Thursday 13 September 2018

पाराशरी ज्योतिष में ग्रह दृष्टि

        भारतीय ऋषि-मुनियों ने अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा अनुसंधान के द्वारा काल की गति का बहुत ही सूक्ष्म विश्लेषण किया है। न केवल ऋग्वेद अपितु अथर्ववेद में भी काल की विभिन्न ईकाईयों और उनके स्वरूप पर बहुत ही विस्तार से चर्चा की गई है। काल के दुर्बोध और अगम्य स्वरूप को समझने के लिए ही ज्योतिषशास्त्र अस्तित्व में आया। जन्म-जन्मान्तर में किए गए शुभाशुभ कर्मों के आधार पर ही जीव मनुष्य योनि को प्राप्त करता है और होराशास्त्र के द्वारा इस विषय को अत्यन्त ही स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।1 जन्मकालीन ग्रह-नक्षत्र तथा राशियों की आकाशीय स्थिति के आधार पर व्यक्ति विशेष के पूर्व-जन्म, वर्तमान-जन्म तथा मृत्यु के बाद की गति को फलित ज्योतिषशास्त्र द्वारा ही जाना जाता है। यही होराशास्त्र या फलित-ज्योतिष का मूल उद्देश्य है। जातक के जन्मकालीन ग्रह-नक्षत्रों-राशियों के मध्य सम्बन्धों के आधार पर ही फलादेश सम्भव हो पाता है। ज्योतिषशास्त्र के इस ज्ञान के विकास में अनेक ऋषि-मुनियों का योगदान है, परन्तु महर्षि पराशर प्रणीत फलित-ज्योतिष के सिद्धान्त अत्यन्त प्राचीन काल से ही दैवज्ञों के मध्य मार्गदर्शक के रूप में स्वीकृत रहे हैं। महर्षि पराशर ने अपने ग्रन्थों में ग्रहों की दृष्टि विषयक विवेचना को काफी महत्त्व प्रदान किया है। “लघुपाराशरी, मध्य-पाराशरी तथा वृहत् पाराशरहोराशास्त्रम्” महर्षि की रचनाओं के रूप में स्वीकृत हैं।
दृष्टि विषयक सिद्धांत- फलित ज्योतिषशास्त्र में दृष्टि सिद्धांत के अनुसार जातक के जन्माङ्ग के विभिन्न भावों में स्थित ग्रह विशेष परिस्थितियों में एक-दूसरे पर दृष्टिपात करते हैं। इस संदर्भ में महर्षि पराशर का मत है कि सूर्यादि नवग्रह अपने द्वारा अधिष्ठित भाव से सप्तमभाव में स्थित ग्रहों पर दृष्टिपात करते हैं और इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने अपने ग्रन्थ लघुपाराशरी में कहा है- “पश्यन्ति सप्तमं सर्वे...।”2 अभिप्राय यह है कि यदि कोई ग्रह जन्माङ्ग के चतुर्थ भाव में स्थित है तो वह दशम भाव में स्थित ग्रह को पूर्ण दृष्टि से देखेगा। निम्नलिखित तालिका द्वारा ग्रहों के इस दृष्टि विषय सिद्धान्त को स्पष्टतया समझा जा सकता है और जाना जा सकता है कि किसी भाव विशेष में स्थित ग्रह की सप्तम दृष्टि किन भावों पर पड़ेगी-
ग्रह द्वारा अधिष्ठित भाव123456789101112
दृश्य भाव789101112123456
ग्रह द्वारा अधिष्ठित भाव। ग्रह की दृष्टि इन भावों पर। महर्षि पराशर ने उपरोक्त सामान्य नियम का प्रतिपादन करने के बाद शनि, बृहस्पति तथा मङ्गल से संबंधित दृष्टि विषयक सिद्धान्त को प्रस्तुत करने के क्रम में कहा है “...शनि-जीव-कुजाः पुनः। विशेषतश्च त्रिदश-त्रिकोण-चतुरष्टमान।।” -वृ.प.हो. 27/41
अभिप्राय यह है कि शनि, गुरु और मङ्गल अपने द्वारा अधिष्ठित भाव से सप्तम भाव पर पूर्ण दृष्टि तो डालते ही हैं, साथ ही साथ कुछ अन्य भावों पर भी इनकी पूर्ण दृष्टि होती है। शनि स्व-अधिष्ठित भाव से सप्तम भाव के अतिरिक्त तृतीय तथा दशम भाव पर भी पूर्ण दृष्टि डालते हैं। बृहस्पति सप्तम भाव के अतिरिक्त पञ्चम और नवम भाव पर पूर्ण दृष्टिपात करते हैं। इसी प्रकार मङ्गल सप्तम भाव के अतिरिक्त चतुर्थ और अष्टम भाव पर भी पूर्ण दृष्टि रखते हैं। इन ग्रहों के दृष्टि विषयक विवेचना के सन्दर्भ में यह ध्यातव्य है कि ये समस्त ग्रह अपने अधिष्ठित भाव से ही तत्तत् भावों पर दृष्टिपात करते हैं। अधोलिखित तालिका उपरोक्त विषय को सहज ही स्पष्ट कर सकता है-
ग्रह द्वारा अधिष्ठित भाव123456789101112
मंगल द्वारा दृश्य भाव4,7,85,8,96,9,107,10,118,11,129,12,110,1,211,2,312,3,41,4,52,5,63,6,7
शनि द्वारा दृश्य भाव3,7,104,8,115,9,126,10,17,11,28,12,39,1,410,2,511,3,612,4,71,5,82,6,9
गुरु द्वारा दृश्य भाव5,7,96,8,107,9,118,10,129,11,110,12,211,1,312,2,41,3,52,4,63,5,74,6,8
ग्रहों की उपरोक्त पूर्ण दृष्टि के अतिरिक्त पाद दृष्टि के सम्बन्ध में भी महर्षि पराशर ने अपने विचार “बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम्” नामक ग्रन्थ में व्यक्त किए हैं।3 इनके अनुसार प्रत्येक ग्रह अपने द्वारा अधिष्ठित राशि से तृतीय तथा दशम भाव का एक चरण अथवा एक पाद दृष्टि से अवलोकन करते हैं। इसी प्रकार स्वयं द्वारा अधिष्ठित राशि से पञ्चम तथा नवम स्थान पर दो चरण दृष्टि डालते हैं तथा चतुर्थ और अष्टम भाव पर त्रिपाद दृष्टि डालते हैं।
दृष्टिबल साधन- महर्षि पराशर ने ग्रहों की दृष्टिबल साधन विषय पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है। उन्होंने द्रष्टा ग्रह और दृश्य भाव स्पष्ट द्वारा ग्रह विशेष के बल साधन की विधि प्रस्तुत की है।4 इस विधि पर चर्चा करने से पूर्व आवश्यक है कि हम जाने लें कि जो ग्रह देखता है उसे ‘द्रष्टा’ कहते हैं और जिसे देखा जाता है, उसे ‘दृश्य’ कहते हैं। द्रष्टा ग्रह स्पष्ट को दृश्य स्पष्ट में से घटा लेना चाहिए, यदि शेष छः राशि से अधिक हो तो उसे 10 राशि में घटाकर शेष को अंशात्मक बना लें, उसमें दो से भाग दें, जो लब्धि आए वही स्पष्ट दृष्टि होती है। इसी प्रकार द्रष्टा तथा दृश्य का अन्तर 5 राशि से अधिक हो तो राशि का त्याग कर केवल अंशादि को 2 से गुणा करें, प्राप्त लब्धि स्पष्ट दृष्टि होती है। अन्तर यदि 4 राशि से अधिक हो तो 5 राशि में घटाकर शेष दृष्टि होती है। द्रष्टा तथा दृश्य का अन्तर 3 राशि से अधिक हो तो 4 राशि में घटाकर 2 का भाग देकर 30 जोड़े, लब्धि स्पष्ट दृष्टि है। इसी विधि का आश्रय लेते हुए द्रष्टा तथा दृश्यान्तर 2 राशि से अधिक हो तो राशि को छोड़ देना चाहिए तथा केवल अंशादि में 15 जोड़ने पर स्पष्ट दृष्टि होती है। द्रष्टा तथा दृश्यान्तर 1 राशि से अधिक होने पर राशि का त्याग करें तथा अंशादि में 2 से भाग दें प्राप्त लब्धि स्पष्ट दृष्टि होती है। जिस प्रकार शनि, मङ्गल तथा बृहस्पति की पूर्ण दृष्टि विषयक सिद्धान्त में कुछ भेद है, उसी प्रकार दृष्टि साधन की विधि में भी इन तीन ग्रहों के सम्बन्ध में कुछ विशेष नियमों का प्रावधान महर्षि पराशर ने किया है। शनि के सन्दर्भ में उन्होंने कहा है कि यदि शनि और दृश्य का अन्तर करने पर राशि स्थान में एक हो तो भुक्तांश को दो से गुणा करने पर स्पष्ट दृष्टि होती है, इसी प्रकार 9 राशि शेष होने पर भोग्यांश को द्विगुणित करने पर स्पष्ट दृष्टि होती है। यदि अन्तर दो राशि हो तो भुक्तांश को 2 से भाग देकर 60 घटाने पर स्पष्ट दृष्टि प्राप्त होती है। इसी प्रकार शनि तथा दृश्य का अन्तर 8 राशि हो तो भुक्तांश को 30 में जोड़ने पर स्पष्ट दृष्टि प्राप्त होती है। बृहस्पति के सन्दर्भ में महर्षि पराशर का कथन है कि गुरु तथा दृश्य का अन्तर यदि 3 अथवा 7 राशि रहे तो भुक्तांशों को आधा करें तथा 45 जोड़े, प्राप्त लब्धि दृष्टि स्पष्ट है। यदि गुरु व दृश्य का अन्तर 4 या 8 राशि हो तो भुक्तांशों को 60 में घटाएँ लब्धि स्पष्ट दृष्टि होगी। शनि तथा बृहस्पति के समान ही मङ्गल के दृष्टि स्पष्ट के सन्दर्भ में विशेष प्रावधान करते हुए महर्षि पराशर का कथन है कि मङ्गल को दृश्य में घटाने पर राशि स्थान में 3 अथवा 7 हो तो भुक्तांश को 60 में घटाने से दृष्टि स्पष्ट मिलता है जबकि अन्तर 2 हो तो भुक्तांश को डेढ़ गुणा करके 15 जोड़ दें तो स्पष्ट दृष्टि मिलती है साथ ही अन्तर 6 राशि हो तो पूर्ण बल होता है। उपरोक्त सूक्ष्म गणितीय क्रियाओं द्वारा महर्षि पराशर ने ग्रहों की दृष्टि का बल निर्धारण किया है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र के फलित शाखा का विकास मुख्यतया महर्षि पराशर के सिद्धान्तों के आधार पर ही हुआ है। महर्षि पराशर प्रोक्त सिद्धान्तों का परीक्षण तथा उनका विकास परवर्ती विद्वानों ने भी किया है। ग्रहों की दृष्टि विषयक परिचर्चा का विकास अन्य ग्रन्थों में भी हुआ है। जन्मकुण्डली के विभिन्न भावों का अपना पृथक् शुभाशुभत्व होता है। कुण्डली के विभिन्न भावों यथा त्रिकोण, केन्द्र आदि भावों में स्थित ग्रह के दृष्टिफल में भी अन्तर होता है। ‘कृष्णीयम्’ ग्रन्थ में कहा गया है- “दर्शनफलमपि दद्युः त्रिकोणसप्तमचतुर्थदशमगताः। अर्धाफलं सम्पूर्ण पादोन पादमन्यत्र।।”5 अर्थात् त्रिकोणभाव में स्थित ग्रह अपने दृष्टिफल का 50%, सप्तमस्थ ग्रह 100%, चतुर्थ भावस्थ ग्रह 75% तथा दशमस्थ ग्रह 25% फल ही प्रदान करता है। महर्षि नारद ने भी ग्रहों की दृष्टि हो अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना है और कहा है कि अशुभफलदायक ग्रह भी शुभग्रहों की दृष्टि से शुभद हो जाते हैं जबकि पापग्रहों से दृष्ट तथा शत्रु ग्रहों से दृष्ट ग्रह शुभफलदायक होने पर भी अशुभ हो जाते हैं। सौम्येक्षितो नेष्टफलः शुभदः पापवीक्षितः। निष्फला तौ ग्रहौ चोभौ शत्रुणा च विलोकितौ।6 राहु तथा केतु की दृष्टि के सम्बन्ध में विशेष नियम बताया गया है, इसके अनुसार ये दोनों ग्रह अपने द्वारा अधिष्ठित भावों से पञ्चम तथा सप्तम भाव पर पूर्ण दृष्टि से देखते हैं, तीसरे तथा छठे भाव को एक पाद दृष्टि से देखते हैं। द्वितीय तथा दशम भाव का द्विपाद दृष्टि से अवलोकन करते हैं जबकि अपने घर को त्रिपाद दृष्टि से देखते हैं। सुते सप्तमे पूर्णदृष्टिं तमस्य तृतीये रिपौ पाददृष्टिर्नितांतम्। धने राज्यगेहार्धदृष्टिं वदन्ति स्वगेहे त्रिपादं तथा चैव केतोः।।7 ग्रहों की चरणवृद्धि दृष्टि विषयक सिद्धान्त के अतिरिक्त इन्हीं ग्रहों की दृष्टियों का उफध्र्व और समदृष्टि आदि भेद भी किया गया है। सूर्य तथा मङ्गल की उफध्र्वदृष्टि होती है, शुक्र व बुध कटाक्ष दृष्टि से देखते हैं, चन्द्रमा और बृहस्पति समभाग अर्थात् बराबर दृष्टि करके देखते हैं तथा राहु व शनि नीची दृष्टि से देखते हैं। अथोउध्र्वदृष्टि दिननाथभौमौ दृष्टिः काटाक्षेण कवीन्दुसून्वोः। शशाङ्कगुर्वोः समभागदृष्टिस्त्वधोक्षिपातस्त्वहि- नाथशन्योः।8 त्रिदशे च त्रिकोणे च चतुरस्रे च सप्तमे। पादवृद्धया प्रपश्यन्ति प्रयच्छन्ति फलं तथा।। अभिप्राय यह है कि महर्षि पराशर प्रणीत ग्रहों की दृष्टि विषयक सिद्धान्तों के आलोक में परवर्ती आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में इस सिद्धान्त को और अधिक विकसित किया है। ग्रहों की दृष्टि जन्माङ्ग में उपस्थित विभिन्न ग्रहों को उनके शुभाशुभत्व तथा फल देने की प्रवृत्ति को सीधे-सीधे प्रभावित करता है। यही कारण है कि इन ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सौम्य ग्रहों तथा भावेशों द्वारा दृष्ट भाव के फलों में वृद्धि होती है, जबकि पापी व शत्रु ग्रहों से दृष्ट भावों से सम्बन्धित फलों में न्यूनता आती है।9 अतः फलित ज्योतिषशास्त्र के अध्येताओं के लिए यह अनिवार्य तथा नितान्त आवश्यक है कि ग्रहों की दृष्टि तथा उनके बल-निर्धारण की अवहेलना किसी भी रूप में नहीं हो, अन्यथा फलादेश की सटीकता पर निश्चय ही नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। ग्रहों की दृष्टि व अनेक बल निर्धारण के क्षेत्र में महर्षि पराशर के सिद्धान्त आज भी अकाट्य और प्रासङ्गिक है।   
संदर्भ
1. सारावली; 2/1
2. लघुपाराशरी; 1/5
3. वृहत्पराशरहोराशास्त्रम्; 27/3-4
4. वही; 27/6-13
5. कृष्णीयम्; 3/4
6. नारदसंहिता; 12/10
7. ज्योतिषश्यामसंग्रह; 12/33
8. सर्वार्थचिंतामणि; 1/91
9. षट्पञ्चाशिका; 1/3

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