Wednesday 19 September 2018

वैदिक गणित और भारतीय गणितशास्त्रीय परम्परा

              वेद शब्द की व्युत्पत्ति ‘विद्’ धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है ‘ज्ञान’ (विद्-ज्ञानेन), जिससे वेद का अर्थ ‘ज्ञान संग्रह’ स्पष्ट होता है। पाश्चात्य विद्वान भी इस शब्द का प्रयोग इसी सन्दर्भ में करते हैं और दोनों ही परम्पराओं के सामञ्जस्य से वेद की परिभाषा 'साक्षात्कार किए हुए ज्ञान का संग्रह' सिद्ध होता है। वैदिक संहिताओं को न केवल आर्य जाति का प्रमाणस्वरूप माना जाता है, अपितु यह समस्त विश्व संस्कृति के आधार स्तम्भ के रूप में भी समादृत हैं। वेदों में ज्ञान और विज्ञान का अनन्त भण्डार उपलब्ध होता है। प्राचीन ऋषि-महर्षियों ने गहन चिन्तन व मनन द्वारा विज्ञान के समस्त विषयों का वर्णन इस ज्ञान सरिता में किया है। वेदों के इसी सार्वभौमिकता और सर्वज्ञान युक्त होने का समर्थन मनुस्मृति में भी किया गया है- 'सर्वज्ञानमयो हि सः'
गणितशास्त्र
       विज्ञान व ज्ञान की अन्य शाखाओं के समान ही गणितशास्त्र भी अपने बीज रूप अथवा मूलरूप में वैदिक संहिताओं में उपलब्ध होता है। विभिन्न प्रकार की छोटी-बड़ी संख्याओं तथा ज्यामितीय संरचनाओं से संबंधित विपुल वर्णन का इन ग्रन्थों में उपलब्ध होना तत्कालीन समाज में गणितशास्त्र की उपस्थिति को सहज ही सिद्ध कर देता है। परन्तु यह तथ्य भी उतना ही सत्य है कि आधुनिक काल में उपलब्ध गणित का स्वरूप प्राचीनकाल में पूर्णतया उपलब्ध नहीं था और वैदिक काल के गणित को आधुनिक काल तक के विकासक्रम में सहस्रों वर्षों के कालक्रम से गुजरना पड़ा है।  
गणित शब्द की व्युत्पत्ति तथा अर्थ
           गणित शब्द ‘गण्’ धातु में क्त प्रत्यय के योग से निष्पन्न होता है तथा ‘गण’ धातु का सामान्य अर्थ होता है गिनना। अर्थात् कहा जा सकता है कि जिस शास्त्र में ‘गणना’ ही मूल कर्म है ‘गणितशास्त्र’ है। भारत में गिनती के लिए ‘गणन’ शब्द का प्रयोग होता है और इसी शब्द से ‘गणित’ की उत्पत्ति हुई है। इससे स्पष्ट है कि गणित विषय का विकास व उत्पत्ति गिनती से ही आरम्भ हुआ है। संस्कृत व्याकरण में सामान्य रूप से ‘क्त’ प्रत्यय भूतकाल के अर्थ में प्रयुक्त होता है, अतः इस प्रकार ‘गणित’ शब्द गिने हुए अर्थ का बोधक है। गणितशास्त्र के महत्त्व को महर्षि लगध ने अपनी रचना वेदाङ्ग ज्योतिष में भी स्वीकार किया है और कहा है-
' यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्वद् वेदाङ्गशास्त्रणां गणितं मूर्धनिस्थितम्।।'
         न केवल वैदिक संहिताओं में अपितु जैन गणितज्ञ महावीराचार्य ने भी अपनी रचना ‘गणितसार संग्रह’ में गणित के महत्त्व को स्वीकार किया है और कहा है कि इस चराचर जगत् में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसके मूल में गणित न हो।
भारतीय गणितशास्त्र का विकास क्रम
        भारतीय संस्कृति के दृष्टिकोण से देखा जाय तो वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक गणितशास्त्र के विकास की सतत् प्रक्रिया चल रही है। परन्तु इस विकास यात्रा को काल के बंधन में बांधना अनिवार्य हो जाता है। इस प्रकार हम देखें तो गणितशास्त्र की परम्परा को आदिकाल, शैशवकाल अथवा अंधकार युग, मध्यकाल अथवा स्वर्णयुग, उत्तरकाल तथा वर्त्तमान काल में विभक्त किया जा सकता है। ऋग्वेद का यह मंत्र
'द्वादशारं हि तज्जराय वर्वति चक्रं परिधामृतस्य '          वैदिक काल में विभिन्न संख्याओं के प्रयोग को दर्शाता है। इसी प्रकार 'भिनद् वलस्य परिधीन इव त्रितः' मन्त्र परिधि, व्यास आदि ज्यामितीय शब्दावली के वैदिक प्रयोग को पुष्ट करता है।
'चतुर्भिः साकंनवतिं च नामभिः चक्रं न वृत्तं व्यतींरवीविपत्।' मन्त्र भी वैदिक ऋषियों के ज्यामितीय ज्ञान को प्रदर्शित करता है। कहा जाता है कि प्राचीन भारतवर्ष में किसी विज्ञान ने न तो स्वाधीन अस्तित्व ही प्राप्त किया और न ही उसका स्वतन्त्र रूप से विकास ही हुआ। वैदिक कालीन भारत में जिस किसी भी विज्ञान का जो विकास हुआ है उसकी उत्पत्ति और विकास किसी न किसी वेदाङ्ग के अन्तर्गत हुआ है। गणितशास्त्र भी इसका अपवाद नहीं है और वेदपुरुष के नेत्रस्थानीय वेदाङ्ग ‘ज्योतिष’ के द्वारा इस गणितशास्त्र का अभूतपूर्व विकास संभव हो पाया। जहाँ ऋग्वेद के कई सूक्त और मन्त्र गणितशास्त्र के प्रमुख अङ्ग संख्या आदि का वर्णन करते हैं वहीं यजुर्वेद में स्पष्टतया ‘गणक’ शब्द का प्रयोग हुआ है। इसी तरह शुल्ब काल में रेखागणित का विशेष विस्तार हुआ। इन ग्रन्थों में विभिन्न प्रकार के यज्ञवेदियों के निर्माण प्रसङ्ग में ज्यामितीय विषयों का विशेष विकास हुआ। बौधायन शुल्बसूत्र (लगभग 1000 ई.पू.) में स्पष्टतया कहा गया कि- 'दीर्घचतुरश्रस्याक्ष्ण्यारज्जुः पार्श्वमानी तिर्यघ्मानी च यत्पृथग्भूतेकुरुतस्तदुभयं करोति।' पाइथागोरस का प्रमेय इसी ज्यामितीय सिद्धान्त पर आधारित है। इसी ग्रन्थ में π (पाई) का मान  बताया गया है और कहा है- 'यूपावटाः पदविष्कम्भाः त्रिपदरिणाहानि यूपोपराणीति।' गणितशास्त्र में मूलरूपेण आठ परिकर्म माने गए हैं- संकलन, व्यकलन, गुणन, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन तथा घनमूल। 
 

   जैन गणितज्ञ इससे कुछ अलग विषयों की गणना करते हैं- परिकर्म, व्यवहार, रज्जु (रस्सी अर्थात् क्षेत्र गणित), राशि (त्रैराशिक), कला सवर्णन (भिन्नसम्बन्धी परिकर्म), यावत्तावत् (जितना उतना अर्थात् अज्ञात राशि का प्रयोग, वर्ग, घन, वर्गावर्ग (चतुर्घात) तथा विकल्प (क्रमचय और संचय) जैन गणितज्ञों ने गणितशास्त्र को अतिसूक्ष्म सिद्ध किया है और इसकी तुलना वज्र से की है- 'गणितं सूक्ष्मं गणितं संकलानादि तदेव सूक्ष्मं, सूक्ष्मबुद्धिगम्यत्वात्, श्रूयते च वज्रान्तं गणितममिति।' वक्षाली पाण्डुलिपि, गणित तिलक, गणितसार संग्रह, पाटी गणित, गणित कौमुदी आदि ग्रन्थों में गणितशास्त्र विषयक सिद्धान्तों पर पर्याप्त चर्चा उपलब्ध होती है। ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त में स्पष्टतया गणित की 20 क्रियाओं तथा 8 व्यवहारों को स्वीकार किया गया- 'परिकर्मविंशतिं यः संकलिताद्यां पृथग्विजानाति। अष्टौ च व्यवहारान् छायान्तान् भवति गणकः सः।'
        इस प्रकार ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों तथा दैवज्ञों, गणकों के अथक परिश्रम से गणित स्वतंत्र शास्त्र बनकर नित्य ही उन्नति की ओर अग्रसर हुआ और बीजगणित, रेखागणित, क्षेत्रगणित, त्रिकोणमिति, गतिविज्ञान, स्थिति विज्ञान, सांख्यिकी आदि अनेक शाखाओं के रूप में विस्तार को प्राप्त हुआ। विस्तार को प्राप्त होने के कारण गणितशास्त्र के विषय भी विस्तृत हुए और गणित के परिकर्मों तथा व्यवहारों में काफी जटिलताएँ भी उत्पन्न हुई। इन्हीं जटिलताओं का प्रभाव आज भी प्रारम्भिक, माध्यमिक अथवा उच्च कक्षाओं के छात्रों पर दृष्टिगोचर होता है। गणितीय परिकर्मों की  के सरलीकरण की दिशा में 'जगद्गुरु स्वामी श्री भारतीय कृष्णतीर्थ ' द्वारा दृष्ट वैदिक गणित के सूत्रों का महत्त्व अद्वितीय है।
वैदिक गणित व इसके द्रष्टा ऋषि 
     वैदिक गणित जैसा कि सुनने से ही प्रतीत होता है कि यह रचना किसी वैदिक संहिता से सम्बद्ध है। परन्तु ऐसा नहीं है, हाँ इतना अवश्य है कि वैदिक गणित के सूत्रों तथा उपसूत्रों के प्राप्ति की विधि अवश्य वैदिक है। ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए कहा गया है- 'ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः' इसी वैदिक परिभाषा के अनुरूप ही स्वामी जी को इन मन्त्रों का साक्षात्कार हुआ। वैदिक गणित के अन्तर्गत 16 मुख्य सूत्र हैं- एकाधिकेन पूर्वेण, निखिलम् नवतश्चरमं दशतः, उर्ध्वातिर्यगभ्याम्, परावर्त्य योजयेत्, शून्यम् साम्यसमुच्चये, आनुरुप्ये (शून्य मन्यत्), संकलन व्यवकलनाभ्याम्, पूरणापूरणाभ्याम्, चलनकलनाभ्याम्, यावदूनम्, व्यष्टिसमष्टिः, शेषण्यघ्केन चरमेण, सोपान्त्यद्वयमन्त्यम्, एकन्यूनेन पूर्वेण, गुणितसमुच्चयः, गुणकसमुच्चयः। इसी प्रकार 16 उपसूत्र अथवा उपप्रमेय भी हैं- आनुरुप्येण शिष्यते शेषसंज्ञः, आद्यमाद्येनान्त्यमन्त्येन, केवलैः सप्तकं गुण्यात्, वेष्टनम्, यावदूनं तावदूनम्, यावदूनं तावदूनीकृत्य वर्गं चयोजयेत्, अन्त्ययोर्दशकेऽपि, अन्त्ययोरेव, समुच्चयगुणितः, लोपनस्थापनाभ्याम्, विलोकनम्, गुणित समुच्चयः समुच्चयगुणितः।        

 उपरोक्त सूत्रों, उपसूत्रों अथवा उपप्रमेयों द्वारा गणित के क्लिष्ट परिकर्मों को सहज ही संपादित किया जा सकता है। गणितशास्त्र की पारम्परिक विधि द्वारा जिन परिकर्मों को करने में काफी समय लगता है तथा मानसिक ऊहापोह से गुजरना पड़ता है, वहीं वैदिक गणित के सूत्र उन्हीं परिकर्मों को सहज ही संपादित कर देते हैं। एकाधिकेन पूर्वेण सूत्र दी गई संख्या से अगली संख्या प्राप्त करने के लिए प्रयुक्त होता है। निखिलम् नवनश्चरमं दशतः सूत्र क्रियात्मक आधार से पूरक ज्ञात करने के सन्दर्भ में प्रयोग में आता है। इसी तरह उर्ध्वतिर्यगम्याम् गुणन करने में प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार अन्य सूत्रों का प्रयोग संख्या की प्रवृत्ति जानने में, क्रियात्मक आधार से पूरक तथा अधिकाय ज्ञात करने हेतु, युग्पत समीकरण में एक चर का मान ज्ञात करने के लिए, गुणनखंड संभव न होने वाले द्विघात के मूलों को जानने हेतु, औसत व महत्तम समापवर्त्तक निकालने के लिए, किसी भिन्न को दशमलव में प्रकट करने आदि के लिए किया जाता है। सामान्य गणितीय परिकर्मों तथा व्यवहारों के अतिरिक्त ये सूत्र बड़ी गिनती तथा अन्य क्लिष्ट गणना के सन्दर्भ में भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। वैदिक गणित के सूत्रों, उपसूत्रों अथवा उपप्रमेयों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय ऋषि, महर्षि, ज्योतिषीयों, गणितज्ञों की ज्ञान परम्परा के अनन्त और अजस्र प्रवाह में यह रचना अतीव महत्त्वपूर्ण है। गणितीय व्यवहारों व परिकर्मों के विशेष सन्दर्भ में ये सूत्र न केवल विद्वानों व वैज्ञानिकों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं अपितु सामान्य कक्षा के छात्र भी इस प्रक्रिया का आश्रय लेकर गणितशास्त्र में सहज ही प्रवेश पा सकते हैं। संगणकीय प्रयोग हेतु इन सूत्रों का परीक्षण अभी शेष है तथा इस दृष्टिकोण से भी इन सूत्रों का परीक्षण वैदिक गणित की वैज्ञानिकता को स्थापित करने वाला ही सिद्ध होगा।

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