Tuesday 18 September 2018

क्या है कालसर्पयोग ?


 कालसर्पयोग को लेकर ज्योतिष जगत में पर्याप्त विरोधाभास है। दैवज्ञों का एक वर्ग इस ज्योतिषीय योग को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानता है। जबकि दूसरा वर्ग इस कालसर्पयोग के अस्तित्व पर ही प्रश्न खड़ा कर देता है। ज्योतिषशास्त्र के विद्वानों के बीच का यह विवाद आज जनसामान्य में संशय उत्पन्न कर रहा है। इसलिए आवश्यक है कि ‘कालसर्पयोग’ संज्ञक इस ज्योतिषीय योग की वैज्ञानिकता पर पर्याप्त विचार किया जाय जिससे कि इस योग की महत्ता या निरर्थकता पर निर्णय कर पाना सरल हो सके।
कालसर्पयोग का शाब्दिक अर्थ-
‘कालसर्पयोग’ शब्द तीन शब्दों काल,सर्प और योग के मिलने से बना है। ‘काल’ शब्द का प्रयोग वैदिक काल से होता आ रहा है और आज का सम्पूर्ण ज्योतिषशास्त्र ‘काल’ पर ही आश्रित है- ‘‘ज्योतिषं कालविधानशास्त्रम्’’। ‘सूर्य-सिद्धान्त’ में काल के दो स्वरूप कहे गये हैं एक गणनात्मक काल और दूसरा लोकादि का संहारक काल-‘लोकानामन्तकृत कालः कालोऽन्यं कलनात्मकः’ इस कालसर्पयोग शब्द में प्रयुक्त ‘काल’ शब्द दोनों ही अर्थों से युक्त है। अभिप्राय यह है कि यह ज्योतिषीय योग जातक के सम्पूर्ण जीवन पर अपना प्रभाव डालता है और नकारात्मक फलोत्पादक होने के कारण भय भी उत्पन्न करता है। इस योग का दूसरा शब्द है-‘सर्प’।
यह ‘‘सर्प’’ शब्द भौतिक सरीसृप जीव ‘सर्प’ से भिन्न है और इसका अर्थ है-राहु केतु नामक छाया ग्रह। भारतीय ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रन्थ ‘बृहत्संहिता’ में एक सर्प की कल्पना की गई है जिसका शिर राहु और पुच्छ केतु के रूप में स्वीकृत है
-‘मुखं पुच्छ विभक्तांगं भुजंगमाकारमुपदिशन्त्यन्ये’
इस ज्योतिषीय योग का आखिरी शब्द है ‘योग’। योग शब्द का अर्थ है ‘जुड़ना’। यह शब्द विभिन्न ग्रहों के मध्य संबंधों को दर्शाता है। ऐसे अवसर या संयोग जिसमें दो या दो से अधिक ग्रह-राशि-नक्षत्रादि संयुक्त होकर दुःखद या सुखद स्थितियों का निर्माण करते हैं ‘योग’ कहे जाते हैं। इस तरह मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि- ‘‘राहु तथा केतु द्वारा जन्मांग में बननेवाला वह योग जो जातक के लिए आजीवन कष्टप्रद होता है, कालसर्प योग कहा जाता है।’’
कैसे बनता है कालसर्प योग-
यदि किसी व्यक्ति के जन्मकाल में समस्त ग्रह राहु तथा केतु के मध्य हों तो कालसर्प योग का निर्माण होता है। कहा भी गया है-
‘‘राहुतः केतुमध्ये आगच्छन्ति यदा ग्रहाः।
कालसर्पस्तु योगोऽयं कथितं पूर्वसूरिभिः।’’
राहु तथा केतु की लग्नादि द्वादश भावों में स्थिति के आधार पर ये प्रमुख रूप से बारह प्रकार के माने गए हैं। अभिप्राय यह है कि राहु लग्न भाव में तथा केतु सप्तम भाव में स्थिति होकर कालसर्प योग का निर्माण कर रहें हो तो यह अनंत कालसर्पयोग कहा जाएगा। इसी प्रकार जन्मकुण्डली के अन्य भावों में राहु तथा केतु की स्थिति के आधार पर इनका नामकरण इस प्रकार किया गया है-
* राहु की स्थिति प्रथम भाव में तथा केतु की स्थिति सप्तम भाव में होने पर अनंत कालसर्पयोग
* राहु की स्थिति द्वितीय भाव में तथा केतु की स्थिति अष्टम भाव में हो तो कुलिक कालसर्पयोग
* तृतीय भाव में राहु तथा नवम भाव में केतु हो तो वासुकि कालसर्पयोग
* चतुर्थ भाव में राहु तथा दशम भाव में केतु हो तो शंखपाल कालसर्पयोग
* राहु पञ्चम भाव में तथा केतु एकादश भाव में हो तो पद्मकालसर्पयोग
* षष्ठ भाव में राहु और द्वादश भाव में केतु होने पर महापद्मकालसर्पयोग
* सप्तम भाव में राहु तथा लग्न भाव में केतु होने पर तक्षक कालसर्पयोग
* अष्टम भाव में राहु और द्वितीय भाव में केतु हो तो कर्कोटक कालसर्पयोग
* नवम भाव में राहु और तृतीय भाव में केतु होने पर शंखनाद कालसर्पयोग
* राहु दशम भाव में तथा केतु चतुर्थ भाव में हो तो पातक कालसर्पयोग
* एकादश भाव में राहु तथा पञ्चम भाव में केतु हो तो विषाक्त कालसर्पयोग
* द्वादश भाव में राहु तथा षष्ठ भाव में केतु हो तो शेषनाग संज्ञक कालसर्पयोग होता है।
क्या इस योग का वर्णन प्राचीन ग्रन्थों में हैं?-
इसका सीधा सा जवाब है - नहीं। ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों जैसे गौरीजातकम्, वृहत्पराशरहोराशास्त्र, जैमिनीसूत्रम् वृहज्जातक, सारावली, सर्वार्थचिन्तामणि, जातकाभरणम्, फलदीपिका आदि में ‘कालसर्पयोग’ नाम से किसी भी ज्योतिषीय योग का उल्लेख नहीं मिलता है। यहां तक कि अपेक्षाकृत नवीन रचनाओं जैसे ‘लाल-किताब’ में भी इस योग का नाम तक नहीं लिया गया है। हाँ इतना आवश्यक है कि इन प्राचीन ग्रन्थों में सर्पयोग नाम के कई ग्रहयोगों का विशद् वर्णन मिलता है।

तब तो कालसर्पयोग की प्रमाणिकता संदिग्ध ही मानी जाए?-
किसी भी निर्णय पर आने से पूर्व तथ्यों का गहन अध्ययन आवश्यक है। यह सत्य है कि प्राचीन ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में ‘कालसर्पयोग’ नामक किसी ग्रहयोग का वर्णन नहीं मिलता है परन्तु ‘सर्पयोगों’ के उल्लेख को इस अतिविशिष्ट ‘‘कालसर्पयोग’’ का मूल माना जा सकता है। इस तथ्य के समर्थन हेतु प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध कुछ सन्दर्भों पर दृष्टिपात करते हैं-
नाभसयोगों में से एक ‘सर्पयोग’ के सन्दर्भ में महर्षि पराशर ने कहा है कि ऐसा व्यक्ति कुटिल, क्रूर, निर्धन, दुःखी, दीन तथा दूसरों के अन्न पर निर्भर रहने वाला होता है। इसी योग के सन्दर्भ में वराहमिहिराचार्य, कल्याणवर्मा, ढुंढिराज, मीनराज आदि ने भी पर्याप्त दृष्टि डाली है। इन ग्रन्थों के विभिन्न शापों का भी उल्लेख है और इसमें ‘सर्पशाप’ भी एक है। सन्तानहीनता के सन्दर्भ में यह ‘‘सर्पशाप’’ अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है। ‘कर्त्तरी’ संबंधी ज्योतिषशास्त्रीय अवधारणा भी इस सन्दर्भ में विचारणीय है। पाप कर्त्तरी के मध्य फंसा कोई भी ग्रह शुभफलोत्पादक नहीं हो पाता है साथ ही यह अशुभ फल भी देता है। यदि गम्भीरता से विचार करें तो स्पष्ट हो जाता है कि ‘कालसर्पयोग’ भी एक वृहत् पापकर्त्तरी ही है जिसके बीच सारे ग्रह फंसे होते हैं। यही कारण है कि समस्त ग्रह पीडि़त होकर शुभफल उत्पन्न करने में असमर्थ हो जाते हैं साथ ही जातक का सम्पूर्ण जीवन कष्टप्रद हो जाता है।
दूसरी बात यह कि यदि केवल प्राचीन ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में उल्लेख को ही योगों की प्रामाणिकता का आधार माना जाए तो आज के सन्दर्भ में ज्योतिषशास्त्र की उपादेयता संदेह के घेरे में आ जाएगी। जैसे आज के समाज में सर्वाधिक महत्वपूर्ण पदों आई.ए.एस., आई.पी.एस., प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, विधायक, सांसद, कम्प्यूटर इंजीनियर, आदि का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में नहीं मिलता है। साथ ही इन प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित, चक्रवर्ती सम्राट, सामन्त, नगरपति आदि पद भी आज अस्तित्व में नहीं है। परन्तु आप दैवज्ञों द्वारा इन प्राचीन योगों के सन्दर्भ मे ही तारतम्यतापूर्वक फलादेश की प्रक्रिया को सफलतापूर्वक प्रयोग में लाया जाता है। प्रत्येक शास्त्र में शोध के लिए पर्याप्त अवसर होता है और भारतीय ज्योतिषशास्त्र इसका अपवाद नहीं हैं। यही कारण है कि 36 श्लोकों वाले ‘आर्च ज्योतिष’ नामक लघुकाय ग्रन्थ से प्रारम्भ होकर यह ज्योतिष वेदांग लाखों ग्रन्थों से समृद्ध शास्त्र बना तभी तो यह उक्ति प्रसिद्ध हुई- ‘‘चतुर्लक्षं तु ज्यौतिषम्’’।
यदि हमारे प्राचीन मनीषियों ने भी इसी प्रकार योगों के सन्दर्भ में प्राचीन शास्त्रों में उल्लेख के प्रति आग्रह रखा होता तो हमारे पास आज भी वही एक मात्र 36 श्लोकों वाला ‘ऋक् ज्योतिष’ नामक ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थ होता। परन्तु यह हमारा सौभाग्य है कि आज ऐसा नहीं है। हमारे प्राचीन मनीषियों तथा दैवज्ञों ने ज्योतिषशास्त्र के क्षेत्र में हुए शोधों का सदैव स्वागत किया है और यही कारण है कि ज्योतिषशास्त्र हजारों वर्षों के बीतने पर भी सतत प्रगति के पथ पर अग्रसर होता जा रहा है।
प्रत्यक्षं ज्यौतिषं शास्त्रम्- ज्योतिषशास्त्र का आधार प्रत्यक्षता है और इस कालसर्पयोग के सन्दर्भ में भी हमें प्रत्यक्षता को ही आधार मानना चाहिए। कालसर्प योग से पीडि़त जातकों के जीवन में कष्टों का आधिक्य, संतानहीनता, रोग, निर्धनता, परिश्रम के बाद भी उचित फल न मिलना आदि अशुभ प्रभाव इस योग के अस्तित्व तथा इसकी गंभीरता को प्रदर्शित करने के लिए पर्याप्त हैं। अतः आवश्यक है कि जनसामान्य के साथ-साथ ज्योतिष समाज का प्रबुद्ध विद्वद्वर्ग भी ज्योतिषशास्त्र के क्षेत्र में हुए इस वैज्ञानिक शोध की महत्ता को स्वीकार करें और इस अशुभ योग से पीडि़त जातकों के कल्याण हेतु आगे आएँ।

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