Sunday 30 September 2018

राहु - केतु और फलित ज्योतिष


भारतीय फलित ज्योतिषशास्त्र के मूल आधार नवग्रह ही हैं। इन्हीं नवग्रहों के शुभाशुभ स्थिति के आधार पर ही फलादेश की परम्परा रही है। नवग्रहों में सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु की गणना की जाती है।1 राहु तथा केतु शेष अन्य ग्रहों से किञ्चित भिन्न ग्रह हैं। इन दोनों ग्रहों का कोई भौतिक स्वरूप नहीं होता है। यही कारण है कि ये ग्रह, छाया ग्रह के रूप में प्रतिष्ठित हैं। यद्यपि राहु तथा केतु दृष्टिगोचर नहीं होते तथापि भारतीय फलित ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में इन दोनों को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। विंशोत्तरी दशा विचार क्रम में मनुष्य की आयु 120 वर्ष मानी गई है। राहु (18 वर्ष) तथा केतु (7 वर्ष) दोनों मिलकर मनुष्य के जीवन के 25 वर्ष पर अपना प्रभाव रखते हैं।
राहु तथा केतु संबंधी फलादेश की प्रक्रिया में इन ग्रहों की प्रकृति तथा व्यवहार को विशेष रूप से ध्यान में रखा जाता है। इन ग्रहों से विचारणीय विषय, कारकत्व, उच्च-नीच-मूलत्रिकोणादि राशियाँ, दृष्टिविचार, मारकत्व, योगकारकत्व आदि तथ्यों का ज्ञान सटीक फलादेश हेतु अत्यन्त अनिवार्य होता है। अतः राहु तथा केतु संबंधी फलादेश प्रक्रिया में भी इन समस्त तथ्यों का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है। राहु तथा केतु की गणना पापग्रहों के रूप में की जाती है।
राहु का कारकत्व
इस विषय में कालिदास की रचना उत्तरकालामृतम् अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। छत्र, चँवर, राज्य, संग्रह, कुतर्क, मर्मछेदी वाक्य, अन्त्यज, पाप, स्त्री, चारों ओर से सुसज्जित यान, अधार्मिक मनुष्य, जुआ, संध्या समय बली, दुष्ट स्त्री गमन, अन्य देश गमन, गन्दगी, हड्डी, प्लीहा का बढ़ जाना, झूठ, अधोदृष्टि, भ्रम, जादू आदि, गरूड़, दक्षिणाभिमुख, म्लेच्छादि तथा अन्य नीच जनों का आश्रय, सूजन, महान वन, विषम स्थानों में भ्रमण, पर्वत, पीड़ा, बाहर का स्थान, दक्षिण पश्चिम दिशा, प्रिय, वात कफ से क्लेश, सर्प, रात्रि की हवाएँ, तीक्ष्णता, दीर्घ रेंगने वाले साँप, सकल गुप्त वस्तुएँ, मृत्यु का समय, वृद्ध, वाहन, नागलोक (साँपों की जगह), माता, पिता अथवा नाना, वायु का तेज दर्द, खाँसी, श्वास की बीमारी, महान प्रताप, वन, दुर्गापूजा, दुष्टता, पशुओं से मैथुन, दाँई ओर से लिखी जाने वाली भाषा (उर्दू आदि) कठोर भाषण आदि विषयों पर राहु का सीधा प्रभाव रहता है।
केतु का कारकत्व
केतु जिन विषयों को प्रभावित करता है उनमें चण्डीश्वर, गणेशादि देवताओं की उपासना, डॉक्टर, कुत्ता, मुर्गा, गिद्ध, मोक्ष, हरेक प्रकार का ऐश्वर्य, क्षयरोग, पीड़ा, ज्वर, गंगा स्नान, महान तप, वायु-विकार, स्नेह, सम्पदा का प्रदान, पत्थर, घाव, मन्त्रशास्त्र, चंचलता, ब्रह्मज्ञान, कुक्षि, अज्ञानता, काँटा, मृग, आत्मज्ञान, मौनव्रत, वेदान्त, सब-प्रकार की भोग-सामग्री, भाग्य, शत्रुओं से पीड़ा, थोड़ा खानेवाला, संसार से विरक्त, दादा, भूख, पेट में तीव्र पीड़ा, फोड़े-फुंसी, सींगों वाले पशु, शिव के दास, बन्धन की आज्ञा का रोकना, शूद्रसभा तथा ध्वजादि प्रमुख हैं।
राहु केतु की उच्चादि राशियाँ
इस विषय में कहा गया है -
'तुङ्गतद्वृषभश्च वृश्चिक इति स्याद्राहुकेत्वोर्गृहौ
कुम्भोऽलीमिथुनाङ्गने तु भवतो मूलत्रिकोणाभिधे।
सिंहः कर्कटको द्वयो रिपुगृहौ तौली मृगो मित्रभे,
ऽजोदेवेज्यगृहे समेऽखिलबलं तुङ्गादिगौ तौ यदि।।'
      अर्थात् राहु तथा केतु वृषभ तथा वृश्चिक राशि में क्रमशः उच्च होते हैं। उनकी स्वक्षेत्र राशियाँ क्रमशः कुम्भ तथा वृश्चिक हैं। मूल त्रिकोण राशियाँ क्रमशः मिथुन तथा कन्या हैं। सिंह तथा कर्क उनके लिए क्रमशः शत्रु राशियाँ हैं। तुला तथा मकर राशि इन दोनों छाया ग्रहों की क्रमशः मित्र राशियाँ हैं। मेष तथा गुरु की दोनों राशियाँ अर्थात् धनु तथा मीन इनकी तटस्थ राशियाँ हैं। जब ये छाया ग्रह उच्च हों तो अतीव बलवान होते हैं। अन्य स्थानों में इनका बल स्थान की शुभता अथवा अशुभता के अनुरूप होता है।
राहु केतु की दृष्टियाँ
राहु तथा केतु की दृष्टि पर विद्वानों में प्रबल मतभेद हैं। कुछ विद्वान कहते हैं -
'सुते सप्तमे पूर्णदृष्टि तमस्य तृतीये रिपौ पाददृष्टिर्नितान्तम्।
धने राज्यगेहेऽर्धदृष्टिं वदन्ति स्वगेहे त्रिपादं भवे चैव केतोः।।
अर्थात् पञ्चम-सप्तम स्थानों पर राहु की पूर्ण दृष्टि होती है। तीसरे तथा छठे स्थान पर एक चरण दृष्टि होती है। द्वितीय तथा दशम स्थान में आधी दृष्टि होती है। जबकि अपने घर में त्रिपाद दृष्टि होती है। ठीक यही दृष्टि केतु की भी होती है। कुछ ग्रन्थों में कहा गया है कि 5, 7, 9 तथा 12 भावों पर राहु की पूर्ण दृष्टि होती है। 12 तथा 10वें स्थान पर त्रिपाद, 3, 6, 4, 8 स्थानों पर अर्ध दृष्टि तथा अपने स्थान पर तथा 11वें स्थान पर राहु की दृष्टि नहीं होती है -
'सुतमदनवान्त्ये पूर्णदृष्टिः सुरारेर्युगलदशमराशौ दृष्टिमात्रत्रयार्हः।
सहजरिपुचतुर्थेष्वष्टमे चार्धदृष्टिः स्थितिभवनमुपान्त्यं नैवदृश्यं हि राहोः।।'
जबकि केतु को दृष्टिहीन ग्रह कहा गया है - केतुर्दृष्टिहीनोऽन्धः
राहु केतु का फलदातृत्व
राहु तथा केतु को छाया ग्रह कहा गया है। ये दोनों ग्रह अपना शुभाशुभ फल अन्य ग्रहों के प्रभाव में आकर देते हैं। महर्षि पराशर कहते हैं -

'यद्यदभावगतौ वापि यद्यदभावेशसंयुतौ।
तत्तफलानि प्रबलौ प्रदेशितां तमोग्रहौ।'
अर्थात् ये छाया ग्रह जिस भाव में स्थित हों अथवा जिन भावाधिपतियों से संयुक्त हों, उनसे सम्बन्धित फल को और अधिक बढ़ाकर जातक को प्रदान करते हैं। सामान्यतया राहु तथा केतु अशुभ ग्रह माने गए हैं। ये ग्रह अपनी दशान्तर्दशा में अपने नैसर्गिक गुण के आधार पर फल प्रदान करते हैं। राहु दीर्घ शरीर, नीला रंग, म्लेच्छ जाति, शरीर में खुजली तथा चर्म रोग वाला, अधार्मिक, पाखण्डमति, झूठा, कपटी, कोढ़ी, बुद्धिहीन तथा दूसरों की निन्दा करने वाला है। केतु का स्वभाव, लाल आँखें, उग्र स्वभाव, वाणी में विष, ऊँचा शरीर, शस्त्रयुक्त, धूम्रवर्ण, धूम्रपान करने वाला, घावों के निशान से युक्त, कृश शरीर, क्रूर तथा अत्याचार करने वाला है। इन लक्षणों को ध्यान में रखने से फलादेश में काफी तीक्ष्णता आती है। माना कि यदि जातक की जन्मपत्रिका के द्वितीय भाव में केतु हो तो वह कठोर वचन बोलनेवाला होगा। लग्न में राहु आ जाए तो जातक अधार्मिक, पाखण्डी आदि गुणों से युक्त हो जाए।
इन ग्रहों से सम्बन्धित फलादेश क्रम में इनके बली होने पर शुभ फलों की अधिकता आ जाती है। राहु वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मेष तथा कुंभ राशि और दशम स्थान में बली होता है। रात्रिकाल, धनु, वृष, मीन तथा कन्या राशि में केतु बली होता है। अशुभ ग्रह होने के कारण पापस्थानों (त्रिषडाय, त्रिक) में ये ग्रह विशेष शुभफलदायक होते हैं।जबकि शुभ स्थानों में (केन्द्र त्रिकोण) आकर ये ग्रह पाप फलद होते हैं। ज्योतिषशास्त्र का नियम है कि शुभ ग्रह शुभ स्थानों में तथा पाप ग्रह पाप स्थानों में शुभ फलद होते हैं। सप्तम, चतुर्थ, नवम, एकादश तथा दशम भाव में स्थित राहु योगकारक होता है, जबकि केतु तृतीय भाव में राजयोग कारक होता है -
'स्मरगृहज्ञानाय मानस्थितो राहुर्योगकरस्तृतीयनिलयेकेतुस्तु योगप्रदः'
राहु यदि शुभ स्थिति में हो तो अपनी दशा में सब प्रकार की भलाई करता है, महान् राज्य देता है। धर्म तथा धन की प्राप्ति, पुण्य तीर्थों की यात्रा, ज्ञान तथा प्रभाव शुभत्व प्राप्त राहु के विशेष फल है। यही राहु अशुभ हो तो व्यक्ति को सर्पविष से भय, सब अङ्गों में रोग, शस्त्र तथा अग्नि से भय, नीचों से विरोध, वृक्ष से पतन तथा शत्रु से पीड़ा देता है।
केतु शुभ हो तो अपनी दशा में विजय प्रदान करता है। क्रूर कार्यों द्वारा धन प्राप्ति कराता है। अन्य देश के प्रशासन अर्थात् विदेश से भाग्योदय कराता है। पद्य रचना प्रारंभ करना तथा शत्रुनाश इस केतु के विशेष शुभ फल हैं। यदि केतु अशुभ हो तो जातक को महान कष्ट, असफलता, हानि, उद्यम का नाश, हृदय में पीड़ा, टी.बी., कम्पन आदि नसों का रोग, ब्राह्मण वर्ण से द्वेष तथा महान मूर्खता आदि अशुभ फल देता है।
राहु केतु की योगकारकता
यदि ये ग्रह द्वितीय तथा सप्तम स्थान में स्थित हों और उससे त्रिकोण भाव के स्वामी से युति अथवा दृष्टि हो तो धन तथा आयु को देने वाले होते हैं - 'नेत्रद्यूनगतौ त्रिकोणपतियुग्दृष्टौ धनायुःप्रदौ'
इसी प्रकार द्विस्वभाव राशियों में स्थित होने तथा अधिष्ठित राशियों के स्वामियों तथा केन्द्र व त्रिकोणभावों के स्वामी से युक्त अथवा दृष्ट होने पर भी ये छाया ग्रह प्रबल योगकारक होते हैं -
'स्यातां केतुविद्युन्तुदौ द्वितनुभे केन्द्रत्रिकोणेश्वरे-
र्युक्तौ वा तदधीश्वरौ यदि तयोः पाकेऽर्थराज्यप्रदो।।'
इन छाया ग्रहों के स्थिर अथवा चर राशि में स्थित होने तथा केन्द्र और त्रिकोण भावों के स्वामी से युक्त होने पर भी ये ग्रह महान भाग्य प्रदान करते हैं। यदि राहु तथा केतु केन्द्र, त्रिकोण में स्थित हों और केन्द्र या त्रिकोणपति से युत या दृष्ट हों तो भी ये योगकारक होते हैं। इन ग्रहों के तृतीय, एकादश तथा केन्द्र स्थान में स्थित होकर बलवान योगकारक ग्रहों से युक्त होने पर जातक को संपत्ति, सुख, पुत्र, धन, राज्य, वाहन तथा अधिकार प्रदान करनेवाले होते हैं।
' लग्नात्कोणगतौ च वित्तमदनस्थानेश्वाराभ्यां तमः
खेटौ संयुतवीक्षितौ निजदशाकले हि मृत्युप्रदौ।।'
ये छाया ग्रह राहु व केतु यदि पापभाव में स्थित होकर शुभग्रहों से युत हों तो महान् मारक सिद्ध होते हैं -
'तौ द्वौ पापगृहस्थितौ शुभयुतौ स्यातां महामारकौ'
इन छाया ग्रहों की षष्ठ, अष्टम तथा द्वादश भाव में स्थिति तथा इन्हीं किसी भावेश के साथ युति भी मृत्युप्रद होती है। यद्यपि राहु की मारकता काफी तीक्ष्ण होती है तथापि अरिष्टभंग क्रम में यही राहु लग्न से तृतीय, षष्ट अथवा एकादश भाव में स्थित होकर तथा शुभ ग्रहों से दृष्ट होकर समस्त अरिष्टों का नाश कर देता है -
'लग्नातृतीयारिभवे च राहुः पापैर्विमुक्तः शुभद्रश्यमानः।
विनाशयत्याशु समस्तरिष्टं तूलं यथा वायुबलस्य वेगः।।'
मेष, वृष तथा कर्क राशि में लग्न में राहु की उपस्थिति मात्र ही समस्त अरिष्टों की नाशक होती है -
'अजवृषकर्किणि लग्ने रक्षति राहुः समस्तपीडाभ्यः।
पृथिवीपतिः प्रसन्नः कृतापराधं यथा पुरूषम्।।'
इस प्रकार राहु-केतु के फलादेश प्रक्रिया में पाराशरी सिद्धान्तों का अनुकरण फलादेश की सटीकता को बढ़ा देता है। राहु तथा केतु के कारण बननेवाले योगों में कालसर्प योग भी प्रमुख है। यद्यपि इस योग का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में अनुपलब्ध है, तथापि अनुसंधान तथा प्रयोग की दृष्टि से यह योग काफी महत्त्वपूर्ण है। जब समस्त ग्रह, राहु तथा केतु के मध्य आ जाते हैं तो इस कालसर्पयोग का सृजन होता है। इस योग में जातक का जीवन प्रबल संघर्षों से भर जाता है। ज्योतिषशास्त्र सहस्रों वर्षों से मानव मात्र के कल्याण में तत्पर रहा है। इस शास्त्र में हुए नवीन अनुसन्धानों तथा दैवज्ञों की व्यक्तिगत अन्वेषण पद्धतियों ने इस आध्यात्मिक विद्या को समृद्ध ही किया है। अतः नवीन अनुसन्धानों के कारण अस्तित्त्व में आए इस कालसर्पयोग की अनदेखी करना उचित नहीं है।

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