ज्योतिषमान आकाशीय पिण्डों का अध्ययन ही ज्योतिषशास्त्र है। अतः सृष्टि के आरम्भ में सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि के सृजन के साथ ही ज्योतिषशास्त्र के विवेच्य विषय अस्तित्व में आ गये। प्रारम्भ में यह शास्त्र वेदों के समान ही श्रुति परम्परा द्वारा संरक्षित रहा तथा कालान्तर में ज्योतिष शास्त्र से सम्बन्धित स्वतंत्र साहित्य की भी रचना हुई। वैदिक संहिताओं में उपलब्ध ज्योतिष शास्त्रीय छिटपुट उल्लेखों से लेकर ज्योतिषशास्त्रीय स्वतंत्र साहित्यों के रचना क्रम के मध्य एक लम्बी कालावधि का अवकाश रहा है। स्पष्ट है कि ज्योतिषशास्त्र की इस समृद्ध परम्परा को निश्चित होने में एक लम्बा समय लगा है। मानव सभ्यता के आरम्भ से लेकर आज तक के इस कालक्रम में ज्योतिषशास्त्र ने विकास की जिस अवस्था को प्राप्त किया है उसमें अनेक ऐसे निर्णायक तथा महत्वपूर्ण बिन्दु हैं, जिन्होंने इस शास्त्र की दिशा और दशा दोनों के ही विकास में विशेष भूमिका का निवर्हण किया। वेदांग ज्योतिष विषयक ग्रन्थ ऐसे ही महत्व के हैं, जिन्होंने वैदिक संहिताओं में उपलब्ध ज्योतिषशास्त्र के स्वरूप को पूर्णता की ओर अग्रसर करने में सहयोग किया है। विश्व की प्राचीनतम रचना के रूप में वेदों को ही स्वीकार किया जाता है। विषयवस्तु के अत्यन्त दुरूह होने के कारण परवर्ती काल में वेदों के पठन-पाठन में कठिनाईयाँ उत्पन्न होने लगीं। इन समस्याओं के निराकरण हेतु परवर्ती काल में अनेक ट्टषियों के द्वारा वेदांगों की रचना की गई।
वेदांग का अर्थ तथा महत्व -
‘वेदांग' शब्द की व्युत्पत्ति ‘वेद’ तथा ‘अंग’ इन दो शब्दों के मिलने से हुई है। ‘अंग’ शब्द का अर्थ है जिनके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को जानने में सहायता प्राप्त होती हो, उन्हें अंग कहते हैं। स्पष्ट है कि वेद के स्वरूप को समझाने में सहायक ग्रन्थ वेदांग कहे गए। इन वेदांगों की संख्या छः कही गई है - शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष। सर्वप्रथम मुण्डकोपनिषद् में इन छः वेदांगों के नाम का उल्लेख मिलता है। यद्यपि गोपथ ब्राह्मण में भी इसका संकेत प्राप्त होता है। इन वेदांगों का मूल उद्देश्य वेदों के सही अर्थबोध, उचित उच्चारण तथा वेदों के याज्ञिक प्रयोग हैं। अर्थबोध के लिए व्याकरण तथा निरुक्त वेदांग अस्तित्व में आए। जबकि सही उच्चारण के लिए शिक्षा तथा छन्द वेदांगों की रचना हुई। जबकि वेदों के याज्ञिक प्रयोग की शुद्धि को सुनिश्चित करने के लिए कल्प तथा ज्योतिष वेदांग का आविर्भाव हुआ। वेदांगों के उद्देश्य का निर्धारण करने के क्रम में आचार्य बलदेव उपाध्याय का विचार अत्यन्त सारगर्भित है। इनके अनुसार- 'मन्त्रों के उचित उच्चारण के लिए शिक्षा का, कर्मकाण्ड और यज्ञीय अनुष्ठान के लिए कल्प का, शब्दों के रूप ज्ञान के लिए व्याकरण का, अर्थज्ञान तथा शब्दों के निर्वचन के निमित्त निरुक्त का, वैदिक छन्दों की जानकारी के लिए छन्द का तथा अनुष्ठानों के उचित काल निर्णय के लिए ज्योतिष का उपयोग है और इनकी उपयोगिता के कारण ये छः वेदांघ माने जाते हैं।' इन वेदांगों को वेद पुरुष के विभिन्न अवयवों के रूप में स्वीकृति प्रदान की गई इसी सन्दर्भ में पाणिनीय शिक्षा ग्रन्थ वेद पुरुष के पैर के रूप में छन्द, हाथ के रूप में कल्प, तथा कान के रूप में निरुक्त वेदांग की कल्पना करता है। जबकि ज्योतिष, शिक्षा तथा व्याकरण वेदांग को क्रमशः नेत्र, नाक तथा मुख के रूप में स्वीकार किया गया है।
‘वेदांग' शब्द की व्युत्पत्ति ‘वेद’ तथा ‘अंग’ इन दो शब्दों के मिलने से हुई है। ‘अंग’ शब्द का अर्थ है जिनके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को जानने में सहायता प्राप्त होती हो, उन्हें अंग कहते हैं। स्पष्ट है कि वेद के स्वरूप को समझाने में सहायक ग्रन्थ वेदांग कहे गए। इन वेदांगों की संख्या छः कही गई है - शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष। सर्वप्रथम मुण्डकोपनिषद् में इन छः वेदांगों के नाम का उल्लेख मिलता है। यद्यपि गोपथ ब्राह्मण में भी इसका संकेत प्राप्त होता है। इन वेदांगों का मूल उद्देश्य वेदों के सही अर्थबोध, उचित उच्चारण तथा वेदों के याज्ञिक प्रयोग हैं। अर्थबोध के लिए व्याकरण तथा निरुक्त वेदांग अस्तित्व में आए। जबकि सही उच्चारण के लिए शिक्षा तथा छन्द वेदांगों की रचना हुई। जबकि वेदों के याज्ञिक प्रयोग की शुद्धि को सुनिश्चित करने के लिए कल्प तथा ज्योतिष वेदांग का आविर्भाव हुआ। वेदांगों के उद्देश्य का निर्धारण करने के क्रम में आचार्य बलदेव उपाध्याय का विचार अत्यन्त सारगर्भित है। इनके अनुसार- 'मन्त्रों के उचित उच्चारण के लिए शिक्षा का, कर्मकाण्ड और यज्ञीय अनुष्ठान के लिए कल्प का, शब्दों के रूप ज्ञान के लिए व्याकरण का, अर्थज्ञान तथा शब्दों के निर्वचन के निमित्त निरुक्त का, वैदिक छन्दों की जानकारी के लिए छन्द का तथा अनुष्ठानों के उचित काल निर्णय के लिए ज्योतिष का उपयोग है और इनकी उपयोगिता के कारण ये छः वेदांघ माने जाते हैं।' इन वेदांगों को वेद पुरुष के विभिन्न अवयवों के रूप में स्वीकृति प्रदान की गई इसी सन्दर्भ में पाणिनीय शिक्षा ग्रन्थ वेद पुरुष के पैर के रूप में छन्द, हाथ के रूप में कल्प, तथा कान के रूप में निरुक्त वेदांग की कल्पना करता है। जबकि ज्योतिष, शिक्षा तथा व्याकरण वेदांग को क्रमशः नेत्र, नाक तथा मुख के रूप में स्वीकार किया गया है।
वेदांग ज्योतिष के विभिन्न संस्करण-
वेदांग ज्योतिष के रचनाकार के रूप में आचार्य लगध का नाम स्मरण किया जाता है। सामवेद के अतिरिक्त शेष अन्य तीनों वेदों के वेदांग ज्योतिष प्राप्त होते हैं। ऋग्वेद का ‘ऋक्’ या ‘आर्च’ ज्योतिष, यजुर्वेद का ‘याजुष् ज्योतिष’ तथा अथर्ववेद का ‘आथर्वण ज्योतिष’ ग्रन्थ वेदांग के रूप में प्रतिष्ठित है। सामवेद में चूंकि सामों का संकलन है तथा वैदिक कर्मकाण्ड से सम्बन्धित तथ्यों का अभाव है, अतः सामवेद का वेदांग ज्योतिष ग्रन्थ प्राप्त नहीं होता है।
वेदांग ज्योतिष के रचनाकार के रूप में आचार्य लगध का नाम स्मरण किया जाता है। सामवेद के अतिरिक्त शेष अन्य तीनों वेदों के वेदांग ज्योतिष प्राप्त होते हैं। ऋग्वेद का ‘ऋक्’ या ‘आर्च’ ज्योतिष, यजुर्वेद का ‘याजुष् ज्योतिष’ तथा अथर्ववेद का ‘आथर्वण ज्योतिष’ ग्रन्थ वेदांग के रूप में प्रतिष्ठित है। सामवेद में चूंकि सामों का संकलन है तथा वैदिक कर्मकाण्ड से सम्बन्धित तथ्यों का अभाव है, अतः सामवेद का वेदांग ज्योतिष ग्रन्थ प्राप्त नहीं होता है।
वेदांग ज्योतिष का काल निर्धारण-
वेदांग होने के कारण निश्चित रूप से वेदांग ज्योतिष के ग्रन्थ काफी प्राचीन प्रतीत होते हैं। इस दिशा में अनेक प्रमाण इनसे सम्बन्धित ग्रन्थों यथा ऋक् ज्योतिष, याजुष् ज्योतिष तथा आथर्वण ज्योतिष में प्राप्त होते हैं। ऋक् ज्योतिष में एक स्थान पर कहा गया है कि युगारम्भ के बाद जब सूर्य व चन्द्रमा एक साथ पुनः श्रविष्ठा अर्थात् धनिष्ठा नक्षत्र के प्रारम्भ में आते हैं उसी क्षण अगले-अगले वर्षों में उत्तरायण होता है जबकि दक्षिणायन का आरम्भ भी इसी तरह श्लेषा के आधे पर आने के समय होता है, जहाँ तक सूर्य के अयनों का सम्बन्ध है, वह सदा माघ व श्रावण मास में ही होता है। स्पष्ट है कि यहाँ ऋषि धनिष्ठा से उत्तरायणारम्भ कहकर वेदांग ज्योतिष में धनिष्ठा योगतारा की ही बात करते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो जब इस तारे का सायन भोग 9-0°-0' था तब उक्त युगारम्भ हुआ था। यदि अयन गति को वास्तविक तत्कालीन अयन गति (48") से कुछ अधिक 50" विकला प्रतिवर्ष भी मान लिया जाए तो यह स्थिति कम से कम 1411 ई.पू. तक आता है। यदि वास्तविक तत्कालीन अयन गति 48" को मानें तो यह समय 1553 ई.पू. आता है। इसी अयन-चलन को आधार मानकर डॉ. गोरखप्रसाद वेदांग ज्योतिष का काल लगभग 1200 ई.पू. सिद्ध करते हैं। इस सन्दर्भ में उन्होंने कई पाश्चात्य विद्वानों के भी मतों का उल्लेख किया है और कहा है कि जोन्स और प्रैट ने इसका काल 1181 ई.पू. , डेविस और कोलब्रुक ने 1391 ई.पू. जबकि छोटे लाल बार्हस्पत्य ने इसे 1098 ई.पू. का सिद्ध किया है। यही कारण है कि विद्वान इस वेदांग ज्योतिष को भारतीय ज्योतिषशास्त्र का सबसे आदिम तथा प्राचीनतम स्वतन्त्र लक्षण ग्रन्थ मानते हैं। उपरोक्त मत के समर्थक आचार्य बलदेव उपाध्याय ने भी इसका रचनाकाल 1200 ई.पू. ही माना है। शंकर बालकृष्ण दीक्षित महोदय ने भी वेदांग ज्योतिष के काल निर्धारण की दिशा में स्तुत्य प्रयास किया है। उन्होंने पाश्चात्य विद्वान कोलब्रूक महोदय के सिद्धान्तों की आलोचना की है और इसमें कुछ संशोधन भी प्रस्तुत किए हैं। इनका मत है कि विभागात्मक धनिष्ठा के आरम्भ स्थान से धनिष्ठा की योगतारा 4 अंश 11 कला आगे है और इस मान के सम्पात गति होने में 300 वर्ष लग जाते हैं। इन्होंने प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले धनिष्ठा के चार या पाँच तारों के पास चन्द्र और सूर्य के आने पर ही उत्तरायणारम्भ को स्वीकार किया है। दीक्षित महोदय ने ईस्वी सन् 1887 में धनिष्ठा के योग तारा एल्फा डेल्फिनी का सूक्ष्म भोग निकाला था जो 10 राशि 15 अंश 48 कला और 29 विकला आया था और 50 विकला की वार्षिक सम्पात गति मानने पर यह वृद्धि कुल 3297 वर्ष में ही संभव होती है। इस तरह उन्होंने ऋक् ज्योतिष का रचनाकाल 3297-1887 = 1410 ई.पू. सिद्ध किया है। प्रो. ह्विटनी धनिष्ठा के तारों में बीटा डेल्फिनी को योगतारा मानते हैं और उनकी गणना वेदांग ज्योतिष को 72 वर्ष नवीन अर्थात् ई.पू. 1338 की रचना सिद्ध करती है।
कुप्न्ना शास्त्री महोदय भी याजुष् ज्योतिष के श्लोकों के आधार पर श्रविष्ठा के आरम्भ में दक्षिणायन तथा आश्लेषा के अर्ध या मध्य बिन्दु से उत्तरायण स्वीकार करते हैं। ठीक इसी प्रकार का उल्लेख वराहमिहिर की बृहत्संहिता में भी मिलता है। आचार्य वराह ने अपने समय में उत्तरायण पुनर्वसु के 3/4 तथा दक्षिणायन 1/4 में माना है। इस तरह अयन चलन की सम्पातिक गति 7÷4 या 23°-20’ होती है। आचार्य लगध का समय 72×70÷3 = 1680 वर्ष अर्थात् वराहमिहिर के समय 350 ई. के 1680 वर्ष पूर्व माना जाना चाहिए। इस तरह यह समय 1150 ई.पू.आता है जबकि खण्ड की अपेक्षा तारों का समूह लेने पर यह 3° के भीतर होने के कारण यह समय 1370 ई.पू. हो जाता है। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक महोदय वेदांग ज्योतिष को वैदिक कैलेण्डर पद्धति का सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ मानते हैं। इन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि ऋग्वेद में अनेक ऐसे प्रसंग आए हैं जहाँ यज्ञों तथा सम्बन्धित काल विशेष का वर्णन मिलता है और बिना एक मास, पक्ष, ऋतु, वर्ष आदि के ज्ञान के बिना यज्ञ विधि की सम्पूर्णता संभव नहीं है। इन्होंने वेदांग ज्योतिष का काल 1100 से 1400 ई.पू. स्वीकार किया है।
ऋक् ज्योतिष के श्लोक संख्या 6 के अनुसार माघ मास का प्रारंभ तब होता है जब सूर्य मध्य आश्लेषा में होता है और यह स्थिति वसन्त सम्पात बिन्दु मघा से 1°13' आगे होने पर ही संभव है। 1987 ई. में तत्कालीन वसन्त सम्पात बिन्दु और मघा नक्षत्र के मध्य कोणीय दूरी 60°56' थी और इसमें वेदांग कालीन स्थिति को जोड़ने पर कुल दूरी 60°56'+8°=68°56' होती है। इस तरह वेदांग ज्योतिष का काल 68°56'×72 = 4963 - 1987 = 2976 ई.पू. सिद्ध होता है। जहाँ तक अन्य शास्त्रकारों द्वारा तुलनात्मक अध्ययन द्वारा इन रचनाओं के काल निर्धारण का प्रश्न है तो आचार्य वराहमिहिर द्वारा अपनी रचना में वेदांग ज्योतिष की अयन सम्बन्धी विचारधारा को प्राचीन शास्त्रों द्वारा उक्त माना है , यह स्थिति वेदांग ज्योतिष को आचार्य वराहमिहिर के काल अर्थात् शक 427 के पूर्व का सिद्ध करती है। बृहत्संहिता के यशस्वी टीकाकार भट्टोत्पल ने अपनी टीका में ‘पराशर’ के मत का उल्लेख किया है जिसमें वेदांग ज्यातिष प्रोक्त अयन प्रवृत्ति का वर्णन है। पराशर द्वारा वेदांग ज्योतिष में वर्णित अयन प्रवृत्ति का उल्लेख इस ग्रन्थ को पराशर से पूर्ववर्त्ती सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। पाणिनि ने अपनी रचना में पराशर का नाम लिया है और वेदांग ज्योतिष पराशर से पूर्ववर्ती सिद्ध किया जा चुका है अतः ये ग्रन्थ पाणिनि से प्राचीनतर सिद्ध होते हैं। ऋक् ज्योतिष तथा याजुष् ज्योतिष में नक्षत्रों के प्राचीन नामों का ही उल्लेख हुआ है यथा धनिष्ठा के लिए ‘श्रविष्ठा’ , अश्विनी के लिए ‘अश्वयुक्’ तथा शतभिषा के लिए ‘शतभिषक्’ । नक्षत्रों के लिए प्रयुक्त ये संज्ञाएँ भी इन वेदांग ज्योतिष-विषयक ग्रन्थों की प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। अपने वर्ण्य-विषय तथा शैली के कारण ‘आथर्वण ज्योतिष’ को ‘ऋक् ज्योतिष’ तथा ‘याजुष्-ज्योतिष’ वेदांगों से अर्वाचीन माना जाता है। यह अवश्य है कि ‘आथर्वण ज्योतिष’ अन्य वेदांग ज्योतिष ग्रन्थों से नवीन है फिर भी यह पर्याप्त प्राचीन सिद्ध होती है। इसका कारण यह है कि इस ग्रन्थ में मेषादि द्वादश राशियों के नाम उपलब्ध नहीं होते तथा ग्रन्थ का एक श्लोक इसके फलितांश को भृगु के मत से प्रभावित कहता है। उपरोक्त मतों के आलोक में यह कहा जा सकता है वैज्ञानिक सिद्धान्त अयन-चलन को आधार मानकर सिद्ध किया गया समय ई.पू. 1200 से पूर्व ही वेदांग ज्योतिष विषयक ग्रन्थों का प्रणयन काल मानना उचित होगा।
वेदांग होने के कारण निश्चित रूप से वेदांग ज्योतिष के ग्रन्थ काफी प्राचीन प्रतीत होते हैं। इस दिशा में अनेक प्रमाण इनसे सम्बन्धित ग्रन्थों यथा ऋक् ज्योतिष, याजुष् ज्योतिष तथा आथर्वण ज्योतिष में प्राप्त होते हैं। ऋक् ज्योतिष में एक स्थान पर कहा गया है कि युगारम्भ के बाद जब सूर्य व चन्द्रमा एक साथ पुनः श्रविष्ठा अर्थात् धनिष्ठा नक्षत्र के प्रारम्भ में आते हैं उसी क्षण अगले-अगले वर्षों में उत्तरायण होता है जबकि दक्षिणायन का आरम्भ भी इसी तरह श्लेषा के आधे पर आने के समय होता है, जहाँ तक सूर्य के अयनों का सम्बन्ध है, वह सदा माघ व श्रावण मास में ही होता है। स्पष्ट है कि यहाँ ऋषि धनिष्ठा से उत्तरायणारम्भ कहकर वेदांग ज्योतिष में धनिष्ठा योगतारा की ही बात करते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो जब इस तारे का सायन भोग 9-0°-0' था तब उक्त युगारम्भ हुआ था। यदि अयन गति को वास्तविक तत्कालीन अयन गति (48") से कुछ अधिक 50" विकला प्रतिवर्ष भी मान लिया जाए तो यह स्थिति कम से कम 1411 ई.पू. तक आता है। यदि वास्तविक तत्कालीन अयन गति 48" को मानें तो यह समय 1553 ई.पू. आता है। इसी अयन-चलन को आधार मानकर डॉ. गोरखप्रसाद वेदांग ज्योतिष का काल लगभग 1200 ई.पू. सिद्ध करते हैं। इस सन्दर्भ में उन्होंने कई पाश्चात्य विद्वानों के भी मतों का उल्लेख किया है और कहा है कि जोन्स और प्रैट ने इसका काल 1181 ई.पू. , डेविस और कोलब्रुक ने 1391 ई.पू. जबकि छोटे लाल बार्हस्पत्य ने इसे 1098 ई.पू. का सिद्ध किया है। यही कारण है कि विद्वान इस वेदांग ज्योतिष को भारतीय ज्योतिषशास्त्र का सबसे आदिम तथा प्राचीनतम स्वतन्त्र लक्षण ग्रन्थ मानते हैं। उपरोक्त मत के समर्थक आचार्य बलदेव उपाध्याय ने भी इसका रचनाकाल 1200 ई.पू. ही माना है। शंकर बालकृष्ण दीक्षित महोदय ने भी वेदांग ज्योतिष के काल निर्धारण की दिशा में स्तुत्य प्रयास किया है। उन्होंने पाश्चात्य विद्वान कोलब्रूक महोदय के सिद्धान्तों की आलोचना की है और इसमें कुछ संशोधन भी प्रस्तुत किए हैं। इनका मत है कि विभागात्मक धनिष्ठा के आरम्भ स्थान से धनिष्ठा की योगतारा 4 अंश 11 कला आगे है और इस मान के सम्पात गति होने में 300 वर्ष लग जाते हैं। इन्होंने प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले धनिष्ठा के चार या पाँच तारों के पास चन्द्र और सूर्य के आने पर ही उत्तरायणारम्भ को स्वीकार किया है। दीक्षित महोदय ने ईस्वी सन् 1887 में धनिष्ठा के योग तारा एल्फा डेल्फिनी का सूक्ष्म भोग निकाला था जो 10 राशि 15 अंश 48 कला और 29 विकला आया था और 50 विकला की वार्षिक सम्पात गति मानने पर यह वृद्धि कुल 3297 वर्ष में ही संभव होती है। इस तरह उन्होंने ऋक् ज्योतिष का रचनाकाल 3297-1887 = 1410 ई.पू. सिद्ध किया है। प्रो. ह्विटनी धनिष्ठा के तारों में बीटा डेल्फिनी को योगतारा मानते हैं और उनकी गणना वेदांग ज्योतिष को 72 वर्ष नवीन अर्थात् ई.पू. 1338 की रचना सिद्ध करती है।
कुप्न्ना शास्त्री महोदय भी याजुष् ज्योतिष के श्लोकों के आधार पर श्रविष्ठा के आरम्भ में दक्षिणायन तथा आश्लेषा के अर्ध या मध्य बिन्दु से उत्तरायण स्वीकार करते हैं। ठीक इसी प्रकार का उल्लेख वराहमिहिर की बृहत्संहिता में भी मिलता है। आचार्य वराह ने अपने समय में उत्तरायण पुनर्वसु के 3/4 तथा दक्षिणायन 1/4 में माना है। इस तरह अयन चलन की सम्पातिक गति 7÷4 या 23°-20’ होती है। आचार्य लगध का समय 72×70÷3 = 1680 वर्ष अर्थात् वराहमिहिर के समय 350 ई. के 1680 वर्ष पूर्व माना जाना चाहिए। इस तरह यह समय 1150 ई.पू.आता है जबकि खण्ड की अपेक्षा तारों का समूह लेने पर यह 3° के भीतर होने के कारण यह समय 1370 ई.पू. हो जाता है। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक महोदय वेदांग ज्योतिष को वैदिक कैलेण्डर पद्धति का सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ मानते हैं। इन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि ऋग्वेद में अनेक ऐसे प्रसंग आए हैं जहाँ यज्ञों तथा सम्बन्धित काल विशेष का वर्णन मिलता है और बिना एक मास, पक्ष, ऋतु, वर्ष आदि के ज्ञान के बिना यज्ञ विधि की सम्पूर्णता संभव नहीं है। इन्होंने वेदांग ज्योतिष का काल 1100 से 1400 ई.पू. स्वीकार किया है।
ऋक् ज्योतिष के श्लोक संख्या 6 के अनुसार माघ मास का प्रारंभ तब होता है जब सूर्य मध्य आश्लेषा में होता है और यह स्थिति वसन्त सम्पात बिन्दु मघा से 1°13' आगे होने पर ही संभव है। 1987 ई. में तत्कालीन वसन्त सम्पात बिन्दु और मघा नक्षत्र के मध्य कोणीय दूरी 60°56' थी और इसमें वेदांग कालीन स्थिति को जोड़ने पर कुल दूरी 60°56'+8°=68°56' होती है। इस तरह वेदांग ज्योतिष का काल 68°56'×72 = 4963 - 1987 = 2976 ई.पू. सिद्ध होता है। जहाँ तक अन्य शास्त्रकारों द्वारा तुलनात्मक अध्ययन द्वारा इन रचनाओं के काल निर्धारण का प्रश्न है तो आचार्य वराहमिहिर द्वारा अपनी रचना में वेदांग ज्योतिष की अयन सम्बन्धी विचारधारा को प्राचीन शास्त्रों द्वारा उक्त माना है , यह स्थिति वेदांग ज्योतिष को आचार्य वराहमिहिर के काल अर्थात् शक 427 के पूर्व का सिद्ध करती है। बृहत्संहिता के यशस्वी टीकाकार भट्टोत्पल ने अपनी टीका में ‘पराशर’ के मत का उल्लेख किया है जिसमें वेदांग ज्यातिष प्रोक्त अयन प्रवृत्ति का वर्णन है। पराशर द्वारा वेदांग ज्योतिष में वर्णित अयन प्रवृत्ति का उल्लेख इस ग्रन्थ को पराशर से पूर्ववर्त्ती सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। पाणिनि ने अपनी रचना में पराशर का नाम लिया है और वेदांग ज्योतिष पराशर से पूर्ववर्ती सिद्ध किया जा चुका है अतः ये ग्रन्थ पाणिनि से प्राचीनतर सिद्ध होते हैं। ऋक् ज्योतिष तथा याजुष् ज्योतिष में नक्षत्रों के प्राचीन नामों का ही उल्लेख हुआ है यथा धनिष्ठा के लिए ‘श्रविष्ठा’ , अश्विनी के लिए ‘अश्वयुक्’ तथा शतभिषा के लिए ‘शतभिषक्’ । नक्षत्रों के लिए प्रयुक्त ये संज्ञाएँ भी इन वेदांग ज्योतिष-विषयक ग्रन्थों की प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। अपने वर्ण्य-विषय तथा शैली के कारण ‘आथर्वण ज्योतिष’ को ‘ऋक् ज्योतिष’ तथा ‘याजुष्-ज्योतिष’ वेदांगों से अर्वाचीन माना जाता है। यह अवश्य है कि ‘आथर्वण ज्योतिष’ अन्य वेदांग ज्योतिष ग्रन्थों से नवीन है फिर भी यह पर्याप्त प्राचीन सिद्ध होती है। इसका कारण यह है कि इस ग्रन्थ में मेषादि द्वादश राशियों के नाम उपलब्ध नहीं होते तथा ग्रन्थ का एक श्लोक इसके फलितांश को भृगु के मत से प्रभावित कहता है। उपरोक्त मतों के आलोक में यह कहा जा सकता है वैज्ञानिक सिद्धान्त अयन-चलन को आधार मानकर सिद्ध किया गया समय ई.पू. 1200 से पूर्व ही वेदांग ज्योतिष विषयक ग्रन्थों का प्रणयन काल मानना उचित होगा।
Useful
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