Tuesday 18 September 2018

क्या आप सच में मांगलीक हैं ??

       भारतीय ज्योतिषशास्त्र ने वैदिक काल से ही कष्ट, दुःख और सन्ताप से पीडि़त मानवता को आधार और सम्बल प्रदान किया है। जब प्रत्यक्ष, अनुमान आदि के आश्रय से भी समस्याओं का समाधान नहीं मिल पाता था तो ज्योतिषशास्त्र अपनी प्रभा से मानव मात्र के अज्ञान, कष्ट, दुःख व अंधकारादि को नष्ट कर सर्वत्र प्रसन्नता व संतोष के वातावरण का निर्माण करता रहा है। मनुष्य के जन्म से लेकर उसकी मृत्युपर्यन्त समस्त महत्त्वपूर्ण घटनाओं का पूर्वानुमान और अनिष्टों का परिहार ही ज्योतिषशास्त्र का उद्देश्य है। मनुष्य के जीवन की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना विवाह है और इस महत्त्वपूर्ण विषय को प्रभावित करने वाले ग्रहयोगों में मंगलदोष अथवा कुजदोष अपने अशुभ प्रभावों के कारण सर्वाधिक कुख्यात ज्योतिषीय ग्रहयोग है।
क्या है यह कुजदोष या मंगल दोष ?
    इस ज्योतिषीय ग्रहयोग के विषय में सर्वप्रथम सूचना हमें महर्षि पराशर प्रणीत वृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् ग्रन्थ में उपलब्ध होती है। भारतीय फलित ज्योतिषशास्त्र के इस आधारभूत रचना में महर्षि ने कहा है-
' लग्ने व्यये सुखेवाऽपि सप्तमे वाऽपिचाष्टमे।       शुभदृग्योगहीने च पतिं हन्ति न संशयः।'
      अर्थात् यदि स्त्री की जन्मकुण्डली के लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश भाव में मंगल स्थित हो तो, इस स्त्री के पति का विनाश होता है। अभिप्राय यह है कि इस प्रकार की ग्रहस्थिति में उत्पन्न स्त्री का वैवाहिक जीवन सुखी नहीं होता अपितु विभिन्न प्रकार के कष्टों से परिपूर्ण होता है। यह ग्रहस्थिति न केवल स्त्री जातक में अपितु पुरुष जातक के जन्माङ्ग में भी कुजदोष को उत्पन्न करता है। जन्माङ्ग के अतिरिक्त चन्द्रकुण्डली में भी यदि उपरोक्त ग्रहयोग हो तो भी कुजदोष का निर्माण होता है।
कुजदोष क्या केवल मंगल ग्रह से ही संबंधित है ?
      हाँ! जब हम कुजदोष या मंगल दोष की बात करते हैं, तो यह ग्रहयोग मंगल ग्रह से ही संबंधित है। अभिप्राय यह है कि केवल मंगल ग्रह की जन्माङ्ग के लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश भावों की उपस्थिति ही कुजदोष या मंगलदोष की उत्पत्ति का कारण बनती है। परन्तु एक महत्त्वपूर्ण तथ्य ध्यातव्य है कि भारतीय ज्योतिषशास्त्र पूर्णतया शोध, प्रयोग, प्रत्यक्षता व निरीक्षण पर आधारित है तथा सहस्रों वर्षों की परम्परा में इस शास्त्र में कई शोध हुए हैं। परवर्ती दैवज्ञों एवं ऋषितुल्य विद्वानों ने कुजदोष की भी नवीन व्याख्या की और इसे ‘भौमपञ्चक दोष’ संज्ञा से अभिहित किया। अर्थात् न केवल मंगल अपितु सूर्य, शनि, राहु और केतु ये समस्त पाँचों ग्रह उपरोक्त भावों में स्थित होकर कुजदोष का ही प्रभाव उत्पन्न करते हैं। यह स्पष्ट है कि विवाह संबंधी प्रसङ्ग में कुजदोष तक सीमित न रहकर अन्य क्रूर ग्रहों की स्थिति पर भी गंभीरतापूर्वक विचार करना आवश्यक है।
क्या इस दोष का कोई परिहार है ?
  हाँ! महर्षि पराशर ने ही इस दोष का परिहार अपने ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है और कहा है-
  'स्त्रीहन्ता परिणीता चेत् पतिहन्त्री कुमारिका।
तदा वैधव्य योगस्य भङ्गगो भवति निश्चयात्।।'
   अर्थात् कुजदोष से पीडि़त स्त्री अथवा पुरुष का विवाह यदि इसी दोष से पीडि़त स्त्री-पुरुष से किया जाए तो इस अशुभ ग्रहयोग का प्रभाव पूर्णतया समाप्त हो जाता है। साथ ही यही कुजदोष नवदम्पत्ति के लिए सुख व समृद्धि का कारण बनता है। परवर्त्ती ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में उपरोक्त परिहार के अतिरिक्त भी अनेक ऐसे ग्रह योग बताए गए हैं, जिनकी जन्माङ्ग में उपस्थिति कुजदोष के प्रभाव को समाप्त कर देती है अथवा उसमें न्यूनता ले आती है।
कुजदोष परिहार में समर्थ वे ग्रहयोग कौन से हैं ?
      कुजदोष परिहार में सक्षम ऐसे ग्रहयोगों की एक लम्बी  शृंखला है। ऐसे ही कुछ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रहयोग अधोलिखित हैं-
* मंगल स्वराशि अथवा उच्च का हो।
* मंगल वक्री, नीच अथवा अस्त हो।
* द्वादश भाव में मंगल, बुध तथा शुक्र की राशियों (मिथुन, कन्या, वृष, तुला) में स्थित हो।
* चतुर्थ सप्तम अथवा द्वादश में मेष या कर्क का मंगल हो।
* मंगल लग्न में मेष अथवा मकर राशि, चतुर्थ में वृश्चिक राशि, सप्तम में वृष अथवा मकर राशि, अष्टम में कुंभ अथवा मीन राशि तथा द्वादश में धनु राशि में स्थित हो।
* बली गुरु या शुक्र स्वराशि, उच्च अथवा त्रिकोणस्थ होकर लग्न या सप्तम भाव में हों।
* केन्द्र त्रिकोण में शुभ ग्रह तथा तृतीय, षष्ठ तथा एकादश भाव में पापग्रह और सप्तमेश सप्तम भाव में हों।
* मंगल-गुरु, मंगल-राहु या मंगल-चन्द्र का योग उपरोक्त भावों में हो।
* सप्तमस्थ मंगल पर गुरु की दृष्टि हो।
* सप्तम भाव गुरु द्वारा दृष्ट हो।
* जन्माङ्ग के दूसरे भाव में शुक्र हो, मंगल राहु के साथ हो अथवा मंगल गुरु द्वारा दृष्ट हो।
      ये समस्त ग्रहयोग कुजदोष को भङ्ग कर देते हैं।
तो फिर समस्या कहाँ है ?
    यह बात ठीक है कि कुजदोष परिहार से संबंधित कई योगों की चर्चा अनेक ग्रन्थों में की गई है और प्रयोग में भी इस ग्रहयोगों के कारण जातक के जीवन में मंगल दोष विषयक कष्टों का अभाव अथवा न्यूनता भी दृष्टिगत होती है। परन्तु समस्या उन 'कुजदोषपरिहारकारक ग्रहयोगों' से है जिसमें मंगल पर शुभग्रहों यथा गुरु, शुक्र, चन्द्रमा तथा छाया ग्रहों राहु व केतु की दृष्टि अथवा युति को इस दोष की समाप्ति में समर्थ माना गया है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जिन-जिन भावों अथवा ग्रहों पर शुभ ग्रहों (गुरु, शुक्र, पूर्णचन्द्र, अकेला बुध) की दृष्टि अथवा युति हो उन-उन भावों अथवा ग्रहों से संबंधित फलों में वृद्धि होती है-
  'यद्भे सन्तस्तस्य पुष्टिं विदध्युः',
'यो यो भावः स्वामिदृष्टो युतो वा सौम्यैर्वा स्यात्तस्य तस्यास्ति वृद्धिः'
   तो स्पष्ट है कि यदि मंगल अष्टम भाव में स्थित हो और द्वितीय भावस्थ गुरु अथवा शुक्र उस पर दृष्टिपात कर रहे हों तो इस परिस्थिति में कुजदोष का परिहार ने होकर कुजदोष के प्रभाव में अत्यधिक वृद्धि होगी। इसी प्रकार का नकारात्मक प्रभाव कुजदोषोत्पत्ति कारक मंगल के शुभग्रहों से युक्त होने पर होता है और मंगल के नकारात्मक प्रभाव में वृद्धि होती है न कि कमी।
               इसी प्रकार राहु-केतु के सन्दर्भ में भी विचारणीय है कि राहु व केतु की युति ग्रहों व भावों के लिए फलवृद्धिकारक होती है-
' यद्यद्भावगतौ वापि यद्यद्भावेश संयुतौ। तत्ततफलानि प्रबलौ प्रदिशेतां तमोग्रहौ।'
     अतः कुजदोष का निर्माण कर रहे मंगल के साथ राहु व केतु की युति कुजदोष को बढ़ाएगी न कि उसको समाप्त करेगी। हम जानते हैं कि पाप ग्रहों की दृष्टि भाव फल तथा ग्रहयोगजन्य फल का नाश करने वाली होती है-
'पापैरेवंतस्य भावस्य हानिर्निदिष्ट्व्यात्।'
      इस सिद्धान्त के अनुसार लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश भावस्थ मंगल पर पापग्रहों की दृष्टि तथा राहु-केतु व्यतिरिक्त पापग्रहों (सूर्य, शनि) की युति मंगलदोष को भङ्ग करेगी। इसी प्रकार शुभग्रहों की सप्तम व लग्नभाव पर दृष्टि कुजदोष परिहार अथवा कुजदोष भङ्ग में सक्षम होगी बशर्ते लग्न व सप्तम भाव में मंगल स्थित न हो।
आखिर संशय उत्पन्न कहाँ से हुआ ?
     वृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् में महर्षि पराशर की उक्ति है-
'लग्ने व्यये सुखे वाऽपि सप्तमे वाऽपि चाष्टमे। शुभदृग्योगहीने च पतिं हन्तिं न संशयः।।'
     यही वह श्लोक है जिसमें कुजदोष से संबंधित ग्रहस्थितियों तथा कुजदोषभङ्ग योग का एक ही स्थान पर निर्देश किया गया है। उपरोक्त श्लोक का 'शुभ दृग्योगहीने' शब्द संशय का मूलकारण प्रतीत होता है। ‘शुभदृग्योगहीन’ शब्द मंगल के लिए न प्रयुक्त होकर विवाह के कारक सप्तम भाव तथा सप्तमेश के लिए प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है। तभी इस विरोधाभास की परिस्थिति से मुक्त हुआ जा सकता है। अतः आवश्यक है कि कुण्डली मिलान के समय ज्योतिषशास्त्र के मूलभूत सिद्धान्तों, ऋषि वचनों, आद्य शब्दों को प्रमाण मानते हुए ऊहापोह-पूर्वक ही कुजदोष निर्णय में किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए।  

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