Friday, 28 December 2018

जुड़वाँ शिशु और ज्योतिष

         
            'भूतं चैव भविष्यं च वर्तमानं तथैव च।
             सर्वप्रदर्शकं शास्त्रं सिद्धिदं मोक्षकारणम्।’’
                              ज्योतिषशास्त्र त्रिकाल का दर्शन कराने वाला शास्त्र माना गया है। सम्यकविधि द्वारा इस शास्त्र का अध्ययन और अवगाहन भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालों का बोध कराने में समर्थ या सक्षम है। मनुष्य सदैव से ही अपनी वंशबेल को विकसित तथा संवर्द्धित करने की दिशा में प्रयासरत रहा है। उसके इसी प्रयास ने वर्णाश्रम व्यवस्था को अस्तित्व में लाने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। विभिन्न संस्कारों को भी इसी दिशा में किए गए प्रयासों का सार्थक फल समझा जा सकता है। विवाह संस्कार के द्वारा ही सामाजिक मान्यताओं में रहकर अपनी वंश परम्परा को बढ़ाया जा सकता है। भारतीय शास्त्रों में अनेक प्रकार के ऋणों की चर्चा की गई है और इससे मुक्त होने की दिशा में सदैव प्रयासरत रहने का भी निर्देश किया गया है। इस सन्दर्भ में पितृऋण महत्वपूर्ण है और सन्तानोत्पत्ति के द्वारा ही इस ऋण से मुक्त हुआ जा सकता है। सन्तान अथवा पुत्र की महिमा का वर्णन वैदिक साहित्य में भी उपलब्ध होता है। संतति को गृहस्थाश्रमरूपी उपवन के सर्वाधिक सुगंधित और आकर्षक पुष्पवल्ली के रूप में स्वीकृत किया जाता रहा है। माना जाता है कि पूर्वजन्मों के शुभकर्मों के उदय के कारण ही संतानोत्पत्ति का सुख प्राप्त होता है -    "तत्प्राप्तिधर्ममूला’’     
                 सामान्यतया गर्भधारण के उपरान्त माताएँ एक ही शिशु को जन्म देती हैं। परन्तु जीववैज्ञानिक कारणों-यथा भ्रूण के  विभाजन अथवा दो या उससे अधिक अण्डाणुओं के निषेचित होने के कारण गर्भधारण के उपरान्त दो या अधिक शिशुओं का जन्म होता है।  आधुनिक चिकित्साविज्ञान में इस सन्दर्भ में काफी चर्चा हुई है तथा इससे सम्बन्धित समस्त तथ्य हस्तामलकवत स्पष्ट हो चुके हैं। साथ ही इस सन्दर्भ में भारतीय ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों में भी विपुल चर्चा प्राप्त होती है। गर्भाधान को ज्योतिषशास्त्र में अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है और इसे समस्त जीवों की उत्पत्ति का साधन कहा गया है।  सामान्य गर्भधारण बिना सम्भोग के संभव नहीं अतः संभोग सूचक ग्रहस्थिति के सन्दर्भ में कहा गया है कि स्त्री की जन्म राशि से उपचय भवनों में चन्द्रमा के रहते हुए बृहस्पति से चन्द्रमा दृष्ट हो या चन्द्रमा मित्रग्रहों से दृष्ट हो,विशेषतया शुक्र से तो स्त्री पुरूष का संयोग होता है  तथा गर्भधारण का मार्ग प्रशस्त होता है। इन प्राचीन महर्षियों तथा अर्वाचीन ग्रन्थकारों ने इस सन्दर्भ में ऐसी अनेक ग्रहस्थितियों का उल्लेख किया  है, जिसके कारण एक से अधिक शिशुओं का जन्म एक ही गर्भकाल के उपरान्त होता है। इस सन्दर्भ में अधोलिखित सिद्धान्त अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं- 
 * सूर्य गुरू-चन्द्र लग्न अथवा सूर्य गुरु द्विस्वभाव राशियों में स्थित होकर बुध द्वारा दृष्ट हों तो यमल जातक का जन्म होता है। इस युग्म सन्ततियों में एक पुत्र तथा एक पुत्री होती है।   
* शुक्र एवं चन्द्रमा सम राशियों में स्थित हों तथा विषमराशि में बुध, मंगल, लग्न तथा गुरू स्थित हों और पुरूष ग्रहों द्वारा दृष्ट हों तो भी जुड़वाँ सन्तान होती है। 
* लग्न एवं चन्द्रमा समराशि में हों अथवा समनवांश में हों तो भी यमल सन्तान की उत्पत्ति होती है। 
* बुध अपने नवांश में स्थित हो और द्विस्वभाव राशि में बैठे ग्रह तथा लग्न को देखता हो तो तीन सन्तानों का जन्म होता है। 
* आधान लग्न में धनु राशि का अन्तिम नवांश हो तथा उसी नवांश में बलवान ग्रह बैठे हों तथा उन ग्रहों पर बली बुध एवं शनि की दृष्टि हो तब गर्भ में द्वयाधिक सन्तानें होती हैं। 
* आधानकाल में सूर्य व बृहस्पति मिथुन तथा धनु राशियों में बुध से युत या दृष्ट हों तो युग्म संतति का जन्म होता है और दोनों सन्तान पुत्रें का युगल होता है। 
* कन्या तथा मीन राशियों में शुक्र, चन्द्र तथा मंगल भी बुध से दृष्ट हो तो दो कन्याओं का जन्म होता है। 
* लग्न तथा चन्द्रमा समराशि में हों तथा बलवान ग्रहों से दृष्ट हो तो भी युग्म संतति का जन्म होता है। 
* चन्द्रमा तथा शुक्र समराशि में हो और गुरु, मंगल, बुध, लग्न विषय राशियों में हो या द्विस्वभाव राशियों में बलवान हों तो युग्म संतति उत्पन्न होती है। 
* इस सन्दर्भ में चन्द्र, शुक से पुत्री युगल तथा गुरू मंगल आदि से पुत्र युगल का निर्णय करना चाहिए। 
* लग्न व चन्द्रमा दोनों सम राशियों में हो तथा पुरूष ग्रहों से देखे जाते हों। 
* लग्न, बुध,मंगल तथा गुरू बलवान होकर सम राशि में हों तथा पुरूष ग्रह से देखे जाते हों। 
* सूर्य, चन्द्र, गुरू, शुक्र और मंगल द्विस्वभाव राशियों के नवांश में स्थित हों तथा बुध द्वारा दृष्ट हों। 
* सूर्य, गुरू मिथुन और धनु राशियों में तथा बुध द्वारा दृष्ट हों तो दो बालकों का जन्म। 
* मंगल, चन्द्रमा, शुक्र द्विस्वभाव अर्थात कन्या, मीन में स्थित होकर बुध द्वारा दृष्ट हो तो दो कन्याओं का जन्म। 
* यदि समस्त पुरूष तथा ग्रह द्विस्वभाव राशियों में विद्यमान होकर बुध से दृष्ट हों तो यमलों में एक पुत्र तथा एक कन्या होती है। 
* चन्द्र और शुक्र दोनों समराशियों में स्थित हों तथा बुध, मंगल, गुरू और लग्नेश सभी विषम राशियों में स्थित हों तो यमल में एक पुत्र तथा एक पुत्री। 
* लग्नेश और चन्द्रमा समराशि में स्थित हों तथा पुरूष ग्रहों से दृष्ट हों तो भी एक बालक और एक बालिका का जन्म। 
* मंगल, बुध, गुरू तथा लग्नेश पूर्णबली होकर समराशि में स्थित हाें। 
* तीन वर्गों का किसी नपुंसक ग्रह से सम्बन्ध हो तो यमल सन्तति का जन्म। 
* प्रश्नकालीन कुण्डली में किन्हीं चार भिन्न-भिन्न स्थानों में दो-दो ग्रह बैठे हों तो युग्म सन्तति का जन्म। 
* आधानकाल में लग्न में द्विस्वभाव राशि और चन्द्रमा, स्वराशिस्थ बुध तथा शनि एकादश भाव में हो। 
* द्विस्वभाव लग्नस्थ चन्द्रमा बुध से दृष्ट हो। 
* द्विस्वभावराशियों में बृहस्पति, सूर्य, मंगल, शुक्र, चन्द्रमा हों तथा बुध द्वारा दृष्ट हों। 
* कन्या, तथा मीन के नवांश में मंगल, शुक्र तथा चन्द्रमा स्थित हों तो दो कन्या सन्तति का जन्म। 
* मिथुन तथा धनु राशियों में कहीं भी सूर्य व बृहस्पति बुधदृष्ट होकर स्थित हों तो पुत्रों का युग्म। 
* द्वादशांश, द्रेष्काण, नवमांश यदि द्विस्वभाव राशि के हों तथा द्विस्वभाव राशि में सर्वोत्तम बली ग्रह हों तो जुड़वाँ सन्तानें होती हैं। 
* गर्भाधानकाल में यदि द्वादश भाव में बुध हो अथवा लग्न में हो अथवा बुध की इन भावों पर दृष्टि हो, द्वादशस्थ, लग्नस्थ अथवा दशमस्थ राशियों में से कोई एक स्त्री और कोई एक पुरूष राशि हो तो यमल बालक का योग बनता है। 
* समराशि में चन्द्रमा तथा शुक्र हों और द्वादश भाव में उदित बुध की स्थिति हो तथा विषम राशि में मंगल और बृहस्पति हों तो यमल सन्तति। 
                       इस प्रकार स्पष्ट है कि यमल जातकों के सन्दर्भ में पुरूष ग्रहों तथा स्त्री ग्रहों का द्विस्वभाव राशियों में स्थित होना महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहण करता है। साथ ही साथ नपुंसक ग्रह बुध की इन ग्रहस्थितयों पर दृष्टि यमल जातकों के जन्म को सुनिश्चित करती है।

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