Sunday 11 November 2018

कालपुरुष

 वैदिक संहिताओं में विराट पुरुष से संबंधित कई संदर्भ प्राप्त होते हैं । ऋग्वेद का पुरुष सूक्त इसी उदात्त विचारधारा का दिग्दर्शन है। संपूर्ण सृष्टि और  सृष्टि में व्याप्त समस्त स्थावर व जङ्गम पदार्थों की उत्पत्ति का मूल कारण इसी विराट पुरुष को माना गया है। विराट पुरुष के साथ-साथ कालतत्त्व भी वैदिक ऋषियों के ज्ञान चक्षु से ओझल नहीं रह पाया था। कालतत्त्व का विस्तृत वर्णन हमें अथर्ववेद के काल सूक्त में प्राप्त होता है। इसी महान परम्परा को ज्योतिषशास्त्र के प्रवर्तक ऋषियों और आचार्यों ने पर्याप्त रूप से महत्व दिया और इसे अपने शास्त्र का मूल आधार बनाया।

"विधात्रा लिखिता याऽसौ ललाटेऽक्षरमालिका।

दैवज्ञस्ता़ पठेद्व्यक्तं होरानिर्मलचक्षुषा।।"
ज्योतिषशास्त्र के जितने भी प्राचीन ग्रंथ हैं उनमें काल पुरुष का वर्णन हमें अवश्य मिल जाता है। ज्योतिषशास्त्र के जिज्ञासुओं में यह शंका बार-बार उत्पन्न होती है की आखिर भाग्य और कर्म का वर्णन करने वाले इस शास्त्र में काल पुरुष की क्या आवश्यकता है। इस जिज्ञासा का समाधान भी इन्हीं ऋषियों और आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रंथों में उपलब्ध हो जाता है। महर्षि पराशर की रचना बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् और इसी पर आधारित परवर्ती कालजयी रचनाओं यथा- यह वृहज्जातक, सरावली, फलदीपिका, ज्योतिषकल्पतरु, फलित मार्तण्ड, होरारत्नम, सर्वार्थ चिंतामणि आदि ग्रंथों में भी कालपुरुष से संबंधित गूढ़ सिद्धांत हमें प्राप्त हो जाते हैं। इन ग्रंथों में कालपुरुष का संबंध सीधे-सीधे जातक के साथ स्थापित किया गया है। जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में शिर, नेत्र, मुख, वक्षस्थल, उदर आदि अंग होते हैं उसी प्रकार काल पुरुष के भी विभिन्न शरीरावयवों की कल्पना की गई है और उनका मेषादि द्वादश राशियों और सूर्यादि ग्रहों के साथ संबंध स्थापित किया गया है। मनुष्य का शरीर त्रिविध दु:खों से पीड़ित होता है, सुखादि का अनुभव करता है और इन सब के कारणों की मीमांसा अलग-अलग शास्त्रों ने अपने ढ़ंग से की है। ठीक इसी तरह ज्योतिषशास्त्र के आचार्यों ने भी इन कारणों की मीमांसा का स्तुत्य प्रयास किया है। इन ऋषियों के ग्रंथों का गहन अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है की कालपुरुष और जातक के मध्य अभेद  है। आत्मबल, मानसिक दृढ़ता,सत्त्व का आधिक्य या अल्पता, वाक्पटुता, ज्ञान, सुख, हर्ष या विषाद मानव जीवन के भविष्य को प्रभावित करता है और इसी महत्व को देखते हुए काल पुरुष के भी आन्तरिक अवयवों यथा आत्मा, चित्त,मन सत्त्व, वाणी, ज्ञान, काम व सुख-दुखादि आदि की कल्पना ज्योतिषशास्त्र में की गई है। ऋषियों ने अपने ग्रंथों में ग्रह और राशियों का जो संबंध कालपुरुष के बाह्य तथा आंतरिक अवयवों के मध्य जो संबंध स्थापित किया है, ज्योतिषशास्त्र के अधिकांश आचार्यों ने इसी परम्परा का अनुकरण किया है।
कालपुरुष विषयक आत्मादि विभाग
ज्योतिषशास्त्र में जिस कालपुरुष की परिकल्पना प्राप्त होती है उसके आन्तरिक अवयवों के वर्गीकरण के अनुसार सूर्य को इस पुरुष की आत्मा के रूप में स्वीकार किया गया है। ऋग्वेद में भी तो कहा गया है - 'सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ' । इसी प्रकार चंद्रमा को कालपुरुष का मन या चित्त माना गया है। भौम अर्थात् मंगल को बल या सत्त्व का प्रतिनिधि माना गया है। जब कालपुरुष के वचन या वाणी के संदर्भ में जिज्ञासा उत्पन्न होती है तो बुध ग्रह को इसका अधिपति कहा गया है। ठीक इसी तरह कालपुरुष का ज्ञान बृहस्पति है। जबकि शुक्र ग्रह को इसका सुख कहा गया है। ज्योतिषशास्त्र के आचार्यों ने राहु को कालपुरुष का मद कहा है। सूर्यपुत्र शनि को कालपुरुष का दुख माना गया है। कहा भी है - 'शनि: काल नरस्य दुखम् '
कालपुरुष के शरीरावयव
ज्योतिषशास्त्र के ग्रंथों में जब कालपुरुष का प्रसङ्ग आता है तो इस वेदाङ्ग के आचार्य अत्यन्त विस्तारपूर्वक इस सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं और मनुष्य के समान ही कालपुरुष के मस्तक, नेत्र, कान, नाक, गला, गाल, ठोढ़ी, मुख, ग्रीवा, कंधा, हाथ, बगल, छाती, पेट, नाभि, वस्ति, उपस्थ या लिङ्ग, गुदा, अंडकोष, जांघ, घुटना और पैर इन समस्त अंगों का ज्योतिषशास्त्रीक्ष दृष्टिकोण से राशियों के साथ संबंध स्थापित करते हैं। कालपुरुष के इन अंगों के निर्धारण क्रम में द्रेष्काण का विचार आवश्यक हो जाता है। हम जानते हैं कि प्रत्येक राशि में तीन द्रेष्काण होते हैं। यदि लग्न प्रथम द्रेष्काण में हो तो द्वादश भावों से कालपुरूष के अलग-अलग अङ्गों का विचार होगा और यदि लग्न द्वितीय या तृतीय द्रेष्काण में हो तब भी यह कालपुरुष के अलग-अलग अङ्गों का प्रतिनिधित्व करेगा। अभिप्राय है कि जन्म समय में लग्न भाव में राशि का जो द्रेष्काण होता है उसी क्रम से काल पुरुष के भी 7, 7 और 8 इस क्रम से शरीर अवयव का निर्धारण होता है। यदि इसे और स्पष्ट करें तो कहा जा सकता है कि जन्म के समय यदि जातक के लग्न में प्रथम द्रेष्काण हो तो लग्न भाव मस्तक का, द्वितीय भाव दाहिनी आंख का, द्वादश भाव बाई आंख का, तृतीय भाव  दाहिने कान का, एकादश भाव बाएं कान का, चतुर्थ भाव और दशम भाव नाक का, पञ्चम और नवम भाव गाल का, षष्ठ और अष्टम भाव ठोढ़ी का, जबकि सप्तम भाव मुख विवर का प्रतिनिधित्व करेगा। इसी तरह यदि लग्नस्थ राशि द्वितीय द्रेष्काण में हो तो लग्न कंठ या ग्रीवा का, द्वितीय और द्वादश भाव कंधे का, तृतीय और एकादश भाव दोनों हाथों का, चतुर्थ और दशम भाव बगल का, पञ्चम और नवम भाव छाती का, षष्ठ और अष्टम भाव पेट का, जबकि सप्तम भाव काल पुरुष के नाभि को सूचित करेगा। इसी क्रम में जब हम लग्न में राशि के तृतीय द्रेष्काण को पाते हैं तब काल पुरुष के अंगों के निर्धारण में भिन्नता आ जाती है और इस दृष्टिकोण से लग्न भाव वस्ति अर्थात् उपस्थ व नाभि के मध्य भाग का, द्वितीय भाव लिंग का द्वादश भाव गुदा का, तृतीय और एकादश भाव अंडकोष का, चतुर्थ और दशम भाव जांघ का, पञ्चम एवं नवम भाव घुटने का, षष्ठ व अष्टम भाव पिंडलियों का, जबकि सप्तम भाव कालपुरुष के पैरों का प्रतिनिधित्व करेगा।
कालपुरूष के दक्षिण और वाम अङ्ग का निर्णय
ज्योतिषशास्त्र में वर्णित कालपुरुष के विभिन्न अवयवों का संबंध राशियों के साथ स्थापित करने के सिद्धांतों पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो एक अत्यन्त सहज प्रश्न सामने आता है की मानव शरीर में जो अंग संख्या में दो हैं, तो उनका निर्धारण कैसे हो ? इस जिज्ञासा के शमन के लिए आचार्यों ने व्यवस्था दी है कि लग्न से पीछे की जो राशियां उदित रहती हैं अर्थात् क्षितिज से ऊपर रहती हैं वे जातक के वाम अंग अर्थात् बाएं अङ्ग की तथा जो राशियां क्षितिज से नीचे रहती हैं,अर्थात् अनुदित रहतीं हैं वे दक्षिण या दाएं अङ्ग की प्रतिनिधि होती हैं। व्यवहार में देखा गया है कि सामान्यतया मनुष्य का वाम अङ्ग निर्बल होता है जबकि दक्षिण अङ्ग सबल होता है। किन्तु जो जातक बाएं हाथ से समस्त कार्यों का निष्पादन करते हैं उनकी स्थिति इससे भिन्न होती है। अगर इस सिद्धांत को और अधिक विस्तारपूर्वक स्पष्ट करें तो लग्नार्द्ध, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ और सप्तमार्द्ध इन्हें हम अनुदित खण्ड कहेंगे। जबकि सप्तमार्द्ध, अष्टम, नवम, दशम, एकादश, द्वादश और लग्नार्द्ध भाव को उदित खण्ड कहेंगे।
कालपुरुष के आत्मादि विभाग के बलाबल का जातक पर प्रभाव
ज्योतिषशास्त्र के आचार्य जब कालपुरुष के आत्मादि विभाग विषयक सिद्धान्तों की स्थापना करते हैं तो इस शास्त्र के जिज्ञासुओं के मन में एक सहज प्रश्न उत्पन्न होता है कि सूर्यादि ग्रह जो काल पुरुष के अलग-अलग अंगों के वाचक हैं, वे जातक को किस प्रकार प्रभावित कर सकते हैं ? इस प्रश्न का समाधान सारावली ग्रंथ के रचनाकार आचार्य कल्याण वर्मा करते हैं और बताते हैं कि जन्म काल में आत्मादिकारक सूर्यादि ग्रह यदि बली हो तो जातक के आत्मादि भी बलवान होते हैं। अभिप्राय है कि ऐसा जातक उच्च या श्रेष्ठ आत्मबल से युक्त होता है। इसी प्रकार अगर चन्द्रमा निर्बल हो तो मनुष्य का मन या चित्त भी निर्बल होगा। मङ्गल का बलवान या निर्बल होना मनुष्य के सत्त्व अर्थात पराक्रम को सीधे सीधे प्रभावित करता है। बुध ग्रह का बलवान होना या निर्बल होना जातक की वाणी पर अपना प्रभाव डालता है। स्पष्ट है कि यदि बृहस्पति बलवान होंगे तो मनुष्य का ज्ञान भी उच्च कोटि का होगा जबकि निर्बल बृहस्पति मनुष्य के ज्ञान प्राप्ति के क्षेत्र को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेंगे। शुक्र सुख का प्रतिनिधि है अत: बलवान शुक्र मनुष्य को समस्त भौतिक सुख प्रदान करेंगे जबकि निर्बल शुक्र सुखों में कमी या न्यूनता कर देंगे। शनि ग्रह के संदर्भ में यह सिद्धांत किञ्चित भिन्न है और इस संदर्भ में सारावली ग्रन्थ के रचनाकार का कथन है - ' विपरीतं शने: फलम् ' अर्थात् शनि ग्रह जिसे काल पुरुष का दुःख माना गया है उसके फलादेश में किञ्चित सावधानी की आवश्यकता होगी। जैसे यदि शनि निर्बल हो तो दुःख का आधिक्य होगा जबकि शनि की प्रबलता दुःखों को कम करने वाली होगी। राहु को कालपुरुष का मद अर्थात अहंकार कहा गया है अत: बलवान राहु जातक के अहंकार में वृद्धि कर देता है जबकि निर्बल राहु अहंकार में कमी लाता है।
विभिन्न राशियों में उपस्थित ग्रहों के कारण कालपुरुष के शरीरावयव पर प्रभाव
मेषादि विभिन्न राशियों की स्थिति कालपुरुष के विविध अंगों में मानी गई है। इस सिद्धांत का प्रयोग जब हम जातक के जीवन से संबंधित शुभाशुभ का फलादेश करने के प्रसंग में करें तो यह ध्यान रखना चाहिए कि जिस राशि में पाप ग्रह स्थित होंगे उस राशि से संबंधित कालपुरुष के अङ्ग में घाव या चोट के योग बनेंगे और यह अशुभ फल जातक को प्राप्त होगा। ठीक उसी प्रकार कालपुरुष के अंगों का प्रतिनिधित्व करने वाली जिस राशि में शुभ ग्रह स्थित होंगे उस राशि से सम्बन्धित अंङ्ग में तिल या मस्सा आदि चिन्ह उपस्थित होंगे। अब एक नवीन जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि अलग-अलग राशियों में शुभ या पाप ग्रह घाव, चोट, रोग, तिल या मस्सा आदि उत्पन्न करते हैं तो वस्तुत: शुभ या सौम्य तथा पाप या क्रूर ग्रहों का विभाजन किस प्रकार हो ? इस सन्दर्भ में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि गुरु, बुध और शुक्र ये शुभ ग्रह हैं तथा शनि, मंगल और सूर्य पाप या क्रूर ग्रह हैं। यदि बुध ग्रह पाप ग्रह के साथ हो तो वह भी पापी ग्रह के समान ही फल देता है, जबकि शुभ ग्रह के साथ होने पर बुध शुभ फलदायी होता है। क्षीण चन्द्रमा को पाप ग्रह माना गया है जबकि पूर्ण चंद्रमा को ज्योतिषशास्त्रीय आचार्य शुभ ग्रह मानते हैं। चन्द्रमा शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से दशमी तिथि तक मध्यम बली माना गया है, और शुक्ल पक्ष की एकादशी से कृष्ण पक्ष की पञ्चमी तिथि तक यह पूर्ण बली कहा गया है। जबकि कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि से अमावस्या तक का चन्द्र बलहीन माना गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण पक्ष की अष्टमी के अर्ध भाग से शुक्ल पक्ष की अष्टमी के अर्ध भाग तक चंद्रमा क्षीण होता है जबकि शेष समय का चन्द्र बली माना गया है।
कालपुरुष को प्रभावित करने वाले राशियों तथा ग्रहों से सम्बन्धित फलप्राप्ति कब ?
विभिन्न राशियों में उपस्थित शुभ और अशुभ ग्रह जातक को घाव, चोट, रोग, तिल या मस्सा आदि का चिन्ह प्रदान करते हैं। परन्तु यह सहज जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि ये चिन्ह मनुष्य के शरीर पर कब आएंगे ? ये चिन्ह जन्म से ही जातक के शरीर पर होंगे अथवा जीवन के किसी कालखंड में ये चिन्ह जातक के शरीर पर किसी घटना विशेष के कारण अथवा स्वत: उत्पन्न होंगे। इस सन्दर्भ में एक सिद्धांत है जिसके अनुसार माना गया है कि यदि शुभ या पापी ग्रह अपनी राशि या अपने नवांश में स्थित हों तो उपरोक्त चिन्ह मनुष्य के शरीर पर जन्म के समय से ही होंगे। परन्तु यदि यही ग्रह स्वराशि या स्वनवांश में स्थित नहीं होंगे तो अपनी दशा अंतर्दशा आने पर जातक को घाव आदि प्रदान करेंगे।
ग्रहों के कारण कालपुरुष के बाह्य तथा आन्तरिक व्यक्तित्व का निर्धारण तथा प्रभाव
ज्योतिषशास्त्रीय ग्रंथों में जहाँ कहीं भी कालपुरुष का वर्णन  प्राप्त होता है वहाँ सूर्यादि ग्रहों का कालपुरुष के व्यक्तित्व के साथ भी सीधा-सीधा संबंध स्थापित किया गया है।जैसे यदि सूर्य जन्मांग में बलवान हो तो यह कालपुरुष को राजा के समान व्यवहार वाला बना देता है। ठीक इसी प्रकार यदि चन्द्रमा जन्माङ्ग में बली हो जाए तब भी मनुष्य में राजा के गुण आ जाएंगे। बुध ग्रह का बली होना काल पुरुष में राजकुमार के गुणों को संक्रांत करता है, जबकि मंगल का बली होना कालपुरुष में सेनानायक के गुणों का आधिक्य प्रदर्शित करता है। शुक्र और गुरु यदि पर्याप्त बलशाली हों तो कालपुरुष का व्यक्तित्व मंत्री, आचार्य या गुरु के समान हो जाएगा। ठीक इसी तरह शनि कालपुरुष को भृत्य अर्थात सेवक के व्यक्तित्व से युक्त कर देता है। ग्रहों का बलवान होना कालपुरुष के बाह्य शरीर आकृति के साथ ही उसके आन्तरिक व्यक्तित्व को भी प्रभावित करता है।
सूर्य
यदि जन्मांग में सूर्य अधिक बलवान हो जाए तो कालपुरुष का स्वरूप थोड़े घुंघराले केश से संयुक्त, सुंदर बुद्धि व रूप, गंभीर वाणी, अधिक ऊंचा नहीं, लाल नेत्र, शूर, प्रतापी, स्थिरमति, चञ्चलतारहित, लाल और कृष्ण शरीर, छिपे हुए पैर, पित्त की अधिकता वाला स्वभाव, हड्डियों में अधिक बल, अत्यधिक गम्भीर और चौकोर शरीर वाला हो जाएगा।
चन्द्रमा
इसी तरह चन्द्रमा से प्रभावित होने पर कालपुरुष शान्त, शोभायमान नेत्र से युक्त, मीठा बोलने वाला, सफेद वर्ण, कृश शरीर, युवावस्था वाला, उन्नत छोटे काले घुंघराले बाल, विद्वान, मृदु स्वभाव, सत्वगुण से युक्त, सुंदर, वात और कफ प्रकृति वाला, मित्रों से अत्यधिक प्रेम करने वाला, रक्त में बल का आधिक्य, घृणा करने वाला, वृद्धा अर्थात् अपने से अधिक उम्र की स्त्रियों में आसक्त रहने वाला, चंचल, अत्यंत सुंदर  और सफेद वस्त्र में रुचि रखने वाला हो जाता है।
मङ्गल
बलवान मंगल के कारण कालपुरुष लघु कद वाला, पिंगल नेत्र वाला, मजबूत शरीर, जली हुई अग्नि के समान कांति वाला, चंचल, चर्बी में बल, लाल वस्त्र, चतुर, शूर, सिद्ध वचन, छोटे घुंघराले चमकदार बाल वाला, जवान, पित्त प्रकृति से युक्त, तमोगुणी, पराक्रमी, साहसी, मारने में निपुण, लालिमा संयुक्त सफेद वर्णवाला या सफेद वर्ण से अधिक प्रेम करने वाला हो जाता है।
बुध
इसी तरह यदि जन्मकाल में बुध अधिक प्रभावी हो तो जातक या कालपुरुष विशाल लाल नेत्र वाला, मीठी वाणी, घास या दूब के समान हरित कृष्ण वर्णवाला, त्वचा में बल का अनुभव करने वाला, रजोगुणी, स्पष्ट वचन बोलने वाला, स्वच्छता प्रिय, त्रिदोषात्मक प्रकृति अर्थात् वात, पित्त और कफ इन तीनों प्रकृति के गुणों से युक्त, प्रसन्नात्मा, मध्यम स्वरूप वाला, चतुर, गोल आकृति, त्वचा नसों से व्याप्त, अपने वेश व वाणी से सब का अनुसरण करने वाला एवं हरे रंग के वस्त्रों से प्रेम करने वाला बन जाता है।
बृहस्पति
यदि जन्म के समय गुरु अधिक प्रभाव उत्पन्न कर रहे हों तो कालपुरुष थोड़े पीत नेत्र व कर्ण वाला, सिंह के समान गंभीर शब्द वाला, सत्व गुणों से युक्त, तपे हुए सोने के समान शरीर और वर्ण वाला, मोटी व ऊंची छाती वाला, लघु, धर्म में तत्पर रहने वाला, नम्रता में श्रेष्ठ, चतुर, स्थिर उत्कृष्ट दृष्टि, क्षमावान, पीला वस्त्र धारण करने वाला, कफ प्रकृति और चर्बी में बल का अनुभव करने वाला हो जाता है।
शुक्र
शुक्र के बलवान होने पर कालपुरुष मनोहर स्वरूप वाला, लंबे हाथ, विशाल वक्षस्थल और मुख वाला, वीर्य की अधिकता वाला, चेष्टावान, काले घुंघराले पतले लंबे बालों से युक्त, दूर्वा के समान श्यामल वर्णवाला, कामी, वात और कफ प्रकृति से युक्त, अत्यंत सौभाग्य से युक्त, अनेक रंगो के वस्त्रों का प्रिय, रजोगुण से युक्त, केलिकुशल अर्थात् काम कला में कुशल, बुद्धिमान, विशाल नेत्र वाला और मोटे कन्धों वाला बन जाता है।
शनि
शनि यदि जन्माङ्ग में अधिक बलवान हो अथवा लग्न पर शनि का अधिक प्रभाव तो यह कालपुरुष को कपिल गहरे नेत्र वाला, पतले लंबे शरीर वाला, नसों से युक्त, आलसी, काला वर्ण, वात प्रकृति, अत्यंत चुगलखोर,खाल अर्थात स्नायु में बल, निर्दयी,  मूर्ख, मोटे नाखून और दांत वाला, अत्यन्त मालिन  वेश में रहने वाला, चेष्टाहीन, अपवित्र, तामसी प्रकृति से युक्त, भयानक स्वरूप वाला, क्रोधी, वृद्ध तथा काले वस्त्रों से प्रेम रखने वाला बना देता है।
कालपुरुष का कालबल
कालपुरुष की कार्यकुशलता या कार्य करने के सामर्थ्य पर भी इन सूर्यादि ग्रहों का प्रभाव होता है। जैसे यदि जन्म समय में गुरु सूर्य और शुक्र अधिक बलवान हों तो कालपुरुष दिन में अधिक बली होगा। ठीक इसी तरह बुध यदि बली हो तो दिन व रात्रि दोनों में बली होगा। जबकि शनि, चन्द्रमा और मंगल यदि जन्मांग में बल युक्त हों तो यह कालपुरुष को रात्रि बली बना देता है। उपरोक्त सिद्धांत के अनुसार ग्रहों के बलाबल के कारण जातक दिन या रात किस समय अधिक ऊर्जावान होगा ? इसका निर्धारण सहज ही किया जा सकता है। कालपुरुष के खान-पान पर भी ग्रहों का आधिपत्य है। इन ग्रहों के बल के आधार पर यह निर्धारित किया जा सकता है की कालपुरुष को किस प्रकार का भोजन प्रिय होगा।सूर्य के बलवान होने पर कड़वा, चन्द्रमा के बली होने पर क्षारीय, भौम के बली होने पर तिक्त, बुध के बली होने पर मिश्रित, गुरु के बली होने पर मधुर, शुक्र के बली होने पर अम्लीय और शनि के बली होने पर कषाय या कसैला स्वाद कालपुरुष को प्रिय हो जाएगा। इसी प्रकार जन्मांग में यदि चंद्रमा और शुक्र अधिक बलवान हों तो यह कालपुरुष को स्त्रियोचित गुणों से युक्त कर देगा। बुध और शनि का बली होना कालपुरुष में नपुंसकत्त्व को बढ़ाएगा, जबकि गुरु, सूर्य और मंगल जन्मांग में अधिक बली होने पर काल पुरुष को पुरुषत्व के गुणों से युक्त कर देते हैं।

1 comment:

  1. आचार्य वारहमिहिर के अनुसार - शरीर के विभिन्न अंगों मे व्रण तथा चिन्ह आदि के ज्ञान के लिए लग्न के द्रेष्काणानुसार द्वादश भावों मे विभिन्न अंगों का न्यास पूरा पूरा बताने की कृपा करें।

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