Wednesday 19 September 2018

सूर्यसिद्धान्त में युग- विषयक अवधारणा


        ज्योतिषशास्त्र के सिद्धान्त स्कन्ध की रचनाआें में सूर्य-सिद्धान्त का स्थान अन्यतम माना जाता है। ज्योतिष वेदाङ्ग के पञ्चस्कन्धों में सिद्धान्त स्कन्ध के वर्ण्यविषय के सन्दर्भ में कहा गया है कि 'त्रुटि से लेकर कल्पकाल तक की कालगणना, सौर चान्द्र-सावन- नाक्षत्र-पैत्र्य-बार्हस्पत्य वर्ष, विभिन्न प्रकार के मास, ग्रह-गतियों का निरूपण, व्यक्त-अव्यक्त गणित का प्रयोजन, विविध प्रश्नोत्तर विधि, ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति, नाना प्रकार के तुरीय-नालिकादि यन्त्रों की निर्माण विधि, देश व काल ज्ञान के अनन्यतम उपयोगी अंग-अंगक्षेत्र सम्बन्धी अक्षज्या, लम्बज्या, द्युज्या, कुज्या, समशंकु इत्यादि का आनयन रहता है।
     सूर्यसिद्धान्त के दो संस्करण उपलब्ध होते हैं- (1) आर्ष सूर्य सिद्धान्त (2) पञ्चसिद्धान्तिका प्रोक्त सूर्यसिद्धान्त। वराहमिहिर की पञ्चसिद्धान्तिका में जिन सौरादि पाँच सिद्धान्तों का वर्णन है, वे सम्प्रति उपलब्ध नहीं हैं। ये पाँच सिद्धान्त ग्रन्थ 'प्राचीन सिद्धान्तपञ्चक' कहे जाते हैं। प्राचीन सिद्धान्तपञ्चक के अन्तर्गत पितामह सिद्धान्त, वशिष्ठ सिद्धान्त, रोमक सिद्धान्त, पुलिश सिद्धान्त तथा सूर्य सिद्धान्त आते हैं। इनका काल शकपूर्व पाँचवीं शताब्दी माना गया है। जबकि वर्त्तमान सिद्धान्तपञ्चक के अन्तर्गत सूर्य सिद्धान्त (आधुनिक), सोम सिद्धान्त, वशिष्ठ सिद्धान्त, रोमश सिद्धान्त तथा शाकल्योक्त ब्रह्मसिद्धान्त आते हैं। सिद्धान्त ग्रन्थों की इस समृद्ध परम्परा में सूर्य सिद्धान्त को सर्वाधिक शुद्ध सिद्धान्त ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है, जिसके समर्थन में कहा गया है-           'स्पष्टा ब्राह्मस्तु सिद्धान्तस्तस्यासनस्तु रोमशः।
सौरः स्पष्टतरोऽस्पष्टौ वसिष्ठः पौलिशश्चतौ।।'
    अर्थात् ब्राह्मसिद्धान्त सूक्ष्म है, रोमशसिद्धान्त भी ब्राह्मसिद्धान्त जैसा ही है, सूर्यसिद्धान्त सबसे अधिक सूक्ष्म अर्थात् स्पष्टतर है जबकि वशिष्ठसिद्धान्त तथा पौलिशसिद्धान्त अस्पष्ट हैं। सूर्य सिद्धान्त में वर्णित युग विषयक सिद्धान्त तथा वेदाङ्ग ज्योतिष में वर्णित युग विषयक परिकल्पना में पर्याप्त मतभेद है। जहाँ वेदाङ्ग ज्योतिष में ‘पञ्चसम्वत्सरात्मकं युगम्’ अर्थात् पाँच सम्वत्सर वाले युग की बात कही गई है, वहीं ‘सूर्यसिद्धान्त’ वर्णित युग विषयक परिचर्चा अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत है। ‘सूर्यसिद्धान्त’ ग्रन्थ के आरम्भ में ही ‘कृत’ शब्द द्वारा सर्वप्रथम युग विषयक संकेत उपलब्ध होता है। ‘युग’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग मध्यमाधिकार के श्लोक संख्या आठ में हुआ है- 'युगे युगे महर्षीणां' तथा इसके ठीक बाद श्लोक संख्या नौ में भी यह शब्द प्रयुक्त हुआ है- 'युगानां परिवर्त्तेन---।' सूर्यांश पुरुष द्वारा मयासुर को ज्योतिषशास्त्रविषयक परम पुण्यप्रद तथा गोपनीय ज्ञान देने के प्रसङ्ग में काल का द्विविध विभाजन किया गया-
(1) लोकानामन्तकृत काल तथा
(2) कलनात्मक काल।
     कलनात्मक काल की विशद् चर्चा के प्रसङ्ग में ही आगे चलकर युग व महायुग विषयक परिकल्पना का अत्यन्त विस्तृत व गूढ़ वर्णन प्राप्त होता है। सूर्य-मयासुर संवाद प्रसङ्ग  में कलनात्मक काल विषयक अवधारणा को स्पष्ट किया गया है और कहा गया है कि छः प्राण के तुल्य एक विनाडी होती है तथा साठ विनाडी की एक नाडी होती है। इन्हीं साठ नाडियों के काल परिमाण तुल्य एक नाक्षत्र अहोरात्र होता है। काल के इस वर्गीकरण में सर्वप्रथम ‘प्राण’ शब्द प्रयुक्त हुआ है तथा ‘प्राण’ कालमान के विषय में कहा गया है कि दस दीर्घाक्षर उच्चारण काल के तुल्य इस ‘प्राण’ संज्ञक कालखण्ड का मान होता है। नाक्षत्र अहोरात्र को स्पष्ट करने के उपरान्त अहोरात्र के तीन अन्य प्रकारों अर्थात् सावन, सौर तथा चान्द्र तिथियों के सन्दर्भ में भी सूर्यांश पुरुष ने मयासुर को उपदेश दिया है। एक नक्षत्रोदय से दूसरे नक्षत्रोदय के मध्य का काल नाक्षत्र अहोरात्र, एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय के मध्य का काल सावन दिन, चन्द्रमा की एक कला तुल्य तिथि तथा सूर्य द्वारा एक अंश के भोगकाल को एक सौर अहोरात्र कहते हैं। उपरोक्त चतुर्विध अहोरात्रें के समान ही चतुर्विध मास तथा चतुर्विध वर्ष भी कहे गए हैं। तीस नाक्षत्र अहोरात्रों का एक नाक्षत्र मास, तीस चान्द्र तिथियों का एक चान्द्रमास, तीन सावन दिनों का एक सावन मास तथा तीस सौर अहोरात्रों  या सूर्य द्वारा एक राशि का भोग करने में लगने वाले समय को एक सौर मास कहते हैं। इन चार प्रकार के मास के समान ही चतुर्विध वर्ष भी कहे गए हैं- नाक्षत्र वर्ष, सौर वर्ष, सावन वर्ष तथा चान्द्र वर्ष। बारह नाक्षत्र मासों का एक नाक्षत्र वर्ष, बारह चान्द्र मासों का एक चान्द्र वर्ष, बारह सौर मासों का एक सौर वर्ष तथा बारह सावन मासों का एक सावन वर्ष कहा गया है। स्पष्ट है- 'मासै र्द्वादशभिर्वर्षं' अर्थात् बारह मासों का एक वर्ष कहा गया है। युग विषयक काल-गणना के सन्दर्भ में सौर कालमान ही ग्राह्य है। सौर वर्ष की गणना के क्रम में कहा गया है कि सूर्य छः मास उत्तरायण तथा छः मास दक्षिणायन रहते हैं। एक सौर वर्ष का मान एक दिव्य अहोरात्र के तुल्य कहा गया है।अभिप्राय यह है कि दिव्यकालमान के अनुसार छः मास का दिन तथा छः मास की रात्रि होती है। दिव्यकालमान के प्रसङ्ग में यह ध्यातव्य है कि यह कालमान देवताओं तथा असुरों के सन्दर्भ में ही ग्राह्य है। पृथिवी के उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवाें पर क्रमशः देवताओं तथा असुरों का निवास स्थान माना गया है। ‘सूर्यसिद्धान्त’ के अनुसार 360 सौर वर्षों या 360 दिव्य अहोरात्रों के तुल्य एक दिव्य वर्ष होता है अर्थात् 360 सौर वर्ष = 1 दिव्य वर्ष। एक चतुर्युग अर्थात् सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग तथा कलियुग का मान बताते हुए कहा गया है कि देवताओं तथा असुरों के वर्ष प्रमाण तुल्य अर्थात् दिव्य वर्ष के प्रमाण से बारह हजार दिव्य वर्षों का एक चतुर्युग या महायुग होता है, अर्थात् 12,000 दिव्य वर्ष = 1 महायुग (सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग)। महायुग अर्थात् चतुर्युग के कालमान को यदि सौर वर्ष में परिवर्त्तित किया जाय तो इस विषय में सूर्य सिद्धान्त की उक्ति है- 'सूर्याब्दसंख्यया द्वित्रिसागरैरयुताहतैः' अर्थात् 43,20,000 सौर वर्षों के तुल्य एक महायुग होता है। दिव्य वर्षों को सौर वर्षों में परिवर्त्तित करने के लिए यहाँ एक सामान्य गणितीय संक्रिया गुणन का आश्रय लिया गया है। सूर्य सिद्धान्त के मतानुसार एक दिव्य वर्ष 360 सौर वर्षों के तुल्य माना गया है, अतः दिव्य वर्ष को सौर वर्षों में परिवर्त्तित करने के लिए दिव्य वर्ष के मान में 360 से गुणन द्वारा इसे सौर वर्ष में परिणत किया जा सकता है- 12000 दिव्य वर्ष × 360 = 4320000 सौर वर्ष।
   इस प्रसङ्ग में कुछ गणितीय सूत्र भी उपलब्ध हो जाते हैं- (1) दिव्य वर्ष × 360 = सौर वर्ष तथा (2) सौर वर्ष ÷ 360 = दिव्य वर्ष। ‘सूर्यसिद्धान्त’ में बारह हजार दिव्य वर्षों के तुल्य एक चतुर्युग का मान बताया गया है, परन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि एक महायुग के अन्तर्गत जो चार युग हैं, उनका कालमान समान नहीं होता है। इसे स्पष्ट करते हुए सूर्य सिद्धान्त में कहा गया है कि कृतयुगादि प्रत्येक युगों के सन्ध्या तथा संध्यांशों से युक्त कालमान का आधार धर्मपाद व्यवस्था है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग तथा कलियुग में धर्म की अवस्था अलग-अलग होती है, अभिप्राय यह है कि सतयुग में धर्म अपने चारों चरणों से स्थित रहता है, त्रेता युग में धर्म के तीन चरण स्थित होते हैं, द्वापर में धर्म अपने दो चरणों से उपस्थित रहता है जबकि कलियुग में धर्म अपने एकमात्र चरण द्वारा स्थित रहता है। स्पष्ट है कि सतयुग में धर्म के चार चरण, त्रेता में धर्म के तीन चरण, द्वापर में दो चरण तथा कलियुग में धर्म का एक चरण स्थित होता है। इसी धर्मपाद व्यवस्था के अनुसार ही चतुर्युग में भी चारों युगों का अलग-अलग कालमान होता है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि सूर्य सिद्धान्त के अनुसार चतुर्युगों की कुल वर्षात्मक संख्या के चार पाद तुल्य सतयुग, तीन पाद तुल्य त्रेतायुग, दो पाद तुल्य द्वापर युग तथा एक पाद तुल्य कलियुग का मान होता है। इसे और अधिक स्पष्ट करना चाहें तो हम कह सकते हैं कि चतुर्युगों की कुल पाद संख्या को यदि हम क्रमशः जोड़ें तो कुल पादों की संख्या 4(सतयुग) + 3(त्रेतायुग) + 2(द्वापरयुग) + 1(कलियुग) = 10 होती है, अर्थात् चतुर्युगों के सम्पूर्ण काल का दशमांश ही एक पाद के तुल्य होता है। इसी तथ्य को ‘सूर्यसिद्धान्त’ के मध्यमाधिकार के श्लोक संख्या 17 में स्पष्ट रूप से कहा गया है-
'युगस्य दशमो भागश्चतुस्त्रिद्वेकसंगुणः।'
     चतुर्युग के कालमान संख्या के इसी दशमांश में क्रमशः चार, तीन, दो तथा एक से गुणा करने पर सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग का वर्षात्मक मान उसके सन्ध्या तथा सन्ध्यांशों सहित ज्ञात होता है। उपरोक्त सिद्धान्त के आधार पर यदि कृतादि युगों का मान सन्ध्या तथा सन्ध्यांशों के साथ स्पष्ट करें तो सर्वप्रथम चतुर्युग अर्थात् महायुग के कालमान का दशमांश ज्ञात करना होता है- 12000 दिव्य वर्ष ÷10 = 1200 दिव्य वर्ष। अर्थात् चतुर्युग के दशमांश का मान 1200 दिव्य वर्ष के तुल्य होता है। अब धर्मपाद व्यवस्था के अनुसार इस दशमांश में क्रमशः चार, तीन, दो तथा एक से गुणा करने पर   सतयुग = 1200 × 4 = 4800 दिव्य वर्ष,
त्रेतायुग = 1200 × 3 = 3600 दिव्य वर्ष,
द्वापरयुग = 1200 × 2 = 2400 दिव्य वर्ष तथा कलियुग = 1200 × 1 = 1200 दिव्य वर्ष प्रमाण का कालमान प्राप्त होता है। यहाँ ध्यातव्य है कि कृतादि चारों युगों के ये दिव्य वर्षात्मक मान सन्ध्या तथा सन्ध्यांशों से युक्त हैं। इसी कालमान को यदि सौरवर्ष में ज्ञात करना हो तो सूर्य सिद्धान्त के मतानुसार सतयुग = 4800 दिव्य वर्ष × 360 = 1728000 सौर वर्ष, त्रेतायुग = 3600 दिव्य वर्ष × 360 = 1296000 सौर वर्ष, द्वापरयुग = 2400 दिव्य वर्ष × 360 = 864000 सौर वर्ष तथा कलियुग = 1200 दिव्य वर्ष × 360 = 432000 सौर वर्ष मान सिद्ध होता है। इन चारों युगों के सौर वर्षात्मक मान का यदि योग किया जाय तो 1728000+1296000+864000+432000 = 4320000 सौर वर्ष प्राप्त होता है जो सूर्य सिद्धान्त प्रोक्त महायुग के सौरमान के तुल्य है। सूर्य सिद्धान्त में युग विषयक सिद्धान्तों के प्रतिपादन के प्रसङ्ग में बारम्बार ‘सन्ध्या’ तथा ‘सन्ध्यांश’ शब्द का प्रयोग किया गया है। उपरोक्त कृतादि युगों के कालमान भी सन्ध्या तथा सन्ध्यांशों से युक्त ही हैं। प्रत्येक युग के आरम्भ तथा समाप्ति के बाद सन्धि काल होता है। कृतादि चारों युगों के आरम्भ व समाप्ति के उपरान्त यह सन्धिकाल आता है तथा इन चारों युगों के सन्धिकाल का मान भी समान न होकर परस्पर भिन्न होता है। ‘सूर्यसिद्धान्त’ इस सन्दर्भ में अत्यन्त स्पष्ट रूप से कहता है-
'क्रमात् कृतयुगादीनां षष्ठांशः सन्ध्ययोः स्वकः'
     अर्थात् कृतादि चारों युगों का अपने-अपने युगमान के षष्ठांश तुल्य दोनों सन्धियों का मान होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार कृतादि चारों युगों की सन्धियों का पृथक्-पृथक् मान स्पष्ट किया जा सकता है। अतः कृतयुग सन्धि = 4800 ÷ 6 = 800 दिव्य वर्ष, त्रेतायुग सन्धि = 3600 ÷ 6 = 600 दिव्य वर्ष, द्वापरयुग सन्धि = 2400 ÷ 6 = 400 दिव्य वर्ष तथा कलियुग सन्धि = 1200 ÷ 6 = 200 दिव्य वर्ष के तुल्य होता है। प्रत्येक युग के सन्ध्या तथा सन्ध्यांशों का यह सम्मिलित मान है। प्रत्येक युग के आरम्भ तथा समाप्ति पर होने वाले सन्ध्या तथा सन्ध्यांशों का मान क्रमशः इस प्रकार होता है- सतयुग - 800 ÷ 2 = 400 दिव्य वर्ष,
त्रेतायुग - 600 ÷ 2 = 300 दिव्य वर्ष,
द्वापरयुग - 400 ÷ 2 = 200 दिव्य वर्ष तथा कलियुग - 200 दिव्य वर्ष ÷ 2 = 100 दिव्य वर्ष। इन सन्ध्या तथा सन्ध्यांशों के पृथक्-पृथक् मान को यदि सौर वर्षों में परिवर्त्तित किया जाए तो ये क्रमशः सतयुग = 400 दिव्य वर्ष × 360 = 144000 सौर वर्ष, त्रेतायुग = 300 दिव्य वर्ष × 360 = 108000 सौर वर्ष, द्वापरयुग = 200 दिव्य वर्ष × 360 = 72000 सौर वर्ष तथा कलियुग = 100 दिव्य वर्ष × 360 = 36000 सौर वर्ष के तुल्य होता है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि सतयुग के आरंभ तथा समाप्ति पर 400-400 दिव्य वर्षों का सन्धिकाल, त्रेतायुग के आरम्भ तथा समाप्ति पर 300-300 दिव्य वर्षों का सन्धिकाल, द्वापर युग के आदि तथा समाप्ति पर 200-200 दिव्य वर्षों का सन्धिकाल तथा कलियुग के आरम्भ तथा समाप्ति पर 100-100 दिव्य वर्षों के तुल्य सन्धि काल होता है।
    सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग के सन्धि तथा सन्ध्यंशों के कालमान स्पष्ट हो जाने के बाद सन्धि रहित सतयुगादि चारों युगों का कालमान भी स्पष्ट किया जा सकता है।
सतयुग का सन्धि रहित कालमान = 4800 दिव्य वर्ष - 800 दिव्य वर्ष = 4000 दिव्य वर्ष,
त्रेतायुग का सन्धि रहित कालमान = 3600 दिव्य वर्ष - 600 दिव्य वर्ष = 3000 दिव्य वर्ष,
द्वापर युग का सन्धि रहित कालमान = 2400 दिव्य वर्ष - 400 दिव्य वर्ष = 2000 दिव्य वर्ष तथा कलियुग का सन्धि रहित कालमान = 1200 दिव्य वर्ष -200 दिव्य वर्ष = 1000 दिव्य वर्ष।
   सन्ध्या तथा सन्ध्यांश से रहित युगमानों को यदि सौर वर्ष में परिवर्त्तित किया जाय तो कृतयुग का सन्ध्या तथा सन्ध्यांश रहित कालमान = 4000 दिव्य वर्ष × 360 = 1440000 सौर वर्ष, त्रेतायुग का सन्ध्या तथा सन्ध्यांश रहित कालमान = 3000 दिव्य वर्ष × 360 = 1080000 सौर वर्ष, द्वापर युग का सन्ध्या तथा सन्ध्यांश रहित कालमान = 2000 दिव्य वर्ष × 360 = 720000 सौर वर्ष तथा कलियुग का सन्ध्या व सन्ध्यांशरहित कालमान = 1000 दिव्य वर्ष × 360 = 360000 सौर वर्ष सिद्ध होता है।
     सूर्य सिद्धान्त में वर्णित उपरोक्त युग विषयक परिकल्पना अत्यन्त ही स्पष्ट तथा सूक्ष्म सिद्ध होता है। चतुर्विध अहोरात्र मान से लेकर सौर काल मान को आधार मानते हुए मास, अयन, वर्ष व महायुग विषयक सिद्धान्तों को अत्यन्त सरल व सुबोध शैली में प्रस्तुत करना इस ग्रन्थ के वैशिष्ट्य को प्रमाणित करता है। सूर्य सिद्धान्त प्रोक्त इस युग विषयक सिद्धान्त व कालगणना को परवर्ती दैवज्ञों तथा गणितशास्त्र के विद्वानों ने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया है। सूर्यसिद्धान्त की प्राचीनता सिद्ध है तथा इतने प्राचीन ग्रन्थ में कालविषयक गणना, कैलेण्डर पद्धति, गणितीय संक्रियाओं का शुद्ध व सूक्ष्म प्रयोग तत्कालीन समाज में गणितशास्त्र व खगोलशास्त्र के ज्ञान व अध्ययन परम्परा की समृद्धता को प्रस्तुत करता है। 

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