Thursday, 13 September 2018

ज्योतिष वेदाङ्ग का गणितशास्त्र के विकास में अवदान

             

   गणितशास्त्र के उद्भव और विकास संबंधी सिद्धान्तों पर यदि दृष्टिपात किया जाए तो कहा जा सकता है कि मानव सभ्यता के आरम्भिक काल में ही गणित अथवा गणन विषयक अवधारणा का आरम्भ हो गया होगा। संक्षेपतः कहा जा सकता है कि मानव सभ्यता के इतिहास के तरह ही गणितशास्त्र भी अत्यन्त प्राचीन है। विश्व की प्राचनीतम रचनाओं अर्थात् वैदिक संहिताओं में गणित के मूलभूत विषय यथा- संख्या, ज्यामितीय आकृति आदि का वर्णन इस सिद्धान्त को पुष्ट करता है। इसके अतिरिक्त हड़प्पाकालीन सभ्यता के अवशेषों में वृत्ताकार त्रिभुजाकार हवनकुण्डों, विशाल स्नानागार, ईंटों से बने मकान और परिपक्व नगर नियोजन तत्कालीन समाज में गणितशास्त्र के विषयों की उपस्थिति और उसके प्रायोगिक व्यवहार का जीवन्त दिग्दर्शन है। गणितशास्त्र की विकास यात्रा को यदि विशिष्ट स्वरूप दिया जाए और कालक्रम में विभाजित किया जाय तो इसे वैदिक संहिता, ब्राह्मण साहित्य, आरण्यक ग्रन्थ, उपनिषद् साहित्य, पुराण तथा स्वतन्त्र ज्योतिष शास्त्रीय ग्रन्थों में विभाजित किया जा सकता है। अभिप्राय यह है कि वैदिक काल (ईसा पूर्व 6000 वर्ष लगभग), हड़प्पा काल (ईसा पूर्व 3000 वर्ष लगभग), ब्राह्मण काल (3000-1000 . पूर्व) तथा इसके बाद के लगभग 2000 वर्ष पर्यन्त भारतवर्ष की पवित्र भूमि केवल कला, अपितु विज्ञान के विभिन्न शाखाओं के अविच्छिन्न उन्नति तथा महत्त्वपूर्ण कार्यों का क्षेत्र बना रहा। रामायण (1000-600 . पू.), अष्टाध्यायी (700 .पू.), सुश्रुत संहिता (600 .पू ) तथा बौद्ध जैन साहित्य (400 .पू.) में गणितशास्त्र से संबंधित पर्याप्त सामग्री का उपलब्ध होना गणितशास्त्र की विकास यात्रा के सतत प्रवाह को प्रदर्शित करता है। गणितशास्त्र के प्रति भारतीय ऋषियों के सम्मान को इसी तथ्य से समझा जा सकता है किसंख्यावान्अर्थात् गणितशास्त्र के ज्ञाता को ही विद्वान् कहा जाता था- विद्वान् विपश्चिद् दोषज्ञः संख्यवान् पण्डितो जनः।' ऋग्वेद के शताधिक मन्त्रों में संख्याओं का परोक्ष अथवा अपरोक्ष प्रयोग प्राप्त होता है। इसी प्रकार यजुर्वेद में एक से लेकर परार्ध अर्थात् दस खरब तक की संख्याओं का वर्णन मिलता है और इस क्रम में दश, शत, सहस्र, अयुत, नियुत, प्रयुत, अर्बुद, न्युर्बुद, मध्य, अंत और परार्ध संज्ञा का प्रयोग किया गया है। 'वाजसनेयी संहिता' स्पष्ट रूप से कहती है कि विशेष ज्ञान के लिए नक्षत्रदर्श अर्थात् गणक के पास जाओ- प्रज्ञानाय नक्षत्रदर्शं यादसे गणकं।गणितशब्द वैदिक काल में अपने इस मूलरूप में प्राप्य नहीं था, परन्तु इसके समानार्थक तथा सव्युत्पत्तिक शब्द गणक, गण और गण्या ऋग्वेद में मिलते हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में नारद द्वारा सनत्कुमार को अधीत ज्ञान का परिचय कराने के प्रसङ्ग में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, व्याकरण, पितृविद्या, राशिविद्या, देवविद्या, निधिविद्या, तर्कशास्त्र, ब्राह्मविद्या, भूतविद्या, छात्रविद्या, नक्षत्रविद्या, सर्पविद्या, देवजन विद्या का नाम तो लेते हैं परंतु इसमेंगणितशास्त्रका नामोल्लेख नहीं है। हाँ यह अवश्य है कि यहाँ राशिविद्या ही गणितशास्त्र अर्थात् डंजीमउंजपबे का परिचायक है। परन्तु जबगणितशब्द के सर्वप्रथम प्रयोग इसकी महत्ता के सन्दर्भ में प्रश्न उठता है तो इसका उत्तर हमें महर्षि लगध प्रणीत याजुष् ज्योतिष के इस मन्त्र में उपलब्ध होता है-
 "यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा। तद्वद्वेदाङ्गशास्त्राणां गणितं मूर्धनिस्थितम्।" 
      शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष व्याकरण इन छः वेदाङ्गों में किसी किसी रूप में गणितशास्त्र के सिद्धान्तों के प्रतिपादन अथवा उसके स्वरूप को स्पष्ट करने के सन्दर्भ में निश्चित ही स्तुत्य प्रयास किए गए है। जहाँ शुल्ब सूत्रों में ज्यामिति, त्रिकोणमिति तथा क्षेत्रमिति का प्रयोग हुआ तथा उसके विकास हेतु प्रयत्न हुए, वहीं ज्योतिष वेदाङ्ग ने गणितशास्त्र के सर्वाङ्गीण विकास में महती योगदान दिया। गणित विद्या के मुख्यतः तीन विभाग माने गए है- अंकगणित, रेखागणित बीजगणित। इन तीन प्रमुख शाखाओं के आधार पर ही गणितशास्त्र की अन्य शाखाएं यथा स्थितिशास्त्र (Statics), गतिशास्त्र (Dynamics), द्रवस्थितिशास्त्र (Hydrostatics), त्रिकोणमिति (Trigonometry), खगोलीय त्रिकोणमिति (Spherical Trigonometry), चलन कलन (Calculus) आदि विकसित हुई हैं। वेदाङ्ग ज्योतिष के तीनों ही संस्करणों में गणितशास्त्र के कई प्रमुख विषय यथा संख्याओं का उल्लेख, जोड़, घटाव, गुणा, भाग, त्रैराशिक नियमादि का प्रयोग मिलता है। स्पष्ट है कि उस वैदिक काल में गणितशास्त्र नक्षत्रविद्या के अन्तर्गत ही परिगणित होता था। आर्यजाति एक धर्मपरायण जाति थी और उनके दैन्दिन जीवन में यज्ञ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण था। इष्ट प्राप्ति तथा अनिष्ट परिहार के लिए ये लोग यज्ञ किया करते थे। 
इन यज्ञादि शुभ कर्मों के लिए उचित काल का निर्धारण आवश्यक था और यही कारण है कि उत्तर वैदिक काल अर्थात् ब्राह्मण आरण्यक ग्रन्थों में इस गणितशास्त्र का और भी विकास हुआ। 500 .पू. से 500 . के मध्य जैन ग्रन्थों यथा स्थानांगसूत्र, भगवतीसूत्र  और अनुयोगद्वारसूत्र में गणित के सन्दर्भों का बाहुल्य है और यही वह समय है जब दाशमिक अंकलेखन प्रणाली, शून्य का आविष्कार, बीजगणित का आविष्कार, अंकगणित का विकास, ज्योतिषशास्त्र का विकास आदि महत्त्वपूर्ण घटनाएं हुईं। इस काल के गणितीय विकास को प्रस्तुत करने के लिए स्थानांग सूत्र ग्रन्थ का यह श्लोक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है-
 परिकम्मं ववहारो रज्जु रासी क्लारावन्ने य। जावन्तावति वग्गो घनो ततह वग्गवग्गो विकप्पोत।'  अर्थात् परिकर्म, व्यवहार गणित, रज्जु या रेखागणित, राशि (त्रैराशिक), कलासवर्ण, यावत्रावत् वर्ग, समीकरण, घन, वर्ग वर्ग, विकल्प अर्थात् क्रमचय तथा संचय से परिचित थे। ज्योतिषशास्त्र के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ सूर्यसिद्धान्त का गणितशास्त्र के विकास के क्षेत्र में महती योगदान है। इस ग्रन्थ में ज्या (Sine), उत्क्रमज्या (Versine), कोटिज्या (Cosine) त्रिकोणमितीय फलनों का उल्लेख मिलता है। 500 . से 1200 . के मध्य गणितशास्त्र का विकास अतुलनीय है यही वह समय है जब आर्यभट, भास्कर (द्वितीय) आर्यभट्ट सदृश विद्वानों ने इस शास्त्र की परम्परा को और भी अधिक सुदृढ़ किया।
' वर्गमूल, घनमूल त्रैराशिक नियम विषय सिद्धान्तों को आर्यभट ने कुशलतापूर्वक स्पष्ट किया है। इसी तरह ब्रह्मगुप्त ने अपनी प्रसिद्ध रचना ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त में शून्यपरिकर्म, क्षेत्रमिति के उच्च नियम, बीजगणित तथा अनन्तराशि के नियम बताए हैं। ब्रह्मगुप्त ने ही अनन्त को परिकल्पना की और बताया- खोद्धृतमृणं धनंवा तच्छेदम् अर्थात् शून्य से भाग देने पर कोई भी ऋण अथवा धन संख्या अनन्त (तच्छेद) हो जाती है। इस तरह आर्यभट्टकृत आर्यभटीय, ब्रह्मगुप्त कृत ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त, भास्कर प्रथम कृत लघुभास्करीय महाभास्करीय, श्रीपतिकृत सिद्धान्तशेखर, भास्करद्वितीय कृत सिद्धान्तशिरोमणि, आर्यभटद्वितीय कृत महासिद्धान्त तथा मुंजाल कृत लघुमानस आदि अद्वितीय कृतियों ने ज्योतिषशास्त्र के गणित स्कन्ध की शाखा को पुष्पित और पल्लवित करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। गणितीय परिकर्मों अथवा व्यवहारों के सम्पादन के लिए लेखन सामग्री की आवश्यकता होती थी। ये क्रियाएँ या तो पाटी पर खड़ियां से की जाती थीं अथवा पाटी पर धूल बिछाकर किसी नुकीले कलम से की जाती थीं। इसी कारण से गणितशास्त्र के कुछ अंश पाटी गणित अथवा धूलिकर्म संज्ञा से जाने जाते थे। गणित का वह भाग जो अज्ञात राशि से सम्बन्ध रखता था। बीजगणित कहा जाता था गणितशास्त्र की ये समस्त शाखाएँ ज्योतिषशास्त्र के उपकार मात्र के लिए अस्तित्व में आई थी। ज्योतिषशास्त्र की तीन शाखाएँ मानी गई हैं- सिद्धान्त, संहिता और होरा। महर्षि पराशर की विश्वविश्रुत रचना बृहत्पाराशरहोराशास्त्र में गणित के तीन स्कन्धों के विषय में कहा गया है
त्रिस्कन्ध्ज्योतिषं होरा गणितं संहितेति च।'       गणितस्कन्ध में त्रुटि से लेकर कल्पकाल तक की कालगणना, पर्व आयनयन, अब्द विचार, ग्रहगतिनिरूपण, मास गणना, ग्रहों का उदयास्त, वक्रमार्ग, सूर्य चन्द्रमा के ग्रहण प्रारम्भ एवं अस्त, ग्रहण की दिशा, ग्रहयुति, ग्रहों की कक्षस्थिति, उनका परिमाण, देश-भेद, देशान्तर, पृथिवी का भ्रमण, पृथिवी की दैनिक वार्षिक गति, धु्रव प्रदेश, अक्षांश, लम्बांश, गुरुत्वाकर्षण, नक्षत्रासंस्थान, भगण चरखण्ड, द्युज्या, चापांश, लग्न, पृथिवी की छाया, पलभा समस्त विषय परिगणित है। उपरोक्त विषय अत्यन्त सूक्ष्म तथा जटिल हैं। इन विषयों की शुद्ध गणना हेतु ही गणितशास्त्र का विकास भारतीय ज्योतिषशास्त्र के ऋषियों, महर्षियों मनीषियों द्वारा किया गया हैं। भारतीय दैवज्ञ ऋषियों ने जिस विधा को अपनी संतति के सन्ताप मुक्ति हेतु विकसित किया, पुत्री के कष्ट को न्यून करने के लिए जिस लीलावती सदृश कालजयी रचना को प्रकट किया वह ज्ञान वस्तुतः ज्योतिषशास्त्र के उपकार हेतु तथा इस कालज्ञान के विकास हेतु समर्पित था। पाटी पर खड़िया से लिखकर, धूल पर अंगुली नुकीली कलम से लिखकर भारतीय ज्योतिषियों ने इस गणितशास्त्र को विकसित किया था। ज्योतिषशास्त्र का यह सहायक शास्त्र सहस्राब्दियों तक काल के अनन्त प्रवाह से गुजरता हुआ आज वर्तमान स्थिति तक पहुँचा है। उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह निश्चित होता है कि भारतीय ज्योतिषशास्त्र ने गणितशास्त्र के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। आज जिस गणितशास्त्र को एक स्वतन्त्रशास्त्र के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है वह वस्तुतः ज्योतिषशास्त्र की एक शाखा मात्र है।

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