Saturday, 17 November 2018

ज्योतिष वेदाङ्ग और तिलक

         

         


प्राचीनतम साहित्य होने के साथ-साथ समस्त ज्ञान-विज्ञान के मूल स्रोत के रूप में वेदों को महती प्रतिष्ठा प्राप्त है। इष्ट प्राप्ति और अनिष्ट का परिहार ही वेदों का मूल उद्देश्य है। ये वेद भाषा शास्त्र तथा अपनी विचार शैली के कारण अत्यन्त ही गूढार्थ युक्त और दुर्बोध हैं। इन प्राचीनतम रचनाओं की दुरूहता के कारण ही परवर्ती काल में वेदाङ्ग शास्त्र अस्तित्व में आए। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्योतिष संज्ञक वेदाङ्ग संख्या में छः हैं। इन्हें विद्वानों द्वारा इतना महत्वपूर्ण माना गया है कि ये वेदाङ्ग वेदपुरुष के विभिन्न अङ्गों के रूप में परिकल्पित हुए। विद्वानों द्वारा ज्योतिष वेदाङ्ग को वेदपुरुष का नेत्र कहा गया। इस वेदाङ्ग का मूल उद्देश्य यज्ञादि वैदिक कर्मों के लिए शुभाशुभ काल का निर्धारण ही था। वेद, ब्राह्मण आदि समस्त ग्रन्थ यज्ञमूलक माने गए हैं, अतः यज्ञों का महत्त्व स्वतःसिद्ध है। इन महत्वपूर्ण यज्ञ क्रियाविधि हेतु उचित समय का निर्धारण करने में सक्षम होने के कारण ज्योतिष वेदाङ्ग भी अत्यधिक महत्वपूर्ण सिद्ध होते हैं। 


प्रत्येक वेदाङ्ग का कोई न कोई प्रतिनिधि ग्रन्थ अवश्य है। ज्योतिष वेदाङ्ग के प्रतिनिधि ग्रन्थ के रूप में ऋग्वेद का ऋक् ज्योतिष, यजुर्वेद का याजुष् ज्योतिष तथा अथर्वेद का अथर्वण ज्योतिष स्वीकृत हैं। ऋक् ज्योतिष का सम्बन्ध ऋग्वेद से माना गया है जबकि यजुर्वेद से सम्बन्धित ज्योतिष वेदाङ्ग ‘याजुष-ज्योतिष’ है। अथर्ववेद का ज्योतिष वेदाङ्ग ‘अथर्वण-ज्योतिष’ संज्ञा से जाना जाता है। ज्योतिष-वेदाङ्ग से सम्बन्धित होने के कारण इन ग्रन्थों में यज्ञों के निर्धारण हेतु शुभाशुभ काल का निर्धारण किया गया है। अपने विषय-वैशिष्ट्य तथा प्रतिपाद्य विषय-वस्तु के साम्य के कारण ऋक् ज्योतिष तथा याजुष् ज्योतिष को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है, जबकि विषयों की विभिन्नता के कारण आथर्वण ज्योतिष अधिक नवीन रचना सिद्ध होती है। ऋक् ज्योतिष में 36 लोक हैं, जबकि ‘याजुष् ज्योतिष में 44 श्लोक प्राप्त होते हैं। दोनों ही ग्रन्थों के श्लोकों में पर्याप्त साम्य है, हाँ इतना अवश्य है कि इनमें क्रमभेद अवश्य है। कुछ श्लोकों में शब्दभेद भी प्राप्त होता है, परन्तु इतना नहीं कि उनके अर्थों में पर्याप्त अन्तर हो सके। ऋक्-ज्योतिष के 7 श्लोक याजुष् ज्योतिष में प्राप्त नहीं होते तथा याजुष् ज्योतिष के 14 श्लोक ऋक् ज्योतिष में प्राप्त नहीं होते। इन रचनाओं के अत्यधिक प्राचीन होने के कारण इनकी भाषा संक्षिप्त तथा किञ्चित् अस्पष्ट है, जिसके कारण इनका अर्थ लगाने में ज्योतिषशास्त्र के जिज्ञासुओं को काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इस ग्रन्थ के रचनाकार महर्षि लगध हैं। ऐसा भी सम्भव है कि महर्षि लगध द्वारा प्रणीत ज्योतिषशास्त्रीय सिद्धांतों का किसी अन्य लेखक द्वारा प्रस्तुतीकरण मात्र किया गया हो। कुछ विद्वान तो इस ग्रन्थ के कर्त्ता के रूप में ‘शुचि’ का ही उल्लेख करते हैं।

 वेदों के समान ही ‘वेदाङ्ग-ज्योतिष’ के श्लोकों का अर्थ लगाने में अत्यधिक प्रयास करना पड़ा है। इस ग्रन्थ पर सोमाकर कृत भाष्य भी कुछ सीमा तक अस्पष्ट ही है। वेबर, कोलब्रूक, याकोबी, बर्गेस, बौटले, हिृट्ने, शंकर बालकृष्ण दीक्षित, छोटेलाल बार्हस्पत्य, सुधाकर द्विवेदी, बालगंगाधर तिलक, डॉ. शामशास्त्री, गोरखप्रसाद तथा कीथ आदि विद्वानों ने समय-समय पर इस ग्रन्थ के विभिन्न श्लोकों का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयास किया है।  इन सराहनीय प्रयासों के बाद भी इस ग्रन्थ के कई श्लोक अभी तक अस्पष्ट तथा विवादास्पद बने हुए हैं। थीबो ने इसके 1-10, 18, 21, 24, 28, 30-40 श्लोकों की बड़ी ही स्पष्ट व्याख्या की है, परन्तु इन श्लोकों के अतिरिक्त श्लोकों को अस्पष्ट घोषित कर दिया है। उसके बाद अनेक विद्वानों ने इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया, किन्तु पूरी सफलता नहीं मिल सकी। डॉ. शामशास्त्री ने वेदाङ्ग ज्योतिष के श्लोकों को सूर्य-प्रज्ञप्ति, ज्योतिष करण्ड तथा काल लोक प्रकाश जैसे जैन ज्योतिष ग्रन्थों की सहातया से स्पष्ट करने का श्लाघनीय प्रयास किया है। 

इसी क्रम में प्रसिद्ध देशभक्त तथा स्वतन्त्रता सेनानी पण्डित बालगङ्गाधर तिलक ने - Vedic chronology and vedang jyotish के नाम से 1914 ई. में बर्मा की मंडाले जेल में कारावास के समय इस ग्रन्थ के लगभग 12 से 14 पद्यों की व्याख्या की। जिसके इन्हेांने आर्च तथा याजुष् ज्योतिष के पाठों को स्मरण शक्ति के आधार पर व्याख्यायित किया। इस कार्य का प्रकाशन उनके मरणोपरान्त पूना शहर से 1925 ई. में हुआ।
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने अपने इस प्रयास में ऋक् ज्योतिष तथा याजुष् ज्योतिष दोनों के ही कई मन्त्रों के अर्थों को स्पष्ट किया है। इनमें से ऋक् ज्योतिष के श्लोक संख्या 10, 11, 12, 13, 21, 19 का अर्थ इन्होंने बड़े ही विस्तार पूर्वक स्पष्ट किया है। इसी प्रकार वेदाङ्ग ज्योतिष के अन्य महत्वपूर्ण संस्करण जो कि यजुर्वेद से सम्बन्धित है अर्थात् याजुष् ज्योतिष का श्लोक संख्या 15, 19, 27, 21, 20, 25, 26, 12, 14 का भी इन्होंने बडे़ ही मनोयोग और विद्वतापूर्ण शैली से अर्थों को स्पष्ट किया है। ये समस्त श्लोक चन्द्रनक्षत्र आनयन्, नक्षत्र गत पदों का विवेचन, पर्व समाप्त होने का अंश , पर्वमांश की कलाओं की आनयन विधि, इष्ट तिथि में सूर्य नक्षत्र के आनयन की विधि, नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य का प्रवेश दिन के किस भाग में हुआ, आदि विषय से सम्बन्धित हैं। ये वे श्लोक हैं जिनकी व्याख्या तथा अर्थ को लेकर प्रबल मतभेद हैं। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने इन श्लोकों का अर्थ स्पष्ट करने का श्लाघनीय प्रयास किया है। महाराष्ट्र राज्य के रतनिगिरि नामक स्थान में 23 जुलाई 1856 को जन्म लेने वाले लोकमान्य तिलक ने 1913 ई. में मण्डाले जेल में इस विषय पर अपनी विद्वत्तापूर्ण लेखनी चलाई यद्यपि इनका यह प्रयास पूर्णरूपेण स्मृति पर आधारित या तथापि उनका यह स्तुत्य प्रयास आज भी विद्वत समाज में प्रतिष्ठित है।

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर सर ये हमारे लिए काफी ज्ञानवर्धक रहा

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