Thursday 13 September 2018

प्राकृतिक आपदाओं का पूर्वानुमान और भारतीय ज्योतिषशास्त्र

                  भारतीय ज्योतिषशास्त्र के प्रवर्त्तक आचार्यों ने अपनी मेधा शक्ति द्वारा न केवल मनुष्य-मात्र अपितु सम्पूर्ण विश्व से सम्बन्धित शुभाशुभ फलादेश करने की विधि को विकसित किया। सृष्टि के आरम्भ से ही प्राकृतिक आपदाओं ने विश्व की कई विकसित और विकासशील सभ्यताओं को नष्ट कर दिया है अथवा उसे अपूरणीय क्षति पहुँचाई है। वैज्ञानिक शोध भी यह सिद्ध करते हैं कि प्राकृतिक आपदाओं ने ही डायनोसोर सदृश विशाल जीवों का असितत्व ही समाप्त कर दिया था। आज की परिस्थिति भी उस प्राचीन कालीन विवशता से भिन्न नहीं है। वत्र्तमान परिदृश्य पर दृष्टिपात करें तो स्पष्ट हो जाता है कि ये प्राकृतिक आपदाएँ आकस्मिक रूप से आती हैं और उस क्षेत्रा विशेष की मानव सभ्यता, सम्पत्ति, सामाजिक व आर्थिक स्वरूप को तहस-नहस कर देती हैं तथा अपना व्यापक व विनाशकारी प्रभाव छोड़ जाती हैं। आज के युग को वैज्ञानिक युग कहा जाता है फिर भी इन प्राकृतिक आपदाओं के समक्ष मनुष्य असहाय नशर आता है। जब इन प्राकृतिक आपदाओं के पूर्वानुमान का प्रश्न उठता है तो वैज्ञानिक विकास का दंभ भरने वाले आधुनिक बुद्धिजीवियों का पूर्वानुमान प्रायः गलत ही सिद्ध होता है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र इस विषय पर मौन नहीं है और प्रायः इसकी सभी शाखाओं यथा फलित, संहिता  , प्रश्न, शकुन, स्वरविज्ञान, हस्तपरीक्षण द्वारा इन प्राकृतिक आपदाओं का सफल और सटीक पूनर्वानुमान किया जा सकता है। भूकम्प, ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़, चक्रवाती तूफान, सुनामी, सूखा, बादल का फटना, भूस्खलन, उल्कापात, वज्रपात, हिमस्खलन आदि घटनाओं की गणना हम प्राकृतिक आपदाओं के रूप में कर सकते हैं। इन आपदाओं के पूर्वानुमान तथा समाज पर इनके व्यापक प्रभाव का अध्ययन ज्योतिषशास्त्र के संहिता स्कन्ध में अत्यन्त विस्तार से किया गया है। मनुष्यों में पापों के आधिक्य और अविन्य से ही ये उपद्रव या उत्पात होते हैं। मनुष्यों के इन पापकर्म तथा अविनय से देवगण अप्रसन्न होते हैं तथा इन उत्पातों को उत्पन्न करते हैं।  अब विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के ज्योतिषशास्त्र की विभिन्न विधाओं या स्कन्धों द्वारा पूर्वानुमान विधि को क्रमशः प्रस्तुत करते हैं।
प्राकृतिक आपदाओं के पूर्वानुमान में प्रयुक्त विभिन्न प्रमुख ज्योतिषशास्त्रीय सिद्धान्त- संहिता ज्योतिष में नवग्रहों के विभिन्न नक्षत्रों में चार द्वारा प्राकृतिक आपदा विषयक फलादेश की विधियाँ बताई गई हैं। विभिन्न ग्रहों के आपसी युति व दृष्टि सम्बन्ध भी इन विनाशकारी घटनाओं की पूर्व सूचना देने में समर्थ हैं। विभिन्न चक्रों के निर्माण द्वारा अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, निर्घात, दिग्दाह, भूकम्प
आदि का फलादेश बताने की विधि नरपतिजयचर्यास्वरोदय ग्रन्थ में उपलब्ध होती है ।  विभिन्न वृक्षों में लगने वाले फल अथवा पुष्पों की मात्रा द्वारा उपरोक्त विषयक फलादेश किया जा सकता है, इसका वर्णन वराहमिहिराचार्य ने अपने ग्रन्थ वाराहीसंहिता के फलकुसुमलताध्याय में की है ।  
काकतन्त्र की विभिन्न विधियाँ इन आपदाओं का पूर्वानुमान करने में सक्षम हैं। हस्तसंजीवन ग्रन्थ प्रश्नकर्त्ता द्वारा हस्तस्पर्श तथा चेष्टाओं से भी बाढ़, सूखा, भूकम्प आदि का फलादेश करना बताता है।  शकुन शास्त्र में विभिन्न जीव-जन्तुओं के व्यवहारों के अध्ययन द्वारा इन प्राकृतिक घटनाओं के पूर्वानुमान की विधि बताई गई है। संहिता ग्रन्थों में सूर्यग्रहण, चन्द्र ग्रहण, ग्रहों के मार्गों तथा वक्री होने, संक्रान्ति, ग्रहयुद्ध, पूर्णिमा तथा अमावस्या तिथियों को मौसम में आकस्मिक बदलाव के दृष्टिकोण से अत्यन्त संवेदनशील माना गया है। ज्योतिशास्त्र की उपरोक्त विधियों का आश्रय लेकर तथा ऋषि प्रणीत ग्रन्थों को आधार मानकर विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के पूर्वानुमान में सहायक सिद्धान्तों तथा बिन्दुओं को क्रमवार रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है।
अतिवृष्टि/बाढ़- यदि आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन सूर्यास्त के समय पश्चिम दिशा से हवा बहे तो उस वर्ष अतिवृष्टि होती है। वर्षा ऋतु में यदि राशि चक्र में बुध व शुक्र के समीप सूर्य हो तो अत्यधिक वृष्टि होती है।   बुध और शुक्र समीप हों तो भी अतिवृष्टि। जब राशि चक्र में सूर्य से पीछे या आगे समस्त ग्रह हों तो भूमि समुद्र के समान बन जाती है। त्रिनाड़ी चक्र में जब समस्त शुभ व पाप ग्रह एक नाड़ी में हों तो अत्यधिक वृष्टि। सप्तनाड़ी चक्र के जलनाड़ी में शुक्र व चन्द्रमा के होने पर अतिवृष्टि। वर्षा ऋतु में जिस दिन एक ही नक्षत्र में कई ग्रह अथवा समस्त ग्रह एकत्रित हों तो अतिवृष्टि। अमृत नाड़ी में यदि चन्द्रमा के साथ 4 या अधिक ग्रह स्थित हों तो सात दिन तक निरंतर घनघोर वृष्टि होती है। चन्द्रमा व भौम एक नाड़ी में, गुरू के उदय व अस्त में, मार्गी होने के समय, वक्री होने पर और संगम हो जाने पर जल नाड़ी में समस्त ग्रह हों तो अत्यधिक वृष्टि। अर्जुन वृक्ष पर यदि पुष्पादि का अधिक्य हो तो उस वर्ष प्रभूत वृष्टि। प्रश्नकालीन लग्न में जलराशि में स्थित चन्द्रमा पर बलवान शुक्र की दृष्टि, अथवा बलवान चन्द्रमा पर शुक्र की दृष्टि भारी वर्षा कराता है। सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, शनि व राहु जलीय राशियों में हो और शुक्र, बुध स्थिर राशि में हो तो भीषण वर्षा होती है। वर्षा के प्रश्नकालीन के शकुन में कृष्ण गौ या भरे हुए कृष्ण घड़े का दर्शन हो तो प्रभूत वृष्टि। यदि प्रश्न कारक पाँच अंगुली के स्पर्श में अंगूठे का स्पर्श करे तो महावृष्टि। काक बलिपिण्ड द्वारा यदि पूर्वानुमान किया जाये तो जलपिण्ड ग्रहण करने पर प्रभूत वर्षा। काक यदि वृक्ष के अग्रभाग पर घोंसला बनाए तो अति वर्षा।
भूस्खलन- चन्द्रमा अनुराधा नक्षत्र में हो तथा बुध व मंगल पुष्य नक्षत्र में हो तो भूस्खलन का भय। अत्यधिक वर्षा के ग्रहयोग पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन योग का निर्माण करते हैं। ग्रहों का जलीय, प्रचण्ड व सौम्य नाड़ी में होना भी भूस्खलन का भय उत्पन्न करते हैं। चन्द्रमा वृश्चिक या धनु राशि तथा शुक्र सिंह में हो तो हिमस्खलन या भूस्खलन की संभावना। भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदा का मूल कारण शनि और राहु की युति को माना जा सकता है। राहु को वन तथा पर्वतीय प्रदेश का स्वामी माना जाता है और शनि के साथ युति इसे प्रबल भूस्खलन का कारण बनाता है। प्रबल वृष्टि योगों का इस ग्रह युति के साथ उपस्थित होना इसकी विनाशकता को और अधिक बढ़ा देता है। केदारनाथ त्रासदी में उपर्युक्त ग्रहयोग द्रष्टव्य है।
सुनामी- सप्तनाड़ी चक्र, त्रिनाड़ी चक्र के सूक्ष्म विश्लेषण द्वारा इस प्राकृतिक आपदा का पूर्वानुमान किया जा सकता है। समुद्र के अंदर आने वाले भूकम्प इस आपदा के प्रमुख कारण है। अतः समुद्री इलाकों में भूकम्प के ग्रहयोग, गोचर, शकुन या प्रश्नादि द्वारा इस आपदा का पूर्वानुमान किया जाता है। द्वयाधिक ग्रहों के दहन, पवन, प्रचण्ड, सौम्य, नीर या दहन नाडि़यों में होना इस योग को प्रबलता प्रदान करता है। 
सूर्य और  शनि यदि वृश्चिक अथवा मेष राशि में स्थित हों तो समुद्री तूफान का योग बनता है। सूर्य ग्रहण व चन्द्र ग्रहण के समय मंगल, बुध व शनि का आपस में संबंध हों तो सुनामी का भय होता है। इसी तरह, राहु व केतु के मध्य चार या अधिक ग्रह अशुभ स्वामियों के नक्षत्र पर हों तथा शनि का मंगल, गुरू अथवा बुध के साथ संबंध बन रहा हो तो भी समुद्री तूफान का भय होता है।
धूलिवर्षा- गुरू, शनि, शुक्र तथा बुध एक ही राशि में स्थित हों तो धूलिवर्षा का योग बनता है।     
उल्का पतन- सूर्य से पाँचवे या सातवें चन्द्रमा और छठे स्थान में मंगल हो तो उल्कापात होता है। यदि शुभ ग्रह मित्र भावों में स्थित न हों तो पर्वतों पर विद्युत्पात होता है।
अनावृष्टि/सूखा- आषाढी पूर्णिमा के दिन सूर्यास्त के समय आग्नेय कोण अथवा दक्षिण दिशा से वायु चले तो उस वर्ष अनावृष्टि होती है तथा धान्यों का विनाश होता है ।  इसी दिन और इसी समय यदि नैऋत्य कोण से हवा बहे तो भी अनावृष्टि होती है। सूर्य के अगली राशि में यदि मंगल हो तो अनावृष्टि का योग बनता है। बुध और शुक्र के मध्य सूर्य स्थित हो तो सूखा। त्रिनाड़ी चक्र में नपुंसक ग्रह तथा स्त्री ग्रह एक ही नाड़ी में हों तो अनावृष्टि। वर्षा ऋतु में जब चन्द्रमा व शुक्र एक ही राशि में पाप ग्रह से दृष्ट या युक्त हों तो अल्पवृष्टि या अनावृष्टि। चन्द्रमा यदि केवल पापग्रह से मिले तो अल्पवृष्टि। सप्तनाड़ी चक्र के जिस नाड़ी में केवल पापग्रह स्थित हों तो उसमें वृष्टि का अभाव होता है। जिस वर्ष शीशम में अध्कि फल लगें तो दुर्भिक्ष का भय। निचुल वृक्ष में फल-फूल अधिक हों तो अवृष्टि। यदि लताओं के पत्रों में छिद्र, शुष्कता व रूक्षता हों तो उस वर्ष वृष्टि का अभाव। यदि खैर के वृक्ष में पुष्पादि की वृद्धि हो तो अकाल का प्रकोप।  वर्षा के प्रश्न लग्न में चतुर्थ भाव में शनि और राहु हो तो उस वर्ष महाघोर दुर्भिक्ष। यदि प्रश्नकारक पाँच अंगुली के स्पर्श में अनामिका को स्पर्श करे तो अत्यल्प वृष्टि। काकबलि पिण्ड में यदि कौआ वायव्य कोण का पिण्ड भक्षण करे तो अनावृष्टि। यदि त्रिपिण्ड में से अंगार पिण्ड ग्रहण करे तो वृष्टि का अभाव। काक वृक्ष के नीचे थड़ में घर बनाए तो अनावृष्टि और अकाल। किसी वृक्ष, भवन, वल्मीक के कोटर में घोंसला बनाए तो अकाल का प्रबल भय। मंगल आश्लेषा नक्षत्र में हो तो अकाल।
तूफान- आषाढी पूर्णिमा के दिन सूर्यास्त के समय वायत्य कोण से वायु चले तो उस वर्ष आंधी का भय होता है। बुध के साथ मंगल या शनि का योग हो तो तूफान के साथ-साथ अग्नि भय भी होता है। त्रिनाड़ी चक्र की एक ही नाड़ी में नपुंसक व स्त्री ग्रहों का योग हो तो तीव्र वायु चलती है,   इसी प्रकार समस्त पुरुष ग्रह एक ही नाड़ी में हो तो भी वायु का प्रकोप होता है। सप्तनाड़ी चक्र के चण्ड अथवा वायु नाड़ी में ग्रह हों तो आंध्ी-तूफान का भय। विशाखा, अनुराधा व ज्येष्ठा अर्थात् नपुंसक नक्षत्रों में योग होने पर तीव्र वायु चलती है और प्रभूत विनाश होता है। कपित्थ वृक्ष में फल-फूल अधिक हों तो उस वर्ष वायु का प्रकोप। कौआ वृक्ष के वायव्य कोण की शाखा पर घोंसला बनाए तो आंधी-तूफान का भय। नैऋत्य कोण का घोंसला भी आंधी-झंझावत का भय उत्पन्न करता है। अक्षय तृतीया के दिन की ग्रहस्थिति के अनुसार भौमचक्र का निर्माण करें, इस चक्र में राहु जहाँ पड़े, उस नक्षत्र के अक्षरानुसार जो देश व स्थान हों वहाँ बवंडर, आंधी आदि का प्रकोप।  दो या उससे अधिक ग्रह जल राशि, दहन नाड़ी, प्रचण्ड नाड़ी और सौम्य नाडि़यों में हो तो तूफान का भय। चन्द्र बुध की युति हो तथा सूर्य मूल नक्षत्र में हो, जब बृहस्पति और बुध सूर्य के साथ स्थित होकर स्वराशियों में स्थित ग्रहों के अनुवत्र्ती हों तो भयंकर तूफान आता है ।  इसी प्रकार मनुष्य, सर्प तथा छोटे जन्तु युद्ध करते दिखाई दें तो भी तूफान का भय होता है।
भूकम्प- जहाँ तक ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों का प्रश्न है इन ग्रन्थों में भूकम्प के कारणों की अपेक्षा भूकम्प के पूर्वानुमान के सम्बन्ध में अधिक चर्चा की गई है। ग्रहचार अध्यायों मंे यथा भौमचार, शनिचार, राहु चार, ग्रहणाध्याय आदि में विभिन्न ग्रहस्थितियों की अत्यन्त विस्तृत चर्चा की गई है जो संभावित भूकम्प के द्योतक माने गए हैं।   शकुन शास्त्र के विभिन्न ग्रन्थों यथा वसन्तराज शाकुन में भी इस सन्दर्भ में चर्चा की गई है। भूकम्प से पूर्व पशुपक्षियों के व्यवहार में आने वाले परिवर्तनों को भी भूकम्प पूर्वानुमान की सहायक सामग्री के रूप मंे प्रयोग किया जा सकता है। सभी ग्रहों की युति एक ही राशियों में हो। राहु से मंगल सातवें हो, मंगल से बुध पांचवे हो, चन्द्रमा बुध से चैथे हो अथवा केन्द्र में कहीं भी हो तो भूकम्प योग बनता है।   शनि मंगल तथा राहु केन्द्र, 2/12 या 6/8 में हों। राहु से मंगल सातवें हो, मंगल से बुध् पांचवे हो, चन्द्रमा बुध से चैथे हो अथवा केन्द्र में कहीं भी हो तो भूकम्प योग बनता है। यदि मंगल पूर्वा-फाल्गुनी नक्षत्र में उदय करता है अथवा उत्तराषाढा नक्षत्र में वक्री होता है तथा रोहिणी नक्षत्र में अस्त होता है तो सम्पूर्ण पृथिवी मण्डल का भ्रमण अथवा भूकम्प होता है। यदि मंगल मघा एवं रोहिणी नक्षत्र के योगतारा का भेदन करता है तो भूकम्प होता है। विजय संवत्सर में भूकम्प के योग बनते है। धनु राशि में बृहस्पति के जाने पर भूकम्प आता है। शनि जब मीन राशि में हो तो भी भूकम्प होते हैं। वृष तथा वृश्चिक राशि का भूकम्प से विशेष सम्बन्ध दृष्टिगत होता है। गुरू, शनि, हर्षल तथा नेपच्यून स्थिर राशि में हों, विशेषकर वृष तथा वृश्चिक राशियों में। ग्रहणकालीन राशि से चतुर्थ राशि यदि स्थिर राशि हो और उसमें कोई क्रूर ग्रह अवस्थित हो। गुरू वृष या वृशिचक राशि में हों, तथा बुध के साथ युति कर रहा हो अथवा समसप्तम में हो। राहु मंगल से सप्तम में, बुध मंगल से पंचम में, तथा चन्द्रमा बुध से केन्द्र में हो। मन्दगति ग्रह यदि एक दूसरे से केन्द्र, षष्ठाष्टक, अथवा त्रिकोण भावों मंे हो, अथवा युति सम्बन्ध बना रहा हो। चन्द्रमा तथा बुध की युति हो एवं दूसरे की राशि या क्षेत्र में हो अथवा एक ही ग्रह के नक्षत्र में हों।  सूर्य के सतह पर आनेवाले ज्वार-भाटीय आवेगों का आधिक्य भी भूकम्प की संभावना उत्पन्न करता है। भूकम्प स्थान को कम्पित कर अपने स्थान से हटा देता है । सूर्य की सतह पर दिखने वाले धब्बों में होने वाले विशिष्ट परिवर्तन भी भूकम्प का संकेत देते हैं। ज्योतिषशास्त्र की शकुन शाखा के द्वार भी भूकम्प का पूर्वानुमान किया जा सकता है। प्रायः देखा गया है कि भूकम्प से ठीक पूर्व पशु पक्षियों के व्यवहार मंे काफी परिवर्तन आ जाता है। अपेक्षाकृत आधिक संवेदनशील पक्षी यथा-काक, कबूतर, चील आदि का व्यवहार बदल जाता है। ये समूह में शोर करते हुए उड़ने लगते हैं। कुत्ते तथा गाय आदि भी उच्च स्वर में बोलने लगते हैं। श्वानों का रूदन तथा गौवंश के व्यवहार पर सूक्ष्म दृष्टिपात द्वारा उत्पातों का पूर्वानुमान कर सकते हैं। आधुनिक मुख्य धारा के वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है कि जापान के समुद्री तट पर आए सुनामी से ठीक पहले वहाँ पाए जाने वाले डाल्फिन तथा शार्क मछलियों के व्यवहार में काफी परिवर्तन आ गया था। कोई मन्दगति ग्रह वक्री से मार्गी हो रहा हो अथवा मार्गी से वक्री, यह कालावधि भूकम्प की दृष्टि से अत्यधिक संवेदनशील मानी गई है। भूकम्प प्रायः पूर्णिमा अथवा अमावस्या के समीपस्थ तिथियों को आता है।
    ज्योतिषशास्त्र की उपरोक्त विधियों का आश्रय लेकर वातावरण तथा मौसम में होने वाले आकस्मिक परिर्वतनों का फलादेश सहज ही किया जा सकता है और मानवता के कल्याण में इस शास्त्र का प्रयोग ही श्रेष्ठतम सिद्ध होता है।

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