसेवाधिष्ठित निराकृताय सञ्जीवन्या अंगदलक्ष्मणमहाकपिसैन्यप्राणदात्रे दशग्रीवविध्वंसनाय रामेष्टाय सीतासहरामचन्द्रवर प्रसादाय षट्प्रयोगागमपञ्चमुखीहनुमन्मन्त्रजपे विनियोगः।।

दिग्बन्धन
ऊँ हरिमर्कटमर्कटाय फट् स्वाहा।
ऊँ हरिमर्कटमर्कटाय वं वं वं वं वं स्वाहा। 
ऊँ हरिमर्कटमर्कटाय फं फं फं फं फं फट् स्वाहा (इति पूर्वे)।
ऊँ मर्कटमर्कटाय खं खं खं खं खं मारणाय स्वाहा।
ऊँ हरिमर्कटमर्कटाय ठं ठं ठं ठं ठं स्तम्भनाय स्वाहा। (इति दक्षिणे)।
ऊँ हरिमर्कटमर्कटाय डं डं डं डं डं आकर्षणाय सकलसम्पत्कराय पञ्चमुखिवीर हनुमते स्वाहा।
ऊँ उच्चाटने ढं ढं ढं ढं ढं कूर्ममूर्तये पञ्चमुखहनुमते परयन्त्रपरतन्त्रोच्चाटनाय स्वाहा (इति पश्चिम)।
ऊँ कं खं गं घं घं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं स्वाहा (इत्युत्तरे)।
 इति दिग्बन्धः।
ऊँ पूर्वकपिमुखे पञ्चमुख हनुमते ठं ठं ठं ठं ठं सकलशत्रुसंहारणाय फट् स्वाहा।
ऊँ दक्षिणमुखे पञ्चमुखहनुमते करालवदनाय नरसिंहाय ह्रां ह्रां ह्रां ह्रां ह्रां सकलभूतप्रेतदमनाय फट् स्वाहा।।
ऊँ पश्चिममुखे गरुड़ासनाय पञ्चमुखवीरहनुमते मं मं मं मं मं सकलविषहराय फट् स्वाहा।।
ऊँ उत्तरमुखे आदि वाराहाय लं लं लं लं लं नृसिंहाय नीलकण्ठाय पञ्चमुखहनुमते फट् स्वाहा।।
ऊँ अञ्जनीसुताय वायुपुत्राय महाबलाय रामेष्टफाल्गुनसखाय सीताशोकनिवारणाय लक्ष्मणप्राणरक्षकाय कपिसैन्यप्रकाशाय दशग्रीवाभिमानदहनाय श्रीरामचन्द्रवरप्रसादकाय महावीर्याय प्रथमब्रह्माण्डनायकाय पञ्चमुखहनुमते भूतप्रेतपिशाचब्रह्मराक्षसशाकिनी डाकिनी अन्तरिक्षग्रहपरमन्त्रपरयन्त्रपरतन्त्र सर्वग्रहोच्चाटनाय सकलशत्रुसंहारणाय पञ्चमुखहनुमद्वरप्रसादसर्वरक्षकाय जं जं जं जं जं फट् स्वाहा।

इसके बाद कवचमहात्म्य का पाठ कर लें -
इदं कवचं पठित्वा तु महाकवचं पठेन्नरः।
एकवारं पठेन्नित्यं सर्वशत्रुनिवारणम्।।
द्विवारं तु पठेन्नित्यं पुत्रपौत्रप्रवर्धनम्।
त्रिवारं तु पठेन्नित्यं सर्वसम्पत्करं परम्।।
चतुर्वारं पठेन्नित्यं सर्वलोकवशीकरम्।
पञ्चवारं पठेन्नित्यं सर्वरोगनिवारणम्।।
षड्वारं पठेन्नित्यं सर्वदैव वशीकरम्।
सप्तवारं पठेन्नित्यं सर्वकामार्थसिद्धदम्।।
अष्टवारं पठेन्नित्यं सर्वसौभाग्यदायकम्।
नववारं पठेन्नित्यं सर्वैश्वर्यप्रदायकम्।।
दशवारं पठेन्नित्यं त्रैलोक्यज्ञानदर्शनम्।
एकादशं पठेन्नित्यं सर्वसिद्धिंलभेन्नरः।।
कवचं स्मृतिमात्रेण, महालक्ष्मीफलप्रदम्।
तस्माच्च प्रयता भाव्यं कार्य हनुमतः प्रियम्।।
तदुपरान्त हनुमत्सहस्रनाम के मन्त्रों से हवन सामग्री की आहुति दें।
उपरोक्त विधि से प्राण प्रतिष्ठित यन्त्र को पूजन स्थान पर रखें तथा लॉकेट को धारण करें। उपरोक्त अनुष्ठान को किसी भी मंगलवार के दिन किया जा सकता है। उपरोक्त विधि अपने चमत्कारपूर्ण प्रभाव तथा अचूकता के लिए तंत्रशास्त्र में दीर्घकाल से प्रतिष्ठित है। श्रद्धापूर्वक किया गया उपरोक्त अनुष्ठान हर प्रकार की ऊपरी बाधा से मुक्ति प्रदान करता है।

Friday 25 January 2019

सर्वविध समृद्धि और अष्टलक्ष्मी उपासना


शक्ति उपासना पद्धति के समान ही महालक्ष्मी की उपासना पद्धति का भी तन्त्रशास्त्र में विशद् वर्णन किया गया है। परन्तु जिस प्रकार माँ दुर्गा के नवविधरूपों तथा दशमहाविद्या आदि स्वरूपों की आराधना प्रचलित है, उस तरह माँ महालक्ष्मी के अष्टविध रूपों अर्थात् ‘अष्टलक्ष्मी’ की पूजन पद्धति प्रचलित नहीं हो सकी। महालक्ष्मी की आराधना मुख्यतः केवल दीपावली पूजन तक ही सीमित हो गई। माँ के इस अष्टलक्ष्मी स्वरूप की उपासना साधकों को शीघ्र की समस्त ऐश्वर्य प्रदान करने में सक्षम है। देवी महालक्ष्मी की इस उपासना पद्धति में आदि लक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, धैर्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी तथा धनलक्ष्मी स्वरूपों की आराधना का विधान है। देवी के ये समस्त स्वरूप जीवन के आरंभ से लेकर मृत्यु के बाद तक की समस्त इच्छाओं को पूर्ण करते हैं। अभिप्राय यह है कि लौकिक समृद्धि से लेकर पारलौकिक जगत की इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए माता महालक्ष्मी के इन अष्टविध स्वरूपों की उपासना तथा साधना अवश्य करनी चाहिए।

आदिलक्ष्मी-
इन्हें महर्षि भृगु की पुत्री के रूप में जाना जाता है। इनका निवास स्थान कमलपुष्प है 
तथा इन्हें धर्म, सद्गुण के साथ-साथ मोक्ष प्रदायिनी भी माना गया है। 
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है अष्टलक्ष्मी के समस्त रूपों में ये सर्वाधिक प्राचीन हैं। इनकी उपासना से मनुष्य धन-धान्य के अविरल प्रवाह को प्राप्त कर सकता है। माता का यह स्वरूप चतुर्भुजा है। जिनके हाथों में कमल तथा श्वेतध्वज है जबकि शेष दो हाथ अभय मुद्रा तथा वरद मुद्रा में होते हैं। माँ आदि लक्ष्मी की उपासना साधक को सर्वविध ऐश्वर्य, धन, सम्पत्ति, भौतिक तथा आध्यात्मिक सुख प्रदान करने में सक्षम है।

धान्यलक्ष्मी-
‘धान्य’ शब्द का अर्थ है अन्न, पोषक पदार्थ आदि। महालक्ष्मी के इस स्वरूप की 
उपासना साधक को स्वास्थ्य, पोषण, भोजन आदि से संबंधित सुख प्रदान करती है। कृषक वर्ग तथा अन्नादि का व्यापार करने वाले व्यक्तियों को माता के इस स्वरूप की उपासना अवश्य करनी चाहिए। देवी के इस स्वरूप की उत्पत्ति समुद्र से हुई है। मां महालक्ष्मी का यह स्वरूप अष्टभुजा देवी का है। ये हरे रंग का परिधान धारण करती हैं। इनके हाथों में कमल, गदा, अनाज की बालियां, गन्ना, केले सुशोभित हैं जबकि अन्य दो हाथ अभय मुद्रा तथा वरद मुद्रा में होते हैं।


धैर्यलक्ष्मी- 
माता का यह स्वरूप साधक को धैर्य प्रदान करता है। आशय यह है कि महालक्ष्मी के इस स्वरूप की उपासना से व्यक्ति प्रत्येक परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम हो जाता है। मां का यह स्वरूप आध्यात्मिक ज्ञान, शास्त्रज्ञान, आदि को विकसित करने वाला तो है ही साथ ही साथ इनकी आराधना समस्त पापों से मुक्त कर भवबंधन से मुक्त करने में भी सक्षम है। विकट परिस्थितियों में यदि कोई भी उपाय न सूझ रहा हो तो माता का यह स्वरूप कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। अत्यन्त प्रतिकूल स्थिति होने पर मां के इस स्वरूप का स्मरण कल्याणप्रद होता है। 


गजलक्ष्मी- 
इनकी उत्पत्ति समुद्र मन्थन से हुई थी। माता का यह स्वरूप वाहन संबंधी सुख तथा पशु इत्यादि से संबंधित वैभव का सूचक है। इनकी उपासना साधक को ऐश्वर्य, वाहन सुख, पशुओं का बाहुल्य आदि प्रदान करती है। महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण इन्द्र का खोया हुआ ऐश्वर्य माता गजलक्ष्मी के द्वारा ही स्थिर हुआ था। माता का यह स्वरूप चतुर्भुजा है। इनके दो हाथों में कमलपुष्प सुशोभित हैं तथा शेष दो हाथ अभय व वरद मुद्रा में हैं। देवी के इस स्वरूप का अभिषेक दो दिव्य हाथी जलकलशों द्वारा करते रहते हैं। मां गजलक्ष्मी अपने साधकों की दुर्गति का नाश करने वाली हैं।


संतानलक्ष्मी-
माता का यह स्वरूप छः भुजाओं से युक्त है। इनके हाथों में जलकलश, खड्ग, ढाल सुशोभित रहते हैं। माता के इस स्वरूप की गोद में एक शिशु भी स्थित है। माता के इस स्वरूप की आराधना साधक को संतानविषयक समस्त सुख प्रदान करती है। संतानहीनता की स्थिति में मां महालक्ष्मी के इस दिव्य स्वरूप की आराधना शीघ्र इष्टफल प्रदान करने वाली है। महालक्ष्मी स्वयं मातृस्वरूपा है तथा उनका यह स्वरूप मानव मात्र के लिए मातृसुख प्रदातृ है। 


विजयलक्ष्मी-
समस्त प्रकार का विजय प्रदान करने वाला माता का यह स्वरूप अष्टभुजा देवी का है। लाल वस्त्रें से सुशोभित माता का यह स्वरूप चक्र, शंख, खड्ग, ढाल, कमल तथा पाश से युक्त तथा कमलासन पर आसीन है। शेष दो हाथ अभय और वरद मुद्रा में हैं। जीवन के प्रवाह में आनेवाली विभिन्न समस्याओं, युद्ध तथा अवरोधों पर विजय प्राप्ति हेतु माता विजय लक्ष्मी की आराधना सर्वश्रेष्ठ है। न्यायालय संबंधी समस्याओं में विजयलक्ष्मी देवी का अनुष्ठान चमत्कारिक फल देता है। कहा जाता है कि आद्य गुरू शंकराचार्य ने महालक्ष्मी के इसी स्वरूप की आराधना करनधारा स्तोत्र में की है। 


विद्यालक्ष्मी-
प्रसिद्ध है कि देवी लक्ष्मी तथा देवी सरस्वती में शाश्वत वैर भाव है। परन्तु देवी महालक्ष्मी का यह स्वरूप समस्त विद्याओं को प्रदान करने वाला है। समस्त कला तथा विज्ञान का मूल केन्द्र इन्हें की माना जाता है। देवी का यह स्वरूप उपासक को अज्ञान के अंधकार से दूर करने वाला है। मन्दबुद्धि बालकों तथा बार-बार परीक्षाओं में असफलता से त्रस्त व्यक्तियों को माता के इस स्वरूप की आराधना अवश्य करनी चाहिए। 


धनलक्ष्मी-
माता का यह स्वरूप आठ भुजाओं वाला है। इनके हाथों में चक्र, शंख, कलश, तीर-धनुष तथा कमल सुशोभित होते हैं। साथ ही माता के दो हाथ अभय तथा वरद मुद्रा में हैं। महालक्ष्मी के इस स्वरूप की उपासना साधक को विपुल धन, स्वर्णादि प्रदान करने वाला माना गया है। जीवन में धन की अल्पता तथा कर्ज इत्यादि के आधिक्य से पीडि़त व्यक्तियों को इनकी शरण में अवश्य जाना चाहिए। 


माता महालक्ष्मी के इन अष्टविध रूपों से संबंधित समस्त सुखों की प्राप्ति तथा सर्वविध बाधाओं से मुक्ति के लिए अष्टलक्ष्मी स्तोत्र का नित्य 11 बार पाठ करना चाहिए। 


अष्टलक्ष्मी स्तोत्र
सुमनसवंदित सुंदरि माधवि चंद्र सहोदरि हेममये। 
मुनिगण वंदित मोक्षप्रदायिनि मंजुलभाषिणि वेदनुते।।
पंकजवासिनि देवसुपूजित सदगुणवर्षिणि शांतियुते।
जय जय हे मधुसूदन कामिनि आदिलक्ष्मि जय पालय माम्।।1।।
अयिकलि कल्मषनाशिनि कामिनि वैदिकरूपिणि वेदमये। 
क्षीरसमुदभव मंगलरूपिणि मंत्रनिवासिनि मंत्रनुते।।
मंगलदायिनि अंबुजवासिनि देवगणाश्रित पादयुते।
जय जय हे मधुसूदन कामिनि धान्यलक्ष्मि जय पालय माम्।।2।।
जयवर वर्णिनि वैष्णविभार्गवि मंत्रस्वरूपिणी मंत्रमये।
सुरगण पूजित शीघ्र फलप्रद ज्ञानविकासिनि शास्त्रनुते।।
भवभयहारिणी पापविमोचनि साधुजनाश्रित पादयुते। 
जय जय हे मधुसूदन कामिनि धैर्यलक्ष्मि जय पालय माम्।।3।।
जय जय दुर्गतिनाशिनि कामिनि सर्वफलप्रद शास्त्रमये।
रथगज तुरग पदादिसमानुत परिजनमंडित लोकनुते।।
हरि-हर ब्रह्म सुपूजित सेवित तापनिवारिणि पादयुते।
जय जय हे मधुसूदन कामिनि श्री गजलक्ष्मि पालय माम्।।4।।
अयि खगवाहिनि मोहिनि चक्रिणि राग विवर्धिनि ज्ञानमये।
गुणगणवारिधि लोकहितैषिणि सप्तस्वरवर गाननुते।। 
सकल सुरासुर देव मुनीश्वर मानववंदित पादयुते।
जय जय हे मधुसूदन कामिनि संतानलक्ष्मि पालय माम्।।5।।
जय कमलासनि सदगतिदायिनि ज्ञान विकासिनि गानमये।
अनुदिनमर्चित कुकुंमधूसर भूषितवासित वाद्यनुते।।
कनकधरा स्तुति वैभव वंदित शंकर देशिक मान्य पते।
जय जय हे मधुसूदन कामिनि विजयलक्ष्मि जय पालय माम्।।6।।
प्रणत सुरेश्वरि भारति भार्गवि शोकविनाशिनि रत्नमये।
मणिमय भूषित कर्णविभूषण शांतिसमावृत हास्यमुखे।।
नवनिधि दायिनि कलिमलहारिणि काम्य फलप्रद हस्तयुते। 
जय जय हे मधुसूदन कामिनि विद्यालक्ष्मि पालय माम्।।7।।
धिमि धिमि धिम् धिमि धिंधिमि धिंधिमि दुंदुभ्निाद सुपूर्णमये।
घुमघुम घुंघुम घुंघुम घुंघुम शंखनिनाद सुवाद्यनुते।।
वेदपुराणेतिहास सुपूजित वैदिकमार्ग प्रदर्शयुते।
जय जय हे मधुसूदन कामिनि श्री धनलक्ष्मि पालय माम्।।8।।