त्रिस्कन्धात्मक ज्योतिषशास्त्र के सर्वप्रमुख स्कन्ध के रूप में सिद्धान्त ज्योतिष को स्वीकार किया गया है। यद्यपि सिद्धान्त संहिता और होरा इन तीनों की गणना स्कन्धत्रय के अन्तर्गत की जाती है1, तथापि
सिद्धान्त ज्योतिष के ज्ञान के बिना ज्योतिषशास्त्र रूपी गहन समुद्र में गति प्राप्त करना सम्भव नहीं है। सिद्धान्त ज्योतिष की महत्ता को स्थापित करते हुए वराहमिहिराचार्य ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ “वृहत्संहिता” में कहा है कि ज्योतिषी को ग्रह गणित के प्रसङ्ग में “पौलिश,
रोमक, वासिष्ठ, सौर और
पैतामह” इन पाँच सिद्धान्तों में प्रतिपादित युग, वर्ष,
अयन, ऋतु, मास,
पक्ष, अहोरात्र, प्रहर,
मुहूर्त, घटी, पल,
प्राण, त्रुटि, त्रुटि
के अवयव आदि कालों का तथा भगण, राशि, अंश,
कला, विकला आदि क्षेत्रों का ज्ञाता अवश्य होना चाहिए।2 सिद्धान्त ज्योतिष के विषयों के अध्ययन की परम्परा में सूर्य-मयासुर संवाद स्वरूप ‘सूर्य-सिद्धान्त’ ग्रन्थ
की महती प्रतिष्ठा है। इस ग्रन्थ की प्राचीनता का समर्थन ग्रन्थ की विषयवस्तु से स्वयमेव हो जाता है। ग्रन्थारम्भ में ही इस ग्रन्थ का रचनाकाल कृत (सतयुग) माना
गया है।3 इस ग्रन्थ में सिद्धान्त ज्योतिष के विषयों यथा- त्रुटि
से लेकर कल्पकाल तक की कालगणना, सौर-चान्द्र मासों का प्रतिपादन, ग्रहगतियों का निरूपण, व्यक्त-अव्यक्त गणित का प्रयोजन, विविध
प्रश्नोत्तर विधि, ग्रह-नक्षत्र की स्थिति, नाना
प्रकार के तुरीय-नलिका आदि यन्त्रों की निर्माण विधि, दिक्, देश,
कालज्ञान के अनन्यतम उपयोगी अंग, अक्ष क्षेत्र सम्बन्धी सिद्धान्त, अक्षज्या,
लम्बज्या, द्युज्या, कुज्या,
तद्धृति, समशंकु का आनयन, ग्रह
गति, ग्रह कारण, भगण, चन्द्र-ग्रहण, सूर्यग्रहण,
ग्रह उदयास्त, ग्रह
युति, ग्रह युद्ध, अहोरात्र व्यवस्था, भुवन संस्था, क्रान्तिवृत, ऋतु, अयन,
संक्रान्ति, नवविधकालमान आदि में से अधिकांश विषय पर अत्यन्त विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
काल विषयक परिचर्चा के सन्दर्भ में सर्वप्रथम काल के दो भेद किए गए- लोकसंहारक
काल तथा गणनात्मक काल- “लोकानामन्तकृत् कालः कालोऽन्यः कलनात्मकः।”4 काल के इस द्विविधि भेद के बाद गणनात्मक काल को इस ग्रन्थ में प्रमुखता दी गई है। इस गणनात्मक काल को भी स्थूल व सूक्ष्म अथवा मूर्त व अमूर्त दो भेदों में विभक्त किया गया।5 पुनः त्रुट्यादि अमूर्त या सूक्ष्म कालमान पर विशेष चर्चा न करते हुए प्राणादि मूर्त अथवा स्थूल कालमानों पर अत्यन्त गहन व विस्तृत चर्चा की गई है। सूर्य व मयासुर के मध्य संवादरूप इस ग्रन्थ में व्यक्त काल को ‘नवविध’ माना
गया और कहा गया- “ब्राह्मं
दिव्यं तथा पित्र्यं प्राजापत्यं च गौरवम्। सौरञ्च सावनं चान्द्रमार्क्षंषं मानानि वै नव।”6 अर्थात्- ब्राह्म,
दिव्य, पित्र्य, प्राजापत्य,
गौरव या बार्हस्पत्य, सौर, सावन,
चान्द्र तथा नाक्षत्र ये नवविध कालमान स्वीकार किए गए हैं। कालमान के इस नवधा विभाजन को अन्य ऋषियों तथा अपेक्षाकृत अर्वाचीन दैवज्ञों ने भी स्वीकार किया है। पौलस्त्य के अनुसार- “ब्राह्मं दैवं मनोर्मानं पैत्र्यं सौरं च सावनम्। नाक्षत्रम् च तथा चान्द्रं जैवं मानानि वै नव।।” इसी
प्रकार भास्कराचार्य व आचार्य कालिदास ने अपने ग्रन्थों क्रमशः “सिद्धान्तशिरोमणि”7 तथा
“ज्योतिर्विदाभरणम्”8 में इन्हीं नवधा कालमानों को स्वीकृति प्रदान की है। व्यवहारप्रदीप में भी कहा गया है- “सौरमैन्दवमार्क्षंषं च दैवं जैवं च सावनम्। पैत्र्यं च मानुषं ब्राह्ममिति मानानि वै नव।।”9 अभिप्राय
यह है कि सूर्य-सिद्धान्त प्रोक्त नवधा कालमान को परवर्त्ती आचार्यों तथा ग्रन्थकारों ने एकमत से स्वीकृति प्रदान की है। इन नवधा कालमानों को अध्ययन की दृष्टि से सावन, नाक्षत्र, चान्द्र,
पित्र्य, सौर, दैव,
गौरव या बार्हस्पत्य, प्राजापत्य तथा ब्राह्म क्रम से प्रस्तुत करना उचित प्रतीत होता है। (1) सावन मान- “सावनोऽर्कोदयैः।” अर्थात् सावन मान सूर्योदय पर आधारित होता है। दो सूर्योदयों के मध्य का काल स्पष्ट सावन दिन होता है।10 इसी सावन मान के सम्बन्ध में सूर्यसिद्धान्त स्पष्टतया कहता है- “उदयादुदयं
मानोः सावनं तत् प्रकीर्तितम्।”11 इस सन्दर्भ में एक जिज्ञासा सहज ही उत्पन्न होती है कि सूर्योदय किसे मानें? जब सूर्यमण्डल का प्रथम बिन्दु क्षितिज से उदित हो अथवा जब सूर्यमण्डल का केन्द्र क्षितिज से बाहर आ जाए। इस जिज्ञासा का सहज समाधान यह है कि जब सूर्यमण्डल का केन्द्र क्षितिज से बाहर आ जाए तब उसे सूर्योदय माना जाएगा। इसी प्रकार के 30 सावन
दिनों का समूह एक सावन मास कहा जाता है तथा 12 सावन
मासों का एक सावन वर्ष होता है। सावन दिन का मान सामान्यतया नाक्षत्र अहोरात्र से 4 मिनट
बड़ा होता है। परन्तु सावन दिन का मान बदलता रहता हैं इस सावन कालमान का उपयोग यज्ञादि, सूतकों का निर्धारण, दिनेश-मासेश-वर्षेश आदि के निर्णय तथा मध्यम ग्रहगति के निर्णय में किया जाता है।12 (2) नाक्षत्र
कालमान- भचक्र अर्थात् नक्षत्रमण्डल का दैनिक भ्रमण कालमान एक नाक्षत्र दिन होता है।13 अभिप्राय यह है कि जितने काल में नक्षत्र मण्डल का एक चक्रभ्रमण पूर्ण होता है, उतना काल नाक्षत्र दिन कहा जाता है। नाक्षत्र दिन का मान ज्ञात करना अत्यन्त ही सहज है। किसी भी नक्षत्र के उदय काल को नोट कर लें, अर्थात्
जिस समय कोई नक्षत्र क्षितिज पर उदित हो रहा हो वह समय लेना होता है, अगले दिन वही
नक्षत्र जब पुनः उदित हो तो वह समय भी नोट कर लें। पहले दिन के नक्षत्र उदय काल तथा दूसरे दिन के नक्षत्र उदय काल के मध्य के कालमान के तुल्य ही नाक्षत्र अहोरात्र का भी मान होता है। सामान्यतया दोनों उदयों के बीच का समय 23 घंटा, 56 मिनट
और 4 सेकेंड के तुल्य होता है। नाक्षत्र अहोरात्र का मान सामान्यता एक सा ही रहता है, इसमें
वृद्धि या ह्रास नहीं होता है। हाँ इतना अवश्य है कि यदि तारों की बहुत सूक्ष्म गति पर विचार किया जाय तो इस मान में अत्यल्प भेद आ जाता है। नक्षत्र उदय का काल ज्ञात करना किञ्चित श्रमसाध्य है, क्योंकि
ऐसे क्षितिज को ढूँढना जहाँ वृक्ष, पर्वतादि
न हो, एकदम
समतल मैदान हो मिलना कठिन है अतः अत्यधिक सूक्ष्म गणना के लिए उदयकाल से समय की परीक्षा नहीं की जाती है, अपितु मध्याह्न काल से की जाती है। इस दृष्टिकोण से नाक्षत्र अहोरात्र की परिभाषा इस प्रकार भी दी जाती है- “वसन्त सम्पात बिन्दु जिस क्षण याम्योत्तर वृत्त पर आता है, उस क्षण से लेकर फिर यह बिन्दु जिस क्षण याम्योत्तर वृत्त पर आता है उस क्षण तक के समय को नाक्षत्र दिन कहते हैं।”14 इसी प्रकार 30 नक्षत्र अहोरात्रों का एक नाक्षत्र मास तथा 12 नाक्षत्र
मासों का एक नाक्षत्र वर्ष होता है। मासों के नामकरण का आधार भी नक्षत्र ही हैं। पूर्णिमा के अन्त में चन्द्रमा जिस नक्षत्र में होता है, उसी
के नाम पर मासों का नामकरण होता है।15 (3) चान्द्रमान-
चन्द्रमा की गति को आधार मानकर भी कालगणना की जाती है। अमावस्या को सूर्य और चन्द्रमा एक साथ रहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा की इस युति के बाद सूर्य से पृथक् होकर चन्द्रमा पूर्व दिशा की ओर प्रतिदिन जितना जाता है उसे ही चान्द्रमान कहते हैं। अभिप्राय यह है कि जब सूर्य तथा चन्द्रमा के मध्य 12 अंश का अन्तर होता है, तो
एक तिथि व्यतीत होती है।16 इसी प्रकार की तीस तिथियों से एक चान्द्रमास बनता है। चन्द्रमा की कलाओं के आधार पर इस चान्द्रमास को दो पक्षों शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष में विभक्त किया गया है। इस तरह शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष दोनों में ही 15-15 तिथियाँ
होती हैं। शुक्ल पक्ष की पन्द्रहवीं तिथि को पूर्णिमा तथा कृष्ण पक्ष की पन्द्रहवीं तिथि को अमावस्या कहा जाता है। अमावस्या तिथि को आकाश में चन्द्र बिंब
दिखाई नहीं देता है, परन्तु
अगले ही दिन से चन्द्र बिंब धीरे-धीरे दिखाई देने लगता है। अतः जब आकाश मण्डल में चन्द्र बिंब क्रमशः बढ़ता हुआ दिखाई देता है तो वह पक्ष शुक्ल पक्ष कहा जाता है, जबकि पूर्णिमा के बाद का पक्ष जब चन्द्र बिंब क्रमशः घटता हुआ प्रतीत होता है, कृष्ण
पक्ष कहा जाता है। इन्हीं 12 चान्द्र मासों के मिलने से एक चान्द्र वर्ष का निर्माण होता है। चान्द्र मासों का नामकरण नक्षत्रों के आधार पर किया जाता है। पर्वान्त अर्थात् पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा जिस नक्षत्र में होता है, उसी नक्षत्र के आधार पर उस मास का नामकरण होता है।17 फाल्गुन, भाद्रपद तथा आश्विन मास में तीन नक्षत्रों में से किसी एक का योग बन सकता है, जबकि अन्य मासों में पर्वान्त पर दो में से किसी एक नक्षत्र के योग की संभावना होती है और उसी के आधार पर उस मास की संज्ञा होती है। अधोलिखित सारिणी द्वारा इसे स्पष्टतः समझा जा सकता है-
पर्वात
नक्षत्र
|
कृ रा
|
मृग. आर्द्रा
|
पुनर्वसु पुष्य
|
आश्लेषा मघा
|
पूफा. उ. फा. हस्त
|
चित्रा स्वाती
|
विशाखा अनुराधा
|
ज्येष्ठा मूल
|
पूर्वाषाढा उत्तराषाढा
|
श्रवण घनिष्ठा
|
शत.पू.भा. उत्तराभाद्रपद्र
|
रेवती, अश्वनी
|
मास
|
कार्त्तिक
|
मार्गशीर्ष
|
पौष
|
माघ
|
फाल्गुन
|
चैत्र
|
वैशाख
|
ज्येष्ठ
|
आषाढ
|
श्रावण
|
भाद्रपद
|
अश्विन
|
अभिप्राय यह है कि यदि पूर्णिमा को कृत्तिका नक्षत्र का योग हो रहा हो अथवा रोहिणी नक्षत्र में चन्द्रमा हो वह मास कार्त्तिक मास के नाम से जाना जाएगा। (4) पित्र्य
मान- पित्र्य कालमान का सम्बन्ध चान्द्र मास से है। हम जानते हैं कि 30 चान्द्र तिथियों का एक चान्द्रमास होता है, तथा यही चान्द्रमास पितरों का एक अहोरात्र होता है।18 अमावस्या तिथि को इस पित्र्य अहोरात्र की मध्याह्न होती है तथा पूर्णिमा तिथि को पितरों की मध्यरात्रि होती है। कृष्ण पक्ष की साढे सात तिथि से पित्र्य अहोरात्र का दिनारम्भ होता है तथा शुक्ल पक्ष की साढे सात तिथि से पितरों की रात्रि का आरम्भ होता है।19 चान्द्र कालमान का प्रयोग तिथि, करण,
विवाह, मुण्डन, व्रत-उपवास, यात्रा
विषयक विचार, जातकर्म
सदृश अन्य सभी कार्यों में होता है। चन्द्रमा के ऊपरी भाग में पितरों का निवास होता है और वे चन्द्रमा को अपने नीचे मानते हैं। पितरलोक में कृष्ण पक्षार्ध में
सूर्य का उदय और शुक्ल पक्षार्ध में सूर्यास्त होना स्वभावतः सिद्ध है। (5) सौरमान- “प्रतिदिनं
स्फुटभुक्तिमितिः सदा खरगभस्तिदनं विबुधैः स्मृतम्।”20 अर्थात् स्पष्ट सूर्य की एक दिन सम्बन्धी गति तुल्य काल को एक सौर दिन कहते हैं। एक संक्रान्ति से दूसरी संक्रान्ति पर्यन्त अर्थात् सूर्य जितने समय तक एक राशि पर रहता है, सौर
मास कहा जाता है इन्हीं बारह सौरमासों का एक सौर वर्ष होता है।21 दिन-रात्रि मान, षडशीतिमुख
संक्रान्तियों
का मान, अयन,
विषुव तथा संक्रान्तियों का पुण्यकाल विषयक मान सौर कालमान द्वारा ही ज्ञात किया जाता है। तुलारम्भ से प्रत्येक 86वें
दिन एक षडशीतिमुख संक्रान्ति होती है, इसके अतिरिक्त दो विषुव संक्रान्ति, दो अयन संक्रान्ति तथा 4 विष्णुपदी
संक्रान्तियाँ भी होती हैं। विषुव संक्रान्ति (मेष, तुला),
अयन संक्रान्ति (कर्क, मकर),
षडशीतिमुख संक्रान्ति (मिथुन 18 अंश,
कन्या 14 अंश, धनु
6 अंश तथा मीन 22 अंश) तथा
विष्णुपदी संक्रान्ति (वृष, सिंह,
वृश्चिक, कुम्भ) का
मान सौर कालमान पर ही आधारित है। इसी प्रकार सूर्य के मकर राशि में संक्रमण काल से छः मास पर्यन्त अर्थात् मिथुनान्त तक सूर्य उत्तरायण होते हैं, जबकि कर्क संक्रान्ति से छः मास पर्यन्त अर्थात् धनुरन्त तक सूर्य दक्षिणायन होते हैं।22 ऋतु निर्णय प्रसङ्ग में स्पष्ट है कि उत्तरायण के आरम्भ से शिशिर, वसन्त
व ग्रीष्म ऋतु तथा दक्षिणायन के आरम्भ से वर्षा, शरत् तथा हेमन्त ऋतुएँ क्रम से घटित होती हैं। इसी सन्दर्भ में सूर्य सिद्धान्त का वचन है- “द्विराशिनाथा ऋतवस्ततोऽपि शिशिरादयः”23 अभिप्राय
है कि दो-दो राशियों का भोगकाल ऋतु कहा जाता है। (6) दैव कालमान- यह कालगणना सौरमान पर आधारित है। अर्थात् बारह सौर मासों का एक सौर वर्ष होता है तथा यही एक सौर वर्ष देवताओं के एक अहोरात्र के तुल्य होता है।24 इसी तथ्य को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि सूर्य के बारह राशियों के भोगकाल में देवताओं और दैत्यों का विपर्यय से क्रमशः अहोरात्र की व्यवस्था होती है। अर्थात् जब सायन सूर्य दक्षिणायन अर्थात् कर्कादि छः राशियों में होता है तब देवताओं की रात्रि होती है और ठीक इसी समय असुरों का दिन होता है। इसी प्रकार जब सायन सूर्य उत्तरायण अर्थात् मकरादि छः राशियों में होते हैं तब देवताओं का दिन होता है तथा उसी समय असुरों की रात्रि होती है। पृथिवी के उत्तरी-ध्रुव पर देवताओं का तथा दक्षिणी-ध्रुव पर असुरों का निवास माना गया है। आधुनिक शोध द्वारा यह बात प्रामाणित है कि धु्रवीय प्रदेशों में छः मास का दिन और छः मास की रात्रि होती है। सौर कालमान के अनुसार एक सौर वर्ष का मान एक दिव्य अहोरात्र के तुल्य होता है, अतः
360 सौर वर्षों का एक दिव्य वर्ष होता है। (7) प्राजापत्य
मान- मन्वन्तर व्यवस्था के अन्तर्गत एक मनु के तुल्य काल प्राजापत्य मान कहा जाता है और इस प्राजापत्य मान में अहोरात्र का भेद नहीं होता है।25 प्राजापत्य मान को समझने के लिए युग, महायुगादि की परिकल्पना को स्पष्ट करना अनिवार्य है। एक सौर वर्ष के तुल्य एक दिव्य अहोरात्र का मान होता है और 360 सौर
वर्षों के तुल्य एक दिव्य वर्ष होता है। बारह हजार दिव्यवर्ष या 4320000 सौर
वर्षों (12000×360) के प्रमाण तुल्य एक चतुर्युग या महायुग होता है।26 71 महायुगों
(चतुर्युगों) के बराबर 1 मनु कहा गया है।27 अर्थात् यदि एक मनु के अन्तर्गत दिव्य वर्षों की गिनती करें तो इसका मान 71×12000 (एक चतुर्युग मान) = 852000 दिव्य
वर्ष होता है और यदि इसे हम सौर वर्षों में परिवर्तित करें तो यह 852000×360 (एक
दिव्य वर्ष में सौर वर्षों की संख्या) = 306720000 सौर वर्ष के बराबर होता है। इसके साथ एक ध्यातव्य तथ्य यह है कि प्रत्येक मनु के आरम्भ तथा मनु की समाप्ति पर कृतयुग अर्थात् सतयुग तुल्य (4800 दिव्य
वर्ष) की सन्धि होती है तथा इस सन्धि काल में सम्पूर्ण पृथिवी पर जल-प्लावन रहता है।28 एक चतुर्युग का मान 12000 दिव्य
वर्ष कहा गया है, इस
कालमान में कृत-त्रेता-द्वापर-कलियुग के वर्षमान के साथ-साथ कृतादि युगों के सन्ध्या तथा सन्ध्यांशों का मान भी सम्मिलित है। महायुग में चार लघु युग होते हैं तथा इनका कालमान धर्मपाद व्यवस्था के अनुरूप होता है, अर्थात्
महायुग के मान के दशमांश को क्रमशः चार, तीन,
दो तथा एक से गुणा करने पर क्रमशः कृत, त्रेता, द्वापर
तथा कलियुग का मान स्पष्ट होता है। प्रत्येक युग के मान के षष्ठांश के तुल्य लघु युगारम्भ तथा लघु युग समाप्ति पर एक-एक संधियाँ भी होती हैं। अर्थात् सन्ध्या तथा सन्ध्यांश से युक्त कृतादि युगों का मान क्रमशः 4800, 3600, 2400 तथा 1200 दिव्य
वर्षों के तुल्य होता है। जबकि इन लघुयुगों के सन्धिकाल का मान क्रमशः 800, 600, 400 तथा 200 दिव्य
वर्ष होता है। (8) ब्राह्म मान- “ब्राह्मं कल्पः प्रकीर्तितम्” अर्थात् कल्प के तुल्य ही ब्राह्म मान होता है।29 अभिप्राय यह है कि एक कल्प प्रमाण के तुल्य ब्रह्मा का दिन तथा एक कल्प के तुल्य ब्रह्मा की रात्रि का मान होता है। दो कल्पों के कालमान तुल्य ब्रह्मा का एक अहोरात्र होता है। एक कल्प में कुल 14 मनु होते हैं तथा प्रत्येक मनु के आरम्भ तथा समाप्ति पर कृतयुग प्रमाण तुल्य एक संधि भी होती है। इस प्रकार एक कल्प में कुल 14 मनु
तथा 15 संधियाँ होती है। यदि एक कल्प के मान को दिव्य वर्षों में स्पष्ट करें तो- एक
कल्प = 14 मनु + 15 सन्धि
(कृतयुग तुल्य)। (14×852000) + (15×4800) = 11928000 +
72000 = 12000000 दिव्य वर्ष। (9) बर्हिस्पत्य
या गौरव वर्ष- जिस मास में गुरु उदय या अस्त होते हैं, उस
मास के अमावस्या तिथि को जो नक्षत्र हो, उसी
नक्षत्र के नाम से गुरु वर्ष प्रारम्भ होता है।30 कृतिकादि दो-दो नक्षत्रों में बृहस्पति के रहने से कार्त्तिक आदि बारह मास की तरह बारह वर्ष होते हैं, इनमें
केवल पञ्चम एकादश और द्वादश वर्ष तीन-तीन नक्षत्र के होते हैं।31 अभिप्राय यह है कि जिस तरह कार्तिक, मार्गशीर्ष पौषादि संज्ञक द्वादश मास होते हैं, ठीक उसी प्रकार बृहस्पति पर आधारित कार्त्तिकादि संज्ञक बारह वर्ष भी होते हैं तथा इन बारह वर्षों से सम्बन्धित विस्तृत फलकथन कई ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है, कि
बृहस्पति के ये नक्षत्र संज्ञक वर्ष प्रभवादि 60 संवत्सरों से भिन्न होते हैं। ‘लघुवशिष्ठ
सिद्धान्त’ में स्पष्टतया कहा गया है कि गुरु की मध्यम गति से तुल्य एक राशि में संचारवश जितना समय व्यतीत होता है, वही
गुरु का एक वर्ष माना जाता है। प्रभवादि साठ सम्वत्सरों के आरम्भ के विषय में कहा गया कि “माघ शुक्ल के प्रारम्भ से जब शुक्ल पक्ष में, घनिष्ठा
नक्षत्र में सूर्य, चन्द्र, गुरु
विद्यमान थे तभी इन 60 प्रभवादि
सम्वत्सरों की प्रवृत्ति हुई थी।32 पाँच वर्षों का एक युग माना जाता है, तथा युगों की संख्या बारह होती है, इस
प्रकार बारह युगों में कुल 60 वर्षात्मक काल होता है। इन 60 संवतों
की संज्ञा क्रमशः इस प्रकार है- प्रभव,
विभव, शुक्ल, प्रमोद,
प्रजापति, अङ्गिरा, श्रीमुख,
भाव, युवा, धाता,
ईश्वर, बहुधान्य, प्रमाथी,
विक्रम, वृष, चित्रभानु,
सुभानु, तारण, पार्थिव,
व्यय, सर्वजित्, सर्वधारी,
विरोधी, विकृत, खर,
नन्दन, विजय, जय,
मन्मथ, दुर्मुख, हेमलम्ब,
विलम्ब, विकारी, शार्वरी,
प्लव, शुभकृत्, शोभन,
क्रोधी, विश्वावसु, पराभव,
प्लवंग, कीलक, सौम्य,
साधारण, विरोधकृत, परिधावी,
प्रमाथी, आनन्द, राक्षस,
अनल, पिङ्गल, कालयुक्त,
सिद्धार्थ, रौद्र, दुर्मति,
दुन्दुभी, रुधिरोद्गारी, रक्ताक्ष, क्रोधन
और क्षय। इन 60 सम्वत्सरों में कुल 12 युग व्यतीत होते हैं तथा इन बारह युगों के अधिपतियों की भी बात की गई है तथा ये क्रमशः विष्णु, बृहस्पति, इन्द्र,
अग्नि, प्रजापति, अहिर्बुधन्य,
पितर, विश्वेदेवा, सोम, इन्द्राग्नि,
अश्विनी कुमार और सूर्य हैं।
यद्यपि सूर्यसिद्धान्त में नवविधकालमानों की चर्चा हुई है, परन्तु इन नवविध कालगणना पद्धति में भी केवल सौर, चान्द्र,
नाक्षत्र तथा सावन मान का ही व्यवहार होता है33, बार्हस्पत्य मान की आवश्यकता साठ संवत्सरों के ज्ञान में होती है तथा शेष चार अर्थात् ब्राह्म, पित्र्य,
दिव्य व प्राजापत्य मानों की आवश्यकता नित्य व्यवहार में नहीं होती है। सूर्य सिद्धान्त प्रोक्त इन नवविध कालमानों की गणना
पद्धति व सिद्धान्त को परवर्त्ती दैवज्ञों ने भी अपनी रचनाओं में प्रमुखता से स्थान
दिया है, जो इन सिद्धान्तों की सार्वभौमिकता तथा स्वीकार्यता का परिचायक सिद्ध होता
है।
सन्दर्भ
1. बृहस्पतिसंहिता, 1/5, 2. बृहत्संहिता, 2/4, 3. सूर्यसिद्धान्त, 1/2, 4. वही,
1/10, 5. वही, 6. वही, 14/1, 7. सिद्धान्तशिरोमणि, 8. ज्यातिर्विदाभरणम्, 1/3, 9. बृहद्दैवज्ञरञ्जनम्, 3/64, 10. ज्योतिर्विदाभरणम्, 1/5, 11. सूर्यसिद्धान्त, 14/18, 12. वही, 13. वही,
14/15, 14. सूर्यसिद्धान्त, विज्ञान भाष्य, पृ.
337, 15. सूर्यसिद्धान्त, 14/15, 16. वही, 14/12, 17. वही,
14/15-16, 18. वही, 14/14, 19. सिद्धान्तशिरोमणि, 20. ज्योतिर्विदाभरणम्, 1/5, 21. सूर्यसिद्धान्त, 1/13, 22.
वही, 14/9-10, 23. वही, 14/10, 24. वही,
1/13, 25. वही, 14/21, 26. वही, 1/15, 27.
वही, 1/18, 28. वही, 29. वही,
14/21, 30. वही, 14/17, 31. बृहत्संहिता, 8/2, 32. वृहदैवज्ञरञजनम्, 4/5, 33. सूर्य सिद्धान्त, 14/2
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