Tuesday 20 November 2018

पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्र कितना पाश्चात्य और कितना भारतीय ??


विश्व की प्राचीनतम साहित्यिक रचना के रूप में ऋग्वेद को प्रतिष्ठा प्राप्त है। न केवल प्राचीनता की दृष्टि से अपितु अपने विषय-वैशिष्ट्य की अद्वितीय प्रतिभा के कारण इसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। भारतीय मनीषियों का यह दृढ़ विश्वास है कि विश्व का समस्त ज्ञान-विज्ञान किसी न किसी रूप में ऋग्वेद में अवश्य उपलब्ध है, चाहे वह बीज रूप में हो अथवा विकसित रूप में। ‘सामुद्रिकशास्त्र’ तथा उसका आनुषांगिक क्षेत्र ‘हस्तरेखाशास्त्र’ भी इस दृष्टिकोण से अछूता नहीं है। वर्त्तमान परिदृश्य में सामुद्रिकशास्त्र को पञ्चस्कन्धात्मक ज्योतिषशास्त्र का एक अङ्ग माना गया है। ज्योतिषशास्त्र की गणना षड्वेदाङ्गों के अन्तर्गत की गई है।1 स्पष्ट है कि वेदपुरुष के अङ्गों में से नेत्र के रूप में ज्योतिषशास्त्र की परिगणना की गई है और इसका श्रेष्ठत्व प्रतिपादित करते हुए कहा गया है।2 

वैदिक साहित्य के आरम्भिक काल में ज्योतिषशास्त्र का मूल उद्देश्य यज्ञादि विधियों के लिए कालनिर्धारण मात्र ही था और यही कारण है कि इसे कालविधानशास्त्र कहा जाता है।3 परन्तु कालान्तर में इस ज्योतिष वेदाङ्ग का प्रभूत विस्तार हुआ और यह सिद्धान्त, संहिता और होरा इन तीन स्कन्धों में विभक्त हो गया।4 इन्हीं तीन स्कन्धों में ज्योतिषशास्त्र द्वारा विवेचनीय समस्त विषयों का समावेश हो गया। मनुष्य तथा पशु-पक्षियों के अङ्गलक्षण विधा का समावेश संहिता स्कन्ध के अन्तर्गत समाविष्ट हुआ तथा इस दृष्टिकोण से ‘बृहत्संहिता’ तथा जैन ज्योतिषशास्त्र परम्परा का ग्रन्थ ‘भद्रबाहुसंहिता’ अत्यन्त उच्च कोटि का ग्रन्थ सिद्ध होता है। जैनज्योतिष परम्परा अङ्गलक्षण विधा की गणना निमित्तशास्त्र के अष्ट वेदों के अन्तर्गत परिगणित करती है और कहती है।5  यद्यपि ऋग्वेद में कई ऐसे प्रसङ्ग उपलब्ध होते हैं जहाँ विभिन्न देवी-देवताओं यथा - इन्द्र6, ऊषस्7 व वरूणादि8 देवताओं के अङ्ग-उपाङ्गों का वर्णन मिलता है, परन्तु उन अङ्गों से शुभाशुभत्व की उत्पत्ति के सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। अङ्लक्षण शास्त्र की स्वतन्त्र परम्परा का विकास ‘समुद्र’ ऋषि द्वारा किया गया है। इस सन्दर्भ में भविष्य पुराण में उपलब्ध वर्णन को प्रमाण के रूप में स्वीकृत किया जा सकता है।9 ध्यानावस्था में महर्षि समुद्र द्वारा श्रीभगवान् विष्णु तथा श्री लक्ष्मी के शरीर में उपस्थित शुभाशुभ लक्षणों के दर्शन के आधार पर ही उन्होंने “सामुद्रिकशास्त्र” संज्ञक अद्वितीय शास्त्र की रचना की। महर्षि समुद्र विरचित इस शास्त्र का विस्तार परवत्र्ती आचार्यों ने किया जिसका मुख्य आधार अनुभवजन्य ज्ञान था। ‘सामुद्रिक शास्त्र’ को विकसित, पुष्पित और पल्लवित करने वाली ऋषि परम्परा में नारद, लक्षक, वराहमिहिर, माण्डव्य, स्वामी कात्र्तिकेय आदि प्रमुख हैं।10 सामुद्रिकशास्त्र की इसी परम्परा को आधार मानकर राजा भोज व सुमन्त आदि विद्वानों ने गहन ग्रन्थों की रचना की। 
सामुद्रिकशास्त्र की भारतीय परम्परा दर्शनशास्त्र के कर्मसिद्धान्त को स्वीकार करती है और कहती है।11 अर्थात् स्त्रियों एवं पुरुषों के शरीर में उत्पन्न होने वाले शरीराङ्गों के शुभ लक्षण उनके द्वारा पूर्वजन्म में किए गए शुभाशुभ कर्मों पर ही आधारित होते हैं। महर्षि पराशर के अनुसार पुरुष तथा स्त्री के शरीर लक्षणों का आधार उनके शरीर में उच्चता, परिमाणता, गति, बल, मुखाकृति, चिकनाई, स्वर, स्वभाव, वर्ण, सन्धिसमेत सत्त्व, क्षेत्र और लावण्य को ही मानना चाहिए तथा उसी के आधार पर गत अथवा अनागत शुभाशुभ का कथन करना चाहिए।12 आचार्य समुद्र ने स्त्री तथा पुरुष के शरीर से विचारणीय लक्षण हेतु उरूयुग्म, जठर, उरुस्स्थल, दोनों भुजाएँ, पीठ तथा शिर को अष्टाङ्ग के रूप में प्रस्तुत किया है तथा इसके अतिरिक्त शेष अङ्गों को उपाङ्गों की श्रेणी में परिगणित किया है। नृदेह को उध्र्वमूल तथा अधःशाखा वाला मानकर तथा शरीरगत लक्षणों के बाह्य व आभ्यन्तर भेद करने के उपरान्त महर्षि समुद्र ने अङ्गों के अवलोकन के क्रम का भी निर्धारण किया है। शरीर में व्याप्त लक्षणों के बाह्य व आभ्यन्तर भेद करने के उपरान्त इनको और स्पष्ट किया गया है और कहा गया है कि “वर्णस्वरादि बाह्यं पुनरन्तः प्रकृतिसत्त्वादि”।13 सामुद्रिकशास्त्र की भारतीय परम्परा के अनुसार स्त्री-पुरुष के शरीर लक्षणों के अवलोकन का एक क्रम निर्धारित किया गया है और इसके अनुसार क्रमशः पदतल, पादरेखा, पादाङ्गुष्ठ, पादाङ्गुलियाँ, पादनख, पादपृष्ठ, गुल्फ (टखने), पाष्र्णि (एड़ी), जङ्घा युगल, दोनों पिंडली, जानुयुग्म, उरू, कमर की किनारी, दोनों स्फिग् (नितम्ब), पायु, मुष्क, शिश्न, शिश्नमणि, वीर्य, मूत्र, रक्त, बस्ति, नाभि, कुक्षि, पाश्र्व, जठर, छाती का मध्य भाग, स्तन, उदरवलय, हृदय, उरःप्रदेश, चुचुक, हंसली, कन्धों के पिछले भाग, काँख, दोनों भुजाएँ, दोनों हथेलियों की रेखाएँ, नख, अंगुली, पाणिपृष्ठ, पीठ, कृकाटिका, गर्दन, ठोड़ी, दाढ़ी-मूँछ, जबड़े, गण्ड, गाल, मुख, ओष्ठ, दाँत, जीभ, तालु, घण्टिका, हँसने का ढंग, नाक, छींक, दोनों नेत्र, नेत्रों की पक्ष्म, पलक, रोने का ढंग, भौंह, कनपटी, कान, ललाट, मस्तक, ललाट व मस्तक पर अङ्कित रेखाएँ, केशों व उनके आवत्र्त आदि के अवलोकन का क्रम ही उचित है।14 

यद्यपि सामुद्रिकशास्त्र में स्त्री-पुरुष के समस्त शरीरावयवों, अङ्ग व उपाङ्गों के अवलोकन का विधान है, तथापि हस्तपरीक्षण की महत्ता को सामुद्रिकशास्त्र के विद्वानों ने मुक्त कण्ठ से स्वीकृत किया है और कहा है कि “जिस प्रकार सभी मन्त्राक्षरों में ऊँ की प्रतिष्ठा है, क्योंकि वह शब्द ब्रह्म का प्रतीक है तथा समस्त वाणी व्यवहार का मूल है, उसी प्रकार सामुद्रिकशास्त्र में भी हाथ मुख्य है, क्योंकि यह सभी क्रियाओं का मूल है।”15 हाथ ही समस्त कर्मों का साधन है, इसके द्वारा ही पाणिग्रहण, पूजा, भोजन, यज्ञ, दान, शान्ति, शत्रुनाश आदि समस्त कार्य किए जाते हैं, यही कारण है कि भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के प्रवत्र्तक आचार्यों ने हस्तलक्षण को शीर्षलक्षण से भी श्रेष्ठ माना है और कहा है- “अक्षया जन्मपत्रीयं ब्रह्मणा निर्मिता स्वयम्। ग्रहा रेखाप्रदा यस्यां यावज्जीवं व्यवस्थिता।।”16 हस्तरेखा विज्ञान के प्राचीन महर्षियों ने हस्तपरीक्षा हेतु तीन विधियों को स्वीकार किया है - हस्तदर्शन, हस्तस्पर्श तथा हस्तरेखा विमर्श। अभिप्राय यह है कि जातक के हस्तदर्शन, हस्तस्पर्श तथा हस्तरेखाओं के विमर्शन के द्वारा शुभाशुभफल कथन करना सम्भव है। हस्तरेखाशास्त्री के गुणों के संदर्भ में कहा गया है कि हस्तरेखा शास्त्री गुरु को ब्रह्मचारी, क्षमाशील, कृतज्ञ, धार्मिक, पवित्र, दक्ष, गुरुप्रिय, सत्यभाषी, अपने कर्म में रत रहने वाला, संतुष्ट, श्रद्धायुक्त, तपस्वी, जितेन्द्रिय, अनेकशास्त्रों का ज्ञाता तथा स्थिर मन वाला होना चाहिए तभी उसके द्वारा फलकथन में सत्यता होगी, साथ ही साथ गुरु अर्थात् हस्तरेखाशास्त्री को अपने अनुभव तथा शास्त्र के आधार पर, प्रश्नकत्र्ता के कुल, जाति, देश, आकार तथा ग्रहस्थिति को देखकर उसकी श्रद्धा तथा जिज्ञासा की सच्चाई को परखकर ही फलादेश करना चाहिए। आचार्य को पद्मासन में बैठकर, समस्त हस्तरेखाशास्त्र के सारांश को अपने मस्तिष्क में सतत मनन करते हुए, गुरु तथा इष्ट देव का ध्यान करते हुए ही हस्तपरीक्षण और फलादेश करना चाहिए। एक दिन में केवल एक ही मनुष्य के हाथ का परीक्षण करना चाहिए, यदि अत्यावश्यक हो तो अधिकतम दो मनुष्य का हस्तपरीक्षण भी शास्त्रासम्मत है - “दिने त्वेकस्य पुंसो वा द्वयोर्हस्तं विलोकयेत्।”17 दैवज्ञ से हस्तपरीक्षण करवाने की विधि भारतीय हस्तरेखाशास्त्र सद्ग्रन्थों में अत्यन्त विस्तार से बताई गई है। इसके अनुसार यदि मनुष्य अपना हस्तपरीक्षण करवाने के लिए इच्छुक हो तो उसे सर्वप्रथम ब्रह्ममुहूत्र्त में उठकर शौच-स्नानादि से निवृत्त होने के उपरान्त, साफ धुले कपड़े पहनकर, आदरपूर्वक, सुगन्ध, फूल, नैवेद्य तथा विविध स्तुतियों द्वारा अपने इष्टदेव का पूजन करके, गुरु को प्रणाम कर धर्म का उपदेश सुनकर, तत्त्वेता जिज्ञासु यजमान अन्नादिक से गुरु का सत्कार करके, विधिपूर्वक स्वयं भी भोजन करे, तदुपरान्त सुन्दर वेश में, चिन्ता से मुक्त होकर, इन्द्रियों को वश में रखकर, सप्तधातुओं की सन्तुलित अवस्था में विनयावनत हो, हाथ को नारियल, फूल व फल से परिपूर्ण कर दैवज्ञ गुरु के पास जाना चाहिए तथा स्वयं को हस्तावलोकनार्थ प्रस्तुत करना चाहिए। मनुष्य का कौन सा हाथ और कब देखा जाय इस पर भारतीय परम्परा में पर्याप्त चर्चा है। पुरुष के दाँये हाथ को अपने दाँये हाथ में रखकर अवलोकन करना चाहिए। स्त्री के बाएँ हाथ को अपने बाँए हाथ में रखकर दैवज्ञ को हस्तपरीक्षण करना चाहिए। पन्द्रह वर्ष या अल्पव्यस्क बच्चे का हाथ देखना हो तो बाँए हाथ का ही अवलोकन करना शास्त्रसम्मत है - “वामहस्तात्फल पञ्चदश वर्षाणि किञ्चन”। हस्तावलोकन के सन्दर्भ में कुछ विशिष्ट परिस्थितियों की भी चर्चा की गई है। दैवज्ञों के समक्ष उस समय विचित्र स्थिति उत्पन्न हो जाती है जब पुरुष स्त्रियोचित गुणों से युक्त हों तथा स्त्री पुरुषोचित गुणों से युक्त हो तब यह निश्चित करना कठिन हो जाता है कि किस हाथ का अवलोकन करना शास्त्र सम्मत होगा। इस समस्या का निवारण आचार्य मेघ विजयगणि करते हैं और कहते हैं - “दक्षिणाद्बलवान्वामः पंुसः स्त्रीशीलशालिनः। नृशीलायाः स्त्रियो वामाद्दक्षिणो बलवान्भवेत्।।” अर्थात् स्त्रियोचित गुणों से युक्त पुरुष का वाम हस्त, दक्षिण हस्त की अपेक्षा अधिक बलवान होगा। इसी प्रकार पुरुषोचित गुणों से युक्त स्त्री का दक्षिण हस्त, वामहस्त की अपेक्षा अधिक बलवान होता है। अतः इन विशिष्ट परिस्थितियों में हस्तावलोकन का क्रम विपरीत होगा। हाथों के निर्धारण के बाद इन विशिष्ट मनुष्यों के लिए हस्तावलोकन का काल भी निश्चित किया गया और कहा गया है कि जो पुरुष स्त्रियोचित गुणों से युक्त हो उसका हाथ अर्धरात्रि से पूर्व तथा दोपहर के बीच में देखना श्रेयस्कर होगा। इसी प्रकार जो स्त्री पुरुषोचित गुणों से युक्त हो तो उसका भी हाथ दोपहर से पूर्व ही देखना उचित रहता है। सामान्य पुरुष हेतु हस्तावलोकन का नियम है कि इनके लिए हस्तावलोकन का समय दोपहर से पूर्व तथा अर्धरात्रि के उपरान्त ही करना चाहिए। यद्यपि स्त्री तथा पुरुष के सन्दर्भ में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि पुरुष का दक्षिणहस्त तथा स्त्री का वाम हस्त ही प्रशस्त है, तथापि पुरुष का वाम हस्त तथा स्त्री का दक्षिण हस्त भी शुभाशुभ विवेचन में समर्थ है। पुरुष के बाँए हाथ से स्त्री, माता, मातृपक्ष, घर, खेत, वाटिका, रात का जन्म तथा शुक्ल पक्ष का विचार किया जा सकता है। इसी प्रकार स्त्री के दक्षिण हस्त से पतिसुख, पितृपक्ष, धर्म, गोधन, सरलता आदि गुण, कृष्णपक्ष तथा दिन का विचार सम्भव है। इसी सन्दर्भ में कीरो का मत है कि मनुष्य के बाएँ हाथ की अपेक्षा उनके दाँए हाथ से अधिक सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। वे कहते हैं कि बाँया हाथ मनुष्य के प्राकृतिक या कहें तो मौलिक स्वरूप को प्रदर्शित करता है जबकि दायाँ हाथ उसके प्रशिक्षण, अनुभव तथा आस-पास के वातावरण के प्रभाव का प्रतिनिधित्व करता है।18 

हस्तपरीक्षा की विधि के सन्दर्भ में भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के ग्रन्थों में हस्तपरीक्षा के तीन चरण कहे गए हैं - हस्तदर्शन, हस्तस्पर्श तथा हस्तरेखा विमर्श। हस्तदर्शन मात्र द्वारा जातक से संबंधित शुभाशुभ फलादेश सम्भव है। भारतीय परम्परा हस्त को अत्यन्त शुभ मानती रही है। प्रातःकाल उठते ही हस्तदर्शन का विधान सर्वज्ञात है। भारतीय हस्तरेखाशास्त्र हाथ में तीर्थ, देवता, ग्रह, नक्षत्र आदि का निवास मानती है। अंगुष्ठमूल में ब्राह्मतीर्थ, कनिष्ठमूल में कायतीर्थ, तर्जनीमूल व अंगुष्ठ के मध्य पितृतीर्थ तथा अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ की स्थिति स्वीकार की गई है। इसी तरह विभिन्न अंगुलियों यथा तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा व अंगुष्ठ में भी तीर्थों का निवास माना गया है। तर्जनी में शत्रुञ्जय, मध्यमा में जयन्तक, अनामिका में अर्बुद, कनिष्ठा में स्यमन्तक तथा अंगुष्ठ में कैलाश इन पञचतीर्थों का निवास कहा है। इसी तरह जैन हस्तरेखाशास्त्र की परम्परा हाथ के विभिन्न स्थलों पर चैबीस तीर्थंकारों की स्थिति स्वीकार करती है। दोनों हाथों की दसों अंगुलियों में पर्वरेखाओं से घिरे हुए बीस पर्व स्थान होते हैं, इन बीस पर्वस्थानों तथा हथेली की चारों दिशाओं के कुल चार स्थान मिलाकर चैबीस स्थान हुए। इन्हीं चैबीस स्थानों में चैबीस जैन तीर्थंकरों का स्थान माना गया है। यही कारण है कि केवल हस्तदर्शन तथा इन स्थानों के शुभाशुभत्व के आलोक में जातक से संबंधित फलादेश किया जा सकता है। हाथ की परिभाषा देते हुए हस्तसंजीवनम् ग्रन्थ में कहा गया है - ‘मणिबन्धात्परः पाणिः’ अर्थात् मणिबन्ध से लेकर अंगुली समेत उपर वाला भाग हाथ कहा जाएगा। मनुष्य के हाथ में ग्रह, नक्षत्र, राशि, वार, तिथि, दिशा, पक्ष, मास, वर्ण आदि की स्थापना भारतीय सामुद्रिकशास्त्र व हस्तरेखाशास्त्र की श्रेष्ठता को प्रमाणित करती है। मनुष्य की हथेली में इन कालावयों व आकाशीय पिण्डों की स्थापना का यह वैशिष्ट्य विश्व की किसी अन्य संस्कृति में उपलब्ध नहीं होता है। जातक के हाथ में तिथियों की स्थापना करने की विधि स्पष्ट करते हुए आचार्य मेघविजयगणि कहते हैं कि कनिष्ठा में नन्दा तिथियाँ (प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी), अनामिका में भद्रा तिथियाँ (द्वितीया, सप्तमी, द्वादशी), मध्यमा में जया तिथियाँ (तृतीया, अष्टमी, त्रयोदशी), तर्जनी में रिक्ता तिथियाँ (चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी) तथा अंगुष्ठ में पूर्ण तिथियाँ (पञ्चमी, दशमी, पूर्णिमा, अमावस्या) स्थित होती हैं। इसी प्रकार कनिष्ठा ब्राह्मण वर्ण, अनामिका क्षत्रिय वर्ण, मध्यमा वैश्य वर्ण, तर्जनी शूद्र वर्ण तथा अंगुष्ठ को योगी के समान वर्णादि से अतीत या मुक्त माना है। जहाँ तक दिशा का प्रश्न है, तर्जनी पूर्व दिशा, मध्यमा उत्तर दिशा, कनिष्ठा पश्चिम दिशा, अनामिका दक्षिण दिशा व अंगुष्ठ सुमेरू पर्वत का प्रतिनिधित्व करता है। इसी तरह मानव हस्त में नवग्रहों की भी स्थिति स्वीकार की गई है। सूर्य का स्थान अंगुष्ठ के मध्य पर्व में, चन्द्रमा का अंगुष्ठ के तृतीय पर्व में तथा बुध का स्थान अंगुष्ठ के प्रथम पर्व में निश्चित हैं। तर्जनी के अन्तिम पर्व में मंगल, मध्यमा के अन्तिम पर्व में गुरु, अनामिका के अन्तिम पर्व में शुक्र, कनिष्ठिका के अन्तिमपर्व में शनि व हथेली के पीछे राहु-केतु का स्थान माना गया है।19 जब हथेली में राशियों के स्थान का प्रश्न आता है तो कनिष्ठा के पहले पर्व में मेष, द्वितीय में वृष, तृतीय पर्व में मिथुन, अनामिका के प्रथम पर्व में कर्क, द्वितीय पर्व में सिंह, तृतीय पर्व में कन्या, मध्यमा के प्रथम पर्व में तुला, द्वितीय पर्व में वृश्चिक, तृतीय पर्व में धनु, तर्जनी के प्रथम पर्व में मकर, द्वितीय पर्व में कुम्भ तथा तृतीय व अन्तिम पर्व में मीन राशि का स्थान नियत है। भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के अनुसार प्रत्येक अङ्गुली के मूल में प्राप्त होने वाले उभार को पर्वत की संज्ञा से विहित किया गया है। अंगुष्ठ मूल में शुक्र, तर्जनी मूल में बृहस्पति, मध्यमा मूल में शनि, अनामिका मूल में सूर्य, कनिष्ठा मूल में बुध, हथेली के मध्य में मङ्गल उच्च, मङ्गल निम्न तथा चन्द्र पर्वत होते हैं।

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पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्र में भी इसी परम्परा को स्वीकार किया गया है। जोसिफ रेनाल्ड ने  अपनी पुस्तक श्भ्वू जव ज्ञदवू च्मवचसम इल जीमपत भ्ंदकेश् में इसी परम्परा का अनुकरण किया है।20 व्यक्ति के दाएँ हाथ में कृष्ण पक्ष तथा बाँए हाथ में शुक्ल पक्ष को स्थापित किया गया है। हस्तरेखाओं के विश्लेषण क्रम में हमें सर्वप्रथम जिन प्रमुख रेखाओं का प्रत्यक्ष होता है वे संख्या में तीन हैं - पितृरेखा, मातृरेखा तथा आयुरेखा। इन तीनों रेखाओं के लिए भारतीय हस्तरेखाशास्त्र में अनेक संज्ञाएँ प्राप्त होती हैं। पितृरेखा के लिए गोत्ररेखा, बलरेखा, मूलरेखा, वृक्षरेखा, धर्मरेखा, मनोरेखा व धृति रेखा संज्ञाएँ प्रयुक्त हुई हैं। मातृरेखा के लिए धनरेखा, सुखरेखा, कोशरेखा, साहसरेखा, पालिका रेखा तथा रतिरेखा शब्द उपयोग में आए हैं। आयुरेखा के लिए जीवन रेखा, तेजरेखा, स्वभाव रेखा, प्रभारेखा व तनुरेखा शब्द का भी प्रयोग किया गया है। रेखाओं के लिए प्रयुक्त उपरोक्त संज्ञाएँ केवल भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के ग्रन्थों में प्रयुक्त हुई हैं। पाश्चात्य हस्तरेखा शास्त्री इन रेखाओं के लिए किञ्चित भिन्न संज्ञाओं का प्रयोग करते हैं। पितृरेखा के लिए आयुरेखा, मातृरेखा के लिए मस्तक या मस्तिष्क रेखा तथा आयुरेखा के लिए हृदयरेखा शब्द का प्रयोग पाश्चात्य हस्तरेखा शास्त्री करते हैं। भारतीय हस्तरेखाशास्त्र में इन तीनों रेखाओं को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। प्राचीन महर्षियों द्वारा इन तीन प्रमुख रेखाओं के नामकरण में भी समाज व परिवार के प्रति समर्पण व सर्वकल्याण की भावना दृष्टिगोचर होती है। “मातृदेवो भव, पितृदेवो भव” की उदात्त भावना का पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्र की परम्परा दिग्दर्शन व उसकी स्थापना व प्रसार की दिशा में इस नामकरण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। माता व पिता के प्रति समर्पण व श्रद्धा की इस उदात्त भावना का नितान्त अभाव है। भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के वैज्ञानिक जिन रेखाओं को पितृ व मातृ रेखा के रूप में स्थापित करते हैं उसे पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्री क्रमशः आयुरेखा व मस्तक रेखा के रूप में जानते हैं। रेखाओं का यह नामकरण भारतीय आध्यात्मवाद तथा पाश्चात्य भौतिकतावाद को प्रतिबिम्बित करता है। प्रसिद्ध पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्री कार्ले लुईस पेरिन अपनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक श्ैबपमदबम व िच्ंसउपेजतलश् के आरम्भ में समपर्ण शीर्षक के अन्तर्गत कहते हैं कि वे इस पुस्तक को प्रकाश की खोज में रहने वाले मनुष्य को समर्पित करते हैं। इसके बाद ग्रन्थ के मध्य में वे केवल हृदय रेखा, मस्तिष्क रेखा, जीवन रेखा, भाग्य रेखा, शुक्र का वलय, स्वास्थ्य रेखा, सूर्य रेखा, विवाह रेखा, अन्तज्र्ञान रेखा पर विचार करते हैं। साथ ही साथ समानान्तर रेखाओं, घुमावदार रेखाओं, टूटी रेखाओं, लहरदार रेखाओं, उध्र्व और अद्यः रेखाओ के आधार पर जातक से संबंधित फलादेश की पद्धति का वर्णन मात्र करते हैं।21 रेखाओं के वर्णन प्रसङ्ग में कहीं भी आध्यात्मिकता का बोध नहीं होता है। जबकि भारतीय ऋषियों ने इन रेखाओं को तीन लोकों का प्रतीक माना है। पितृरेखा उध्र्वलोक, मातृरेखा पृथिवी लोक तथा आयुरेखा पाताललोक का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन्हीं तीन रेखाओं को त्रिदेव अर्थात् क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु व महेश के रूप में माना गया है। जिस तरह भूलोक में सङ्गम तीर्थ का महत्त्व है ठीक उसी प्रकार हस्तरेखाओं में भी ये तीन प्रमुख रेखाएँ पितृ, मातृ व आयु रेखा क्रमशः गंगा, यमुना व सरस्वती का प्रतिनिधित्व करती हैं तथा जहाँ ये तीनों रेखाएँ मिलती हैं, वह स्थान त्रिवेणी कही जाती है। इसी तथ्य को स्थापित करते हुए कहा गया है - “पितृरेखा भवेद्गंगा मातृरेखा सरस्वती, आयुरेखात्र यमुना तत्संगस्तीर्थमक्षयम्।।”22जहाँ तक वय का प्रश्न है तो पितृरेखा बाल्यावस्था की, मातृरेखा युवावस्था की तथा आयुरेखा वृद्धावस्था का प्रतिनिधित्व करती है। अप्रधान रेखा के विषय में स्पष्ट है कि मनुष्य के हाथ में पितृ रेखा, मातृ रेखा व आयु रेखा प्रधान हैं। परन्तु इसके अतिरिक्त मानव की हथेली में अन्य कई अप्रधान रेखाएँ भी उपलब्ध होती हैं जो काल के प्रभाव से प्रभावित होती रहती है। जीवन के प्रत्येक भाग व महत्त्वपूर्ण घटनाओं को प्रभावित करने वाली तथा जातक के व्यक्तित्व को प्रतिबिम्बित करने वाली अनेक रेखाएँ जातक के हथेली में मिलती हैं। इन रेखाओं में उध्र्व रेखाएँ, वज्ररेखा, स्त्रीसुख रेखा, संतान रेखा, रेखाओं के पल्लव, भाई-बहनों की रेखाएँ, उच्च पद रेखा, दीक्षा रेखा, लघु भाग्य रेखा, धर्म रेखा, उदरपीड़ा रेखा, संन्यास रेखा, घरेलू बन्धनों की रेखा, मृत्यु रेखा, वाहन रेखा, धन भोग रेखा, यश की रेखा, यात्रा रेखा, मित्र-शत्रु रेखा आदि प्रमुख हैं। मणिबन्ध से निकलकर पाँचों अंगुलियों की तरफ जाने वाली रेखाएँ उध्र्व रेखा कहलाती है। जातक के हाथ में इस रेखा की उपस्थित जातक को राजसुख व राजयोग प्रदान करने वाली होती है। बाँए हाथ की मध्यमा के नीचे तथा दाहिने हाथ के अनामिका के नीचे एक छोटी सी रेखा हो तो उसे धर्मरेखा कहते हैं। स्पष्ट है कि भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के ऋषियों ने भारतीय संस्कृति के आधारभूत सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुए हस्तरेखाओं पर गहन समीक्षा की है तथा इन रेखाओं का जीवन में घटित होने वाली घटनाओं के मध्य स्पष्ट सम्बन्ध को स्थापित किया है। रेखाओं के गुण व दोष पर विचार करते हुए कहा गया है कि गहरी, पतली, चमकीली व आकार में लम्बी रेखाएँ सदैव अच्छी मानी जाती है। इन्हें अन्य रेखाएँ काट न रही हों। लाल व गहरी रेखाएँ मनुष्य की प्रवृत्ति को उदार बनाती हैं तथा ऐसा व्यक्ति त्यागप्रिय तथा विशालहृदय का होता है। रेखाओं का रंग शहद के समान हो अर्थात् कुछ पीलेपन की झलक वाला रंग होना भी शुभ माना जाता है। पतली व लाल रेखाओं की हथेली में उपस्थिति शोभा, धन-सम्पत्ति और मान प्रतिष्ठा बढ़ाने वाली होती है। यदि रेखा अपने उद्गम स्थल पर जड़ की तरह फैली हुई हों तो मनुष्य के सौभाग्य को बढ़ाने वाली होती हैं। रेखाओं के फल को क्षीण करने वाली तथा अशुभ प्रभाव की सूचक रेखाओं के सन्दर्भ में कहा गया है कि कटी-फटी, अनेक शाखाओं जैसे बँटे अग्रभाग वाली, रूखी, टेढ़ी-मेढ़ी, धागे के समान बारीक, अपने स्थान से हटी हुई मोटी, नीले रंग की झलकवाली, टूटी रेखाएँ, कहीं पतली कहीं मोटी, रेखाओं का आधिक्य व प्रमुख चार रेखाओं का टेढ़ा या अधूरा होना, बहुत अधिक या बिना रेखा का हाथ होना भी अशुभ है।23 प्रधान व अप्रधान रेखाओं के अतिरिक्त मनुष्य के हाथ में सूक्ष्म रेखाओं द्वारा कई आकृतियों का निर्माण होता है इनमें से कुछ अशुभ तथा कुछ अत्यन्त शुभ माने जाते हैं। इन आकृतियों के सन्दर्भ में भारतीय हस्तरेखाशास्त्र से सम्बन्धित ग्रन्थों में पर्याप्त चर्चा की गई है जबकि पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्री इस सम्बन्ध में मौन हैं। प्रसिद्ध अमेरिकी विद्वान् विलियम जी. बेन्हम अपने ग्रन्थ श्ज्ीम स्ंूे व िैबपमदजपपिब भ्ंदक त्मंकपदहश् में केवल हाथ के प्रकार, हाथ का लचीलापन, नाखून, हाथ पर स्थित बाल, अंगुली, विभिन्न पर्वत, हृदय रेखा, मस्तिष्क रेखा, जीवन रेखा आदि पर ही चर्चा करते हैं। इसी ग्रन्थ के उन्होंने हस्तरेखाशास्त्र के प्रति अपनी चिन्ता व्यक्त की है और लिखा है कि यह शास्त्र आरम्भ से ही मानव सभ्यता के अधिकांश भाग द्वारा श्रद्धा को प्राप्त नहीं हुआ है तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग समाज में स्वयं को इस शास्त्र से जुड़ा हुआ मानने पर भी घबराते हैं।24 
परमभाग्यशाली मनुष्यों के लिए बत्तीस चिन्ह बताए गए हैं - छत्र, कमल, धनुष, रथ, वज्र, कछुआ, अंकुश, बावड़ी, स्वस्तिक, तोरण, तीर, शेर, पेड़, चक्र, शंख, हाथी, समुद्र, घड़ा, महल, गौ, मछली, खम्भा, मठ, कमण्डल, पहाड़, चँवर, शीशा, बैल, झंडा, लक्ष्मी, फूल-माला तथा मोर। ये समस्त चिन्ह एक साथ एक ही मनुष्य के हाथ में उपलब्ध नहीं होते। इसके अतिरिक्त मगरमच्छ, सूर्य, सिंहासन, तलवार, मुकुट, तिल, सर्प, वृत्त, षट्कोण, तालाब, चार का अङ्क, माला, जहाज आदि की गणना भी अत्यन्त शुभ चिन्हों में की गई है। महर्षि समुद्र की उक्ति स्त्री तथा पुरुष के मध्य समानता की भावना का उद्घोषक है- “उत्पत्तिः स्त्रीमूला तस्यापि ततः प्रधानमेषापि। क्रियते लक्षणतयोर्यदि तदेह स्याज्जनोपकृतिः।।”25 अर्थात् इस मत्र्यलोक में उत्पत्ति का आधार स्त्रीशक्ति ही है, अतः स्त्रीशक्ति के सामुद्रिक लक्षणों के वर्णन के बिना सामुद्रिकशास्त्र पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता है। भारतीय तथा पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्रियों के ग्रन्थों में उपलब्ध सिद्धान्तों के आलोड़न से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय सामुद्रिकशास्त्र के ग्रन्थों में जहाँ मानवीय मूल्यों व सामाजिक चेतना की उदात्त भाव को सुरक्षित रखा गया है, वहीं पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्रीय ग्रन्थों तथा ग्रन्थकारों ने जाने-अनजाने इस तथ्य की अवहेलना की है। पाश्चात्य हस्तरेखा शास्त्र जहाँ हाथ की बनावट, नाखून, का पृष्ठ, हस्तरेखा व पर्वतों से सम्बन्धित व्याख्यान के बाद मौन हो जाता है, वहीं भारतीय सामुद्रिकशास्त्र आपादमस्तक समस्त शरीरावयों के अवलोकन की गूढ़, विचित्र व प्रभावोत्पादक शैली का प्रणयन करती है। भारतीय हस्तरेखाशास्त्र व पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्र की यह प्रवृत्ति स्वयं ही अपनी विशालता व सीमित वण्र्य विषय का भेद स्पष्ट कर देती है। रेखाओं, हथेली के क्षेत्रों, अंगुली के पर्वों आदि के नामकरण व विभिन्न शुभ चिन्हों के वर्णन प्रसङ्ग में भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के ग्रन्थ जहाँ अपनी उन्नत संस्कृति और सभ्यता को प्रकाशित करते हैं वही पाश्चात्य हस्तरेखाशास्त्र विषयक ग्रन्थ व उनके रचनाकार केवल आड़ी-तिरछी रेखाओं व कुछ आकृतियों का वर्णन कर अपने कार्य की इतिश्री समझ लेते हैं। जहाँ भारतीय हस्तरेखाशास्त्र, हस्तरेखाशास्त्री के कत्र्तव्यबोध व कृत्याकृत्य विचार पर गहन दृष्टिपात करता है वहीं पाश्चात्य परम्परा इस पर कोई चर्चा नहीं करती है। हस्तरेखा विर्मश हेतु उचित काल का निर्धारण, आध्यात्मिकतापूर्ण मनःस्थिति, गुरु व शास्त्र के प्रति श्रद्धा भाव की अनिवार्यता की स्थापना भारतीय चिन्तन परम्परा का वैशिष्ट्य हैं, जबकि पाश्चात्य हस्तरेखा शास्त्री इन विषयों पर मौन हैं। अतः हस्तरेखाशास्त्र के गहन अध्ययन, अध्यापन, अवलोकन व फलादेश की स्पष्टता व सूक्ष्मता हेतु भारतीय हस्तरेखाशास्त्र के ग्रन्थों की आवश्यकता सहज सिद्ध है।

सन्दर्भ :
1. “शब्दशास्त्रं मुखं ज्योतिषं चक्षुषी श्रोत्रमुक्तं निरुक्तं च कल्पः करौ। या तु शिक्षास्य वेदस्य सा नासिका पादपद्मद्वयं छन्द आद्यैर्बुधैः।।” वृहद्दैवज्ञरञ्जनम्; 1/15
2. “वेदचक्षुः किलेदं स्मृतं ज्योतिषं मुख्यता चाङ्गमध्येऽस्य तेनोच्यते। संयुतोऽपीतरैः कर्णनासादिभिश्चक्षुषाङ्गेन हीनो न किञ्चित्करः।।” सिद्धान्तशिरोमणि, मध्यमाधिकार; श्लोक-10
3. “वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूव्र्या विहिताश्च यज्ञाः। तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञान्।” वेदाङ्ग ज्योतिष, याजुष् संस्करण, श्लोक-3
4. “सिद्धान्तसंहिताहोरारूपं स्कन्धत्रयात्मकम्। वेदस्य निर्मलं चक्षुज्र्योतिश्शास्त्रमकल्मषम्।।” होरारत्नम्; 1/13
5. “अङ्गविद्या निमित्तानामष्टानामपिगीयते। मुख्या शुभाशुभज्ञाने नारदादिनिवेदिता।।” हस्तसंजीवनम्; 1/4
6. ऋग्वेद; 2/16/2, 6/19/3
7. वही; 1/124/3, 5/80/5
8. वही; 7/87/6
9. “रेखाकृतिर्मणिर्यस्य मेहने हि विराजते। पार्थिवः स तु विज्ञेयः समुद्रवचनं यथा।। - भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व” 25/6
10. “तदापि नारद लक्षकवराहमाण्डव्यषण्मुखप्रमुखैः। रचितं क्वचित् प्रसङ्गात् पुरुषस्त्रीलक्षणं किञ्चित्।।” सामुद्रिकशास्त्रम्; 1/9
11. “पूर्वभवान्तरजनितं शुभा शुभमिहापि लक्ष्यते येन। पुरुषस्त्रीणां सद्भिर्निगद्यते लक्षणं तदिह।।” सामुद्रिकशास्त्रम्; 1/15
12. “उन्मानमानगतिसारमनूकमादौ स्नेहस्वरप्रकृतिवर्णससन्धिसत्त्वम्। क्षेत्रं मृजां च विधिवत्कुशलोऽवलोक्य सामुद्रविद्वदति यातमनागतं च।।” बृहज्ज्यौतिषसार; 21/6
13. सामुद्रिकशास्त्रम्; 1/16
14. वही; 1/20-26
15. हस्तसंजीवनम्; 1/12
16. वही; 1/13
17. वही; 1/55
18. Cheiro. Language of the Hand. Chicago and New York : Rand, Mc Nally & Company,1900,
       pg. 77 
19. हस्तसंजीवनम्; 3/71-72
20. Ranald, Josef. How to Know People by their Hands. New York : Modern Age Books, 1938,
 pg. 37 
21. Perin, Carl Louis. Science of Palmistry. Chicago : Star Publication, 1902, pg. 111-112  
22. हस्तसंजीवनम्; 1/20
23. वही; रेखाविचार, श्लोक-52
24. Benham, William G. The Laws of Scientific Hand Reading. New York & London : G.P. Putnam's Sons, 1901, Introduction, pg. vi   
25. सामुद्रिकशास्त्रम्; 1/7
LEVIS [CPS] IN

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