Tuesday 18 December 2018

त्रिकोण भाव समीक्षा: पाराशरी ज्योतिष के आलोक में


   

   भारतीय फलित ज्योतिष शास्त्र के ग्रन्थों में कुण्डली के विभिन्न भावों की पृथक्-पृथक् संज्ञा की गई है। महर्षि पराशर अपनी प्रसिद्ध रचना वृहत्पाराशरहोराशास्त्र में इन भावों का नामकरण करते हुए कहते हैं - ‘तनु, धन, सहोदर, बन्धु, पुत्र, शत्रु, स्त्री, रन्ध्र, धर्म, कर्म, लाभ एवं व्यय’ ये लग्न से द्वादश भावों के नाम हैं।   द्वादश भावों के इस नामकरण के अतिरित्तफ़ एक अन्य नामकरण की पद्धति भी ज्योतिष शास्त्र में प्राप्त होती है। इस पद्धति के अनुसार कुछ भावों के समूह के लिए विशिष्ट संज्ञाओं का प्रयोग किया जाता है। इस प्रसंग में महर्षि पराशर स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि लग्न, चतुर्थ, सप्तम, दशम की ‘केन्द्र’ संज्ञा है। 2, 5, 8, 11 की ‘पणफर’ संज्ञा है और 3, 6, 9, 12 की ‘आपोक्लिम’ संज्ञा है। लग्न से 5-9 की कोण संज्ञा है, 6,8,12 की दुष्ट स्थान और त्रिक संज्ञा है। 4, 8 को चतुरस्र कहते हैं एवं 3, 6, 10, 11 की उपचय (वृद्धि) संज्ञा होती हैं।  प्रस्तुत शोध आलेख में त्रिकोणभाव विचारणीय हैं अतः यहाँ विशेष रूप से पाराशरी ज्योतिष के आलोक में विषय की समीक्षा की जा रही है ।  सर्वप्रथम हम त्रिकोण भाव को समझने का प्रयास करते हैं । इसके लिए त्रिकोण भाव सम्बन्धी ऋषियों औरआचायों के मत, त्रिकोण भाव में परिगणित कुण्डली के विविध भावों के कारक ग्रह , इन भावों से विचारणीय विषय व त्रिकोण भावों के लिए ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में प्रयुक्त विभिन्न संज्ञाओं पर क्रमशः विचार करना अनिवार्य है ।
त्रिकोण भाव - भारतीय फलित ज्योतिषशास्त्र में त्रिकोण संज्ञक भाव को लेकर पर्याप्त मतभेद प्राप्त होता है। महर्षि पराशर के अनुसार लग्न से नवम तथा प×चम भाव की ‘कोण’ संज्ञा है।   आचार्य वराहमिहिर अपनी रचना वृहज्जातक में ‘प×चम भाव को ही त्रिकोण संज्ञक मानते हैं।   जबकि जातकपारिजातकार के अनुसार लग्न से प×चम तथा नवम भावों की त्रिकोण संज्ञा है।   गणेशकवि कृत जातकालंकार में भी इसी मत का समर्थन करते हुए कहा गया है कि नवम तथा प×चम भाव ही त्रिकोण भाव हैं।  इस प्रकार स्पष्ट है कि प×चम तथा नवम भाव त्रिकोण संज्ञक हैं। परन्तु ज्योतिषशास्त्र के कतिपय ग्रन्थों में लग्न को भी त्रिकोणसंज्ञक माना गया है। लोमश संहिता में महर्षि लोमश लग्न, प×चम तथा नवम तीनों ही भावों को त्रिकोण संज्ञक मानते हैं।  महर्षि पराशर की अन्य रचना लघुपाराशरी भी लग्न को त्रिकोण भाव के अन्तर्गत परिगणित करती है। लघुपाराशरी के संज्ञाध्याय में एक श्लोक प्राप्त होता है -‘सर्वे त्रिकोणनेतारो ग्रहा शुभफलप्रदाः। पतयस्त्रिषडायानां यदि पापफलप्रदाः।।’ इस श्लोक में त्रिकोण भाव के रूप में लग्न की भी गणना की गई है। इसी अभिप्राय से त्रिकोण नेतारः बहुवचनान्त पाठ का प्रयोग किया गया है। यदि त्रिकोण भाव के रूप में केवल प×चम व नवम दो ही स्थान महर्षि पराशर का अभिप्रेत रहता तो त्रिकोणनेतारौ ऐसा द्विवचनान्त पाठ रऽा जाता। इसके अतिरित्तफ़ ‘त्रिकोण’ इस शब्द में भी ‘त्रि’ शब्द का प्रयोग है। अतः तीन स्थानों का त्रिकोण संज्ञक होना ही समीचीन है। अतः त्रिकोण शब्द से 1/5/9 तीनों स्थान ग्राह्य हैं। प्रथम त्रिकोण भाव अर्थात् लग्न भारतीय फलित ज्योतिष शास्त्र के ग्रन्थों में लग्न को अत्यन्त शुभ भाव माना गया है। महर्षि पराशर ने भी त्रिकोण भाव को भद्र अर्थात् शुभ कहा है।  जातकालंकार में लग्न भाव की महत्ता का वर्णन करते हुए गणेश दैवज्ञ ने कहा है कि लग्न भाव विशेषतया सभी सुऽों का आशय है। अतः विद्वान् दैवज्ञों को इसी लग्न के आधार पर मनुष्यों के शुभाशुभ का निर्णय करना चाहिए।
लग्न भाव से विचारणीय विषय - ज्योतिषशास्त्र में प्रत्येक भाव से विशेष विषयों पर विचार का प्रावधान है। लग्न भाव अर्थात् प्रथम त्रिकोण से जातक के शारीरिक गठन, वर्ण, आकृति, लक्षण, यश, गुण, स्थान, सुऽ, प्रवास, तेजस्विता, दौर्बल्यादि का विचार किया जाता है।  आचार्य मन्त्रेश्वर अपनी रचना फलदीपिका में इस विषय पर अपना मत प्रस्तुत करते हुए लिऽते हैं कि लग्न, होरा, कल्प (प्रभाव, सूर्याेदय अर्थात् प्रारंभ), देह, उदय, रूप, सिर, वर्त्तमान काल, जन्म इन सबका विचार प्रथम भाव से करें।  कवि कालिदास का मत है कि लग्न भाव से सामूहिक रूप से शरीर-शरीर के अवयव (लग्नस्थ राशि तथा उसके स्वामी द्वारा), सुऽ, दुःऽ, जरावस्था, ज्ञान, जन्म का स्थान, यश, स्वप्न, बल, गौरव, राज्य, नम्रता, आयु, शान्ति, वय, बाल, आकृति, अभिमान, काम-धन्धा, दूसरों से जुआ, निशान, मान, त्वचा, नींद, दूसरों का धन हर लेना, दूसरों का अपमान करना, स्वभाव, आरोग्य, वैराग्य, कार्य का करण, पशु पालन, मर्यादा का सर्वनाश, वर्ण तथा निज अपमान इत्यादि विषयों का विचार किया जाता है।
लग्न भाव के कारक ग्रह - ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में प्रत्येक भाव के कारक के रूप में ग्रहों की कल्पना की गई है। जातक पारिजात में आचार्य वैद्यनाथ ने लग्न भाव के कारक ग्रह के रूप में सूर्य को प्रस्तुत किया है।  महर्षि पराशर भी लग्न के कारक ग्रह के रूप में सूर्य को ही स्वीकृत करते हैं।
लग्न भाव की अन्य संज्ञाएँ - भारतीय फलित ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में एक ही भाव के लिए अनेक संज्ञाओं का प्रयोग किया गया है। श्री गणेशकवि जातकालंकार में लग्नभाव के पर्याय शब्दों के विषय में कहते हैं - ‘लग्न के मूर्त्ति (शरीर), अंग, उदय, वपु, कल्प, आद्य आदि नाम हैं।’  आचार्य वैद्यनाथ लग्नभाव के अन्य नामों के विषय में लिऽते हैं - ‘लग्न भाव के लिए प्रयुत्तफ़ अन्य संज्ञाओं में कल्पए उदय, आद्य, तनु, जन्म, लग्न, विलग्न, होरा प्रमुऽ हैं।
द्वितीय त्रिकोण (प×चम भाव)
भाव कारकत्व - प×चम भाव से विभिन्न विषयों पर विचार किया जाता है। सन्तान, पिता के पुण्यकर्म, राजा, मन्त्री, सदाचार, शिल्प, मन, विद्या, गर्भ, छत्र, विवेक, धर्मकथा, कुशल समाचार, वस्त्र, नाना काम्य कर्मों के अनुष्ठान, पैतृक धन, दूरदर्शिता, स्त्री सम्बन्धी वैभव, वारांगनाओं की संगति, गम्भीरता, दृढ़ता, गोपनीयता, नम्रता, वृत्तान्तलेऽन, क्षेम, मैत्री, प्रबन्धकाव्य-रचना, कार्यारम्भ, उदर, मन्त्र, तन्त्र की उपासना, प्रसन्नतापूर्ण वैभव, अन्नदान, पाप-पुण्य की समझ, मन्त्र-जप, समालोचना करने की प्रज्ञा, धनार्जन का ढंग, मृदंगादि वाद्य, महान सन्तुष्टि, पाण्डित्य, परम्परागत मन्त्रिपद या परामर्शदाता का कार्य ये सभी प×चम भाव से विचारणीय विषय हैं।  उपरोत्तफ़ विषयों का वर्णन भारतीय फलित ज्योतिष शास्त्र के ग्रन्थों में किया गया है।
प×चम भाव का कारक ग्रह - भारतीय ज्योतिषशास्त्र में प्रत्येक भाव के लिए एक कारक ग्रह की कल्पना की गई है। जातक पारिजात के अनुसार प×चम भाव का कारक बृहस्पति है।  आचार्य जीवनाथ झा भी प×चम भाव के कारक के रूप में बृहस्पति ग्रह को ही स्वीकृत करते हैं।  ज्योतिष पितामह महर्षि पराशर की रचना वृहत्पराशरहोराशास्त्र में भी प×चम भाव के कारक ग्रह के रूप में बृहस्पति ग्रह का ही वर्णन किया गया है।
नवम भाव (त्रित्रिकोण) - नवम भाव त्रिकाण भावों में अन्तिम त्रिकोण है। यह तीसरा त्रिकोण भाव है अतः त्रित्रिकोण संज्ञक भी है।
नवम भाव से विचारणीय विषय - नवम भाव से विचार करने योग्य विषय इस प्रकार हैं - दान, धर्म, तीर्थयात्र, तप, गुरुजनों में भत्तिफ़, औषधि, चित्त की पवित्रता, देवपूजा, विद्या के लिए श्रम, वैभव, सवारी, भाग्य, नम्रता, प्रताप, धार्मिक कथा, यात्र, राज्याभिषेक, पुष्टि, साधुसंग, पुण्य, पिता का धन, पुत्र, पुत्री, हर प्रकार का ऐश्वर्य, घोड़े-हाथी, भैंसे, राज्याभिषेक का स्थान,  ब्रह्म ज्ञान की स्थापना, वैदिक यज्ञ, धन का दान।  इसी विषय में एक अन्य ग्रन्थ का मत है कि नवम स्थान में बावड़ी, कुंआ, तालाब, प्याऊ, मठ, मंदिर, दीक्षा,नई विद्या का आरंभ, पुण्य के कार्य, भाग्य, गुरु, तप, चर्चा आदि विषयों के बारे में जानना चाहिए।  आचार्य मन्त्रेश्वर इस विषय में अपना मत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि आचार्य (गुरु), देवता (आराध्य देव), पिता, पूजा, पूर्वभाग्य, तप, सत्कर्म, पौत्र, उत्तम वंशादि का विचार नवम भाव से करना चाहिए।  इस भाव को शुभ स्थान भी कहते हैं।

नवम भाव के कारक ग्रह -नवम भाव के कारक ग्रह के रूप में आचार्य वैद्यनाथ ने सूर्य और बृहस्पति दोनों ग्रहों को स्वीकार किया है।  महर्षि पराशर ने अपनी रचना ‘वृहत् पराशरहोराशास्त्रम’ में नवम भाव के कारक के रूप में गुरु को स्वीकृत किया है।
नवम भाव की संज्ञाएँ - प्रत्येक भाव के लिए ज्योतिष ग्रंथों में अनेक संज्ञाओं का प्रयोग किया गया है। नवम भाव के लिए जिन संज्ञाओं का प्रयोग किया गया है, उनके विषय में श्री गणेश कवि अपनी रचना जातकालंकार में उनका नामोल्लेऽ इस प्रकार करते हैं - गुरु, धर्म, शुभ, तप, आदि ।
महर्षि पराशर ने अपनी रचना लघुपाराशरी में इस सन्दर्भ में विस्तृत चर्चा की है । उन्होंने पहली बार ग्रहों की नैसर्गिक शुभाशुभत्व के स्थान पर भावाधिपतित्व को विशेष महत्व दिया है । त्रिकोणभाव के रूप में लग्न पंचम और नवम भाव को स्वीकार करने के बाद वे इन भावों के शुभत्व और इन भाव और भावेशों के कारण उत्पन्न राजयोगों पर भी विस्तृत चर्चा करते हैं त्रिकोणभावों के शुभत्व का निर्धारण करते हुए वे कहते हैं- सर्वे त्रिकोणनेतारोग्रहाः शुभफलप्रदाः अर्थात् जन्मकुंडली के त्रिकोणभावों के स्वामी शुभ फल देनेवाले होते हैं महर्षि का अभिप्राय यह है कि लग्न, पंचम और नवम भाव के अधिपति जातक को शुभफल देनेवाले होते हैं । यहाँ यह स्पष्ट कर दे ना आवश्यक है कि इन भावों के अधिपति ग्रह नैसर्गिक रूप से शुभ हों या अशुभ वे जातक को शुभ फल ही प्रदान करेंगे । अष्टमभाव के अधिपति के फलनिर्णय के अवसर पर भी महर्षि त्रिकोणभाव के महत्व और उसके शुभत्व को स्थापित करते हैं और कहते हैं दृ ‘भाग्यव्ययाधिपत्येनरन्ध्रेशो न शुभप्रदः’अर्थात् अष्टमेश अशुभ फल देने वाला इसलिए है क्योंकि वह भाग्य स्थान अर्थात् नवमभाव के व्यय स्थान का अधिपति है । इसी तथ्य को और अधिक बल देने के लिए महर्षि कर्क लग्न की कुण्डली का उदाहरण भी देते हैं और यहाँ मंगल के शुभत्व का कारण उसके त्रिकोणेशत्व को मानते हैं ना कि उसके केन्द्रेशत्व को ‘कुजस्य कर्मनेतृत्वेप्रयुक्ता शुभकारिता--’  जब समस्त त्रिकोणभावों के अधिपतियों को शुभफल देनेवाला बता दिया गया तो यह जिज्ञासा सहज उत्पन्न होती है इन तीनों भावाधिपतियों में बलाबल का निर्धारण कैसे हो ? इस शंका का समाधान प्रस्तुत करते हुए महर्षि पराशर सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं- ‘ प्रबलाश्चोत्तरोत्तरम् ’ अर्थात् ये त्रिकोण स्थान और उनके अधिपति क्रमशः बलवान होते हैं । अभिप्राय है कि सबसे कम बलवान त्रिकोण भाव लग्न, उससे अधिक बलवान पंचम और पंचम से अधिक बलवान त्रिकोण स्थान नवम भाव  है और इसी क्रम से इनके स्वामी भी बलवान होते हैं । इस तरह नवमेश सर्वाधिक बली त्रिकोणेश और लग्नेश सबसे कम बलवान त्रिकोणेश सिद्ध होता है ।  त्रिकोणेशों के बलाबल निर्धारण के अतिरिक्त महर्षि इन भावेशों के द्वारा विविध राजयोगों की उत्पत्ति विषयक सिद्धान्तों का प्रणयन करते हैं इस क्रम में त्रिकोण भाव के स्वामियों का केन्द्रेशों के साथ विविध सम्बन्धों के कारण राजयोगों के निर्माण से सम्बन्धित कई सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं तदुपरान्त त्रिकोणेशों के मध्य परस्पर सम्बन्ध के कारण उत्पन्न एक विशिष्ट राजयोग को प्रस्तुत करते हुए उनकी उक्ति है- ‘ धर्मलग्नाधिनेतारावन्योन्याश्रयसंस्थितौ । राजयोगाविति प्रोक्तं विख्यातो विजयी भवेत् ।।’ अर्थात् यदि जातक की कुण्डली में नवम भाव का स्वामी लग्न भाव में स्थित हो और लग्नेश नवम भाव में स्थित हो तो जातक विख्यात और सर्वत्र विजयी होता है ।
अतः स्पष्ट है कि  फलित ज्योतिष के सन्दर्भ में महर्षि पराशर के उपरोक्त त्रिकोण भाव विषयक सिद्धांत स्वर्णिम सूत्र सिद्ध होते हैं । इन्हीं सिद्धांतों के आलोक में परवर्ती आचायों ने फलादेश विषयक ग्रंथों की रचना की और ये सिद्धांत आज भी जातकशास्त्र के जिज्ञासुओं के लिए मार्गदर्शक हैं ।

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