Thursday 4 October 2018

भूकम्प पूर्वानुमान में ज्योतिषशास्त्रीय संभावनाएँ

           वैदिक ऋषियों ने मानवमात्र के कल्याण को अपना परम उद्देश्य मानकर ही ज्योतिष वेदाङ्ग की रचना की। ज्योतिष वेदाङ्ग कालविधान शास्त्र है और अपने इस वैशिष्ट्य को वह समष्टि तथा व्यष्टि दोनों ही धरातल पर समान रूप से उपयोगी बनाए रखने में समर्थ रहा है। त्रिस्कन्ध ज्योतिषशास्त्र के संहिता स्कन्ध में राष्ट्रविषयक फलादेश को सर्वाधिक महत्व देने की परम्परा रही है। प्राकृतिक आपदाओं ने अत्यन्त प्राचीनकाल से ही मानव सभ्यता को क्षति पहुँचाई है। इन आपदाओं को संहिता ज्योतिष में उत्पात की संज्ञा से अभिहित किया गया है। भूकम्प को भौमुत्पात की श्रेणी में रखा गया है। भूकम्प पूर्वानुमान के सन्दर्भ में इन संहिता ग्रन्थों के सन्दर्भ में अत्यन्त विस्तार से चर्चा की गई है। भूकम्प के कारणों पर विस्तृत चर्चा के बाद इन ग्रन्थों में ऐसी ग्रहस्थितियों को स्पष्ट रूप से चिह्नित किया गया है, जिसमें भूकम्प आने की सर्वाधिक संभावना रहती है। वैज्ञानिक विकास के इस युग में आज भी भूकम्प का पूर्वानुमान संभव नहीं हो सका है, वहीं हजारों वर्ष पूर्व की इन रचनाओं के सहयोग से यदि भूकम्प पूर्वानुमान की दिशा में कुछ भी सहायता मिलती है तो मानव मात्र के कल्याण की दिशा में इस शास्त्र के योगदान को मुक्त कण्ठ से सराहने की आवश्यकता है। प्रस्तुत आलेख में भूकम्प के कारणों के पौराणिक तथा आधुनिक कारणों के उल्लेख के उपरान्त भूकम्प पूर्वानुमान की आधुनिक विधियों को संकेतित करने के साथ ही संहिता ज्योतिष के ग्रन्थों में उपलब्ध भूकम्पोत्पत्ति से संबंधित ग्रहयोगों का प्रस्तुतीकरण तथा विश्लेषण किया गया है।
  ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
 सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्।।’’  
वैदिक संस्कृति सर्वदा से ही लोक कल्याण तथा आत्मकल्याण दोनों को ही समान रूप से महत्व देती रही है। वैदिक ऋचाओं में जहाँ ऋषिगण आत्मकल्याण के लिए देवताओं की स्तुति

करते हैं, वहीं समाज, राष्ट्र तथा विश्वकल्याण की भावना से ओत-प्रोत सूक्तों की उपस्थिति उनके सार्वभौमिक कल्याण की उदात्त भावना का सहज ही दिग्दर्शन करा देती है। आज सम्पूर्ण विश्व अनेक प्रकार की समस्याओं से ग्रस्त है, जिसके कारण मानव सभ्यता को जन धन की हानि तो हो ही रही है, साथ ही साथ उसे अपने अस्तित्व पर भी संकट मंडराता हुआ दीख रहा है। इनमें से अधिकांश समस्याएँ तो मनुष्य द्वारा स्वयं ही निर्मित की गई हैं और कुछ समस्याएँ प्राकृतिक हैं । दोनों ही प्रकार की समस्याओं के समाधान तथा इनसे मुक्ति हेतु जब भी कोई सार्थक प्रयास किया जाता है, विद्वत्समाज की आशापूर्ण दृष्टि स्वतः ही वैदिक साहित्य की ओर उठ जाती है।
प्राकृतिक आपदाओं में बाढ, भूकम्प, तूफान, भू-स्खलन, बादलों का फटना, सूनामी, उल्कापात, ज्वालामुखी विस्फोट आदि प्रमुख हैं। इन आपदाओं के कारण प्रतिवर्ष लाखों लोग अकाल ही-मृत्यु को प्राप्त होते हैं तथा संबंधित राष्ट्र को भीषण आर्थिक क्षति भी झेलनी पड़ती है। आज विज्ञान काफी तरक्की कर चुका है और मुख्यधारा के वैज्ञानिक इस तथ्य को स्वीकार भी करते हैं। उपग्रहों आदि के माध्यम से वे सहज ही मौसम का पूर्वानुमान कर लेते हैं और भीषण बारिश, आँधी-तूफान, चक्रवात आदि से होने वाले व्यापक जान-माल की हानि को काफी सीमा तक कम भी कर लेते हैं। इस सन्दर्भ में भारत में आया विनाशकारी तूफान ‘फैलीन’ तथा अमेरिका का ‘कैटरीना’ चक्रवात ध्यातव्य है। ये दोनों ही आपदाएँ काफी विनाशकारी थीं, परन्तु इस संबंध में पूर्वानुमान होने के कारण स्थानीय प्रशासन तथा वहाँ की जनता ने इस विभीषिका में होने वाली मौतों की संख्या को काफी कम कर दिया।
भूकम्प भी एक इसी प्रकार की आपदा है। दुनिया भर में हर साल लगभग पाँच लाख भूकम्प आते हैं। परन्तु हमें केवल कुछ सौ भूकम्पों की ही सूचनाएँ मिल पाती हैं और इनमें से भी कुछ एक भूकम्प ही अत्यन्त शक्तिशाली होते हैं और व्यापक जान-माल की क्षति करने में समर्थ होते हैं।
भूकम्प के कारण(भारतीय मत)-
    भूकम्पोत्पत्ति से संबंधित अनेक सिद्धान्त पुराणों तथा ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में उपलब्ध है, परन्तु इनमें से अधिकांशतः लाक्षणिक हैं।  इसी प्रकार आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी भूकम्पोत्पत्ति से संबंधित कई सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। इन्हें प्राचीन भारतीय मत तथा आधुनिक मत में वर्गीकृत किया जा सकता है।
- जल में रहने वाले विशाल शरीरधारी जीवों का भूमि पर आघात के कारण।
- अष्टदिग्गजों की थकावट तथा शैथिल्य के कारण
- वायु के परस्पर टकराहट के कारण उसका प्रभाव भूमि पर भी पड़ता है।
- आकाश ने उड़ने वाले पर्वतों के कारण
- भूमि के भार से थक कर जब भगवान शेषनाग निःश्वास करते हैं तो भूकम्प होता है।
- मनुष्यों में पापों के आधिक्य और अविनय से ही ये उपद्रव या उत्पात होते हैं।  मनुष्यों के इन पापकर्म तथा अविनय से देवगण अप्रसन्न होते हैं तथा इन उत्पातों को उत्पन्न करते हैं।
आधुनिक मत -
नवीन वैज्ञानिक शोधों के आधार पर सिद्ध हो गया है कि भूकम्प के कारण कुछ      अन्य ही हैं। इनके अनुसार भूकम्प निम्नलिखित कारणों से होता है-
- ज्वालामुखी क्रिया
- विवर्त्तनिक कारण
- समस्थितिक समायोजन
- स्थानीय कारण
- भूपटल सिकुड़न
- प्लेट विवर्तनिकी
- मानवजनित कारक 
                ये भूकम्प अपनी तीव्रता के अनुसार ही विनाशकारी प्रभाव उत्पन्न करते हैं। भूकम्पों की तीव्रता रिक्टर स्केल पर मापी जाती है, जिसका आविष्कार 1935 ई. में चार्ल्स रिक्टर महोदय ने किया था। आधुनिक वैज्ञानिक भूकम्प पूर्वानुमान के लिए भूगर्भीय सर्वेक्षण का आश्रय लेते हैं। परन्तु यह विधि संतोषजनक फल देने में सक्षम नहीं है।

भूकम्प पूर्वानुमान के क्षेत्र में ज्योतिषशास्त्रीय संभावनाएँ-

                      जहाँ तक ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों का प्रश्न है इन ग्रन्थों में भूकम्प के कारणों की अपेक्षा भूकम्प के पूर्वानुमान के सम्बन्ध में अधिक चर्चा की गई है। संहिता ज्योतिष के आधार पर भूकम्प का दीर्घकालिक, मध्य कालिक तथा अल्पकालिक  पुर्वानुमान संभव है। ग्रहचार अध्यायों में यथा भौमचार, शनिचार, राहु चार, ग्रहणाध्याय आदि में विभिन्न ग्रहस्थितियों की अत्यन्त विस्तृत चर्चा की गई है जो संभावित भूकम्प के द्योतक माने गए हैं। शकुन शास्त्र के विभिन्न ग्रन्थों यथा वसन्तराज शाकुन में भी इस सन्दर्भ में चर्चा की गई है। भूकम्प से पूर्व पशुपक्षियों के व्यवहार में आने वाले परिवर्तनों को भी भूकम्प पूर्वानुमान की सहायक सामग्री के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में भूकम्प की गणना उत्पातों में की गई है। ये उत्पात हैं  * दिव्य उत्पात,
* अन्तरिक्ष उत्पात
* भूमि उत्पात
   भूकम्प भौमुत्पात है-   '
        'उत्पद्यते क्षितौ यच्च स्थावर वाथ जङ्गमम्।
             तदेकदेशिकं भौममुत्पातं परिकीर्तितम्।।'  
  भूकम्प स्थान को कम्पित कर अपने स्थान से हटा देता है। भूमि कम्पित हो तो भूकम्प कहा जाता है तथा इसके कारण देश भङ्ग अर्थात् राज्य परिवर्तन अथवा युद्धादि के कारण देश का नाश आदि दुर्योग बनते हैं।  इसका कारण-अधर्म, असत्य, नास्तिकता, अतिलोभ मनुष्यों के अनाचार को माना गया है।  भूकम्प की गणना दोषों में की गई है।
भूकम्प पूर्वानुमान की दृष्टि से नक्षत्र चक्र का विभाजन-
           भूकम्प विज्ञान के दृष्टिकोण से सम्पूर्ण नक्षत्र चक्र को चार विभागों वायव्य मण्डल, अग्नि मण्डल, इन्द्र मण्डल और वरूण मण्डल में विभाजित किया गया है।
                      
* वायव्य मण्डल - अश्विनी, मृगशीर्ष, पुनर्वसु,उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्र, स्वाती
* अग्नि मण्डल - पुष्य, विशाखा, भरणी, मधा, पूर्वा फाल्गुनी, कृतिका, पूर्वाभाद्रपदा
* इन्द्र मण्डल- अभिजित, रोहिणी, उत्तराषाढ़ा, ज्येष्ठा, धनिष्ठा, श्रवण अनुराधा
* वरूण मण्डल - मूल, उत्तराभाद्रपदा, शतभिषा, रवेती, आर्द्रा, आश्लेषा, पूर्वाषाढा
भूकम्प के ज्योतिषशास्त्रीय योग-
   भूकम्प पूर्वानुमान के सन्दर्भ में संहिता ग्रन्थों के सन्दर्भ में अत्यन्त विस्तार से चर्चा की गई है। इन ग्रन्थों में ऐसी ग्रहस्थितियों को स्पष्ट रूप से चिह्नित किया गया है, जिसमें भूकम्प आने की सर्वाधिक संभावना रहती है-
* राहु से मंगल सातवें हो, मंगल से बुध पांचवें हो, चन्द्रमा बुध से चौथे हो अथवा केन्द्र में कहीं भी हो तो भूकम्प योग बनता है।
* यदि मंगल पूर्वा-फाल्गुनी नक्षत्र में उदय करता है अथवा उत्तराषाढा नक्षत्र में वक्री होता है तथा रोहिणी नक्षत्र में अस्त होता है तो सम्पूर्ण पृथिवी मण्डल का भ्रमण अथवा भूकम्प होता है।
* यदि मंगल मघा एवं रोहिणी नक्षत्र के योगतारा का भेदन करता है तो भूकम्प होता है। 
* विजय संवत्सर में भूकम्प के योग बनते है। 
* धनु राशि में बृहस्पति के जाने पर भूकम्प आता है। 
* सभी ग्रहों की युति एक ही राशियों में हो।
* शनि मंगल तथा राहु केन्द्र, 2/12 या 6/8 में हों।
* शनि जब मीन राशि में हो तो भी भूकम्प होते हैं। 
* वृष तथा वृश्चिक राशि का भूकम्प से विशेष सम्बन्ध दृष्टिगत होता है। गुरू, शनि, हर्षल तथा नेपच्यून स्थिर राशि में हाें, विशेषकर वृष तथा वृश्चिक राशियों में।
* ग्रहणकालीन राशि से चतुर्थ राशि यदि स्थिर राशि हो और उसमें कोई क्रूर ग्रह अवस्थित हो।
* गुरू वृष या वृश्चिक राशि में हों, तथा बुध के साथ युति कर रहा हो अथवा समसप्तम में हो।
* राहु मंगल से सप्तम में, बुध मंगल से पञ्चम में, तथा चन्द्रमा बुध से केन्द्र में हो।
* मन्दगति ग्रह यदि एक दूसरे से केन्द्र, षष्ठाष्टक, अथवा त्रिकोण भावों में हो, अथवा युति सम्बन्ध बना रहा हो।
* चन्द्रमा तथा बुध की युति हो एवं दूसरे की राशि या क्षेत्र में हो अथवा एक ही ग्रह के नक्षत्र में हों।
* सूर्य के सतह पर आनेवाले ज्वार-भाटीय आवेगों का आधिक्य भी भूकम्प की संभावना उत्पन्न करता है।
* सूर्य की सतह पर दिखने वाले धब्बों में होने वाले विशिष्ट परिवर्तन भी भूकम्प का संकेत देते हैं।
* कोई मन्दगति ग्रह वक्री से मार्गी हो रहा हो अथवा मार्गी से वक्री, यह कालावधि भूकम्प की दृष्टि से अत्यधिक संवेदनशील मानी गई है।
* भूकम्प प्रायः ग्रहण के आस-पास ,सूर्योदय अथवा सूर्यास्त, अर्धदिवस या अर्धरात्रि ,पूर्णिमा अथवा अमावस्या के समीपस्थ तिथियों को आता है।
शकुनशास्त्र द्वारा भूकम्प का पूर्वानुमान-
         ज्योतिषशास्त्र की शकुन शाखा के द्वारा भी भूकम्प का पूर्वानुमान किया जा सकता है। प्रायः देखा गया है कि भूकम्प से ठीक पूर्व पशु पक्षियों के व्यवहार में काफी परिवर्तन आ जाता है।  अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील पक्षी यथा-काक, कबूतर, चील आदि का व्यवहार बदल जाता है। ये समूह में शोर करते हुए उड़ने लगते हैं। कुत्ते तथा गाय आदि भी उच्च स्वर में बोलने लगते हैं। श्वानों का रूदन तथा गौवंश के व्यवहार पर सूक्ष्म दृष्टिपात द्वारा उत्पातों का पूर्वानुमान कर सकते हैं। आधुनिक मुख्य धारा के वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है कि जापान के समुद्री तट पर आए सुनामी से ठीक पहले वहाँ पाए जाने वाले डाल्फिन तथा शार्क मछलियों के व्यवहार में काफी परिवर्तन आ गया था।
भूकम्प के प्रभाव का विस्तार- 
           प्राचीन मतानुसार शुभाशुभ फल के निमित्त ही वायु, अग्नि, इन्द्र तथा वरूण दिन तथा रात के क्रम से प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ भाग में भूमि को कम्पित करते हैं। वायव्य मण्डल का भूकम्प दो सौ योजन, अग्निमण्डल का भूकम्प दश योजना, वारूण मण्डल का भूकम्प एक सौ अस्सी योजना तथा ऐन्द्र मण्डल का भूकम्प आठ योजन से अधिक भूमि को कम्पायमान करता है।  इन चारों मण्डलों में से किसी भी नक्षत्र में भूकम्प आने की संभावना हो तो सात दिन पूर्व ही कई लक्षण उत्पन्न होते हैं,  जिन्हें देखकर भूकम्प का पूर्वानुमान किया जा सकता है।
* वायव्य मण्डल - सौराष्ट्र, कुरू, मगध, दशार्ण, मत्स्य देश इस भूकम्प से प्रभावित होते हैं।भूकम्प से पूर्व इन राष्ट्रों के आकाश में चारों ओर धूम व्याप्त होता है, पृथिवी से धूलि उड़ती है, वृक्षों को तोड़ती हुई हवा चलती है और सूर्य की किरणें मन्द हो जाती हैं।
* अग्नि मण्डल - अङ्ग, बाह्लीक, तङ्गण, कलिङ्ग, वङ्ग, द्रविण व शबर राष्ट्र पर इस भूकम्प का प्रभाव होता है।दिग्दाह के साथ तारा तथा उल्का के गिरने से आकाश अग्नियुक्त हो जाता है तथा वायु की सहायता से अग्नि विचरण करती है।
*वारूण मण्डल - गोनर्द, चेदी, कुकुर, किरात, वैदेह क्षेत्र पर इस भूकम्प का विशेष प्रभाव होता है।भूकम्प पूर्व लक्षणों में समुद्र और नदी के तट पर रहने वालों का नाश, अतिवृष्टि का भय आदि प्रमुख हैं।
* ऐन्द्र मण्डल - काशी, युगन्धर, पौरव, किरात, कीर, अभिसार, हल, मद्र, अर्बुद, सुराष्ट्र, मालव राष्ट्रों में ये भूकम्प अपनी विभीषिका उत्पन्न करते हैं। पर्वत के समान शरीर वाले, गम्भीर शब्द युक्त, विद्युत युक्त, महिषश्रृङ्ग, भ्रमरकुल तथा सर्पो के समान कान्तिवाले मेघ भूकम्प से पूर्व भीषण वर्षा करते हैं।
                    इन भूकम्पों का पूर्वानुमान आधुनिक वैज्ञानिक विधियों द्वारा सम्भव नहीं है। अतः आवश्यक है कि प्राचीन भारतीय भूकम्प विज्ञान का आश्रय लेकर इसके पूर्वानुमान की दिशा में प्रवृत होना चाहिए।


No comments:

Post a Comment