Sunday 14 April 2019

वेदांग ज्योतिष और गणितीय संक्रियाएँ


ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों मे लगध मुनि प्रणीत वेदांग ज्योतिष की गणना की जाती है। इन प्राचीन ग्रन्थों में ‘गणित’ शब्द तो प्राप्त होता ही है, साथ ही साथ गणित को वेदांग- साहित्य में सर्वश्रेष्ठ भी घोषित किया गया है।यद्यपि वेदांग-ज्योतिष गणित शास्त्र विषयक प्राचीनतम ग्रंथ है फिर भी इसे गणित शास्त्र का मूलग्रन्थ नहीं कह सकते। ग्रंथकार महर्षि लगध ने स्वंय भी इस ग्रन्थ को यज्ञार्थ कालनिर्णय के लिए ही श्रेष्ठ माना है। परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि बिना गणितीय संक्रियाओं के काल निर्णय संभव नहीं है।  यही कारण है कि वेदांग- ज्योतिष के प्रत्येक संस्करण अर्थात् ऋक्, याजुष् तथा आथर्वण में उपलब्ध गणितीय सामग्रियों में संख्याओं का उल्लेख जोड़, घटाव, गुणा, भाग, त्रैराशिक नियम आदि सम्मिलित हैं। अतः आवश्यक है कि वेदांग- ज्योतिष में प्राप्त गणित विषयक अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए प्रत्येक संस्करण पर अलग-अलग दृष्टिपात किया जाय। 
ऋक् ज्योतिष-
महर्षि लगध प्रणीत इस ग्रन्थ में गणित विषयक अनेक तथ्य उपलब्ध हैं। इन तथ्यों को गणित के विभिन्न विषयों के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इस संस्करण में कुल 36 श्लोक हैं और इनमें जोड़, घटाव, गुणा, भाग के साथ-साथ कई संख्याओं का भी उल्लेख किया गया है। 
 संख्याएँ-
इन ग्रन्थ में जिन संख्याओं का प्रयोग हुआ है वे एक अंक दो अंक तथा तीन अंकों वाली संख्याएँ हैं। 
(क) एक अंक वाली संख्याएं-एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ, नौ। स्पष्ट है कि एक अंक वाली समस्त संख्याओं का प्रयोग इस ग्रन्थ में हुआ है। यह इस बात का सूचक है कि ग्रन्थकर्त्ता को इन संख्याओं का ज्ञान अवश्य था। इन संख्याओं के लिए जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है वे निम्नलिखित है-
1- एक 2- द्वि 3- त्रि 4-चतुर्थ 5- पंच
6- षट् 7- सप्तम 8- अष्टम 9- नव

(ख) दो अंकाें वाली संख्याएँ- 
एक अंकवाली संख्याआें के अतिरिक्त दो अंकों वाली संख्याओं का भी प्रयोग इस ग्रन्थ में प्रचुरता से किया गया है। ये अंक है-दस, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, पन्द्रह, उन्नीस, तीस, पचास, साठ, एकसठ, बासठ और बहत्तर । इन संख्याओं के लिए प्रयुक्त शब्द अधोलिखित है-

दस-दश ,ग्यारह-एकादश, बारह-द्वादश,  तेरह-त्रयोदश, चौदह-चतुर्दश,पन्द्रह-पंचदश, उन्नीस-एकान्नविंशति, तीस-त्रिंशत, पचास-पंचाशत, साठ-षष्टिः,एकसठ-एकषष्टिः, बासठ-षष्ट्या युतं द्वाभ्यां,बहत्तर-द्विसप्तति

(ग) तीन अंकों वाली संख्याएँ-
एक अंकवाली संख्या तथा दो अंकों वाली संख्या के अतिरिक्त बड़ी संख्याओं के रूप में तीन अंकों वाली संख्याओं का भी प्रयोग भी इस ग्रन्थ में द्रष्टव्य है। इन बड़ी संख्याओं में छ: सौ तीन संख्या मिलती है। इस संख्या के लिए निम्नलिखित शब्द प्रयुक्त हुआ है- 
‘‘छः सौ तीन-षट्शती त्र्यधिका’’
 गणितीय संक्रियाएँ-
ऋक् ज्योतिष में अनेक गणितीय संक्रियाओं जैसे कि जोड़, घटाव गुणा तथा भाग आदि का वर्णन उपलब्ध होता है। 
(क) जोड़ या संकलन-
गणित की इस संक्रिया का उल्लेख ऋक् ज्योतिष में अनेक स्थानों पर मिलता है।तिथि नक्षत्र में संस्कार विशेष के निरूपण प्रसंग में प्राप्त तिथिमांश को नव अंशों से जोड़ने का निर्देश है। ठीक इसी प्रकार इष्टतिथि के तुल्य होने पर गत नक्षत्र में उसके कलानयन की प्रक्रिया के सन्दर्भ में भी कला तथा सप्तगुणित तिथि को जोड़ने का निर्देश मिलता है। ऋक् ज्योतिष में ऐसे कई प्रसंग है जहाँ जोड़ अर्थात् संकलित की प्रक्रिया का निर्देश मिलता है। उन समस्त प्रसंगों को यहां सूचीबद्ध किया जा रहा है-
- पाँच संवत्सरात्मक युग की वर्तमान संवत्सर संख्या में से एक घटाकर शेष में बारह का गुणा करें उसमें गत माह जोड़ें योग को द्विगुणित करे साठ के प्रत्येक पर्यय में दो-दो जोड़े यही पर्वों की राशि कही जाती है।
- वर्तमान अब्द में बारह मासों में प्राप्त को अभीष्ट पक्ष करें व पक्ष ग्यारह से गुणित होने पर चन्द्रमा के अंश होते हैं, यदि चन्द्रमा शुक्ल पक्ष में हो तो पूर्व आगत अंश में आधा जोड़ें। 
- एक वर्ष में चार अष्टकाएँ होती हैं, अंशों को अष्टका स्थान में उन्नीस कलाएँ करें, हीन अष्टका स्थान में बारह सहित बहत्तर का क्षेप करें।
- पूर्व प्रकार से पर्व समय में जो भांश ग्रहण कला प्राप्त होती है, उसमे सात गुणित तिथि जोड़ तिथि के समान गत नक्षत्र के होने पर ग्रहण करने योग्य कला समझें। यदि पर्व से गत तिथि संख्या समान ही नक्षत्र मान हो तब पर्व नक्षत्र ग्रहण कला में सात से गुणित तिथि को जोडे़ं। 
- अयन के आरम्भ दिन से उत्तर अयन का जो गत भूमि दिनमान हो तथा दक्षिणायन आरम्भ दिन से दक्षिणायन का जो गत भूमि दिनमान हो उसे अयनान्तर्गत कुदिन मान से घटाकर जो शेष दिनमान बचे उसे दो से गुणा कर गुणनफल में एक सठ का भाग देने पर और लब्ध में बारह जोड़ने से मुहूर्त्तात्मक दिनमान होता है।
- प्रत्येक पर्व में चान्द्र दिन भाग को जो आधा शेष हो उसे चान्द्र सौर पर्वान्तर पर्वों की संख्या के साथ जोड़ने पर जो आये उसे इष्ट पर्व समय में रवि चन्द्र पर्वान्तर समान ऋतु शेष जानना चाहिए। 
- पन्द्रह तिथ्यात्मक पक्ष से ऊपर अर्थात् शुक्ल पक्ष के अवसान पर जो तिथिभांश प्राप्त हो उसे नव अंशों में जोड़ युक्तांश वास्तव भांश होगा, उस भांशमान को कहें, यदि नक्षत्रवश सावन दिन अपेक्षित हो तो एक कुदिन तथा सात कलामित प्रति नक्षत्र सम्बन्धी कुदिन होता है। 
उपरोक्त प्रसंग गणित के संलग्न संक्रिया वेदांग ज्योतिषीय प्रयोग के लिए प्रमाण सिद्ध होते है। 
(ख) व्यकलन-
गणित शास्त्र के इस मौलिक प्रक्रिया का भी प्रयोग इस ग्रन्थ में हुआ है। व्यकलन से संबन्धित कुछ प्रसंग अधोलिखित हैं- 
- सूर्य के उत्तरायण में जल के एक प्रस्थ समान दिन बढ़ता है और रात घटती है। दक्षिणायन की स्थिति इसके विपरीत होती है और अयन में छः मुहूर्त्त दिन-रात में अन्तर होता है।
- पाँच संवत्सरात्मक युग की वर्तमान संवत्सर संख्या में से एक घटाकर शेष में बारह का गुणा करें, उसमें गत माह जोड़ें योग को द्विगुणित करे, साठ के प्रत्येक पर्यय में दो-दो जोड़े यह पर्वों की राशि होती है। 
- सूर्योदय से बीते हुए पर्व के उन्नतांश जो एक सावन दिन में एक सौ चौबीस होते हैं उनसे द्विगुणित तिथि को शोधित करें, शेष उन रात-दिन के वृत्त भागों में जब सूर्य आता है तब वह सूर्य तिथिमान के अन्त को प्राप्त करता है।
- अयन के आरम्भ दिन से उत्तर अयन का जो गत भूमि दिनमान हो तथा दक्षिणायन आरम्भ दिन से दक्षिणायन का जो गत भूमि दिनमान बचे उसे दो से गुणा कर गुणनफल में एकसठ से भाग देने पर और लब्ध में बारह जोड़ने पर मुहूर्त्तात्मक दिनमान प्राप्त होता है।
- समान दिन-रात काल विषुवत को दो से गुणित कर एक-एक घटायें उसे छः से गुणित करें, लब्ध पर्व होगा, उसका आधा तिथि होगा।
उपरोक्त उद्धरण ऋक् ज्योतिष में गणितशास्त्र के व्यकलन विषयक प्रयोग की प्रौढ़ता को प्रदर्शित करते हैं। 
(ग) गुणन-
गुणन गणितशास्त्र की मूलभूत संक्रियाओं में से एक है और इसका प्रयोग ऋक् ज्योतिष में बहुलता से प्राप्त होता है। इस प्रसंग में निम्नलिखित उद्धरण विशेष महत्वपूर्ण हैं। 
- सत्ताईस भगण में से घनिष्ठा से जो इष्ट काल भाग हो उसे गुणित किया जाता है। उन भागों को घनिष्ठा से गिनकर पूर्व दिशा में भांशों का निर्देश करें स्व नाक्षत्र मासों को छः से गुणित करके चन्द्र सम्बन्धी ऋतुओं को जाना जा सकता है। सूर्योदय से बीते हुए पर्व के उन्नतांश जो एक सावन दिन में एक सौ चौबीस होते है, उनसे द्विगुणित तिथि को शोधित करें शेष उन रात-दिन के वृत्त भागों में जब सूर्य आता है। तब वह सूर्य तिथिमान के अन्त को प्राप्त करता है।
- पूर्व प्रकार से पर्व समय में जो भांश ग्रहण कला प्राप्त हुई, उसमें सात से गुणित तिथि को जोड़ें, तिथि के समान गत नक्षत्र के होने पर ग्रहण करने योग्य कला होती है। यदि पर्व से गत तिथि संख्या समान ही नक्षत्र मान हो तब पर्व नक्षत्र ग्रहण कला में सात से गुणित तिथि को जोड़ें। 
- अयन के आरम्भ दिन से उत्तर अयन का जो गत भूमि दिनमान हो तथा दक्षिणायन आरम्भ दिन से दक्षिणायन का जो गत भूमि दिनमान को उसे अयनान्तर्गत कुदिन मान से घटाकर जो शेष दिनमान बचे उसे दो से गुणाकर गुणनफल में एकसठ से भाग देने पर और लब्ध में बारह जोड़ने से मुहूर्त्तात्मक दिनमान होता है।

- पाँच संवत्सरात्मक युग की वर्त्तमान संवत्सर संख्या में से एक घटाकर शेष में बारह का गुणा करें उसमें गत माह जोड़े, योग को द्विगुणित करें साठ के प्रत्येक में दो-दो जोड़े यह पर्वों की राशि कही जाती है। 
- वर्तमान अब्द में बारह मासों में प्राप्त अभीष्ट पक्ष करें वे पक्ष ग्यारह से गुणित होने प्र चन्द्रमा के भांश होेंगे यदि चन्द्रपक्ष ग्यारह से गुणित होने पर चन्द्रमा के भांश होंगे यदि चन्द्रपक्ष शुक्ल् पक्ष में हो तो पूर्व आगत भांश में आधा जोड़ें।
उपरोक्त उद्धरणों में विभिन्न कालमान आनयन के लिए गुणन का प्रयोग किया गया है। 
(घ) भाग-
भाग की संक्रिया का प्रयोग वेदांग- ज्योतिष के ऋक् संस्करण में बहुलता से किया गया है। भाग की इस संक्रिया के स्वरूप को समझने के लिए अधोलिखित प्रसंग द्रष्टव्य हैं- 
- समान दिन-रात काल विषुवत् को दो से गुणित कर एक घटायें, उसे छः से गुणित करें वही लब्ध पर्व होता है तथा उसका आधा भाग (1/2) तिथि होती है।
- वेध से ज्ञात राशि में प्राप्त किसी पदार्थ को जानकर ज्ञेय राशि में उस पदार्थ को ले आने को लिए-ज्ञान राशि सम्बन्धी गत पदार्थ से गुणित ज्ञेय राशि कोे ज्ञान राशि से विभाजित करें फल ज्ञेय राशि सम्बन्धी उस पदार्थ का मान होगा, इसी प्रकार ज्ञान राशि से पुनः पुनः सावनदिनादि जानें।
- अयन के आरम्भ दिन से उत्तर अयन का जो गत भूमि दिनमान हो तथा दक्षिणायन आरम्भ दिन से दक्षिणायन का जो गत भूमि दिनमान हो उसे अयनान्तर्गत कुदिन मान से घटाकर जो शेष दिनमान बचे उसे दो से गुणा कर गुणनफल में एकसठ से भाग देने पर और लब्ध में बारह जोड़ने से मुहूर्त्तात्मक दिनमान होगा।
- चन्द्रमा जितने समय में नक्षत्र से युक्त होता है वह समय सात कला अधिक एक रवि सावन दिन होता है। इसी प्रकार सूर्य जितने काल में एक नक्षत्र भोगता है वह काल तेरह सावन दिन तथा पाँच बटा नव (5/9) भाग होता है। पाँच गुरू अक्षरों के उच्चारण समकाल की एक काष्ठा होती है।
- प्रत्येक पर्व में चान्द्र दिन भाग को जो आधा (1/2) शेष हो उसे चान्द्र सौर पर्वान्तर की संख्या के साथ जोड़ने पर जो आये उसे इष्ट पर्व समय में रवि चन्द्र पर्वान्तर समान ऋतु शेष जानें। 
गणित की इस संक्रिया के ये प्रयोग ग्रन्थकार के गणित विषयक ज्ञान की सूक्षमता को सिद्ध करते है। 
त्रैराशिक नियम-
ऋक् ज्योतिष में त्रैराशिक नियम की उपस्थिति के सन्दर्भ में चर्चा करने से पूर्व आवश्यक है कि ‘‘त्रैराशिक नियम’’ को जान लिया जाय। इस नियम को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि- त्रिराशि अर्थात् प्रमाण राशि फल तथा इच्छा राशि से संबन्धित होने के कारण इसको त्रैराशिक नियम कहते है। इस नियम की भारतीय गणित शास्त्र में बड़ी प्रशंसा की गई है। इस नियम में दी गई तीन राशियों अर्थात् प्रमाण राशि फलराशि तथा इच्छा राशि के आधार पर अज्ञात राशि का मान ज्ञात करने का विधान होता है और अधोलिखित सूत्र द्वारा समझा जा सकता है-
अज्ञात राशि = इच्छा राशि × फल राशि
प्रमाण राशि
इसी नियम को ऋक् ज्योतिष में प्रयुक्त किया गया है और कहा गया है वेध से ज्ञात राशि में प्राप्त किसी पदार्थ को जानकर ज्ञेय राशि में उस पदार्थ को ले आने के लिए ज्ञान राशि में उस पदार्थ को ले आने के लिए ज्ञान राशि सम्बन्धी गत पदार्थ से गुणित ज्ञेय राशि को ज्ञान राशि से विभाजित करें। फल ज्ञेय राशि सम्बन्धी उस पदार्थ का मान होगा, इसी प्रकार ज्ञान राशि से पुनः पुनः सावनादि दिन जाने। इसी त्रैराशिक नियम को सन्दर्भ में आर्यभट का कथन है कि-त्रैराशिक के प्रश्नों में फल राशि केा इच्छा राशि से गुणा करना चाहिए और गुणनफल को प्रमाण राशि से भाग चाहिए। इस प्रकार भाग करने से जो लब्धि प्राप्त होती है वही इच्छा फल है। त्रैराशिक की विभिन्न राशियों के पारिभाषिक शब्दावली में भी कुछ मतान्तर हैं। इस सन्दर्भ में आर्यभट्ट का कथन है कि ‘‘पहली राशि को मान’’ कहते हैं, मध्य राशि को विनियम कहते है और अन्तिम राशि को इच्छा कहते है। पहली और अंतिम राशियाँ एक जाति की होती है। मध्य राशि को अन्तिम राशि से गुणा करके गुणनफल को पहली राशि से भाग देने पर इच्छा फल मिलता है। त्रैराशिक के उपरोक्त नियम का प्रयोग ऋक् ज्योतिष में कई बार किया गया है। 


याजुष् ज्योतिष-
वेदांग ज्योतिष के इस संस्करण में भी अनेक गणित विषय प्रसंग और सिद्धान्त उपलब्ध होते हैं। जोड़, घटाव, गुणा, भाग, त्रैराशिक का सिद्धान्त तथा संख्याओं का उल्लेख इस दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है। 
संख्याएं- 
याजुष् ज्योतिष में संख्याओं का विशेष् प्रयोग मिलता है। एक अंकवाली संख्या, दो अंक वाली संख्या तथा तीन अंकवाली संख्याओं का प्रयोग इस वेदांग में किया गया है। 
(क) एक अंक वाली संख्याएं-
एक अंक वाली संख्या में एक से लेकर नौ तक की समस्त संख्याओं अर्थात् एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ तथा नौ इन शब्दों का प्रयोग प्राप्त होता है। इन संख्याओं के लिए जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है वे निम्नलिखित हैं-
एक-एक, दो-द्वि, तीन-त्रि ,चार-चतुर्थ ,पाँच-पंच,
छः-षट् ,सात-सप्त, आठ-अष्ट, नौ-नव, दस-दश
स्पष्ट है कि एक अंकवाली इन संख्याओं के लिए जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है वे आज भी संस्कृत साहित्य में सुरक्षित हैं। 
(ख) दो अंकों वाली संख्याएं-
जहां तक दो अंकों वाली संख्याओं का प्रश्न है ये संख्याएं 10 से प्रारम्भ होकर 99 तक है। इन समस्त संख्याओं का प्रयोग इस लघुकाय वेदांग ग्रन्थ में तो उपलब्ध नहीं होेता, परन्तु प्रसंगवश दो अंक वाली अनेक संख्याओं का प्रयोग इस ग्रन्थ में अवश्य दृष्टिगत होता है। ये संख्याएं है- दस, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, इक्कीस, तीस, इक्तीस, पचास, साठ, एकसठ, बासठ ,सरसठ, बहत्तर। 

(ग) तीन अंक वाली संख्याएं-
तीन अंक वाली संख्याओं से तात्पर्य सैकड़े वाली संख्याओं से है और ये संख्याएँ 100 से प्रारम्भ होकर 999 तक की है। इस ग्रन्थ में ऐसी सभी संख्याएं तो नहीं मिलती हैं परन्तु कुछ संख्याओं का उल्लेख अवश्य मिलता है। ये संख्याएं है- एक सौ चौबीस, एक सौ चौतीस, एक सौ पैतीस, तीन सौ छयासठ, और छः सौ तीन।
गणितीय परिकर्म-
वेदांग ज्योतिष के इस याजुष् संस्करण में गणित के विभिन्न परिकर्मों यथा-संकलन (जोड़) व्यकलन (घटा), गुणन, भाग, त्रैराशिक आदि का प्रयोग किया गया है। इन परिकर्मों से संबंधित प्रसंगों पर दृष्टिपात करने के बाद ही वेदांग ज्योतिष की गणितीय शैली को जाना जा सकता है- 
(क) संकल-
संकलन से तात्पर्य जो संख्याओं को जोड़ने तथा उनमें वृद्धि से है। इससे सम्बन्धित प्रसंग निम्नलिखित हैं- 
-सूर्य के उत्तरायण में जाने पर जल के एक परिणाम मात्र दिन बड़ा और रात छोटी होती है अयन से रात और दिन में छह मुहूर्त्त की वृद्धि होती है।
-वर्तमान सौराब्द मान को, एक हीन कर बारह से गुणित कर गुणनफल को दूना करे, उसमें गत पर्व को जोड़े हुए को साठ-साठ पदों से युत करे यही चान्द्र पर्वों की राशि होती है। 
-वर्तमान शब्द में बारह मासों मे प्राप्त को अभीष्ट पक्ष करें। वे पक्ष ग्यारह से गुणित होने पर चन्द्र के अंश होते है। यदि चान्द्र पक्ष शुक्ल पक्ष में हो तो पूर्व आगत भाश में आधा जोड़े।
-एक वर्ष में चार अष्टकाएँ होती है। भांशों के अष्टका स्थान से उन्नीस कलाएँ करें हीन स्थान में गणक सूर्य अर्थात् बारह से युक्त बहत्तर का प्रक्षेप करें।
-पर्व के नक्षत्रंश से युक्त तिथि को बारह और दस से गुणा करें उसे नक्षत्र समूह अर्थात् 124 से विभाजित कर लब्ध को तिथि संबंधी नक्षत्र जाने।
-पर्व समय में जो भांश ग्रहण कला प्राप्त हुई उसमें सात से गुणित तिथि को जोड़कर गणक तिथि के समान गत नक्षत्र के होने पर ग्रहण करने योग्य कला जानें। यदि पर्व से गत तिथि संख्या समान ही गत नक्षत्र मान हो तब पर्व नक्षत्र ग्रहण कला में सात से गुणित तिथि को जोड़े।
उपरोक्त प्रसंगों के अतिरिक्त कुछ अन्य स्थानों पर भी गणित विषयक संक्रिया का उल्लेख किया गया है। 
(ख) व्यकलन-
व्यकलन अर्थात् घटाव से सम्बन्धित अनेक प्रसंग याजुष ज्योतिष में उपलब्ध है। इस विषय में अधोलिखित उद्धरण द्रष्टव्य हैं-
-वर्तमान सौराब्द मान को एक हीन कर बारह से गुणित कर गुणनफल को दूना करे। उसमें गत पर्व को जोड़े, जोड़े हुए को साठ-साठ पदों से युत करे।
-तिथिमान आनयन प्रकार सूर्योदय से गत पर्वों के युक्त भाग को दो से गुणा कर तिथियेां को उनमें से घटा दे। उस अहोरात्र वृत्त भाग में सूर्य के होने पर सूर्य पर, सूर्य की तिथि में स्थित तिथि का मान गत होता है।
-विषुव संख्या के संख्यात्मक मान है, उसमें दो से गुणा करें, गुणित पफ़ल को एक से रहित करें, शेष को छः से गुणा करें, यही गुणनफल अपने विषुवत में युगादि से पक्ष होता है।
-वर्तमान सूर्य नक्षत्र के जो भुक्त भाग है उनमें नौ से भाग देकर फल ग्रहण करें, उस फल को दो बार से गुणित कर गुणितफल दिनांशमान से पूर्वागत फल दिनात्मक को हीनकर, शेष ग्रहण करें, वही शेष सूर्य की दिनोपभुक्ति होगा।
-युगीन सावन दिन की संख्या के साथ पाँच योग करने से तत्संख्यक सावन दिन में धनिष्ठा नक्षत्र की उदय संख्या होती है। उक्त सावन दिन संख्या से बासठ घटाने पर चन्द्र की सावन दिन संख्या होती है तथा इक्कीस घटाने पर चन्द्र के नक्षत्र भोग की संख्या मिलती है।
-अयन के आरम्भ दिन से उत्तर अयन का जो गत भूमि दिनमान हो तथा दक्षिणायन आरम्भ दिन से दक्षिणायन का जो गत भूमि दिनमान हो उसे अयनान्तर्गत कुदिन मान से घटाकर जो शेष दिनमान हो, उसे दो से गुणा कर गुणनफल में एकसठ का भाग देने पर लब्ध में बारह जोड़ने पर मुहूर्त्तात्मक दिनमान होगा।
उपरोक्त उद्धरण गणित की व्यकलन परिकर्म पर आधारित है। इन समस्त उदाहरणों में कालमान निर्धारण हेतु व्यकलन क्रिया का आश्रय लिया गया है। इनके अतिरिक्त कई अन्य स्थानों पर भी घटाव क्रिया का वर्णन है।           

(ग) गुणन-
गुणन परिकर्म से सम्बन्धित अनेक उदाहरण याजुष् ज्योतिष में प्राप्त होते है। इस दृष्टि से अधोलिखित उद्धरण अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं- 
-वर्तमान सौराब्द मान को एक हीन कर बारह से गुणित कर गुणनफल को दूना करे। उसमें गतवर्ष को जोड़े हुए को साठ-साठ पदों से युत करे।
-वर्तमान शब्द में बारह मासों में प्राप्त को अभीष्ट पक्ष किया जाय। वे पक्ष ग्यारह से गुणित होने पर चन्द्र के भांश हो। यदि चान्द्र पक्ष शुक्ल पक्ष में हो तो पूर्व आगत भांश से आधा जोड़े। 
-विषम पक्ष अर्थात् शुक्ल पक्ष के अवसान होने पर पन्द्रहवीं तिथि के उपस्थित होने पर प्राप्त भांश को नवभांशों से वर्धित (गुणित) करें तब वास्तव भांशमान होगा। अनन्तर गतभांश सात गुने से युत होने पर सावयव रवि सावन दिन होता है। 
-पर्व के नक्षत्रंश से युक्त तिथि को बारह और दस से गुणा कर उसे नक्षत्र समूह अर्थात् 124 से विभाजित कर लब्ध को तिथि सम्बन्धी नक्षत्र जाने।
-सूर्योदय से बीते हुए पर्व के अन्नतांश जो एक सावन दिन में एक सौ चौबीस होते हैं, उनसे द्विगुणित तिथि को गजक शोधित करें, शेष उन दिन-रात को वृत्त भागों में जब सूर्य आता है तब वह सूर्य तिथिमान के अन्त को प्राप्त करता है।
-विषुवत के संख्यात्मक मान को दो से गुणा करें, गुणित फल को एक से रहित करें, शेष को छः से गुणा करे, यह गुणनफल अपने विषुवत् में युगादि से पक्ष होता है।
-युगादि से वर्त्तमान पर्व पर्यन्त जितने पर्व हो, उन्हें ग्यारह से गुणित कर फिर पर्व के अनन्तर जो तिथि हो उस तिथि की संख्या को नौ से गुणा कर दोनेां को एकत्रित कर युग में जितने पर्व हों उस संख्या से लब्धफल पर्वमान के सहित किया जाय तो वह क्रम से सूर्य नक्षत्र होता है। 
याजुष् ज्योतिष में उपरोक्त उद्धरणों के अतिरिक्त अन्य कई प्रसंग प्राप्त होते है, जिनमें गुणन की विधि का वर्णन प्राप्त होता है। 
(घ) भाग-
गणित की इस प्रक्रिया का भी याजुष् ज्योतिष में बाहुल्य है। ऐसे अनेक प्रसंग है जिनमें भाग की विधि का उल्लेख तथा प्रयोग किया गया है। ऐसे कुछ उद्धरण निम्नलिखित हैं- 
-पर्व के नक्षत्रंश से युक्त तिथि को बारह और दस से गुणा कर उसे नक्षत्र समूह अर्थात् 124 से विभाजित कर लब्ध को तिथि सम्बन्धी नक्षत्र जानें।
-वर्तमान सूर्य नक्षत्र के जो मुक्त भाग हो उन्हें नव से विभाजित कर फल ग्रहण करे, उस पफ़ल को दो बार दो से गुणित कर गुणित फल दिनांशमान से पूर्वागत फल दिनात्मक को हीन कर शेष ग्रहण करें, वही शेष सूर्य की दिनांपभुक्ति होगा। 
-सौर नक्षत्रमान युग में एक सौ पैंतीस होता है, यह मान एक कम अर्थात् एक सौ चौतीस युग में चन्द्र का अयन होते हैं। युग में जो चन्द्रपर्व एक सौ चौबीस होते है उनका चतुर्थांश (चौथा भाग) पर्वपाद कहा जाता है।
-चन्द्रमा जितने समय में नक्षत्र से युक्त होता है, वह समय सात कला अधिक एक रवि सावन दिन होता है। इसी प्रकार सूर्य जितने काल में एक नक्षत्र का भोग करता है वह काल तेरह सावन दिन तथा दिन का पाँच भागा नव (5/9) होता है। 
-अयन के आरम्भ दिन से उत्तर अयन का जो गत भूमि दिनमान हो तथा दक्षिणायन आरम्भ दिन से दक्षिणायन का जो गत भूमि दिनमान हो उसे अयनान्तर्गत कुदिनमान से घटाकर जो शेष दिनमान हो उसे दो से गुणा गुणनफल में एकसठ का भाग दोने पर लब्ध में बारह जोड़ने पर मुहूर्त्तात्मक दिनमान प्राप्त होता है।
-पूर्व प्रतिपादित विधि से वेधोपाय का उपदेश समझे-वेध से ज्ञात राशि में प्राप्त किसी पदार्थ को जानकर ज्ञेयराशि में उस पदार्थ को ले आने के लिए ज्ञान राशि सम्बन्धीा गत पदार्थ से गुणित ज्ञेयराशि को ज्ञान राशि से विभाजित करें, फल ज्ञेयराशि सम्बन्धी उस पदार्थ का मान होता है। 
उपरोक्त उद्धरणों में सामान्य भाग की क्रिया का उल्लेख तो किया गया ही है। साथ ही साथ भिन्न का भी प्रयोग किया गया है। 
त्रैराशिक नियम-
त्रैराशिक शब्द का अर्थ है तीन राशियां अर्थात् तीन राशियों से सम्बन्ध रखने वाला नियम। क्योंकि इस संक्रिया में न्याय और करण के लिए तीन राशियों की आवश्यकता पड़ती है अतएव यह नियम त्रैराशिक कहलाता है। ऋक् ज्योतिष में वर्णित त्रैराशिक नियम के समान ही इस वेदांग में भी यह सिद्धान्त वर्णित है। 
इस नियम की भारतीय गणित परम्परा में बड़ी ही प्रतिष्ठा है और इसे समस्त अंकगणित का मूल कहा गया है और विमलबुद्धि ही बीज गणित है अर्थात् समस्त अंकगणित त्रैराशिक से ओतप्रोत है। 


3- आथर्वण ज्योतिष-
आथर्वण ज्योतिष वेदांग ज्योतिष के विभिन्न संस्करणों में सर्वाधिक अर्वाचीन माना जाता है। अतः इस ग्रन्थ में गणित के अनेक अवयव यथा संख्याओं का प्रयोग, घटाव, गुणा व भाग आदि का प्रयोग मिलता है। 
संख्याएं-
संख्याओं में एक अंकवाली संख्या ,दो अंकों वाली संख्या और तीन अंकों वाली संख्याआें का उल्लेख है। इन संख्याओं का विभिन्न प्रसंगों में बार-बार उल्लेख किया गया है।
(क) एक अंक वाली संख्याएं-
एक अंक वाली संख्याओं में एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ तथा नौ इन समस्त संख्याओं का उल्लेख आथर्वण ज्योतिष में प्राप्त होता है। 
(ख) दो अंकों वाली संख्याएं-
दो अंकों वाली संख्याएं दस (10) से प्रारम्भ होकर निन्यानवे (99) तक है। इन समस्त संख्याओं का उल्लेख आथर्वण ज्योतिष में तो नहीं मिलता पर इतना अवश्य है कि दो अंको वाली अनेक संख्याओं का यहां उल्लेख अवश्य हुआ है। इन संख्याओं में दस, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, पंद्रह, सोलह, सत्रह, अठारह, उन्नीस, बीस, इक्कीस, बाईस, तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, तीस, बत्तीस, साठ, नब्बे, छियानवे सम्मिलित हैं। उपरोक्त संख्याओं के लिए जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है वे आज भी प्रयुक्त होते है। 
(ग) तीन अंकों वाली संख्या-
आथर्वण ज्योतिष में तीन अंकों वाली एक मात्र संख्या का प्रयोग हुआ है और वह संख्या सौ है और इसके लिए शत शब्द प्रयुक्त है।
आथर्वण ज्योतिष में संख्याओं के प्रयोग में एक नवीन शैली का प्रयोग हुआ है। संख्याओं के लिए शब्दों का प्रयोग इस ग्रन्थ की विशेषता है। सात के लिए अर्थात् अश्व शब्द का प्रयोग है जबकि पन्द्रह के लिए पूर्ण शब्द प्रयुक्त है। शब्द संकेत के अलावा कुछ संकेतों का भी प्रयोग इस ग्रन्थ में मिलता है जैसे चार के लिए चः शब्द का प्रयोग सम तथा विषम संख्याओं का उल्लेख भी यहाँ मिलता है। सम संख्याओं के लिए युग्म शब्द तथा विषम संख्याओं के लिए अयुग्म शब्द का प्रयोग होता है। इन विषम संख्याओं के लिए विकल शब्द भी प्रयोग में आया हैं। 
गणितीय संक्रियाएं-
आथर्वण ज्योतिष ग्रन्थ में गणित की विभिन्न संक्रियाएं यथा व्यकलन ,गुणन तथा भाग का प्रयोग किया गया है। इन संक्रियाओं का प्रयोग विभिन्न प्रसंगों में हुआ है। 
(क) व्यकलन-
करण निर्धारण के प्रसंग में गणित की इस संक्रिया का प्रयोग हुआ है। यहाँ कहा गया है कि जिस तिथि में करण जानना है उस तिथि को शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से गिनकर जो संख्या मिले, उसे दूना कर फिर उसमें एक संख्या घटा दें, जो शेष रहे उसमें सात का भाग दें, भाग देने पर जो शेष बचे उसको बव से विष्टि पर्यन्त क्रमशः करण समझा जाता है। गर्भाधान प्रसंग में भी व्यवकलन का प्रयोग हुआ है। 
(ख) गुणन- गुणन की प्रक्रिया भी इस ग्रन्थ में अनेक स्थान पर वर्णित है। इस विषय पर निम्नलिखित सन्दर्भ द्रष्टव्य है-
-जैसे पति के विदेश जाने पर या बीमार अथवा मर जाने पर पत्नी सभी कार्यों को करती है, उसी प्रकार चन्द्रमा के कृष्ण पक्ष में न रहने पर तिथि एक गुना तथा नक्षत्र चौगुना शुभदायी कहा गया है, अर्थात् तिथि का एक गुण और नक्षत्र का चार गुण मान्य होता है।
-वार अर्थात् दिन का आठ गुनाफल करण का सोलह गुणाफल योग का बत्तीस गुणाफल तारा का साठ गुणा फल होता है।
-चन्द्रमा का फल सौ गुणा होेता है, इसलिए चन्द्रमा का बलाबल अवश्य देखना चाहिए क्योंकि अन्य ग्रह भी चन्द्रमा के बलाबल के अनुसार ही शुभ या अशुभ फल देते हैं।
उपरोक्त उद्धरण गणित के गुणन संक्रिया के महत्वपूर्ण उदाहरण है। 
(ग) भाग-
भाग की प्रक्रिया का उल्लेख आथर्वण ज्योतिष में उपलब्ध है। निम्नलिखित प्रसंग द्रष्टव्य हैं-
-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्व तथा शूद्र इन सभी वर्णों के सम्बन्ध में मध्यादिन अभिजित मुहूर्त्त श्रेष्ठ माना गया है। इस उदाहरण में मध्यदिन का मान बिना भाग की क्रिया के संभव नहीं।
-जिस तिथि का करण जानना हो उस तिथि को शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से गिनकर जो संख्या मिले, उसे दूना कर फिर उसमें एक संख्या घटा दें। जो शेष रहे उसमें सात का भाग दें भाग देने पर जो शेष मिले उसको सात का भाग दें, भाग देने पर जो शेष मिले उसको वव से विष्टि पर्यन्त क्रमशः करण समझें।
गणित की संक्रियाओं में से संकलन अर्थात् जोड़ का प्रयोग आथर्वण ज्योतिष में नहीं मिलता है। पर इसके अतिरिक्त व्यवकलन गुणन तथा भाग का प्रयोग इस ग्रन्थ में अवश्य मिलता है। वेदांग ज्योतिष के तीनों संस्करणों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि गणितशास्त्र से संबंधित विभिन्न सिद्धान्तों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया गया है। गणितीय संक्रियाओं के ये प्रयोग स्पष्ट करते हैं कि प्राचीन भारतीय ऋषियों ने गणित के क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति कर ली थी और इस दिशा में महर्षि लगध प्रणीत वेदांग ज्योतिष अत्यधिक महत्वपूर्ण रचना है।


2 comments:

  1. I got some valuable points through this blog. Thank you sharing this blog.
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  2. बहुत अच्छी जानकारी प्राप्त हुई । धन्यवाद

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