Tuesday 20 November 2018

पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्र कितना पाश्चात्य और कितना भारतीय ??


विश्व की प्राचीनतम साहित्यिक रचना के रूप में ऋग्वेद को प्रतिष्ठा प्राप्त है। न केवल प्राचीनता की दृष्टि से अपितु अपने विषय-वैशिष्ट्य की अद्वितीय प्रतिभा के कारण इसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। भारतीय मनीषियों का यह दृढ़ विश्वास है कि विश्व का समस्त ज्ञान-विज्ञान किसी न किसी रूप में ऋग्वेद में अवश्य उपलब्ध है, चाहे वह बीज रूप में हो अथवा विकसित रूप में। ‘सामुद्रिकशास्त्र’ तथा उसका आनुषांगिक क्षेत्र ‘हस्तरेखाशास्त्र’ भी इस दृष्टिकोण से अछूता नहीं है। वर्त्तमान परिदृश्य में सामुद्रिकशास्त्र को पञ्चस्कन्धात्मक ज्योतिषशास्त्र का एक अङ्ग माना गया है। ज्योतिषशास्त्र की गणना षड्वेदाङ्गों के अन्तर्गत की गई है।1 स्पष्ट है कि वेदपुरुष के अङ्गों में से नेत्र के रूप में ज्योतिषशास्त्र की परिगणना की गई है और इसका श्रेष्ठत्व प्रतिपादित करते हुए कहा गया है।2 

वैदिक साहित्य के आरम्भिक काल में ज्योतिषशास्त्र का मूल उद्देश्य यज्ञादि विधियों के लिए कालनिर्धारण मात्र ही था और यही कारण है कि इसे कालविधानशास्त्र कहा जाता है।3 परन्तु कालान्तर में इस ज्योतिष वेदाङ्ग का प्रभूत विस्तार हुआ और यह सिद्धान्त, संहिता और होरा इन तीन स्कन्धों में विभक्त हो गया।4 इन्हीं तीन स्कन्धों में ज्योतिषशास्त्र द्वारा विवेचनीय समस्त विषयों का समावेश हो गया। मनुष्य तथा पशु-पक्षियों के अङ्गलक्षण विधा का समावेश संहिता स्कन्ध के अन्तर्गत समाविष्ट हुआ तथा इस दृष्टिकोण से ‘बृहत्संहिता’ तथा जैन ज्योतिषशास्त्र परम्परा का ग्रन्थ ‘भद्रबाहुसंहिता’ अत्यन्त उच्च कोटि का ग्रन्थ सिद्ध होता है। जैनज्योतिष परम्परा अङ्गलक्षण विधा की गणना निमित्तशास्त्र के अष्ट वेदों के अन्तर्गत परिगणित करती है और कहती है।5  यद्यपि ऋग्वेद में कई ऐसे प्रसङ्ग उपलब्ध होते हैं जहाँ विभिन्न देवी-देवताओं यथा - इन्द्र6, ऊषस्7 व वरूणादि8 देवताओं के अङ्ग-उपाङ्गों का वर्णन मिलता है, परन्तु उन अङ्गों से शुभाशुभत्व की उत्पत्ति के सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। अङ्लक्षण शास्त्र की स्वतन्त्र परम्परा का विकास ‘समुद्र’ ऋषि द्वारा किया गया है। इस सन्दर्भ में भविष्य पुराण में उपलब्ध वर्णन को प्रमाण के रूप में स्वीकृत किया जा सकता है।9 ध्यानावस्था में महर्षि समुद्र द्वारा श्रीभगवान् विष्णु तथा श्री लक्ष्मी के शरीर में उपस्थित शुभाशुभ लक्षणों के दर्शन के आधार पर ही उन्होंने “सामुद्रिकशास्त्र” संज्ञक अद्वितीय शास्त्र की रचना की। महर्षि समुद्र विरचित इस शास्त्र का विस्तार परवत्र्ती आचार्यों ने किया जिसका मुख्य आधार अनुभवजन्य ज्ञान था। ‘सामुद्रिक शास्त्र’ को विकसित, पुष्पित और पल्लवित करने वाली ऋषि परम्परा में नारद, लक्षक, वराहमिहिर, माण्डव्य, स्वामी कात्र्तिकेय आदि प्रमुख हैं।10 सामुद्रिकशास्त्र की इसी परम्परा को आधार मानकर राजा भोज व सुमन्त आदि विद्वानों ने गहन ग्रन्थों की रचना की। 
सामुद्रिकशास्त्र की भारतीय परम्परा दर्शनशास्त्र के कर्मसिद्धान्त को स्वीकार करती है और कहती है।11 अर्थात् स्त्रियों एवं पुरुषों के शरीर में उत्पन्न होने वाले शरीराङ्गों के शुभ लक्षण उनके द्वारा पूर्वजन्म में किए गए शुभाशुभ कर्मों पर ही आधारित होते हैं। महर्षि पराशर के अनुसार पुरुष तथा स्त्री के शरीर लक्षणों का आधार उनके शरीर में उच्चता, परिमाणता, गति, बल, मुखाकृति, चिकनाई, स्वर, स्वभाव, वर्ण, सन्धिसमेत सत्त्व, क्षेत्र और लावण्य को ही मानना चाहिए तथा उसी के आधार पर गत अथवा अनागत शुभाशुभ का कथन करना चाहिए।12 आचार्य समुद्र ने स्त्री तथा पुरुष के शरीर से विचारणीय लक्षण हेतु उरूयुग्म, जठर, उरुस्स्थल, दोनों भुजाएँ, पीठ तथा शिर को अष्टाङ्ग के रूप में प्रस्तुत किया है तथा इसके अतिरिक्त शेष अङ्गों को उपाङ्गों की श्रेणी में परिगणित किया है। नृदेह को उध्र्वमूल तथा अधःशाखा वाला मानकर तथा शरीरगत लक्षणों के बाह्य व आभ्यन्तर भेद करने के उपरान्त महर्षि समुद्र ने अङ्गों के अवलोकन के क्रम का भी निर्धारण किया है। शरीर में व्याप्त लक्षणों के बाह्य व आभ्यन्तर भेद करने के उपरान्त इनको और स्पष्ट किया गया है और कहा गया है कि “वर्णस्वरादि बाह्यं पुनरन्तः प्रकृतिसत्त्वादि”।13 सामुद्रिकशास्त्र की भारतीय परम्परा के अनुसार स्त्री-पुरुष के शरीर लक्षणों के अवलोकन का एक क्रम निर्धारित किया गया है और इसके अनुसार क्रमशः पदतल, पादरेखा, पादाङ्गुष्ठ, पादाङ्गुलियाँ, पादनख, पादपृष्ठ, गुल्फ (टखने), पाष्र्णि (एड़ी), जङ्घा युगल, दोनों पिंडली, जानुयुग्म, उरू, कमर की किनारी, दोनों स्फिग् (नितम्ब), पायु, मुष्क, शिश्न, शिश्नमणि, वीर्य, मूत्र, रक्त, बस्ति, नाभि, कुक्षि, पाश्र्व, जठर, छाती का मध्य भाग, स्तन, उदरवलय, हृदय, उरःप्रदेश, चुचुक, हंसली, कन्धों के पिछले भाग, काँख, दोनों भुजाएँ, दोनों हथेलियों की रेखाएँ, नख, अंगुली, पाणिपृष्ठ, पीठ, कृकाटिका, गर्दन, ठोड़ी, दाढ़ी-मूँछ, जबड़े, गण्ड, गाल, मुख, ओष्ठ, दाँत, जीभ, तालु, घण्टिका, हँसने का ढंग, नाक, छींक, दोनों नेत्र, नेत्रों की पक्ष्म, पलक, रोने का ढंग, भौंह, कनपटी, कान, ललाट, मस्तक, ललाट व मस्तक पर अङ्कित रेखाएँ, केशों व उनके आवत्र्त आदि के अवलोकन का क्रम ही उचित है।14 

यद्यपि सामुद्रिकशास्त्र में स्त्री-पुरुष के समस्त शरीरावयवों, अङ्ग व उपाङ्गों के अवलोकन का विधान है, तथापि हस्तपरीक्षण की महत्ता को सामुद्रिकशास्त्र के विद्वानों ने मुक्त कण्ठ से स्वीकृत किया है और कहा है कि “जिस प्रकार सभी मन्त्राक्षरों में ऊँ की प्रतिष्ठा है, क्योंकि वह शब्द ब्रह्म का प्रतीक है तथा समस्त वाणी व्यवहार का मूल है, उसी प्रकार सामुद्रिकशास्त्र में भी हाथ मुख्य है, क्योंकि यह सभी क्रियाओं का मूल है।”15 हाथ ही समस्त कर्मों का साधन है, इसके द्वारा ही पाणिग्रहण, पूजा, भोजन, यज्ञ, दान, शान्ति, शत्रुनाश आदि समस्त कार्य किए जाते हैं, यही कारण है कि भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के प्रवत्र्तक आचार्यों ने हस्तलक्षण को शीर्षलक्षण से भी श्रेष्ठ माना है और कहा है- “अक्षया जन्मपत्रीयं ब्रह्मणा निर्मिता स्वयम्। ग्रहा रेखाप्रदा यस्यां यावज्जीवं व्यवस्थिता।।”16 हस्तरेखा विज्ञान के प्राचीन महर्षियों ने हस्तपरीक्षा हेतु तीन विधियों को स्वीकार किया है - हस्तदर्शन, हस्तस्पर्श तथा हस्तरेखा विमर्श। अभिप्राय यह है कि जातक के हस्तदर्शन, हस्तस्पर्श तथा हस्तरेखाओं के विमर्शन के द्वारा शुभाशुभफल कथन करना सम्भव है। हस्तरेखाशास्त्री के गुणों के संदर्भ में कहा गया है कि हस्तरेखा शास्त्री गुरु को ब्रह्मचारी, क्षमाशील, कृतज्ञ, धार्मिक, पवित्र, दक्ष, गुरुप्रिय, सत्यभाषी, अपने कर्म में रत रहने वाला, संतुष्ट, श्रद्धायुक्त, तपस्वी, जितेन्द्रिय, अनेकशास्त्रों का ज्ञाता तथा स्थिर मन वाला होना चाहिए तभी उसके द्वारा फलकथन में सत्यता होगी, साथ ही साथ गुरु अर्थात् हस्तरेखाशास्त्री को अपने अनुभव तथा शास्त्र के आधार पर, प्रश्नकत्र्ता के कुल, जाति, देश, आकार तथा ग्रहस्थिति को देखकर उसकी श्रद्धा तथा जिज्ञासा की सच्चाई को परखकर ही फलादेश करना चाहिए। आचार्य को पद्मासन में बैठकर, समस्त हस्तरेखाशास्त्र के सारांश को अपने मस्तिष्क में सतत मनन करते हुए, गुरु तथा इष्ट देव का ध्यान करते हुए ही हस्तपरीक्षण और फलादेश करना चाहिए। एक दिन में केवल एक ही मनुष्य के हाथ का परीक्षण करना चाहिए, यदि अत्यावश्यक हो तो अधिकतम दो मनुष्य का हस्तपरीक्षण भी शास्त्रासम्मत है - “दिने त्वेकस्य पुंसो वा द्वयोर्हस्तं विलोकयेत्।”17 दैवज्ञ से हस्तपरीक्षण करवाने की विधि भारतीय हस्तरेखाशास्त्र सद्ग्रन्थों में अत्यन्त विस्तार से बताई गई है। इसके अनुसार यदि मनुष्य अपना हस्तपरीक्षण करवाने के लिए इच्छुक हो तो उसे सर्वप्रथम ब्रह्ममुहूत्र्त में उठकर शौच-स्नानादि से निवृत्त होने के उपरान्त, साफ धुले कपड़े पहनकर, आदरपूर्वक, सुगन्ध, फूल, नैवेद्य तथा विविध स्तुतियों द्वारा अपने इष्टदेव का पूजन करके, गुरु को प्रणाम कर धर्म का उपदेश सुनकर, तत्त्वेता जिज्ञासु यजमान अन्नादिक से गुरु का सत्कार करके, विधिपूर्वक स्वयं भी भोजन करे, तदुपरान्त सुन्दर वेश में, चिन्ता से मुक्त होकर, इन्द्रियों को वश में रखकर, सप्तधातुओं की सन्तुलित अवस्था में विनयावनत हो, हाथ को नारियल, फूल व फल से परिपूर्ण कर दैवज्ञ गुरु के पास जाना चाहिए तथा स्वयं को हस्तावलोकनार्थ प्रस्तुत करना चाहिए। मनुष्य का कौन सा हाथ और कब देखा जाय इस पर भारतीय परम्परा में पर्याप्त चर्चा है। पुरुष के दाँये हाथ को अपने दाँये हाथ में रखकर अवलोकन करना चाहिए। स्त्री के बाएँ हाथ को अपने बाँए हाथ में रखकर दैवज्ञ को हस्तपरीक्षण करना चाहिए। पन्द्रह वर्ष या अल्पव्यस्क बच्चे का हाथ देखना हो तो बाँए हाथ का ही अवलोकन करना शास्त्रसम्मत है - “वामहस्तात्फल पञ्चदश वर्षाणि किञ्चन”। हस्तावलोकन के सन्दर्भ में कुछ विशिष्ट परिस्थितियों की भी चर्चा की गई है। दैवज्ञों के समक्ष उस समय विचित्र स्थिति उत्पन्न हो जाती है जब पुरुष स्त्रियोचित गुणों से युक्त हों तथा स्त्री पुरुषोचित गुणों से युक्त हो तब यह निश्चित करना कठिन हो जाता है कि किस हाथ का अवलोकन करना शास्त्र सम्मत होगा। इस समस्या का निवारण आचार्य मेघ विजयगणि करते हैं और कहते हैं - “दक्षिणाद्बलवान्वामः पंुसः स्त्रीशीलशालिनः। नृशीलायाः स्त्रियो वामाद्दक्षिणो बलवान्भवेत्।।” अर्थात् स्त्रियोचित गुणों से युक्त पुरुष का वाम हस्त, दक्षिण हस्त की अपेक्षा अधिक बलवान होगा। इसी प्रकार पुरुषोचित गुणों से युक्त स्त्री का दक्षिण हस्त, वामहस्त की अपेक्षा अधिक बलवान होता है। अतः इन विशिष्ट परिस्थितियों में हस्तावलोकन का क्रम विपरीत होगा। हाथों के निर्धारण के बाद इन विशिष्ट मनुष्यों के लिए हस्तावलोकन का काल भी निश्चित किया गया और कहा गया है कि जो पुरुष स्त्रियोचित गुणों से युक्त हो उसका हाथ अर्धरात्रि से पूर्व तथा दोपहर के बीच में देखना श्रेयस्कर होगा। इसी प्रकार जो स्त्री पुरुषोचित गुणों से युक्त हो तो उसका भी हाथ दोपहर से पूर्व ही देखना उचित रहता है। सामान्य पुरुष हेतु हस्तावलोकन का नियम है कि इनके लिए हस्तावलोकन का समय दोपहर से पूर्व तथा अर्धरात्रि के उपरान्त ही करना चाहिए। यद्यपि स्त्री तथा पुरुष के सन्दर्भ में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि पुरुष का दक्षिणहस्त तथा स्त्री का वाम हस्त ही प्रशस्त है, तथापि पुरुष का वाम हस्त तथा स्त्री का दक्षिण हस्त भी शुभाशुभ विवेचन में समर्थ है। पुरुष के बाँए हाथ से स्त्री, माता, मातृपक्ष, घर, खेत, वाटिका, रात का जन्म तथा शुक्ल पक्ष का विचार किया जा सकता है। इसी प्रकार स्त्री के दक्षिण हस्त से पतिसुख, पितृपक्ष, धर्म, गोधन, सरलता आदि गुण, कृष्णपक्ष तथा दिन का विचार सम्भव है। इसी सन्दर्भ में कीरो का मत है कि मनुष्य के बाएँ हाथ की अपेक्षा उनके दाँए हाथ से अधिक सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। वे कहते हैं कि बाँया हाथ मनुष्य के प्राकृतिक या कहें तो मौलिक स्वरूप को प्रदर्शित करता है जबकि दायाँ हाथ उसके प्रशिक्षण, अनुभव तथा आस-पास के वातावरण के प्रभाव का प्रतिनिधित्व करता है।18 

हस्तपरीक्षा की विधि के सन्दर्भ में भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के ग्रन्थों में हस्तपरीक्षा के तीन चरण कहे गए हैं - हस्तदर्शन, हस्तस्पर्श तथा हस्तरेखा विमर्श। हस्तदर्शन मात्र द्वारा जातक से संबंधित शुभाशुभ फलादेश सम्भव है। भारतीय परम्परा हस्त को अत्यन्त शुभ मानती रही है। प्रातःकाल उठते ही हस्तदर्शन का विधान सर्वज्ञात है। भारतीय हस्तरेखाशास्त्र हाथ में तीर्थ, देवता, ग्रह, नक्षत्र आदि का निवास मानती है। अंगुष्ठमूल में ब्राह्मतीर्थ, कनिष्ठमूल में कायतीर्थ, तर्जनीमूल व अंगुष्ठ के मध्य पितृतीर्थ तथा अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ की स्थिति स्वीकार की गई है। इसी तरह विभिन्न अंगुलियों यथा तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा व अंगुष्ठ में भी तीर्थों का निवास माना गया है। तर्जनी में शत्रुञ्जय, मध्यमा में जयन्तक, अनामिका में अर्बुद, कनिष्ठा में स्यमन्तक तथा अंगुष्ठ में कैलाश इन पञचतीर्थों का निवास कहा है। इसी तरह जैन हस्तरेखाशास्त्र की परम्परा हाथ के विभिन्न स्थलों पर चैबीस तीर्थंकारों की स्थिति स्वीकार करती है। दोनों हाथों की दसों अंगुलियों में पर्वरेखाओं से घिरे हुए बीस पर्व स्थान होते हैं, इन बीस पर्वस्थानों तथा हथेली की चारों दिशाओं के कुल चार स्थान मिलाकर चैबीस स्थान हुए। इन्हीं चैबीस स्थानों में चैबीस जैन तीर्थंकरों का स्थान माना गया है। यही कारण है कि केवल हस्तदर्शन तथा इन स्थानों के शुभाशुभत्व के आलोक में जातक से संबंधित फलादेश किया जा सकता है। हाथ की परिभाषा देते हुए हस्तसंजीवनम् ग्रन्थ में कहा गया है - ‘मणिबन्धात्परः पाणिः’ अर्थात् मणिबन्ध से लेकर अंगुली समेत उपर वाला भाग हाथ कहा जाएगा। मनुष्य के हाथ में ग्रह, नक्षत्र, राशि, वार, तिथि, दिशा, पक्ष, मास, वर्ण आदि की स्थापना भारतीय सामुद्रिकशास्त्र व हस्तरेखाशास्त्र की श्रेष्ठता को प्रमाणित करती है। मनुष्य की हथेली में इन कालावयों व आकाशीय पिण्डों की स्थापना का यह वैशिष्ट्य विश्व की किसी अन्य संस्कृति में उपलब्ध नहीं होता है। जातक के हाथ में तिथियों की स्थापना करने की विधि स्पष्ट करते हुए आचार्य मेघविजयगणि कहते हैं कि कनिष्ठा में नन्दा तिथियाँ (प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी), अनामिका में भद्रा तिथियाँ (द्वितीया, सप्तमी, द्वादशी), मध्यमा में जया तिथियाँ (तृतीया, अष्टमी, त्रयोदशी), तर्जनी में रिक्ता तिथियाँ (चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी) तथा अंगुष्ठ में पूर्ण तिथियाँ (पञ्चमी, दशमी, पूर्णिमा, अमावस्या) स्थित होती हैं। इसी प्रकार कनिष्ठा ब्राह्मण वर्ण, अनामिका क्षत्रिय वर्ण, मध्यमा वैश्य वर्ण, तर्जनी शूद्र वर्ण तथा अंगुष्ठ को योगी के समान वर्णादि से अतीत या मुक्त माना है। जहाँ तक दिशा का प्रश्न है, तर्जनी पूर्व दिशा, मध्यमा उत्तर दिशा, कनिष्ठा पश्चिम दिशा, अनामिका दक्षिण दिशा व अंगुष्ठ सुमेरू पर्वत का प्रतिनिधित्व करता है। इसी तरह मानव हस्त में नवग्रहों की भी स्थिति स्वीकार की गई है। सूर्य का स्थान अंगुष्ठ के मध्य पर्व में, चन्द्रमा का अंगुष्ठ के तृतीय पर्व में तथा बुध का स्थान अंगुष्ठ के प्रथम पर्व में निश्चित हैं। तर्जनी के अन्तिम पर्व में मंगल, मध्यमा के अन्तिम पर्व में गुरु, अनामिका के अन्तिम पर्व में शुक्र, कनिष्ठिका के अन्तिमपर्व में शनि व हथेली के पीछे राहु-केतु का स्थान माना गया है।19 जब हथेली में राशियों के स्थान का प्रश्न आता है तो कनिष्ठा के पहले पर्व में मेष, द्वितीय में वृष, तृतीय पर्व में मिथुन, अनामिका के प्रथम पर्व में कर्क, द्वितीय पर्व में सिंह, तृतीय पर्व में कन्या, मध्यमा के प्रथम पर्व में तुला, द्वितीय पर्व में वृश्चिक, तृतीय पर्व में धनु, तर्जनी के प्रथम पर्व में मकर, द्वितीय पर्व में कुम्भ तथा तृतीय व अन्तिम पर्व में मीन राशि का स्थान नियत है। भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के अनुसार प्रत्येक अङ्गुली के मूल में प्राप्त होने वाले उभार को पर्वत की संज्ञा से विहित किया गया है। अंगुष्ठ मूल में शुक्र, तर्जनी मूल में बृहस्पति, मध्यमा मूल में शनि, अनामिका मूल में सूर्य, कनिष्ठा मूल में बुध, हथेली के मध्य में मङ्गल उच्च, मङ्गल निम्न तथा चन्द्र पर्वत होते हैं।

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पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्र में भी इसी परम्परा को स्वीकार किया गया है। जोसिफ रेनाल्ड ने  अपनी पुस्तक श्भ्वू जव ज्ञदवू च्मवचसम इल जीमपत भ्ंदकेश् में इसी परम्परा का अनुकरण किया है।20 व्यक्ति के दाएँ हाथ में कृष्ण पक्ष तथा बाँए हाथ में शुक्ल पक्ष को स्थापित किया गया है। हस्तरेखाओं के विश्लेषण क्रम में हमें सर्वप्रथम जिन प्रमुख रेखाओं का प्रत्यक्ष होता है वे संख्या में तीन हैं - पितृरेखा, मातृरेखा तथा आयुरेखा। इन तीनों रेखाओं के लिए भारतीय हस्तरेखाशास्त्र में अनेक संज्ञाएँ प्राप्त होती हैं। पितृरेखा के लिए गोत्ररेखा, बलरेखा, मूलरेखा, वृक्षरेखा, धर्मरेखा, मनोरेखा व धृति रेखा संज्ञाएँ प्रयुक्त हुई हैं। मातृरेखा के लिए धनरेखा, सुखरेखा, कोशरेखा, साहसरेखा, पालिका रेखा तथा रतिरेखा शब्द उपयोग में आए हैं। आयुरेखा के लिए जीवन रेखा, तेजरेखा, स्वभाव रेखा, प्रभारेखा व तनुरेखा शब्द का भी प्रयोग किया गया है। रेखाओं के लिए प्रयुक्त उपरोक्त संज्ञाएँ केवल भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के ग्रन्थों में प्रयुक्त हुई हैं। पाश्चात्य हस्तरेखा शास्त्री इन रेखाओं के लिए किञ्चित भिन्न संज्ञाओं का प्रयोग करते हैं। पितृरेखा के लिए आयुरेखा, मातृरेखा के लिए मस्तक या मस्तिष्क रेखा तथा आयुरेखा के लिए हृदयरेखा शब्द का प्रयोग पाश्चात्य हस्तरेखा शास्त्री करते हैं। भारतीय हस्तरेखाशास्त्र में इन तीनों रेखाओं को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। प्राचीन महर्षियों द्वारा इन तीन प्रमुख रेखाओं के नामकरण में भी समाज व परिवार के प्रति समर्पण व सर्वकल्याण की भावना दृष्टिगोचर होती है। “मातृदेवो भव, पितृदेवो भव” की उदात्त भावना का पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्र की परम्परा दिग्दर्शन व उसकी स्थापना व प्रसार की दिशा में इस नामकरण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। माता व पिता के प्रति समर्पण व श्रद्धा की इस उदात्त भावना का नितान्त अभाव है। भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के वैज्ञानिक जिन रेखाओं को पितृ व मातृ रेखा के रूप में स्थापित करते हैं उसे पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्री क्रमशः आयुरेखा व मस्तक रेखा के रूप में जानते हैं। रेखाओं का यह नामकरण भारतीय आध्यात्मवाद तथा पाश्चात्य भौतिकतावाद को प्रतिबिम्बित करता है। प्रसिद्ध पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्री कार्ले लुईस पेरिन अपनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक श्ैबपमदबम व िच्ंसउपेजतलश् के आरम्भ में समपर्ण शीर्षक के अन्तर्गत कहते हैं कि वे इस पुस्तक को प्रकाश की खोज में रहने वाले मनुष्य को समर्पित करते हैं। इसके बाद ग्रन्थ के मध्य में वे केवल हृदय रेखा, मस्तिष्क रेखा, जीवन रेखा, भाग्य रेखा, शुक्र का वलय, स्वास्थ्य रेखा, सूर्य रेखा, विवाह रेखा, अन्तज्र्ञान रेखा पर विचार करते हैं। साथ ही साथ समानान्तर रेखाओं, घुमावदार रेखाओं, टूटी रेखाओं, लहरदार रेखाओं, उध्र्व और अद्यः रेखाओ के आधार पर जातक से संबंधित फलादेश की पद्धति का वर्णन मात्र करते हैं।21 रेखाओं के वर्णन प्रसङ्ग में कहीं भी आध्यात्मिकता का बोध नहीं होता है। जबकि भारतीय ऋषियों ने इन रेखाओं को तीन लोकों का प्रतीक माना है। पितृरेखा उध्र्वलोक, मातृरेखा पृथिवी लोक तथा आयुरेखा पाताललोक का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन्हीं तीन रेखाओं को त्रिदेव अर्थात् क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु व महेश के रूप में माना गया है। जिस तरह भूलोक में सङ्गम तीर्थ का महत्त्व है ठीक उसी प्रकार हस्तरेखाओं में भी ये तीन प्रमुख रेखाएँ पितृ, मातृ व आयु रेखा क्रमशः गंगा, यमुना व सरस्वती का प्रतिनिधित्व करती हैं तथा जहाँ ये तीनों रेखाएँ मिलती हैं, वह स्थान त्रिवेणी कही जाती है। इसी तथ्य को स्थापित करते हुए कहा गया है - “पितृरेखा भवेद्गंगा मातृरेखा सरस्वती, आयुरेखात्र यमुना तत्संगस्तीर्थमक्षयम्।।”22जहाँ तक वय का प्रश्न है तो पितृरेखा बाल्यावस्था की, मातृरेखा युवावस्था की तथा आयुरेखा वृद्धावस्था का प्रतिनिधित्व करती है। अप्रधान रेखा के विषय में स्पष्ट है कि मनुष्य के हाथ में पितृ रेखा, मातृ रेखा व आयु रेखा प्रधान हैं। परन्तु इसके अतिरिक्त मानव की हथेली में अन्य कई अप्रधान रेखाएँ भी उपलब्ध होती हैं जो काल के प्रभाव से प्रभावित होती रहती है। जीवन के प्रत्येक भाग व महत्त्वपूर्ण घटनाओं को प्रभावित करने वाली तथा जातक के व्यक्तित्व को प्रतिबिम्बित करने वाली अनेक रेखाएँ जातक के हथेली में मिलती हैं। इन रेखाओं में उध्र्व रेखाएँ, वज्ररेखा, स्त्रीसुख रेखा, संतान रेखा, रेखाओं के पल्लव, भाई-बहनों की रेखाएँ, उच्च पद रेखा, दीक्षा रेखा, लघु भाग्य रेखा, धर्म रेखा, उदरपीड़ा रेखा, संन्यास रेखा, घरेलू बन्धनों की रेखा, मृत्यु रेखा, वाहन रेखा, धन भोग रेखा, यश की रेखा, यात्रा रेखा, मित्र-शत्रु रेखा आदि प्रमुख हैं। मणिबन्ध से निकलकर पाँचों अंगुलियों की तरफ जाने वाली रेखाएँ उध्र्व रेखा कहलाती है। जातक के हाथ में इस रेखा की उपस्थित जातक को राजसुख व राजयोग प्रदान करने वाली होती है। बाँए हाथ की मध्यमा के नीचे तथा दाहिने हाथ के अनामिका के नीचे एक छोटी सी रेखा हो तो उसे धर्मरेखा कहते हैं। स्पष्ट है कि भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के ऋषियों ने भारतीय संस्कृति के आधारभूत सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुए हस्तरेखाओं पर गहन समीक्षा की है तथा इन रेखाओं का जीवन में घटित होने वाली घटनाओं के मध्य स्पष्ट सम्बन्ध को स्थापित किया है। रेखाओं के गुण व दोष पर विचार करते हुए कहा गया है कि गहरी, पतली, चमकीली व आकार में लम्बी रेखाएँ सदैव अच्छी मानी जाती है। इन्हें अन्य रेखाएँ काट न रही हों। लाल व गहरी रेखाएँ मनुष्य की प्रवृत्ति को उदार बनाती हैं तथा ऐसा व्यक्ति त्यागप्रिय तथा विशालहृदय का होता है। रेखाओं का रंग शहद के समान हो अर्थात् कुछ पीलेपन की झलक वाला रंग होना भी शुभ माना जाता है। पतली व लाल रेखाओं की हथेली में उपस्थिति शोभा, धन-सम्पत्ति और मान प्रतिष्ठा बढ़ाने वाली होती है। यदि रेखा अपने उद्गम स्थल पर जड़ की तरह फैली हुई हों तो मनुष्य के सौभाग्य को बढ़ाने वाली होती हैं। रेखाओं के फल को क्षीण करने वाली तथा अशुभ प्रभाव की सूचक रेखाओं के सन्दर्भ में कहा गया है कि कटी-फटी, अनेक शाखाओं जैसे बँटे अग्रभाग वाली, रूखी, टेढ़ी-मेढ़ी, धागे के समान बारीक, अपने स्थान से हटी हुई मोटी, नीले रंग की झलकवाली, टूटी रेखाएँ, कहीं पतली कहीं मोटी, रेखाओं का आधिक्य व प्रमुख चार रेखाओं का टेढ़ा या अधूरा होना, बहुत अधिक या बिना रेखा का हाथ होना भी अशुभ है।23 प्रधान व अप्रधान रेखाओं के अतिरिक्त मनुष्य के हाथ में सूक्ष्म रेखाओं द्वारा कई आकृतियों का निर्माण होता है इनमें से कुछ अशुभ तथा कुछ अत्यन्त शुभ माने जाते हैं। इन आकृतियों के सन्दर्भ में भारतीय हस्तरेखाशास्त्र से सम्बन्धित ग्रन्थों में पर्याप्त चर्चा की गई है जबकि पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्री इस सम्बन्ध में मौन हैं। प्रसिद्ध अमेरिकी विद्वान् विलियम जी. बेन्हम अपने ग्रन्थ श्ज्ीम स्ंूे व िैबपमदजपपिब भ्ंदक त्मंकपदहश् में केवल हाथ के प्रकार, हाथ का लचीलापन, नाखून, हाथ पर स्थित बाल, अंगुली, विभिन्न पर्वत, हृदय रेखा, मस्तिष्क रेखा, जीवन रेखा आदि पर ही चर्चा करते हैं। इसी ग्रन्थ के उन्होंने हस्तरेखाशास्त्र के प्रति अपनी चिन्ता व्यक्त की है और लिखा है कि यह शास्त्र आरम्भ से ही मानव सभ्यता के अधिकांश भाग द्वारा श्रद्धा को प्राप्त नहीं हुआ है तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग समाज में स्वयं को इस शास्त्र से जुड़ा हुआ मानने पर भी घबराते हैं।24 
परमभाग्यशाली मनुष्यों के लिए बत्तीस चिन्ह बताए गए हैं - छत्र, कमल, धनुष, रथ, वज्र, कछुआ, अंकुश, बावड़ी, स्वस्तिक, तोरण, तीर, शेर, पेड़, चक्र, शंख, हाथी, समुद्र, घड़ा, महल, गौ, मछली, खम्भा, मठ, कमण्डल, पहाड़, चँवर, शीशा, बैल, झंडा, लक्ष्मी, फूल-माला तथा मोर। ये समस्त चिन्ह एक साथ एक ही मनुष्य के हाथ में उपलब्ध नहीं होते। इसके अतिरिक्त मगरमच्छ, सूर्य, सिंहासन, तलवार, मुकुट, तिल, सर्प, वृत्त, षट्कोण, तालाब, चार का अङ्क, माला, जहाज आदि की गणना भी अत्यन्त शुभ चिन्हों में की गई है। महर्षि समुद्र की उक्ति स्त्री तथा पुरुष के मध्य समानता की भावना का उद्घोषक है- “उत्पत्तिः स्त्रीमूला तस्यापि ततः प्रधानमेषापि। क्रियते लक्षणतयोर्यदि तदेह स्याज्जनोपकृतिः।।”25 अर्थात् इस मत्र्यलोक में उत्पत्ति का आधार स्त्रीशक्ति ही है, अतः स्त्रीशक्ति के सामुद्रिक लक्षणों के वर्णन के बिना सामुद्रिकशास्त्र पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता है। भारतीय तथा पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्रियों के ग्रन्थों में उपलब्ध सिद्धान्तों के आलोड़न से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय सामुद्रिकशास्त्र के ग्रन्थों में जहाँ मानवीय मूल्यों व सामाजिक चेतना की उदात्त भाव को सुरक्षित रखा गया है, वहीं पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्रीय ग्रन्थों तथा ग्रन्थकारों ने जाने-अनजाने इस तथ्य की अवहेलना की है। पाश्चात्य हस्तरेखा शास्त्र जहाँ हाथ की बनावट, नाखून, का पृष्ठ, हस्तरेखा व पर्वतों से सम्बन्धित व्याख्यान के बाद मौन हो जाता है, वहीं भारतीय सामुद्रिकशास्त्र आपादमस्तक समस्त शरीरावयों के अवलोकन की गूढ़, विचित्र व प्रभावोत्पादक शैली का प्रणयन करती है। भारतीय हस्तरेखाशास्त्र व पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्र की यह प्रवृत्ति स्वयं ही अपनी विशालता व सीमित वण्र्य विषय का भेद स्पष्ट कर देती है। रेखाओं, हथेली के क्षेत्रों, अंगुली के पर्वों आदि के नामकरण व विभिन्न शुभ चिन्हों के वर्णन प्रसङ्ग में भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के ग्रन्थ जहाँ अपनी उन्नत संस्कृति और सभ्यता को प्रकाशित करते हैं वही पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्र विषयक ग्रन्थ व उनके रचनाकार केवल आड़ी-तिरछी रेखाओं व कुछ आकृतियों का वर्णन कर अपने कार्य की इतिश्री समझ लेते हैं। जहाँ भारतीय हस्तरेखाशास्त्र, हस्तरेखाशास्त्री के कत्र्तव्यबोध व कृत्याकृत्य विचार पर गहन दृष्टिपात करता है वहीं पाश्चात्य परम्परा इस पर कोई चर्चा नहीं करती है। हस्तरेखा विर्मश हेतु उचित काल का निर्धारण, आध्यात्मिकतापूर्ण मनःस्थिति, गुरु व शास्त्र के प्रति श्रद्धा भाव की अनिवार्यता की स्थापना भारतीय चिन्तन परम्परा का वैशिष्ट्य हैं, जबकि पाश्चात्य हस्तरेखा शास्त्री इन विषयों पर मौन हैं। अतः हस्तरेखाशास्त्र के गहन अध्ययन, अध्यापन, अवलोकन व फलादेश की स्पष्टता व सूक्ष्मता हेतु भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के ग्रन्थों की आवश्यकता सहज सिद्ध है।

सन्दर्भ :
1. “शब्दशास्त्रं मुखं ज्योतिषं चक्षुषी श्रोत्रमुक्तं निरुक्तं च कल्पः करौ। या तु शिक्षास्य वेदस्य सा नासिका पादपद्मद्वयं छन्द आद्यैर्बुधैः।।” वृहद्दैवज्ञरञ्जनम्; 1/15
2. “वेदचक्षुः किलेदं स्मृतं ज्योतिषं मुख्यता चाङ्गमध्येऽस्य तेनोच्यते। संयुतोऽपीतरैः कर्णनासादिभिश्चक्षुषाङ्गेन हीनो न किञ्चित्करः।।” सिद्धान्तशिरोमणि, मध्यमाधिकार; श्लोक-10
3. “वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूव्र्या विहिताश्च यज्ञाः। तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञान्।” वेदाङ्ग ज्योतिष, याजुष् संस्करण, श्लोक-3
4. “सिद्धान्तसंहिताहोरारूपं स्कन्धत्रयात्मकम्। वेदस्य निर्मलं चक्षुज्र्योतिश्शास्त्रमकल्मषम्।।” होरारत्नम्; 1/13
5. “अङ्गविद्या निमित्तानामष्टानामपिगीयते। मुख्या शुभाशुभज्ञाने नारदादिनिवेदिता।।” हस्तसंजीवनम्; 1/4
6. ऋग्वेद; 2/16/2, 6/19/3
7. वही; 1/124/3, 5/80/5
8. वही; 7/87/6
9. “रेखाकृतिर्मणिर्यस्य मेहने हि विराजते। पार्थिवः स तु विज्ञेयः समुद्रवचनं यथा।। - भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व” 25/6
10. “तदापि नारद लक्षकवराहमाण्डव्यषण्मुखप्रमुखैः। रचितं क्वचित् प्रसङ्गात् पुरुषस्त्रीलक्षणं किञ्चित्।।” सामुद्रिकशास्त्रम्; 1/9
11. “पूर्वभवान्तरजनितं शुभा शुभमिहापि लक्ष्यते येन। पुरुषस्त्रीणां सद्भिर्निगद्यते लक्षणं तदिह।।” सामुद्रिकशास्त्रम्; 1/15
12. “उन्मानमानगतिसारमनूकमादौ स्नेहस्वरप्रकृतिवर्णससन्धिसत्त्वम्। क्षेत्रं मृजां च विधिवत्कुशलोऽवलोक्य सामुद्रविद्वदति यातमनागतं च।।” बृहज्ज्यौतिषसार; 21/6
13. सामुद्रिकशास्त्रम्; 1/16
14. वही; 1/20-26
15. हस्तसंजीवनम्; 1/12
16. वही; 1/13
17. वही; 1/55
18. Cheiro. Language of the Hand. Chicago and New York : Rand, Mc Nally & Company,1900,
       pg. 77 
19. हस्तसंजीवनम्; 3/71-72
20. Ranald, Josef. How to Know People by their Hands. New York : Modern Age Books, 1938,
 pg. 37 
21. Perin, Carl Louis. Science of Palmistry. Chicago : Star Publication, 1902, pg. 111-112  
22. हस्तसंजीवनम्; 1/20
23. वही; रेखाविचार, श्लोक-52
24. Benham, William G. The Laws of Scientific Hand Reading. New York & London : G.P. Putnam's Sons, 1901, Introduction, pg. vi   
25. सामुद्रिकशास्त्रम्; 1/7
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Saturday 17 November 2018

ज्योतिष वेदाङ्ग और तिलक

         

         


प्राचीनतम साहित्य होने के साथ-साथ समस्त ज्ञान-विज्ञान के मूल स्रोत के रूप में वेदों को महती प्रतिष्ठा प्राप्त है। इष्ट प्राप्ति और अनिष्ट का परिहार ही वेदों का मूल उद्देश्य है। ये वेद भाषा शास्त्र तथा अपनी विचार शैली के कारण अत्यन्त ही गूढार्थ युक्त और दुर्बोध हैं। इन प्राचीनतम रचनाओं की दुरूहता के कारण ही परवर्ती काल में वेदाङ्ग शास्त्र अस्तित्व में आए। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्योतिष संज्ञक वेदाङ्ग संख्या में छः हैं। इन्हें विद्वानों द्वारा इतना महत्वपूर्ण माना गया है कि ये वेदाङ्ग वेदपुरुष के विभिन्न अङ्गों के रूप में परिकल्पित हुए। विद्वानों द्वारा ज्योतिष वेदाङ्ग को वेदपुरुष का नेत्र कहा गया। इस वेदाङ्ग का मूल उद्देश्य यज्ञादि वैदिक कर्मों के लिए शुभाशुभ काल का निर्धारण ही था। वेद, ब्राह्मण आदि समस्त ग्रन्थ यज्ञमूलक माने गए हैं, अतः यज्ञों का महत्त्व स्वतःसिद्ध है। इन महत्वपूर्ण यज्ञ क्रियाविधि हेतु उचित समय का निर्धारण करने में सक्षम होने के कारण ज्योतिष वेदाङ्ग भी अत्यधिक महत्वपूर्ण सिद्ध होते हैं। 


प्रत्येक वेदाङ्ग का कोई न कोई प्रतिनिधि ग्रन्थ अवश्य है। ज्योतिष वेदाङ्ग के प्रतिनिधि ग्रन्थ के रूप में ऋग्वेद का ऋक् ज्योतिष, यजुर्वेद का याजुष् ज्योतिष तथा अथर्वेद का अथर्वण ज्योतिष स्वीकृत हैं। ऋक् ज्योतिष का सम्बन्ध ऋग्वेद से माना गया है जबकि यजुर्वेद से सम्बन्धित ज्योतिष वेदाङ्ग ‘याजुष-ज्योतिष’ है। अथर्ववेद का ज्योतिष वेदाङ्ग ‘अथर्वण-ज्योतिष’ संज्ञा से जाना जाता है। ज्योतिष-वेदाङ्ग से सम्बन्धित होने के कारण इन ग्रन्थों में यज्ञों के निर्धारण हेतु शुभाशुभ काल का निर्धारण किया गया है। अपने विषय-वैशिष्ट्य तथा प्रतिपाद्य विषय-वस्तु के साम्य के कारण ऋक् ज्योतिष तथा याजुष् ज्योतिष को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है, जबकि विषयों की विभिन्नता के कारण आथर्वण ज्योतिष अधिक नवीन रचना सिद्ध होती है। ऋक् ज्योतिष में 36 लोक हैं, जबकि ‘याजुष् ज्योतिष में 44 श्लोक प्राप्त होते हैं। दोनों ही ग्रन्थों के श्लोकों में पर्याप्त साम्य है, हाँ इतना अवश्य है कि इनमें क्रमभेद अवश्य है। कुछ श्लोकों में शब्दभेद भी प्राप्त होता है, परन्तु इतना नहीं कि उनके अर्थों में पर्याप्त अन्तर हो सके। ऋक्-ज्योतिष के 7 श्लोक याजुष् ज्योतिष में प्राप्त नहीं होते तथा याजुष् ज्योतिष के 14 श्लोक ऋक् ज्योतिष में प्राप्त नहीं होते। इन रचनाओं के अत्यधिक प्राचीन होने के कारण इनकी भाषा संक्षिप्त तथा किञ्चित् अस्पष्ट है, जिसके कारण इनका अर्थ लगाने में ज्योतिषशास्त्र के जिज्ञासुओं को काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इस ग्रन्थ के रचनाकार महर्षि लगध हैं। ऐसा भी सम्भव है कि महर्षि लगध द्वारा प्रणीत ज्योतिषशास्त्रीय सिद्धांतों का किसी अन्य लेखक द्वारा प्रस्तुतीकरण मात्र किया गया हो। कुछ विद्वान तो इस ग्रन्थ के कर्त्ता के रूप में ‘शुचि’ का ही उल्लेख करते हैं।

 वेदों के समान ही ‘वेदाङ्ग-ज्योतिष’ के श्लोकों का अर्थ लगाने में अत्यधिक प्रयास करना पड़ा है। इस ग्रन्थ पर सोमाकर कृत भाष्य भी कुछ सीमा तक अस्पष्ट ही है। वेबर, कोलब्रूक, याकोबी, बर्गेस, बौटले, हिृट्ने, शंकर बालकृष्ण दीक्षित, छोटेलाल बार्हस्पत्य, सुधाकर द्विवेदी, बालगंगाधर तिलक, डॉ. शामशास्त्री, गोरखप्रसाद तथा कीथ आदि विद्वानों ने समय-समय पर इस ग्रन्थ के विभिन्न श्लोकों का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयास किया है।  इन सराहनीय प्रयासों के बाद भी इस ग्रन्थ के कई श्लोक अभी तक अस्पष्ट तथा विवादास्पद बने हुए हैं। थीबो ने इसके 1-10, 18, 21, 24, 28, 30-40 श्लोकों की बड़ी ही स्पष्ट व्याख्या की है, परन्तु इन श्लोकों के अतिरिक्त श्लोकों को अस्पष्ट घोषित कर दिया है। उसके बाद अनेक विद्वानों ने इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया, किन्तु पूरी सफलता नहीं मिल सकी। डॉ. शामशास्त्री ने वेदाङ्ग ज्योतिष के श्लोकों को सूर्य-प्रज्ञप्ति, ज्योतिष करण्ड तथा काल लोक प्रकाश जैसे जैन ज्योतिष ग्रन्थों की सहातया से स्पष्ट करने का श्लाघनीय प्रयास किया है। 

इसी क्रम में प्रसिद्ध देशभक्त तथा स्वतन्त्रता सेनानी पण्डित बालगङ्गाधर तिलक ने - Vedic chronology and vedang jyotish के नाम से 1914 ई. में बर्मा की मंडाले जेल में कारावास के समय इस ग्रन्थ के लगभग 12 से 14 पद्यों की व्याख्या की। जिसके इन्हेांने आर्च तथा याजुष् ज्योतिष के पाठों को स्मरण शक्ति के आधार पर व्याख्यायित किया। इस कार्य का प्रकाशन उनके मरणोपरान्त पूना शहर से 1925 ई. में हुआ।
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने अपने इस प्रयास में ऋक् ज्योतिष तथा याजुष् ज्योतिष दोनों के ही कई मन्त्रों के अर्थों को स्पष्ट किया है। इनमें से ऋक् ज्योतिष के श्लोक संख्या 10, 11, 12, 13, 21, 19 का अर्थ इन्होंने बड़े ही विस्तार पूर्वक स्पष्ट किया है। इसी प्रकार वेदाङ्ग ज्योतिष के अन्य महत्वपूर्ण संस्करण जो कि यजुर्वेद से सम्बन्धित है अर्थात् याजुष् ज्योतिष का श्लोक संख्या 15, 19, 27, 21, 20, 25, 26, 12, 14 का भी इन्होंने बडे़ ही मनोयोग और विद्वतापूर्ण शैली से अर्थों को स्पष्ट किया है। ये समस्त श्लोक चन्द्रनक्षत्र आनयन्, नक्षत्र गत पदों का विवेचन, पर्व समाप्त होने का अंश , पर्वमांश की कलाओं की आनयन विधि, इष्ट तिथि में सूर्य नक्षत्र के आनयन की विधि, नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य का प्रवेश दिन के किस भाग में हुआ, आदि विषय से सम्बन्धित हैं। ये वे श्लोक हैं जिनकी व्याख्या तथा अर्थ को लेकर प्रबल मतभेद हैं। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने इन श्लोकों का अर्थ स्पष्ट करने का श्लाघनीय प्रयास किया है। महाराष्ट्र राज्य के रतनिगिरि नामक स्थान में 23 जुलाई 1856 को जन्म लेने वाले लोकमान्य तिलक ने 1913 ई. में मण्डाले जेल में इस विषय पर अपनी विद्वत्तापूर्ण लेखनी चलाई यद्यपि इनका यह प्रयास पूर्णरूपेण स्मृति पर आधारित या तथापि उनका यह स्तुत्य प्रयास आज भी विद्वत समाज में प्रतिष्ठित है।

Friday 16 November 2018

राशि रत्न धारण करने की शास्त्रीय पद्धति

          भारतीय ज्योतिषशास्त्र के फलित स्कन्ध के विकास के मूल आधार के रूप में महर्षि पराशर के सिद्धान्त के योगदान को एकमत से स्वीकार किया गया है। फलित ज्योतिषशास्त्र के प्रत्येक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त के विषय में महर्षि पराशर के विचारों को विश्वसनीय मार्गदर्शक माना जाता है। 

रत्नधारण के सन्दर्भ में भी महर्षि पराशर ने अपने विचारों से परवर्ती दैवज्ञों तथा सामान्य जनमानस के प्रति अपने सिद्धान्तों का अत्यन्त करुणापूर्वक प्रकटीकरण किया है। विविध लग्न हेतु रत्नधारण विषयक सिद्धान्तों की महर्षि ने अपने ग्रन्थ ‘वृहत्पाराशरहोराशास्त्रम्’ में स्थापना की है। इन्होंने प्रत्येक लग्न में उत्पन्न जातकों के लिए योगकारक ग्रहों का निर्धारण किया है तथा इन्हीं योगकारक ग्रहों की सबलता तथा निर्बलता के आधार पर जातक को उसके जीवन में प्राप्त होने वाले सुख-दुख विषयक फलादेश को भी प्रस्तुत किया है। महर्षि पराशर के अनुसार मेषादि द्वादश लग्नों में उत्पन्न जातक के लिए कौन से ग्रह योगकारक हैं तथा उनके लिए कौन रत्न प्रशस्त हैं और कौन रत्न निषिद्ध हैं इस सिद्धान्त को अधोलिखित प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है।

मेष लग्न
मेष लग्न में उत्पन्न जातक के लिए शनि, बुध और शुक्र ये तीन ग्रह पाप फलदायक होते हैं। सूर्य, मंगल और गुरु शुभ फलदायक होते हैं। शुक्र मुख्य रूप से मारक होता है। इस प्रकार इस लग्न में जन्म लेने वाले जातकों को मूँगा, माणिक्य और पुखराज धारण करना चाहिए। हीरा, पन्ना तथा नीलम रत्न ऐसे जातकों के लिए अशुभ फ़ल देने वाले हैं।

वृष लग्न
 
 इस लग्न में उत्पन्न जातक के लिए शनि और सूर्य शुभफलदायक, बुध अल्प शुभ फलप्रद तथा शनि राजयोगकारक होते हैं। गुरु, शुक्र तथा चन्द्रमा वृष लग्न वाले जातक के लिए अशुभ होंगे तथा गुरु, शुक्र और मंगल मारक होते हैं। अतः इस लग्न के जातकों के लिए नीलम, माणिक्य तथा पन्ना शुभ फलोत्पादक होंगे जबकि पुखराज, हीरा, मोती तथा मूँगा अशुभ फल देने वाले होंगे।
मिथुन लग्न
मिथुन लग्न में जन्म लेने वाले जातक के लिए एक मात्र शुक्र शुभ फल देने वाला होता है। मंगल, गुरु तथा सूर्य पाफलद होते हैं जबकि चन्द्रमा मुख्य मारक होता है। अतः इस लग्न के जातक हेतु हीरा धारण करना अत्यन्त शुभफलद होता है। परन्तु मोती, मूँगा, पुखराज और माणिक्य धारण करना अशुभ है। 

कर्क लग्न 
इस लग्न में मंगल, बृहस्पति तथा चन्द्रमा शुभफलद होते हैं। मंगल विशेष रूप से पूर्णयोग कारक होता है। शुक्र तथा बुध पाफलदायक होते हैं, जबकि शनि पूर्ण मारक होता है। इस लग्न में सूर्य की प्रवृत्ति साहचर्य से फल देने की होती है। अतः इस लग्न के जातकों के लिए मूँगा, पुखराज व मोती शुभ हैं, जबकि माणिक्य धारण के सन्दर्भ में विशेष परामर्श की आवश्यकता होती है। ये जातक नीलम, हीरा व पन्ना नहीं पहनें तो उचित रहेगा।

सिंह लग्न 
 इस लग्न के जातकों के लिए मंगल, बृहस्पति तथा सूर्य विशेष शुभ फलदायक होते हैं। चन्द्रमा साहचर्य से शुभ फल देता है। बुध, शुक्र और शनि पाप फलद होते हैं और इसमें भी शनि मारक होता है। इस प्रकार सिंह लग्न में उत्पन्न जातकों के लिए मूँगा, पुखराज तथा माणिक्य धारण करना प्रशस्त है, जबकि पन्ना, हीरा और नीलम धाारण करना निषिद्ध है।

कन्या लग्न  
कन्या लग्न में जन्म लेने वालों जातकों के लिए बुध और शुक्र अत्यन्त शुभफलप्रद तथा योगकारक होते हैं। मंगल, बृहस्पति तथा चन्द्रमा पाप फल उत्पन्न करने वाले होते हैं। इस लग्न के लिए शुक्र मारक भी है तथा सूर्य साहचर्य से फल देता है। अतः कन्या लग्न के जातकों के लिए पन्ना व हीरा धारण करना शुभ है, जबकि मूँगा, पुखराज व मोती अशुभ फल देने वाला होता है। 

तुला लग्न  
इस लग्न में चन्द्रमा, बुधा और शनि शुभ फलदायक होते हैं साथ ही चन्द्रमा व बुध में रोजयोग प्रदान करने का भी सामर्थ्य होता है। गुरु, सूर्य और मंगल पाप फलदायक होते हैं। मंगल व गुरु मारक होते हैं तथा शुक्र सम स्वभाव का होता है। अतः इस लग्न के जातकों के लिए मोती, पन्ना व नीलम अत्यन्त शुभ होंगे तथा पुखराज, मूँगा व माणिक्य अनिष्टकारक हो सकते हैं। 

वृश्चिक लग्न

  इस लग्न में उत्पन्न जातक के लिए गुरु और चन्द्रमा शुभफल देने वाले जबकि सूर्य व चन्द्रमा योगकारक होते हैं। शुक्र, बुध और शनि पापफल प्रदान करते हैं तथा मंगल सम होता है। इस तरह वृश्चिक लग्न के जातक पुखराज, मोती व माणिक्य धारण कर सकते हैं। हीरा, पन्ना और नीलम धारण करना अशुभ प्रभाव देने वाला हो सकता है।

धनु लग्न  
 धनु लग्न में समुत्पन्न जातकों के लिए मंगल और सूर्य शुभ फल देने वाले होते हैं तथा सूर्य व बुध योगकारक होते हैं। शनि मारक होता है तथा शुक्र में मारक लक्षण होते हैं। अतः धनु लग्न के जातक मूँगा, माणिक्य व पन्ना धारण कर शुभफल की प्राप्ति कर सकते हैं जबकि हीरा व नीलम धारण करना अशुभ फल उत्पन्न कर सकता है। 

मकर लग्न
 मकर लग्न में उत्पन्न जातकों के लिए शुक्र व बुध शुभ फल देने वाले होते हैं। मंगल, बृहस्पति व चन्द्रमा पाप फल देते हैं सूर्य सम फल देने वाला होता है। इस लग्न में शनि लग्नेश होते हैं अतः स्वयं मारक नहीं होते अपितु मंगल आदि पाप ग्रह मारक प्रभाव उत्पन्न करने वाले होते हैं। अतएव इस लग्न के जातकों के लिए हीरा व पन्ना अत्यन्त शुभफलद सिद्ध हो सकता है। इस लग्न में मूँगा, पुखराज व मोती अशुभ प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं। अतः इन रत्नों को धारण करना निषिद्ध है। 

कुम्भ लग्न 
  इस लग्न में समुत्पन्न जातकों के लिए शुक्र व शनि शुभफलदायक होते हैं तथा शुक्र विशेष रूप से राजयोगकारक होता है। गुरु, सूर्य व मंगल मारक प्रभाव से युक्त होते हैं तथा बुध मध्यम फलदायक होता है। स्पष्ट है कि शुक्र रत्न हीरा व शनि का रत्न नीलम इस लग्न के जातकों के लिए शुभ है जबकि पुखराज, माणिक्य व मूँगा अत्यन्त अशुभ रत्न सिद्ध हो सकते हैं।
मीन लग्न 
 मीन लग्न के जातकों की जन्म पत्रिका के अनुसार मंगल, चन्द्रमा व गुरु शुभफलद होते हैं। इनमें से भी मंगल व गुरु विशेष रूप से अत्यन्त योगकारक होते हैं। शनि, शुक्र, सूर्य व बुध इस लग्न के जातकों के लिए अशुभ प्रभावोत्पादक होते हैं। शनि व बुध मारक होते हैं। इसलिए मीन लग्न के जातकों के लिए मूँगा, मोती व पुखराज धारण करने योग्य रत्न हैं। जबकि शनि रत्न नीलम, शुक्र रत्न हीरा, सूर्य रत्न माणिक्य व बुध रत्न पन्ना का परित्याग करना चाहिए। 

      
         महर्षि पराशर ने बृहत्पराशरहोराशास्त्रम् के योगकारकाध्याय में इस सन्दर्भ में अत्यन्त विस्तार से चर्चा की है। योगकारक अर्थात् अत्यन्त शुभफलद व राजसुख प्रदान करने वालो ग्रहों के निर्धाारण के सन्दर्भ में महर्षि पराशर के ये सिद्धान्त स्वर्णिम सूत्र सिद्ध होते हैं।   

Sunday 11 November 2018

पाराशरी ज्योतिष में त्रिकोण भाव मीमांसा

१. महर्षि पराशर - ज्योतिषशास्त्र वैदिक संहिताओं  के समान ही अत्यंत प्राचीन शास्त्रों में सम्मिलित है और इस शास्त्र के 18 प्रवर्तक  ऋषियों की चर्चा ज्योतिषशास्त्र के ग्रंथों में उपलब्ध होती है। ये आचार्य हैं ब्रह्मा, आचार्य, वशिष्ठ, अत्रि, मनु, पौलस्त्य,रोमश, मरीचि, अङ्गिरा, व्यास, नारद, शौनक, भृगु, च्यवन, यवन, गर्ग, कश्यप और पराशर। जबकि स्वयं शक्तिपुत्र महर्षि पराशर 19 ऋषियों को इस ज्योतिषशास्त्र का प्रवर्त्तक स्वीकृत करते हैं और कहते हैं -

"विश्वसृङ्नारदो व्यासो वसिष्ठोऽत्रि: पराशर:।लोमशो यवन: सूर्यश्च्यवन: कश्यपो भृगु:।।

पुलस्त्यो मनुराचार्य: पौलिश: शौनकोऽङ्गिरा:।गर्गो मरीचिरित्येते ज्ञेया: ज्योति:प्रवर्त्तका:।। "

२. महर्षि पराशर की रचनाएँ
महर्षि पराशर एक पौराणिक व्यक्तित्व हैं और इनकी संस्कृत जगत में महती प्रतिष्ठा है। महर्षि पराशर के नाम से कई आचार्यों ने अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया है, किन्तु ज्योतिषशास्त्र के कुछ ऐसे कालजयी ग्रन्थ हैं जिन्हें निर्विवाद रूप से महर्षि पराशर की रचना के रूप में स्वीकार किया गया है। ज्योतिषपितामह महर्षि पराशर ने ज्योतिषशास्त्र के तीनों प्रमुख स्कन्धों सिद्धान्त, संहिता और होराशास्त्र इन सब पर अपने विद्वत्तापूर्ण सिद्धान्तों के प्रणयन से जनसामान्य का कल्याण किया है। इन रचनाओं में बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् , लघु पाराशरी, मध्य पाराशरी, पाराशरी संहिता, वृद्धपराशर सिद्धान्त, पराशरस्मृति, कृषि पराशर आदि प्रमुख हैं। बृहत्पाराशरहोराशास्त्र एक अत्यन्त विशालकाय ग्रन्थ है, जिसमें शताधिक अध्याय और 5 सहस्त्र से भी अधिक श्लोकों का संग्रह है। इस पाराशरीहोरा ग्रन्थ में उपलब्ध प्रमुख सिद्धान्तों का संकलन कर लघुपाराशरी या उडुदायप्रदीप नामक विशिष्ट परन्तु अपेक्षाकृत लघुकाय ग्रंथ की रचना हुई -
" वयं पाराशरीं होरामनुसृत्य यथामति
उडुदायप्रदीपाख्यं कुर्मो दैवविदां मुदे।।"

३. त्रिकोण भाव 

जन्म कुंडली में उपस्थित बारह भावों की अलग-अलग संज्ञाएँ कही गई हैं। प्रथम भाव अर्थात् लग्न को तनु, द्वितीय भाव की धन, तृतीय भाव की भ्रातृ, चतुर्थ की मित्र, पञ्चम की पुत्र, षष्ठ की शत्रु, सप्तम की स्त्री, अष्टम की मृत्यु, नवम की धर्म, दशम की कर्म, एकादश की आय और बारहवें भाव कि व्यय संज्ञा होती है -

' तन्वर्थसहजबान्धवपुत्रारिस्त्रीविनाशपुण्यानि
कर्मायव्ययभावा लग्नाद्या भावतश्चिन्त्या:।।'
इन लग्नादि द्वादश भावों की उनकी प्रकृति के अनुसार चतुरस्र,कण्टक, केन्द्र,पणफर,आपोक्लिम, उपचय, अनुपचय, त्रिकोण आदि विशिष्ट संज्ञाएँ भी उपलब्ध होती हैं। लग्नादि द्वादश भावों में से पञ्चम तथा नवम भाव को त्रिकोण कहा गया है-
'धर्मसुतयोस्त्रिकोणं...'। जबकि वशिष्ठ संहिता ग्रन्थ में पञ्चम तथा नवम भाव के साथ साथ लग्न भाव को भी त्रिकोण भावों में परिगणित किया गया है।

४. त्रिकोण भावों के लिए प्रयुक्त संज्ञाएँ
ज्योतिष शास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में प्रत्येक भाव के लिए अनेक संख्याओं का प्रयोग किया जाता रहा है इस क्रम में लग्न पंचम और नवम भाव के लिए भी अनेक संख्याएं प्रयुक्त हुई हैं।
* लग्न भाव - देह, मूर्ति, अङ्ग, तनु, उदय, कल्प, आद्य आदि संज्ञाओं का प्रयोग लग्न भाव के लिए हुआ है - 'लग्नं मूर्त्तिस्तथाङ्गं तनुरुदयवपु: कल्पमाद्यं...'
* पञ्चम भाव - तनय, बुद्धि, विद्या, आत्मज, वाक्,  पञ्चम और तनुज संज्ञाओं का प्रयोग पञ्चम या सुत भाव के लिए किया जाता है - '...तनयं बुद्धिविद्यात्मजाख्यम्। वाक्स्थानं पञ्चमं स्यातनुजमथ...'
* नवम भाव - ' गुर्वाख्यं धर्मसंज्ञं नवममिह शुभं स्यात्तपोमार्गसञ्ज्ञम् ' अर्थात् नवम भाव के लिए गुरु, धर्म,शुभ,तप और मार्ग संज्ञा का उल्लेख ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में मिलता है।

५. त्रिकोण भावों के कारक ग्रह
महर्षि पराशर ने अपनी रचना बृहत्पाराशरहोराशास्त्र में लग्नादि द्वादश भावों के लिए विशिष्ट कारक ग्रहों की व्यवस्था दी है। इसी व्यवस्था के अंतर्गत त्रिकोण भाव अर्थात लग्न भाव, पञ्चम भाव तथा नवम भाव के कारक ग्रह अधोलिखित हैं-
* लग्न भाव - सूर्य
* पञ्चम भाव - बृहस्पति
* नवम भाव - बृहस्पति

६. त्रिकोण भावों की संख्या वस्तुतः कितनी ?
जन्मकुंडली के द्वादश भावों की उनकी समान प्रकृति व प्रवृत्ति के आधार पर विशिष्ट संज्ञा देने की प्रवृत्ति ज्योतिषशास्त्रीय आचार्यों में प्राप्त होती है। जहां कुछ विद्वान त्रिकोण भाव में केवल पञ्चम तथा नवम भाव को स्वीकार करते हैं। वहीं कुछ विद्वान पञ्चम और नवम के साथ-साथ लग्न भाव को भी त्रिकोण संज्ञा से अभिहित करते हैं। यहां यह अत्यन्त आवश्यक हो जाता है कि लघुपाराशरी ग्रन्थ में वर्णित त्रिकोण शब्द से महर्षि पराशर को कौन-कौन से भाव अभिप्रेत हैं यह स्पष्ट हो। अत: निम्नलिखित बिन्दुओं के आलोक में द्वारा उपरोक्त शंका का समाधान प्राप्त हो सकता है-
* सर्वप्रथम तो त्रिकोण शब्द में ही उपलब्ध ' त्रि ' शब्द ही इस दिशा की ओर इंगित करता है कि त्रिकोण भावों की संख्या 'त्रि' अर्थात तीन ही है और ज्योतिषशास्त्र के प्रवर्तक ऋषियों में से कुछ ने लग्न को भी त्रिकोण भाव में परिगणित कर इसे पञ्चम और नवम भाव के साथ सम्मिलित कर लिया है तो त्रिकोण भावों में की संख्या तीन होने का मत पुष्ट होता है।
* स्वयं लघुपाराशरी ग्रन्थ में भी कई अन्तःसाक्ष्य प्राप्त होते हैं जो त्रिकोण भावों की संख्या दो से अधिक होने की ओर संकेत करते हैं। इस सन्दर्भ में इस ग्रंथ का श्लोक क्रमांक ६ द्रष्टव्य है - ' सर्वे त्रिकोणनेतारो ग्रहा: ...' जिसमें त्रिकोण के स्वामियों के लिए द्विवचनान्त 'नेतारौ' शब्द के स्थान पर  बहुवचनान्त 'नेतार:' शब्द का प्रयोग हुआ है।
* राजयोग वर्णन क्रम में लघु पाराशरी ग्रन्थ में प्राप्त यह श्लोक भी उपरोक्त संबंध में विचारणीय है-
' कर्मलग्नाधिनेतारावन्योन्याश्रयसंस्थितौ।
राजयोगाविति प्रोक्तं विख्यातो विजयी भवेत्।।'
अर्थात् दशमेश और लग्नेश यदि परस्पर स्थान-परिवर्तन कर स्थित हों तो राजयोग का निर्माण होता है और यह जातक को विख्यात और विजयी बनाता है। यहां ध्यातव्य है कि यदि लग्न को केवल केन्द्र स्थान माना जाए तो फिर उपरोक्त श्लोक निरर्थक हो जाएगा। क्योंकि लग्नेश अर्थात् केन्द्रेश और दशमेश अर्थात एक और केन्द्रेश के मध्य का स्थान परिवर्तन संबंध राजयोग का निर्माण करने में समर्थ नहीं हो सकता। उपरोक्त श्लोक के अर्थ की उचित संगति तभी बैठ सकती है जब हम लग्न को त्रिकोण स्थान मानें। तब लग्न अर्थात् त्रिकोण स्थान और दशम अर्थात केन्द्र स्थान के स्वामियों के मध्य का स्थान परिवर्तन संबंध राजयोग का निर्माण करेगा और यही सिद्धान्त महर्षि पराशर को भी अभीष्ट है-
' केन्द्रत्रिकोणनेतारौ दोषयुक्तावपि स्वयम्
सम्बन्धमात्राद्बलिनौ भवेतां योगकारकौ।।'
         अत: उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह प्रमाणित हो जाता है कि त्रिकोण स्थानों की संख्या तीन ही है और त्रिकोण शब्द लग्न भाव, पञ्चम भाव और नवम भाव का वाचक है।

७. मेषादि द्वादश लग्नों में त्रिकोणाधिपति
मेष वृष आदि द्वादश राशियों के आधार पर द्वादश लग्न भी होते हैं। बारह अलग-अलग लग्नों में लग्नेश पञ्चमेश और नवमेश भी भिन्न-भिन्न होते हैं। निम्नलिखित सूची द्वारा मेषादि द्वादश लग्नों के त्रिकोणेशों को स्पष्ट किया जा सकता है -
* मेष लग्न - मेष लग्न के लग्न भाव, पञ्चम भाव और नवम भाव में क्रमशः मेष राशि, सिंह राशि तथा धनु राशि होती है, अतः लग्न भाव में स्थित मेष राशि का स्वामी मंगल, पञ्चम भाव में स्थित सिंह राशि का स्वामी सूर्य तथा नवम भाव में स्थित धनु राशि का स्वामी बृहस्पति मेष लग्न में त्रिकोणेश होंगे। अतः मेष लग्न में मंगल, सूर्य और बृहस्पति त्रिकोणाधिपति होते हैं।
* वृष लग्न - इसी तरह वृष लग्न में शुक्र, बुध और शनि त्रिकोणेश होंगे।
* मिथुन लग्न - मिथुन लग्न में बुध, शुक्र और शनि त्रिकोणेश होते हैं।
* कर्क लग्न - चंद्रमा, मंगल और बृहस्पति कर्क लग्न में त्रिकोण स्थानों के अधिपति होते हैं।
* सिंह लग्न - सिंह लग्न की कुंडली के लग्न भाव में सिंह राशि, पञ्चम भाव में धनु राशि तथा नवम भाव में मेष राशि होती है। अतः इस लग्न में सिंह राशि का स्वामी सूर्य, धनु राशि का स्वामी बृहस्पति तथा मेष राशि का स्वामी मंगल क्रमशः त्रिकोण स्थान के स्वामी होंगे।
* कन्या लग्न - इस लग्न में बुध, शनि और शुक्र त्रिकोणेश होते हैं।
* तुला लग्न - तुला लग्न के त्रिकोणेश शुक्र, शनि तथा बुध होंगे।
* वृश्चिक लग्न - मंगल, बृहस्पति और चंद्रमा इस लग्न में त्रिकोण स्थान के स्वामी होते हैं।
* धनु लग्न - धनु लग्न की कुंडली के लग्न भाव में धनु राशि, पञ्चम भाव में मेष राशि तथा नवम भाव में सिंह राशि होती है अतः बृहस्पति, मंगल और सूर्य इस लग्न में त्रिकोणेश होते हैं।
* मकर लग्न - शनि, शुक्र और बुध इस लग्न में त्रिकोणाधिपति होते हैं।
* कुंभ लग्न - कुंभ, मिथुन और तुला राशि इस लग्न के जन्माङ्ग में लग्न, पंचम और नवम भाव में स्थित होते हैं। अतः त्रिकोणेश शनि बुध और शुक्र होंगे।
* मीन लग्न - मीन लग्न की कुंडली के लग्न, पञ्चम और नवम भाव में क्रमशः मीन, कर्क और वृश्चिक राशियाँ विद्यमान होती हैं, अतः इस लग्न में त्रिकोणेश गुरु, चंद्रमा और मंगल होते हैं।

८. त्रिकोणेशों का शुभत्व
त्रिकोणेशों का शुभत्व प्रतिपादित करते हुए महर्षि पराशर कहते हैं - ' सर्वे त्रिकोणनेतारो ग्रहा: शुभफलप्रदा:।' अर्थात् त्रिकोण स्थानों के अधिपति होने के उपरान्त सूर्यादि सभी ग्रह जातक को शुभ फल देने वाले होते हैं। ज्योतिषशास्त्र की फलित शाखा में सामान्यतया नवग्रहों को शुभ और पाप दो वर्गों में विभाजित किया गया है -
'गुरुबुधशुक्रा: सौम्या: सौरिकुजार्स्तु निगदिता: पापा:।
शशिजोऽशुभसंयुक्त: क्षीणश्च निशाकर: पाप:।।'
अर्थात् गुरु, बुध और शुक्र सौम्य या शुभ ग्रह हैं जबकि शनि, मंगल और सूर्य पाप या क्रूर ग्रह हैं। पाप ग्रहों से युक्त बुध पापी ग्रह माना जाता है, जबकि क्षीण चंद्र भी पाप ग्रह की ही श्रेणी में आते हैं। पूर्ण चंद्र को शुभ ग्रह माना गया है। ज्योतिषशास्त्र के उपरोक्त सामान्य सिद्धान्त के अनुसार शुभ ग्रह नैसर्गिक रूप से शुभ फल देने वाले होते हैं, जबकि पाप ग्रह नैसर्गिक रूप से जातक को पाप फल प्रदान करते हैं। महर्षि पराशर प्रणीत लघुपाराशरी ग्रन्थ इस दृष्टिकोण से नितांत भिन्न है। ज्योतिषशास्त्र के उपरोक्त परिपाटी से पूर्णतया अलग सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए महर्षि का कथन है कि कोई भी ग्रह चाहे वह नैसर्गिक शुभ ग्रह हो अथवा पाप ग्रह यदि वह कुंडली के त्रिकोण भाव अर्थात् लग्न, पञ्चम और नवम भाव में से किसी का भी अधिपति है तो वह जातक को केवल शुभ फल ही प्रदान करेगा। यहां जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि हम शुभ किसे कहें तो इसकी सामान्य परिभाषा है- 'मनोऽनुकूलं शुभम् '
महर्षि ने अपने सिद्धांत को और अधिक पुष्ट करने के लिए श्लोक क्रमांक 12 में भी इस विचार की ओर संकेत किया है। कर्क लग्न की कुंडली का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा है-
'कुजस्य कर्मनेतृत्त्वे प्रयुक्ता शुभकारिता
त्रिकोणस्यापि नेतृत्त्वे न कर्मेशत्त्वमात्रत:।।'
इस उदाहरण में महर्षि ने मंगल के शुभकारी होने का विधान किया है। कर्क लग्न की इस कुंडली में मंगल पञ्चमेश और दशमेश दोनों हैं, अतः जिज्ञासुओं के मन में एक सहज शंका उत्पन्न हो सकती है कि मंगल के शुभ होने का कारण क्या है ? तो इस शंका का निवारण महर्षि ने ही प्रस्तुत किया है, और कहा है कि मंगल की शुभकारिता का कारण उसका त्रिकोणाधिपति होना है न कि उसका केन्द्रेश होना। इसी सिद्धांत के समर्थन में ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में एक अन्य उक्ति प्राप्त होती है -
"लग्नमारोग्यमाख्यातं तस्मात्तदधिप: शुभ:।
नवमो भाग्यभावोऽस्ति बुद्धिभावश्च पंचम:।
तस्माद् तदाधिपत्येन ग्रहा: सर्वे शुभप्रदा:।।"

९. त्रिकोणेशों की शुभकारिता का अपवाद
महर्षि पाराशर ने त्रिकोण स्थान के स्वामियों के शुभत्व को निर्विवाद रूप से स्वीकार तो किया है। परंतु साथ ही साथ उन्होंने कुछ ऐसी परिस्थितियों का भी उल्लेख किया है, जहां ये त्रिकोणेश शुभ फल के स्थान पर पाप फल देने वाले हो जाते हैं अथवा शुभ फल के साथ-साथ जातक को पाप फल भी प्रदान करते हैं। इस संदर्भ में महर्षि पराशर के उक्ति है -     'पतयस्त्रिषडायानां यदि पापफलप्रदा:'
अभिप्राय यह है कि त्रिकोण स्थानों के स्वामी यदि त्रिषडायेश भी हों अर्थात् तृतीय भाव,षष्ठ भाव या एकादश भाव के भी अधिपति हों तो ये त्रिकोणेश ही जातक को पाप फल प्रदान करते हैं। इसी श्लोक का अर्थ करते हुए अन्य टीकाकारों का मत है कि यदि त्रिकोणेश त्रिषडायेश भी हो जाएं तो त्रिकोणाधिपति शुभ फल देने के साथ-साथ जातक को पाप फल भी प्रदान करते हैं। इस सिद्धान्त पर अगर हम गंभीरतापूर्वक विचार करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जो कोई भी ग्रह त्रिकोणेश होगा वह किसी भी परिस्थिति में तृतीयेश या एकादशेश नहीं हो सकता है। त्रिकोणेशों के केवल षष्ठेश होने की संभावना होती है और ऐसी परिस्थिति केवल कर्क, कन्या एवं मकर लग्न में ही संभव हो पाती है। कर्क लग्न में गुरु, कन्या लग्न में शनि एवं मकर लग्न में बुध त्रिकोणेश होने के साथ-साथ षष्ठेश होते हैं। अत: यह कहना अधिक उचित होगा कि यदि त्रिकोणेश, षष्ठेश हो तो वह पापफलद हो जाएगा अथवा शुभ फल देने के साथ-साथ कुछ अशुभ प्रभाव से युक्त फल भी जातक को प्रदान करेगा।

१०.राजयोगों के निर्माण में त्रिकोणेशों की भूमिका
लघुपाराशरी ग्रंथ में वर्णित राजयोगाध्याय में जितने भी राजयोगों का वर्णन है उसमें त्रिकोणेशों की भूमिका सर्वाधिक प्रमुख सिद्ध होती है। राजयोग उत्पन्न करने वाले इन ग्रह योगों पर दृष्टिपात करने से उपरोक्त सिद्धान्त और अधिक स्पष्ट हो जाएगा-
* केन्द्र भाव के अधिपतियों और त्रिकोण भाव के अधिपतियों के मध्य का संबंध विशेष रूप से राजयोग कारक होता है।
* केन्द्र भाव के अधिपति और त्रिकोण भाव के अधिपति यदि दोष युक्त हों तथापि उनके मध्य का संबंध राजयोग देने वाला होता है।
* दशम भाव का अधिपति और तृतीय त्रिकोण अर्थात् नवम भाव का स्वामी यदि व्यत्ययपूर्वक स्थित हों, एक साथ ही स्थित होकर नवम या फिर दशम भाव में स्थित हों या एक साथ होकर अन्य स्थान पर स्थित हों और अन्य देख रहा हो, तब भी जातक को राजयोग की प्राप्ति होती है।
* त्रिकोण स्थान के अधिपतियों के मध्य का कोई भी संबंध (चतुर्विध) राजयोग कारक होता है ।
* त्रिकोणेशों का संबंध यदि सर्वाधिक बली केंद्रेश अर्थात् दशमेश से हो जाए तब भी जातक को राजयोग की प्राप्ति होती है ‌।
* यदि कोई ग्रह त्रिकोणेश और केंद्रेश दोनों हो तो वह भी जातक को राजयोग का फल देता है।
* कर्म स्थान के स्वामी और लग्न स्थान अर्थात् त्रिकोण स्थान के स्वामी यदि व्यत्ययपूर्वक स्थित हों तब भी राजयोग बनता है।
* नवम भाव का अधिपति और दशम भाव का अधिपति अर्थात् प्रथम और तृतीय त्रिकोणेश व्यत्ययपूर्वक स्थित हों तब भी जातक राज्य सुख का भागी होता है।

११. त्रिकोणाधिपतियों का बलाबल निर्णय

 मेषादि द्वादश लग्नों में से प्रत्येक में तीन-तीन की संख्या में त्रिकोणेश होते हैं- लग्नेश, पञ्चमेश और नवमेश। जातकशास्त्र के जिज्ञासुओं के मन में एक शंका उत्पन्न होती है कि इन तीनों त्रिकोणेशों में से कौन सर्वाधिक बली है और कौन कम बली है। यह तो स्पष्ट है कि तीनों ही त्रिकोणेश शुभ फल देने वाले होते हैं। परन्तु सर्वाधिक शुभ फल कौन त्रिकोणेश देगा और अपेक्षाकृत कम शुभ फल किस त्रिकोणेश से प्राप्त होगा, इसका निर्धारण भी आवश्यक है। इस समस्या का समाधान करते हुए महर्षि पराशर की उक्ति है - ' प्रबलाश्चोत्तरोत्तरम् '
अभिप्राय है कि प्रथम त्रिकोण अर्थात् लग्न भाव का अधिपति सबसे कम बलवान होता है, उससे अधिक बलवान पञ्चम भाव का अधिपति होता है जबकि सर्वाधिक बली त्रिकोणेश नवम भाव का अधिपति होगा।

१२. त्रिकोणेशों के शुभत्व की अतिशयता
लघुपाराशरी ग्रंथ में त्रिकोणेशों के शुभत्व की अतिशयता का दिग्दर्शन अष्टमेश के फलादेश के संदर्भ में उपलब्ध होता है। महर्षि पराशर के मतानुसार भाग्य स्थान से व्यय स्थान का अधिपति होने के कारण रन्ध्रेश अर्थात् अष्टमेश शुभ फल देने वाला नहीं होता-
       ' भाग्यव्ययाधिपत्येन रन्ध्रेशो न शुभप्रद: '
परन्तु वही अष्टमेश जब लग्नेश हो जाता है, अर्थात् अष्टमेश लग्नरूपी त्रिकोणेश भी हो जाता है तो उसके पाप फल देने की प्रवृत्ति पूर्णतया परिवर्तित हो जाती है और वही अष्टमेश जातक को शुभ फल देने वाला हो जाता है।
' स एव शुभसंधाता लग्नाधीशोऽपि चेत् स्वयम् '

कालपुरुष

 वैदिक संहिताओं में विराट पुरुष से संबंधित कई संदर्भ प्राप्त होते हैं । ऋग्वेद का पुरुष सूक्त इसी उदात्त विचारधारा का दिग्दर्शन है। संपूर्ण सृष्टि और  सृष्टि में व्याप्त समस्त स्थावर व जङ्गम पदार्थों की उत्पत्ति का मूल कारण इसी विराट पुरुष को माना गया है। विराट पुरुष के साथ-साथ कालतत्त्व भी वैदिक ऋषियों के ज्ञान चक्षु से ओझल नहीं रह पाया था। कालतत्त्व का विस्तृत वर्णन हमें अथर्ववेद के काल सूक्त में प्राप्त होता है। इसी महान परम्परा को ज्योतिषशास्त्र के प्रवर्तक ऋषियों और आचार्यों ने पर्याप्त रूप से महत्व दिया और इसे अपने शास्त्र का मूल आधार बनाया।

"विधात्रा लिखिता याऽसौ ललाटेऽक्षरमालिका।

दैवज्ञस्ता़ पठेद्व्यक्तं होरानिर्मलचक्षुषा।।"
ज्योतिषशास्त्र के जितने भी प्राचीन ग्रंथ हैं उनमें काल पुरुष का वर्णन हमें अवश्य मिल जाता है। ज्योतिषशास्त्र के जिज्ञासुओं में यह शंका बार-बार उत्पन्न होती है की आखिर भाग्य और कर्म का वर्णन करने वाले इस शास्त्र में काल पुरुष की क्या आवश्यकता है। इस जिज्ञासा का समाधान भी इन्हीं ऋषियों और आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रंथों में उपलब्ध हो जाता है। महर्षि पराशर की रचना बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् और इसी पर आधारित परवर्ती कालजयी रचनाओं यथा- यह वृहज्जातक, सरावली, फलदीपिका, ज्योतिषकल्पतरु, फलित मार्तण्ड, होरारत्नम, सर्वार्थ चिंतामणि आदि ग्रंथों में भी कालपुरुष से संबंधित गूढ़ सिद्धांत हमें प्राप्त हो जाते हैं। इन ग्रंथों में कालपुरुष का संबंध सीधे-सीधे जातक के साथ स्थापित किया गया है। जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में शिर, नेत्र, मुख, वक्षस्थल, उदर आदि अंग होते हैं उसी प्रकार काल पुरुष के भी विभिन्न शरीरावयवों की कल्पना की गई है और उनका मेषादि द्वादश राशियों और सूर्यादि ग्रहों के साथ संबंध स्थापित किया गया है। मनुष्य का शरीर त्रिविध दु:खों से पीड़ित होता है, सुखादि का अनुभव करता है और इन सब के कारणों की मीमांसा अलग-अलग शास्त्रों ने अपने ढ़ंग से की है। ठीक इसी तरह ज्योतिषशास्त्र के आचार्यों ने भी इन कारणों की मीमांसा का स्तुत्य प्रयास किया है। इन ऋषियों के ग्रंथों का गहन अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है की कालपुरुष और जातक के मध्य अभेद  है। आत्मबल, मानसिक दृढ़ता,सत्त्व का आधिक्य या अल्पता, वाक्पटुता, ज्ञान, सुख, हर्ष या विषाद मानव जीवन के भविष्य को प्रभावित करता है और इसी महत्व को देखते हुए काल पुरुष के भी आन्तरिक अवयवों यथा आत्मा, चित्त,मन सत्त्व, वाणी, ज्ञान, काम व सुख-दुखादि आदि की कल्पना ज्योतिषशास्त्र में की गई है। ऋषियों ने अपने ग्रंथों में ग्रह और राशियों का जो संबंध कालपुरुष के बाह्य तथा आंतरिक अवयवों के मध्य जो संबंध स्थापित किया है, ज्योतिषशास्त्र के अधिकांश आचार्यों ने इसी परम्परा का अनुकरण किया है।
कालपुरुष विषयक आत्मादि विभाग
ज्योतिषशास्त्र में जिस कालपुरुष की परिकल्पना प्राप्त होती है उसके आन्तरिक अवयवों के वर्गीकरण के अनुसार सूर्य को इस पुरुष की आत्मा के रूप में स्वीकार किया गया है। ऋग्वेद में भी तो कहा गया है - 'सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ' । इसी प्रकार चंद्रमा को कालपुरुष का मन या चित्त माना गया है। भौम अर्थात् मंगल को बल या सत्त्व का प्रतिनिधि माना गया है। जब कालपुरुष के वचन या वाणी के संदर्भ में जिज्ञासा उत्पन्न होती है तो बुध ग्रह को इसका अधिपति कहा गया है। ठीक इसी तरह कालपुरुष का ज्ञान बृहस्पति है। जबकि शुक्र ग्रह को इसका सुख कहा गया है। ज्योतिषशास्त्र के आचार्यों ने राहु को कालपुरुष का मद कहा है। सूर्यपुत्र शनि को कालपुरुष का दुख माना गया है। कहा भी है - 'शनि: काल नरस्य दुखम् '
कालपुरुष के शरीरावयव
ज्योतिषशास्त्र के ग्रंथों में जब कालपुरुष का प्रसङ्ग आता है तो इस वेदाङ्ग के आचार्य अत्यन्त विस्तारपूर्वक इस सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं और मनुष्य के समान ही कालपुरुष के मस्तक, नेत्र, कान, नाक, गला, गाल, ठोढ़ी, मुख, ग्रीवा, कंधा, हाथ, बगल, छाती, पेट, नाभि, वस्ति, उपस्थ या लिङ्ग, गुदा, अंडकोष, जांघ, घुटना और पैर इन समस्त अंगों का ज्योतिषशास्त्रीक्ष दृष्टिकोण से राशियों के साथ संबंध स्थापित करते हैं। कालपुरुष के इन अंगों के निर्धारण क्रम में द्रेष्काण का विचार आवश्यक हो जाता है। हम जानते हैं कि प्रत्येक राशि में तीन द्रेष्काण होते हैं। यदि लग्न प्रथम द्रेष्काण में हो तो द्वादश भावों से कालपुरूष के अलग-अलग अङ्गों का विचार होगा और यदि लग्न द्वितीय या तृतीय द्रेष्काण में हो तब भी यह कालपुरुष के अलग-अलग अङ्गों का प्रतिनिधित्व करेगा। अभिप्राय है कि जन्म समय में लग्न भाव में राशि का जो द्रेष्काण होता है उसी क्रम से काल पुरुष के भी 7, 7 और 8 इस क्रम से शरीर अवयव का निर्धारण होता है। यदि इसे और स्पष्ट करें तो कहा जा सकता है कि जन्म के समय यदि जातक के लग्न में प्रथम द्रेष्काण हो तो लग्न भाव मस्तक का, द्वितीय भाव दाहिनी आंख का, द्वादश भाव बाई आंख का, तृतीय भाव  दाहिने कान का, एकादश भाव बाएं कान का, चतुर्थ भाव और दशम भाव नाक का, पञ्चम और नवम भाव गाल का, षष्ठ और अष्टम भाव ठोढ़ी का, जबकि सप्तम भाव मुख विवर का प्रतिनिधित्व करेगा। इसी तरह यदि लग्नस्थ राशि द्वितीय द्रेष्काण में हो तो लग्न कंठ या ग्रीवा का, द्वितीय और द्वादश भाव कंधे का, तृतीय और एकादश भाव दोनों हाथों का, चतुर्थ और दशम भाव बगल का, पञ्चम और नवम भाव छाती का, षष्ठ और अष्टम भाव पेट का, जबकि सप्तम भाव काल पुरुष के नाभि को सूचित करेगा। इसी क्रम में जब हम लग्न में राशि के तृतीय द्रेष्काण को पाते हैं तब काल पुरुष के अंगों के निर्धारण में भिन्नता आ जाती है और इस दृष्टिकोण से लग्न भाव वस्ति अर्थात् उपस्थ व नाभि के मध्य भाग का, द्वितीय भाव लिंग का द्वादश भाव गुदा का, तृतीय और एकादश भाव अंडकोष का, चतुर्थ और दशम भाव जांघ का, पञ्चम एवं नवम भाव घुटने का, षष्ठ व अष्टम भाव पिंडलियों का, जबकि सप्तम भाव कालपुरुष के पैरों का प्रतिनिधित्व करेगा।
कालपुरूष के दक्षिण और वाम अङ्ग का निर्णय
ज्योतिषशास्त्र में वर्णित कालपुरुष के विभिन्न अवयवों का संबंध राशियों के साथ स्थापित करने के सिद्धांतों पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो एक अत्यन्त सहज प्रश्न सामने आता है की मानव शरीर में जो अंग संख्या में दो हैं, तो उनका निर्धारण कैसे हो ? इस जिज्ञासा के शमन के लिए आचार्यों ने व्यवस्था दी है कि लग्न से पीछे की जो राशियां उदित रहती हैं अर्थात् क्षितिज से ऊपर रहती हैं वे जातक के वाम अंग अर्थात् बाएं अङ्ग की तथा जो राशियां क्षितिज से नीचे रहती हैं,अर्थात् अनुदित रहतीं हैं वे दक्षिण या दाएं अङ्ग की प्रतिनिधि होती हैं। व्यवहार में देखा गया है कि सामान्यतया मनुष्य का वाम अङ्ग निर्बल होता है जबकि दक्षिण अङ्ग सबल होता है। किन्तु जो जातक बाएं हाथ से समस्त कार्यों का निष्पादन करते हैं उनकी स्थिति इससे भिन्न होती है। अगर इस सिद्धांत को और अधिक विस्तारपूर्वक स्पष्ट करें तो लग्नार्द्ध, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ और सप्तमार्द्ध इन्हें हम अनुदित खण्ड कहेंगे। जबकि सप्तमार्द्ध, अष्टम, नवम, दशम, एकादश, द्वादश और लग्नार्द्ध भाव को उदित खण्ड कहेंगे।
कालपुरुष के आत्मादि विभाग के बलाबल का जातक पर प्रभाव
ज्योतिषशास्त्र के आचार्य जब कालपुरुष के आत्मादि विभाग विषयक सिद्धान्तों की स्थापना करते हैं तो इस शास्त्र के जिज्ञासुओं के मन में एक सहज प्रश्न उत्पन्न होता है कि सूर्यादि ग्रह जो काल पुरुष के अलग-अलग अंगों के वाचक हैं, वे जातक को किस प्रकार प्रभावित कर सकते हैं ? इस प्रश्न का समाधान सारावली ग्रंथ के रचनाकार आचार्य कल्याण वर्मा करते हैं और बताते हैं कि जन्म काल में आत्मादिकारक सूर्यादि ग्रह यदि बली हो तो जातक के आत्मादि भी बलवान होते हैं। अभिप्राय है कि ऐसा जातक उच्च या श्रेष्ठ आत्मबल से युक्त होता है। इसी प्रकार अगर चन्द्रमा निर्बल हो तो मनुष्य का मन या चित्त भी निर्बल होगा। मङ्गल का बलवान या निर्बल होना मनुष्य के सत्त्व अर्थात पराक्रम को सीधे सीधे प्रभावित करता है। बुध ग्रह का बलवान होना या निर्बल होना जातक की वाणी पर अपना प्रभाव डालता है। स्पष्ट है कि यदि बृहस्पति बलवान होंगे तो मनुष्य का ज्ञान भी उच्च कोटि का होगा जबकि निर्बल बृहस्पति मनुष्य के ज्ञान प्राप्ति के क्षेत्र को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेंगे। शुक्र सुख का प्रतिनिधि है अत: बलवान शुक्र मनुष्य को समस्त भौतिक सुख प्रदान करेंगे जबकि निर्बल शुक्र सुखों में कमी या न्यूनता कर देंगे। शनि ग्रह के संदर्भ में यह सिद्धांत किञ्चित भिन्न है और इस संदर्भ में सारावली ग्रन्थ के रचनाकार का कथन है - ' विपरीतं शने: फलम् ' अर्थात् शनि ग्रह जिसे काल पुरुष का दुःख माना गया है उसके फलादेश में किञ्चित सावधानी की आवश्यकता होगी। जैसे यदि शनि निर्बल हो तो दुःख का आधिक्य होगा जबकि शनि की प्रबलता दुःखों को कम करने वाली होगी। राहु को कालपुरुष का मद अर्थात अहंकार कहा गया है अत: बलवान राहु जातक के अहंकार में वृद्धि कर देता है जबकि निर्बल राहु अहंकार में कमी लाता है।
विभिन्न राशियों में उपस्थित ग्रहों के कारण कालपुरुष के शरीरावयव पर प्रभाव
मेषादि विभिन्न राशियों की स्थिति कालपुरुष के विविध अंगों में मानी गई है। इस सिद्धांत का प्रयोग जब हम जातक के जीवन से संबंधित शुभाशुभ का फलादेश करने के प्रसंग में करें तो यह ध्यान रखना चाहिए कि जिस राशि में पाप ग्रह स्थित होंगे उस राशि से संबंधित कालपुरुष के अङ्ग में घाव या चोट के योग बनेंगे और यह अशुभ फल जातक को प्राप्त होगा। ठीक उसी प्रकार कालपुरुष के अंगों का प्रतिनिधित्व करने वाली जिस राशि में शुभ ग्रह स्थित होंगे उस राशि से सम्बन्धित अंङ्ग में तिल या मस्सा आदि चिन्ह उपस्थित होंगे। अब एक नवीन जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि अलग-अलग राशियों में शुभ या पाप ग्रह घाव, चोट, रोग, तिल या मस्सा आदि उत्पन्न करते हैं तो वस्तुत: शुभ या सौम्य तथा पाप या क्रूर ग्रहों का विभाजन किस प्रकार हो ? इस सन्दर्भ में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि गुरु, बुध और शुक्र ये शुभ ग्रह हैं तथा शनि, मंगल और सूर्य पाप या क्रूर ग्रह हैं। यदि बुध ग्रह पाप ग्रह के साथ हो तो वह भी पापी ग्रह के समान ही फल देता है, जबकि शुभ ग्रह के साथ होने पर बुध शुभ फलदायी होता है। क्षीण चन्द्रमा को पाप ग्रह माना गया है जबकि पूर्ण चंद्रमा को ज्योतिषशास्त्रीय आचार्य शुभ ग्रह मानते हैं। चन्द्रमा शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से दशमी तिथि तक मध्यम बली माना गया है, और शुक्ल पक्ष की एकादशी से कृष्ण पक्ष की पञ्चमी तिथि तक यह पूर्ण बली कहा गया है। जबकि कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि से अमावस्या तक का चन्द्र बलहीन माना गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण पक्ष की अष्टमी के अर्ध भाग से शुक्ल पक्ष की अष्टमी के अर्ध भाग तक चंद्रमा क्षीण होता है जबकि शेष समय का चन्द्र बली माना गया है।
कालपुरुष को प्रभावित करने वाले राशियों तथा ग्रहों से सम्बन्धित फलप्राप्ति कब ?
विभिन्न राशियों में उपस्थित शुभ और अशुभ ग्रह जातक को घाव, चोट, रोग, तिल या मस्सा आदि का चिन्ह प्रदान करते हैं। परन्तु यह सहज जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि ये चिन्ह मनुष्य के शरीर पर कब आएंगे ? ये चिन्ह जन्म से ही जातक के शरीर पर होंगे अथवा जीवन के किसी कालखंड में ये चिन्ह जातक के शरीर पर किसी घटना विशेष के कारण अथवा स्वत: उत्पन्न होंगे। इस सन्दर्भ में एक सिद्धांत है जिसके अनुसार माना गया है कि यदि शुभ या पापी ग्रह अपनी राशि या अपने नवांश में स्थित हों तो उपरोक्त चिन्ह मनुष्य के शरीर पर जन्म के समय से ही होंगे। परन्तु यदि यही ग्रह स्वराशि या स्वनवांश में स्थित नहीं होंगे तो अपनी दशा अंतर्दशा आने पर जातक को घाव आदि प्रदान करेंगे।
ग्रहों के कारण कालपुरुष के बाह्य तथा आन्तरिक व्यक्तित्व का निर्धारण तथा प्रभाव
ज्योतिषशास्त्रीय ग्रंथों में जहाँ कहीं भी कालपुरुष का वर्णन  प्राप्त होता है वहाँ सूर्यादि ग्रहों का कालपुरुष के व्यक्तित्व के साथ भी सीधा-सीधा संबंध स्थापित किया गया है।जैसे यदि सूर्य जन्मांग में बलवान हो तो यह कालपुरुष को राजा के समान व्यवहार वाला बना देता है। ठीक इसी प्रकार यदि चन्द्रमा जन्माङ्ग में बली हो जाए तब भी मनुष्य में राजा के गुण आ जाएंगे। बुध ग्रह का बली होना काल पुरुष में राजकुमार के गुणों को संक्रांत करता है, जबकि मंगल का बली होना कालपुरुष में सेनानायक के गुणों का आधिक्य प्रदर्शित करता है। शुक्र और गुरु यदि पर्याप्त बलशाली हों तो कालपुरुष का व्यक्तित्व मंत्री, आचार्य या गुरु के समान हो जाएगा। ठीक इसी तरह शनि कालपुरुष को भृत्य अर्थात सेवक के व्यक्तित्व से युक्त कर देता है। ग्रहों का बलवान होना कालपुरुष के बाह्य शरीर आकृति के साथ ही उसके आन्तरिक व्यक्तित्व को भी प्रभावित करता है।
सूर्य
यदि जन्मांग में सूर्य अधिक बलवान हो जाए तो कालपुरुष का स्वरूप थोड़े घुंघराले केश से संयुक्त, सुंदर बुद्धि व रूप, गंभीर वाणी, अधिक ऊंचा नहीं, लाल नेत्र, शूर, प्रतापी, स्थिरमति, चञ्चलतारहित, लाल और कृष्ण शरीर, छिपे हुए पैर, पित्त की अधिकता वाला स्वभाव, हड्डियों में अधिक बल, अत्यधिक गम्भीर और चौकोर शरीर वाला हो जाएगा।
चन्द्रमा
इसी तरह चन्द्रमा से प्रभावित होने पर कालपुरुष शान्त, शोभायमान नेत्र से युक्त, मीठा बोलने वाला, सफेद वर्ण, कृश शरीर, युवावस्था वाला, उन्नत छोटे काले घुंघराले बाल, विद्वान, मृदु स्वभाव, सत्वगुण से युक्त, सुंदर, वात और कफ प्रकृति वाला, मित्रों से अत्यधिक प्रेम करने वाला, रक्त में बल का आधिक्य, घृणा करने वाला, वृद्धा अर्थात् अपने से अधिक उम्र की स्त्रियों में आसक्त रहने वाला, चंचल, अत्यंत सुंदर  और सफेद वस्त्र में रुचि रखने वाला हो जाता है।
मङ्गल
बलवान मंगल के कारण कालपुरुष लघु कद वाला, पिंगल नेत्र वाला, मजबूत शरीर, जली हुई अग्नि के समान कांति वाला, चंचल, चर्बी में बल, लाल वस्त्र, चतुर, शूर, सिद्ध वचन, छोटे घुंघराले चमकदार बाल वाला, जवान, पित्त प्रकृति से युक्त, तमोगुणी, पराक्रमी, साहसी, मारने में निपुण, लालिमा संयुक्त सफेद वर्णवाला या सफेद वर्ण से अधिक प्रेम करने वाला हो जाता है।
बुध
इसी तरह यदि जन्मकाल में बुध अधिक प्रभावी हो तो जातक या कालपुरुष विशाल लाल नेत्र वाला, मीठी वाणी, घास या दूब के समान हरित कृष्ण वर्णवाला, त्वचा में बल का अनुभव करने वाला, रजोगुणी, स्पष्ट वचन बोलने वाला, स्वच्छता प्रिय, त्रिदोषात्मक प्रकृति अर्थात् वात, पित्त और कफ इन तीनों प्रकृति के गुणों से युक्त, प्रसन्नात्मा, मध्यम स्वरूप वाला, चतुर, गोल आकृति, त्वचा नसों से व्याप्त, अपने वेश व वाणी से सब का अनुसरण करने वाला एवं हरे रंग के वस्त्रों से प्रेम करने वाला बन जाता है।
बृहस्पति
यदि जन्म के समय गुरु अधिक प्रभाव उत्पन्न कर रहे हों तो कालपुरुष थोड़े पीत नेत्र व कर्ण वाला, सिंह के समान गंभीर शब्द वाला, सत्व गुणों से युक्त, तपे हुए सोने के समान शरीर और वर्ण वाला, मोटी व ऊंची छाती वाला, लघु, धर्म में तत्पर रहने वाला, नम्रता में श्रेष्ठ, चतुर, स्थिर उत्कृष्ट दृष्टि, क्षमावान, पीला वस्त्र धारण करने वाला, कफ प्रकृति और चर्बी में बल का अनुभव करने वाला हो जाता है।
शुक्र
शुक्र के बलवान होने पर कालपुरुष मनोहर स्वरूप वाला, लंबे हाथ, विशाल वक्षस्थल और मुख वाला, वीर्य की अधिकता वाला, चेष्टावान, काले घुंघराले पतले लंबे बालों से युक्त, दूर्वा के समान श्यामल वर्णवाला, कामी, वात और कफ प्रकृति से युक्त, अत्यंत सौभाग्य से युक्त, अनेक रंगो के वस्त्रों का प्रिय, रजोगुण से युक्त, केलिकुशल अर्थात् काम कला में कुशल, बुद्धिमान, विशाल नेत्र वाला और मोटे कन्धों वाला बन जाता है।
शनि
शनि यदि जन्माङ्ग में अधिक बलवान हो अथवा लग्न पर शनि का अधिक प्रभाव तो यह कालपुरुष को कपिल गहरे नेत्र वाला, पतले लंबे शरीर वाला, नसों से युक्त, आलसी, काला वर्ण, वात प्रकृति, अत्यंत चुगलखोर,खाल अर्थात स्नायु में बल, निर्दयी,  मूर्ख, मोटे नाखून और दांत वाला, अत्यन्त मालिन  वेश में रहने वाला, चेष्टाहीन, अपवित्र, तामसी प्रकृति से युक्त, भयानक स्वरूप वाला, क्रोधी, वृद्ध तथा काले वस्त्रों से प्रेम रखने वाला बना देता है।
कालपुरुष का कालबल
कालपुरुष की कार्यकुशलता या कार्य करने के सामर्थ्य पर भी इन सूर्यादि ग्रहों का प्रभाव होता है। जैसे यदि जन्म समय में गुरु सूर्य और शुक्र अधिक बलवान हों तो कालपुरुष दिन में अधिक बली होगा। ठीक इसी तरह बुध यदि बली हो तो दिन व रात्रि दोनों में बली होगा। जबकि शनि, चन्द्रमा और मंगल यदि जन्मांग में बल युक्त हों तो यह कालपुरुष को रात्रि बली बना देता है। उपरोक्त सिद्धांत के अनुसार ग्रहों के बलाबल के कारण जातक दिन या रात किस समय अधिक ऊर्जावान होगा ? इसका निर्धारण सहज ही किया जा सकता है। कालपुरुष के खान-पान पर भी ग्रहों का आधिपत्य है। इन ग्रहों के बल के आधार पर यह निर्धारित किया जा सकता है की कालपुरुष को किस प्रकार का भोजन प्रिय होगा।सूर्य के बलवान होने पर कड़वा, चन्द्रमा के बली होने पर क्षारीय, भौम के बली होने पर तिक्त, बुध के बली होने पर मिश्रित, गुरु के बली होने पर मधुर, शुक्र के बली होने पर अम्लीय और शनि के बली होने पर कषाय या कसैला स्वाद कालपुरुष को प्रिय हो जाएगा। इसी प्रकार जन्मांग में यदि चंद्रमा और शुक्र अधिक बलवान हों तो यह कालपुरुष को स्त्रियोचित गुणों से युक्त कर देगा। बुध और शनि का बली होना कालपुरुष में नपुंसकत्त्व को बढ़ाएगा, जबकि गुरु, सूर्य और मंगल जन्मांग में अधिक बली होने पर काल पुरुष को पुरुषत्व के गुणों से युक्त कर देते हैं।

Friday 9 November 2018

शाबर मन्त्रों द्वारा कल्याणकारी हनुमान उपासना


     कलियुग में प्राणी मात्र के कष्टों के आधिक्य को जानकर श्रीउमा-महेश्वर ने शाबर मन्त्रों की रचना की। इन मन्त्रों के द्वारा पुष्टीकरण, मारण, मोहन, उच्चाटन तथा स्तम्भन आदि समस्त तांत्रिक क्रियाएँ सहज ही संपादित की जा सकती हैं। इन शाबर मन्त्रों की शब्द योजना कुछ अस्पष्ट सी होती हैं, परन्तु ये मन्त्र चमत्कारिक शक्ति से पूर्ण होते हैं। स्वयं तुलसीदास जी ने कहा है -

कलि बिलोकि जगहित हर गिरिजा। साबर मंत्रजाल जिन्ह सिरिजा।।

अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाव महेस प्रतापू।।

        ये मन्त्र अत्यन्त शक्तिशाली होते हैं, परन्तु तान्त्रिकों द्वारा लम्बे समय से इन्हें गुप्त रखा गया है। ये मन्त्र सहज ही सिद्ध हो जाते हैं, परन्तु सिद्धि के उपरान्त जनकल्याण हेतु ही इनका प्रयोग किया जाना चाहिये।
कुछ लोगों का मानना है कि शंबर नामक असुर ने जिस मायाविद्या की रचना की थी, शाबर मंत्र उसी की शाखा है। वस्तुतः शाबर मंत्र अभिचार कर्मों (मारण, मोहन, उच्चाटन आदि) से बचाव के अमोघ उपचार के रूप में विख्यात हैं। इसके अलावा अन्य रोगों से भी इन     मन्त्रों द्वारा  मुक्ति पाई जा सकती है।
शाबर मंत्र का उच्चारण करते हुए जाप किया जाता है। इस कारण ये ध्वनि प्रधान माने गए हैं। शाबर मंत्र पूर्णतया लाभ प्रदान करते हैं, इसमें संशय नहीं है। इनमें देव, गुरु, भैरव, गोरखनाथ, लोना चमारी आदि की दुहाई देने का विधान है। ये शक्तियां साधकों को साधनोपरांत स्वयं की प्रत्यक्ष अनुभूति भी कराती हैं। 
इन चमत्कारिक शाबर मन्त्रों  के संसार में पवनपुत्र हनुमान अत्यन्त महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हैं। शताधिक शाबर मन्त्रों के प्रधान देवता स्वयं हनुमान ही हैं, जबकि अन्य मन्त्रों में इनके नाम का स्मरण किया गया है। हनुमान जी से संबंधित मन्त्रें द्वारा तंत्र की समस्त क्रियाएँ सम्पादित की जा सकती हैं। शाबर मन्त्रों को सिद्ध करने के बाद ही प्रयोग में लाया जाना चाहिए। इससे संबंधित कुछ प्रमुख नियम निम्नलिखित हैं -

(१) इन मन्त्रों की सिद्धि हेतु अनुष्ठान का प्रारंभ होली, दीपावली, अमावस्या, ग्रहण, नागपञ्चमी, नवरात्रि आदि को ही करना चाहिए।

(२) हनुमान जी से संबंधित शाबर मन्त्रों की सिद्धि हेतु मंगलवार तथा शनिवार के दिन प्रशस्त माने गए हैं।

(३) पञ्चमुखी हनुमान जी की मूर्त्ति का ही प्रयोग शाबर मन्त्रों के सन्दर्भ में करना उत्तम रहता है। हनुमान जी के पञ्चमुखों में वानर, व्याघ्र, वराह, अश्व तथा गरुड़ परिगणित हैं, जिनके द्वारा मारण, मोहन, उच्चाटन, स्तम्भन तथा पुष्टिकरण कर्म किए जाते हैं।

(४) योग्य गुरू के अभाव में भगवान श्रीराम को ही गुरू मान कर हनुमान जी के शाबर मन्त्रों की सिद्धि की जा सकती है।

(५) सिद्धि हेतु शाबर मन्त्रों का 1008 संख्या में जप कर इतनी ही संख्या से हवन भी करना चाहिए।

(६) यदि मन्त्रों की संख्या निर्धारित हो तो उतने ही संख्या में जप करें।

(७) सिद्धि के उपरान्त भी प्रत्येक अमावस्या तथा ग्रहण काल में इन मन्त्रों की 11 माला का जप अवश्य करें। ताकि मन्त्र की चैतन्यता बनी रहे।


केसरीनंदन हनुमानजी से संबद्ध कुछ शाबर मंत्र जनहितार्थ दिए जा रहे हैं। साधक इनका लाभ उठा सकते हैं।

पीलिया रोग निवारण का मंत्र
ॐ वीर वैताल असराल नारसिंह खादी तुर्षादी, पीलिया कूं भिदाती, कारै, जारै पीलिया रहै न नेक निशान जो कहीं रह जाए तो हनुमंत की आन, मेरी भक्ति गुरु की शक्ति फुरो मंत्र इश्वरो वाचा।

उपरोक्त मंत्र को सिद्ध करने के बाद पीलिया रोग दूर करने हेतु कांसे की एक कटोरी में तिल का तेल लें। इस कटोरी को रोगी के सिर पर रखकर मंत्र जाप करते हुए कुशा (डाभ) से तेल को चलाएं। मंत्र के प्रभाव से तेल जब पीला हो जाए तब कटोरी नीचे रखें। ऐसा तीन दिन करने से रोग दूर हो जाता है।

अर्शरोग दूर करने का मंत्र
ॐ काकाकर्ता क्रोरी करता, ॐ करता से होय व रसना, दशहूं स प्रकटे खूनी बादी बवासीर न होए, मंत्र जान के न बताए, द्वादश ब्रह्म हत्या का पाप होय, शब्द सांचा पिण्ड काचा तो हनुमान का मंत्र सांचा, फुरो मंत्र इश्वरो वाचा।

      उपरोक्त मंत्र एक लाख जाप से सिद्ध होता है। जो व्यक्ति इसे सिद्ध कर लेता है, उसे अर्शरोग नहीं होता। रात्रि के रखे जल को 21 बार अभिमंत्रित कर शौच को जाएं तथा शौच के बाद अभिमंत्रित जल से गुदा प्रक्षालन से अर्श रोग दूर होता है।

कान दर्द दूर करने का मंत्र
बनरा गांठि बनरी तो ढांट हनुमान अंकटा, बिलारी बाधिनी थनैला कर्ण मूल जाई श्री रामचंद्रवानी जलपथ होई।

कान-दर्द हो तो उपरोक्त मंत्र से झाड़ें। हाथ में भभूति लेकर सात बार मंत्र का उच्चारण करके भभूति को कान से छुआकर नीचे डाल दें।

नेत्र रोग दूर करने का मंत्र
ॐ झलमल जहर भरी तलाई, अस्ताचल पर्वत से आई, जहां बैठा हनुमंता, जाई फूटै न पाकै करै, न पीड़ा जाती, हनुमंत हरे पीड़ा मेरी। मेरी भक्ति गुरु की शक्ति फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा सत्य नाम आदेश गुरु को।

ग्यारह बार मंत्रोच्चारण कर नीम की डाली से यह क्रिया तीन दिन तक नियमित करने से नेत्र रोग दूर होता है।

ॐ नमो वन में ब्याई बानरी जहां-जहां हनुमान अंखिया पीर कषवा रो गेहिया थने लाई चारिऊ जाए भस्मंतन गुरु की शक्ति मेरी भक्ति फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा।

यह मंत्र 7 बार उच्चारण करने से रोग ठीक हो जाता है।

सिरदर्द दूर करने का मंत्र
लंका में बैठ के माथ हिलावै हनुमन्त। सों देखि राक्षसगण पराय दूरन्त।।
बैठी सीता देवी अशोक वन में। देखि हनुमान को आनन्द भई मन में।।
गई उस विषाद देवी स्थिर दर्शाय। अमुक के सिर व्यथा पराय।।
अमुक के नहीं कछु पीर नहीं कछु भार। आदेश का मारण्या हरि दासी चण्डी की दोहाई।।

सिरदर्द से पीडि़त व्यक्ति को दक्षिण दिशा में मुंह करके बैठाएं। फिर उसके सिर को दाएं हाथ से पकड़कर उपरोक्त मंत्र सात बार पढ़कर सिर पर फूंक मारें। ऐसा सात बार करने से सिरदर्द से छुटकारा मिल जाता है।

आधीसीसी दूर करने का मंत्र
(1)ॐ नमो वन में ब्याई वानरी, उछल वृक्ष पै जाय। कूद-कूद शाखान पे कच्चे वन फल खाय।।
आधा तोड़े आधा फोड़े आधा देय गिराय। हंकारत हनुमान्जी आधा सीसी जाय।।

(2) वन में ब्याई अंजनी कच्चे वन फल खाय।
हांक मरी हनुमन्त ने इस पिण्ड से आधासीसी उतर जाय।।

    उपरोक्त दोनों मंत्रों में से किसी भी एक मंत्र से झाड़ने पर आधासीसी का दर्द दूर होता है।

बिच्छू का विष उतारने का मंत्र
पर्वत ऊपर सुरही गाई। कारी गाय की चमरी पूछी। ते करे गोबरे बिछी बिआई। बिछी तौरकर अठारह जाति। 6 कारी 6 पीअरी 6 भूमाधारी 6 रत्न पवारी। 6 कुं हुं कुं हुं छारि। उतरू बिछी हाड हाड पोर पोर ते। कस मारे लील क्रंठ गरमोर। महादेव को दुहाई, गौरा पार्वती को दुहाई। अनीत टेहरी शडार बन छाई, उतरहिं बीछी हनुमंत की आज्ञा दुहाई हनुमत की।

 प्रयोग करने से पहले मंत्र को होली, दीपावली अथवा सूर्य, चंद्र ग्रहण काल में मंत्र सवा लाख जपने से सिद्ध हो जाता है। बिच्छू के काटे को बंध बांधकर मोर पंख या नीम की डाली से झाड़ा दें।

दांत का कीड़ा झाड़ने का मंत्र
ॐ नमो आदेश गुरु को वन में ब्याई अंजनी जिन जाया हनुमन्त, कीड़ा मकड़ा माकड़ा ए तीनों भस्मन्त, गुरु की शक्ति मेरी भक्ति फुरो मन्त्र ईश्वरो वाचा।

दीपावली की रात्रि से जाप शुरू कर एक लाख बार जपें तो मंत्र सिद्ध हो जाएगा। जब मंत्र सिद्ध हो जाए तब नीम की डाली से झाड़ने पर दांत-दर्द शीघ्र ठीक हो जाता है। मंत्रोच्चारण के समय कटेरी के बीजों का धुआं दें और बांस या कागज की नली (फूंकनी) से फूंक मारें।

भूत-प्रेत दूर करने का मंत्र
बांधो भूत जहां तु उपजो छाडो, गिरे पर्वत चढ़ाई सर्ग दुहेली तुजिभ झिलमिलाहि हुंकारे हनुमंत पचारइ भीमा जारि-जारि जारि भस्म करे जों चापैं सिंऊ।

108 बार उपरोक्त मन्त्र का जप कर लोबान का धुंआ दें।

सर्प विष उतारने का मंत्र
जेहि समय गए राम वन माहीं। तिनका तहां कष्ट अति होंही।।
सिय हरण अरु बाली नाशा। पुनि लागी लषन नाग फांसा।।
बिकल हरि देख नाग फांसा। स्मरण करहिं गरुड निज दासा।।
विनता नन्दन बसहिं पहारा। पहुंचे स्मरण ते ही लंका पल पारा।।
रहे लखन बांधि जितने सब नागा। सो गरुड़ देख तुरत सब भागा।।
अमुक अंग विष निर्विष होइ जाई। आदेश श्रीरामचन्द्र की दुहाई।।
आज्ञा विनतानन्दन की आन।

जब रोगी मरणासन्न हो, तब उक्त राम-सार मंत्र का सात या बारह बार उच्चारण कर झाड़ा देने से रोगी को चेतना आती है। मंत्र में ‘अमुक’ के स्थान पर रोगी का नाम लें।

अण्डवृद्धि रोग तथा सर्प निवारण का मंत्र
ॐ नमो आदेश गुरु को जैसे को लेहु रामचन्द्र कबूत सो सई करहु राध बिनु कबूत पवन सूत हनुमन्त धाऊ हरहर रावन कूट मिरावन श्रवइ अण्ड खेतहि श्रवइ अण्ड अण्ड विहण्ड खेतहि श्रवइ वाँज गर्भहि श्रवइ स्त्री पीलहि श्रवइ शापहर हर जम्बीर हर जम्बीर हर हर हर।

उक्त मंत्र बोलते हुए फूले हुए अंडकोष को हाथ से सहलाने तथा अभिमंत्रित जल रोगी को पिलाने से रोग दूर होता है। इसी मंत्र से अभिमंत्रित मिट्टी का ढेला यदि सांप के बिल पर रखा जाए तो सांप स्वयं ही बाहर निकल आता है।

चूहे भगाने का मंत्र
पीत पीताम्बर मूशा गांधी। ले जाइहु तु हनुवन्त बांधी।
ए हनुमन्त लंका के राऊ। एहि कोणे पैसेहु एहि कोणे जाऊ।।

स्नान करके हल्दी की पांच गांठें व कुछ चावल अभिमंत्रित कर घर या खेत में डालने से चूहे भाग जाते हैं।

देह रक्षा का मंत्र
ॐ नमः वज्र का कोठा जिसमें पिण्ड हमारा पैठा, ईश्वर कुञ्जी ब्रह्मा का ताला मेरे आठों धाम का यती हनुमंत रखवाला।

यह मंत्र 1008 बार जपने से सिद्ध हो जाता है। नित्य एक माला (108 बार) जपने से अभिचार प्रभावहीन होता है।

उक्त मंत्र सिद्ध करने के बाद राख से रोगी स्त्री से झड़वाएं तथा स्वयं मंत्रोच्चारण करें।
स्त्रियों की स्तन-पीड़ा निवारण का मंत्र

ॐ वन में जाई अंजनी जिन जाया हनुमन्त। सज्जा खधा ढांकिया सब हो गया भस्मन्त।।

कांख में होनेवाले फोड़े को झाड़ने का मंत्र
ॐ नमो कखलाई भरी तलाई जहाँ बैठा हनुमन्ता आई। पके न फूटै चले न पीड़ा रक्षा करे हनुमन्त वीर, दुहाई गोरखनाथ की शब्द सांचा पिण्ड काचा फुरो मन्त्र ईश्वरो वाचा। सत्य नाम आदेश गुरु को।

उक्त मंत्र 21 बार पढ़कर झाड़ने व जमीन की मिट्टी लगाने से कांख का फोड़ा ठीक हो जाता है।

धरन बैठाने का मन्त्र
ॐ नमो नाड़ी नाड़ी नौ सौ नाड़ी बहत्तर कोठा चले अगाड़ी डिगे न कोठा चले न नाड़ी। रक्षा करे जती हनुमन्त की आन मेरी भक्ति गुरु की शक्ति फुरो मन्त्र ईश्वरो वाचा।

इसके निवारण के लिए सूत के धागे में नौ गांठें लगाकर प्रत्येक गांठ पर नौ बार उपरोक्त मंत्र फूंकें। फिर उसे छल्ले की तरह बनाकर पीडि़त व्यक्ति की नाभी पर रखें और नौ बार पुनः फूंक मारें। 

ऊपरी हवा शान्ति
ॐ नमो आदेश गुरू का। काली चिड़ी चिड़-चिड़ करे। धौला आवे वाते आवे हरे। यती हनुमान हाँक मारे। मथवाई और बाई जाये भगाई। हवा हरे। गुरू की शक्ति मेरी भक्ति। फुरो मन्त्र ईश्वरोवाचा।

इस मन्त्र का उच्चारण 21 बार कर, मोर पंख से झाड़ा लगाने से ऊपरी दोष की शान्ति होती है।

नकसीर
ॐ नमो आदेश गुरू का। सार सार महासागरे बाँधूं। सात बार फिर बाँधूं। सात बार फिर बाँधूं। तीन बार लोहे की तार बाँधूं। सार बाँधे हनुमन्त वीर। पाके न फूटे। तुरन्त सेखे। आदेश आदेश आदेश।

राख लेकर उपरोक्त मन्त्र 11 बार पढ़ें और नाक का झाड़ा करें।

प्राण रक्षा तथा आरोग्य लाभ हेतु  

यदि व्यक्ति बहुत बीमार, दवा न लगे और प्राणों पर संकट हो तो निम्नलिखित मन्त्र का प्रयोग चमत्कारिक प्रभाव उत्पन्न करता है -

तू है वीर बड़ा हनुमान। लाल लंगोटी मुख में पान। एैर भगावै।
वैर भगावै। आमुक में शक्ति जगावै। रहे इसकी काया दुर्बल।
तो माता अ×जनी की आन। दुहाई गौरा पार्वती की। दुहाई राम की।
दुहाई सीता की। लै इसके पिण्ड की खबर। न रहे इसमें कोई कसर।

इस मन्त्र का 11 बार जाप करें। प्रत्येक जप के बाद रोगी पर फूंक मारें तथा हनुमान जी की मूर्ति के चरण से सिंदूर लेकर तिलक करें। यह मन्त्र महामृत्युञ्जय मन्त्र के समान ही प्रभाव उत्पन्न करता है।

वशीकरण
माता अञ्जनी का हनुमान। मैं मनाऊं। तूँ कहना मान। पूजा दे, सिन्दूर चढ़ाऊँ। अमुक रिझाऊँ। अमुक को पाऊं। यह टीका तेरी शान का। वह आवे, मैं जब लगाऊं। नहीं आवे तो राजा राम की दुहाई। मेरा काम कर। नहीं आवे तो अञ्जनी की सेज पड़।

रक्त चन्दन के तिलक को 11 बार अभिमंत्रित कर लगाएँ। अधिकारी वश में होंगे।