Thursday 13 September 2018

विविध वैवाहिक समस्याएँ एवं ज्योतिषशास्त्रीय निदान

       स्त्री तथा पुरूष के मध्य का आकर्षण, प्रेम, स्नेह तथा रागात्मक सम्बन्ध सृष्टि के आरम्भ से लेकर आज तक विद्यमान है। इसी रागात्मक आकर्षण को विवाह नामक संस्था के उदय का कारण माना जाता रहा है। स्त्री-पुरूष के मध्य संपर्क तथा शारीरिक निकटता तो आदि काल से ही अस्तित्व में था, परन्तु इस  संबध को मर्यादित रखना ही विवाह का मूल उद्देश्य है। जहां आरम्भ में विवाह हेतु कोई आयु सीमा नहीं थी, वहीं कालान्तर में विवाह के लिए स्त्री तथा पुरूष की आयु का निर्धारण किया गया। यह निर्धारण राजकीय या शासकीय न होकर सामाजिक था। वैवाहिक आयु-सीमा का यह सामाजिक निर्धारण आज भी देखा जा सकता है। क्षेत्र-जाति-समूह आदि के आधार पर इसमें विविधता भी है। प्रत्येक माता-पिता अपनी संतति के विवाह के विषय में काफी सजग रहते हैं। परन्तु काफी प्रयास के बाद भी जब सभी योग्यताओं से पूर्ण पुत्र अथवा पुत्री के विवाह की संभावना क्षीण होने लगती है, तब उस अभिभावक तथा उनकी संतति को होने वाली पीड़ा का अनुमान लगा पाना भी दुष्कर होता है। जबकि कुछ परिस्थितियों में यह देखा गया है कि विवाह तो बड़ी शीघ्रतापूर्वक और सहजता से हो गया, परन्तु विवाह के बाद नवविवाहित दम्पत्ति का जीवन कष्टप्रद तथा कलहपूर्ण हो जाता है। विवाह से जुड़ी इन समस्त समस्याओं को हम वैवाहिक विलम्ब, विवाह प्रतिबन्ध, वैवाहिक कलह, तलाक, वैधव्य-विधुरता आदि में विभाजित कर सकते हैं। मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन ग्रह-योगों से ही निर्धारित होता है, अतः इन दुःखद तथा कष्टप्रद परिस्थितियों के लिए भी विभिन्न ग्रहयोगों को ही उत्तरदायी मानना होगा। संतोष का विषय यह है कि इन समस्याओं के ज्योतिषीय समाधान (वैदिक, तांत्रिक, मंत्र, यंत्र, व्रत, रूद्राक्ष, रत्न, लाल किताब के उपाय, घरेलू टोटके) भी उपलब्ध हैं। किसी भी समस्या से मुक्ति के लिए यह आवश्यक है कि समस्या के मूल कारण को समझा जाय और फिर उसे दूर करने के उपाय किए जाएँ। इस सन्दर्भ में भी हमें इसी प्रक्रिया का आश्रय लेना होगा। विवाह से जुड़ी अलग-अलग समस्याओं के लिए विभिन्न ग्रहस्थितियाँ या ग्रहयोग उत्तरदायी होते हैं। अतः आवश्यक यह है कि पहले इन समस्याओं के कारणों का अन्वेषण किया जाय और फिर उनसे मुक्ति के उपायों पर दृष्टिपात किया जाय।

वैवाहिक विलम्ब के लिए उत्तरदायी ज्योतिषीय ग्रहयोग- जन्मपत्रिका के विभिन्न भावों के साथ-साथ, भावों के आधिपति ग्रह तथा उनका अन्य ग्रहों के साथ सम्बन्ध आदि कारक ही इस समस्या के जनक माने जा सकते हैं। कुछ ऐसे ही ग्रहयोग निम्नलिखित हैं-
* जन्मांग में मंगलीक दोष की उपस्थिति। अर्थात् लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश भाव में मंगल हो।
* सप्तम भाव अथवा सप्तमेश से शनि का सम्बन्ध हो।
* सूर्य लग्न अथवा सप्तम भाव में हो।
ऽ जन्मांग में कालसर्पयोग की उपस्थिति विवाह में पर्याप्त विलम्ब का कारण बनती है।
* शुक्र द्वितीय भाव में हो तथा द्वितीयेश मंगल के प्रभाव में हो।
* शनि सूर्य के साथ युति या दृष्टि सम्बन्ध बना रहा हो।
* शनि यदि उच्चस्थ हो पर लग्नेश या योगकारक न हो।
* मंगल तथा शुक्र साथ हो तथा इस पर शनि की दृष्टि हो।
* शुक्र चतुर्थ भाव में हो तथा बुध षष्ठस्थ हो।
* सूर्य तथा शनि सम सप्तक में हों।
* नवमेश तृतीय भाव में हो तथा सप्तमेश नवम भाव में हो।
* चन्द्र तथा शुक्र एक साथ हों अथवा परस्पर सप्तम भाव में हों।
* शनि वक्री हो तथा चतुर्थेश अथवा सप्तमेश होकर पाप प्रभाव में हो।
* वक्री शनि का प्रभाव द्वितीय भाव, द्वितीयेश, सप्तम भाव अथवा सप्तमेश पर हो।
* सूर्य शुक्र की राशियों (वृष, तुला) में हो तथा शुक्र सिंह राशि में हो।
* चन्द्रमा और शनि एक दूसरे की राशियों या समसप्तक में हों।
* सप्तम भाव में कर्क राशि हो और वहां शनि और चन्द्र के मध्य युति सम्बन्ध हो।
* शनि एवं मंगल एक दूसरे को पूर्ण दृष्टि से देख रहे हों अथवा उनमें राशि विनिमय हों।
* सप्तमेश वक्री होकर द्वितीय भावस्थ हो तथा शनि से दृष्ट हो।
* अष्टम भाव की नवांश राशि सप्तम भाव में हो और लग्न नवांश राशि में शुक्र हो।
* शुक्र पंचम भाव में हो और चतुर्थ भाव में राहु हो।
* राहु तथा केतु क्रमशः लग्न-सप्तम, द्वितीय-अष्टम अथवा पंचम-एकादश भाव में हो।
* सप्तम भाव पर वक्री ग्रहों का प्रभाव हो।
* जन्मलग्न तथा नवांश दोनों में ही बृहस्पति शनि से दृष्ट हो।
* बृहस्पति यदि शनि की राशियों में हो, विशेष रूप से कुंभ में।
* शुक्र तथा सप्तमेश पर शनि दृष्टिपात कर रहा हो।

विवाह प्रतिबन्धक योग- ज्योतिषशास्त्र के विभिन्न ग्रन्थों में ऐसे ग्रहयोगों के भी वर्णन मिल जाते हैं, जिनके कारण जातक अथवा जातिका का विवाह आजीवन नहीं हो पाता है। कुछ ऐसे ही ग्रहयोग द्रष्टव्य हैं-
* शनि तथा सूर्य, लग्न या सप्तम भाव में स्थित हों तथा इन दोनों ग्रहों के अंश भी समान हों।
* शनि तथा सूर्य का शुक्र के साथ युति संबंध हो अथवा शुक्र पर शनि तथा सूर्य दृष्टिपात कर रहे हों।
* द्वितीय, सप्तम तथा द्वादश भाव पाप पीडि़त हों।
* शनि लाभेश हाें तथा वक्री होकर सप्तम अथवा नवम भाव में स्थित हों।
* चन्द्र व शुक्र एक ही राशि में हो तथा इन ग्रहों पर शनि तथा मंगल की दृष्टि हो।
* शनि सूर्य की राशि में हों तथा सूर्य शनि की राशियों में हो।
* शुक्र सिंह या तुला राशि में हों तथा इसके द्वितीय तथा द्वादश भाव में शनि हो।
* सूर्य और शुक्र के मध्य 43 अंश तथा 20 कला से अधिक का अन्तर हो।
* द्वितीयेश, नवमेश, चतुर्थेश और सप्तमे में से जितने अधिक ग्रह बन्ध्या राशियों (मिथुन, सिंह, कन्या) में हों, विवाह की संभावना उतनी ही क्षीण होती जाती है।
* चन्द्रमा और शुक्र यदि एक दूसरे की राशि में स्थित हों, साथ ही पाप प्रभाव से युक्त हो, विशेष रूप से राहु तथा केतु।
* चन्द्रमा अथवा शुक्र यदि सप्तम अथवा लग्न भाव के अधिपति होकर बन्ध्या राशियों में स्थित हों।
* मंगल और शनि समान अंशों में हों और ये लग्नेश तथा सप्तमेश में भी हो।
कलहपूर्ण वैवाहिक जीवन- कुछ घटनाओं में देखा गया है कि विवाह के कुछ समय बाद ही पति पत्नी के मध्य लड़ाई-झगड़े, वैमनस्य आदि की अधिकता हो जाती है। वैसे कुछ सीमा तक यह सामान्य घटना ही है, परन्तु जब इस प्रकार के घटनाओं की पुनरावृत्ति होने लगती है तो दोनों का जीवन नरक के समान हो जाता है। कुछ ऐसे ही ग्रहयोग सूचीबद्ध किए जा रहे हैं-
* सप्तम में मंगल की राशि हो तथा मंगल का संबंध केतु से बन रहा हो तो दम्पत्ति कलहपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं।
* मंगल यदि पृथिवी तत्व राशियों (वृष, कन्या, मकर) में हो।
* सप्तमस्थ मंगल पर शनि या राहु का प्रभाव हो।
* जन्मांग में गुरू वक्री हों साथ ही वक्री शनि के साथ कोई संबंध भी हो।
* लग्न में एक शुभ तथा एक अशुभ ग्रह हों।
* मंगल के साथ शनि लग्न, सप्तम, अष्टम या दशम स्थान में हों।
* लग्न में सिंह राशि हो तथा शनि सप्तमेश होकर द्वितीय भाव में स्थित हों।
* पंचमेश सप्तम भाव में तथा सप्तमेश पाप प्रभाव में हों तो पति-पत्नी एक दूसरे पर शक करते हैं।
* सप्तम भाव में सूर्य तथा राहु स्थित हों।
* सप्तम भाव में सूर्य तथा मंगल एक साथ हों।
* सप्तम भाव का आधिपति पंचम भाव में हों तथा सप्तमेश व पंचमेश पाप प्रभाव में हो तो जातक की स्त्री बहुधा अपने पिता के पास ही रहती है।
* सप्तमेश निर्बल हो तथा एकादश भाव का स्वामी सप्तम भाव में पाप ग्रहों के प्रभाव में हो।
* क्रूर ग्रह षष्ठेश होकर सप्तम भाव में हों तो ऐसे जातक की पत्नी झगड़ालू स्वभाव की होती है।
* शुक्र आर्द्रा, मूल, ज्येष्ठा अथवा कृत्तिका नक्षत्र में हों।
* राहु का बुध के साथ सम्बन्ध हो।
* यदि स्त्री के जन्मांग में नवमेश अथवा दशमेश नीच राशि में हो अथवा शत्रु राशियों में हो तो सास, ननद आदि से कष्ट।
* बृहस्पति राहु के साथ हो तो स्त्री से अलगाव।
* सप्तम भाव में शनि हो तो स्त्री झगड़ालू होती है।
* सप्तमेश पाप ग्रहों के नवांश में हो।
* सप्तमेश क्रूर षष्ठ्यंश में हो।
* चन्द्रमा सप्तमेश हो और पाप ग्रह के नवांश या पाप प्रभाव में हो।
* शनि, मंगल और राहु यदि सप्तम भाव में स्थित हो तो प्रेतजन्य पीड़ा के कारण वैवाहिक जीवन का विनाश हो जाता है।


वैवाहिक पार्थक्य (तलाक)- कुछ ग्रहस्थितियों के कारण पति-पत्नी आपसी सहमति से अलग हो जाते हैं अथवा कानूनन तलाक ले लेते हैं। ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करने वाले ग्रहयोग निम्नलिखित हैं-
* सप्तमेश द्वादश भाव में द्वादशेश के साथ हो।
* द्वादशेश सप्तम भाव में सप्तमेश के साथ हो।
* द्वादशेश व सप्तमेश पंचम भाव में हो तथा पंचमेश का सम्बन्ध राहु तथा केतु के साथ हो।
* राहु और शनि लग्न या सप्तम भाव में एक साथ स्थित हों।
* अकेला सप्तमस्थ सूर्य भी वैवाहिक पार्थक्य कराने में सक्षम है।
* षष्ठेश अष्टम भाव में हो तथा सप्तमेश षष्ठ भाव में हो।
* सूर्य व चन्द्र एक साथ सप्तम भाव में हो।
* सूर्य, शुक्र व बुध एक साथ चतुर्थ भाव में हो तो पति-पत्नी अलग रहते हैं।
* अष्टम भाव में कोई भी शुभ ग्रह शनि या मंगल की राशि में हो।
* शुक्र व मंगल के मध्य राशि या नवांश परिवर्तन हो।
* सप्तमेश द्वादश भाव में हो तथा राहु लग्नस्थ हो।
* शुक्र बुध के साथ अष्टम भाव में हो।
* लग्नेश व सप्तमेश की द्वि-द्वादश स्थिति हो।
* शुक्र यदि आर्द्रा, मूल, कृत्तिका अथवा ज्येष्ठा नक्षत्र में हो।
वैधव्य/विधुर योग- जन्मांग में उपस्थित कुछ ग्रहयोग के कारण जीवन साथी की मृत्यु भी हो सकती है। कुछ ऐसे ही योग-
* शुक्र से चतुर्थ या अष्टम भाव पाप प्रभाव में हो तो जातक अपनी पत्नी को जलाकर मार देता है।
* द्वादश भाव में चन्द्रमा और सप्तम भाव में शुक्र स्थित हो तो भी जातक अपनी पत्नी की हत्या कर देता है।
* पाप ग्रहों के मध्य यदि शुक्र स्थित हो तो जातक की पत्नी की मृत्यु ऊँचाई से गिरकर होती है।
* पाप ग्रहों के मध्यस्थ शुक्र यदि अष्टम भावगत हो अथवा चतुर्थ भावगत हो तो जातक के पत्नी की मृत्यु फाँसी से होती है।
* ऐसा शुक्र यदि शुभ ग्रहों से युत अथवा दृष्ट न हो तो भी पत्नी का निधन फाँसी से होता है।
* पंचमेश सप्तमभाव में स्थित हो, सप्तमेश पाप ग्रहों से युत हो तथा शुक्र निर्बल हो तो गर्भ के कारण स्त्री की मृत्यु होती है।
* 'सारावली' के अनुसार अष्टमस्थ क्रूर ग्रह वैधव्य देते हैं।
* शुक्र नीच राशिस्थ हो या फिर चन्द्रमा नीच राशि में स्थित हो तो जातक की पत्नी की मृत्यु जल में डूूबने से होती है।
* यदि सप्तमेश पाप द्रेष्काण, भुजंग द्रेष्काण में हो पत्नी की मृत्यु फाँसी लगाकर होती है।
* सप्तमेश राहु तथा मान्दि के साथ हो तो पत्नी की मृत्यु विषभक्षण से होती है।
* यदि सप्तमेश शनि एवं मंगल के साथ हो अथवा क्रूर षष्ट्यंश में हो तो स्त्री की मृत्यु।
* यदि सप्तम भाव तथा सप्तमेश पाप ग्रहों के मध्य हों तो पत्नी का मरण होता है।
* सप्तमेश तथा बुध दोनों पापग्रहों के साथ नीच राशि, शत्रुक्षेत्री या अस्त होकर आठवें या बारहवें भाव में हो या पाप प्रभाव में हो तो ऐसी कन्या पति को मारने वाली होती है।
* सप्तमेश यदि अष्टम भाव में हो तो जीवनसाथी की मृत्यु होती है।
* चन्द्र से षष्ठ भाव में शनि, सातवें में राहु तथा आठवें में मंगल हो तो भी जीवनसाथी का मरण।
* सप्तमेश तथा अष्टमेश में युति सम्बन्ध हो तथा ये पाप प्रभाव में भी हों।
* दो या तीन पापग्रहों के साथ मंगल अष्टम भाव में हों।
* सप्तमेश बुध यदि नीचस्थ तथा पापप्रभाव में आकर अष्टम भाव में स्थित हो तो स्त्री पति की हत्या करने वाली होती है।
* षष्ठेश एवं अष्टमेश पापग्रहों के साथ षष्ठ या अष्टम स्थान में हों, तो युवावस्था में ही वैधव्य।
* सप्तमेश एवं द्वितीयेश राहु या केतु के साथ स्थित हों तथा शनि से दृष्ट हों तो पत्नी की मृत्यु शीघ्र।

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