Saturday 15 September 2018

विंशोत्तरी दशा-साधन प्रविधि

       प्रत्यक्ष, अनुमान या अन्य किसी भी उपाय से जब अदृष्ट का ज्ञान न हो पाए तो वेद का आश्रय लेने का विधान किया गया है। मनुष्य का भाग्य या भविष्य भी एक ऐसा ही विषय है। इस पर भी यदि शुभाशुभत्व का विचार करना हो तो इस विषय की दुरूहता और भी बढ़ जाती है। इसी शुभाशुभत्वमूलक काल-सापेक्ष ज्ञान हेतु ज्योतिषरूपी वेदांग अस्तित्व में आया। महर्षि लगध भी इसका समर्थन करते हुए वेदांग ज्योतिष में कहते हैं -
वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्व्या विहिताश्च यज्ञाः।
तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञान्।।
कालान्तर में यह ज्योतिषशास्त्र काफी विस्तार को प्राप्त हुआ तथा इसकी पाँच शाखाएँ विकसित हुई - सिद्धान्त, संहिता, होरा, प्रश्न तथा शकुन। इस पंचस्कन्धात्मक ज्योतिषशास्त्र का होरास्कन्ध मनुष्य के भविष्य से जुड़ा होने के कारण अत्यन्त महत्त्व का है। अपनी लोकप्रियता के कारण यह शास्त्र भारत के बाहर अन्य देशों में भी फैला। नवग्रहों की विभिन्न राशियों में स्थिति के आधार पर मनुष्य को शुभ-अशुभ अथवा मिश्रित फल प्राप्त होते हैं। जातक को इन शुभाशुभ फलों की प्राप्ति एक ही बार नहीं होती। इन फलों की प्राप्ति के काल निर्धारण हेतु दशाओं की कल्पना की गई है।  भारतीय फलित ज्योतिष में विशोत्तरी, अष्टोत्तरी, योगिनी आदि दशाओं का उल्लेख है  जबकि ताजिक शास्त्र में मुद्दा दशा, पात्यायनी आदि दशाओं का वर्णन प्राप्त होता है।  पाराशरी ज्योतिष का मूल आधार विंशोत्तरी दशा है।
* विंशोत्तरी दशा - यह दशा नक्षत्रदशा नाम से भी प्रसिद्ध है। इस दशा में मानव की आयु 120 (एक सौ बीस) वर्ष की मानी गई है। इसी काल विस्तार में विभिन्न ग्रहों की दशाओं की कल्पना की गई है। समस्त नवग्रहों की 120 वर्ष की कालावधि में से प्रत्येक ग्रह को कुछ विशेष वर्ष का काल प्रदान किया गया है। इस दशा में महादशा, अन्तर्दशा, प्रत्यन्तर्दशा आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
* विंशोत्तरी दशा में ग्रहों का वर्षमान - विशोत्तरी दशा में विभिन्न ग्रहों को दशाधिपति के रूप में विशेष काल का निर्धारण करते हुए महर्षि पराशर कहते हैं -
   "दशासमा: क्रमादेषां षड् दशाऽश्वा गजेन्दवः।
    नृपालाः नवचन्द्राश्च नगचन्द्रा नगा नखाः।। "
           अर्थात् सूर्य 6 वर्ष, चंद्रमा 10 वर्ष, मंगल 7 वर्ष, राहु 18 वर्ष, बृहस्पति 16 वर्ष, शनि 19 वर्ष, बुध 17 वर्ष, केतु 7 वर्ष, तथा शुक्र के 20 वर्षों की कालावधि विंशोत्तरी दशा में प्राप्त होती है।
* विंशोत्तरी दशा का निर्धारण - जन्म नक्षत्रनुसार ग्रहों की दशा होती है। कृत्तिका, उत्तराफाल्गुनी और उत्तराषाढा में जन्म होने से सूर्य की, रोहिणी, हस्त और श्रवण नक्षत्रें में जन्म होने से चन्द्रमा की, मृगशिरा, चित्र और धनिष्ठा नक्षत्रों में जन्म होने से मंगल की, आर्द्रा, स्वाती और शतभिषा में जन्म होने से राहु की, पुनवर्सु, विशाखा और पूर्वाभाद्रपद में जन्म होने से बृहस्पति की, पुष्य, अनुराधा और उत्तराभाद्रपद में जन्म होने से शनि की, आश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती में जन्म लेने से बुध की, मघा, मूल और अश्विनी में जन्म होने से केतु की एवं भरणी, पूर्वाफाल्गुनी और पूर्वाषाढा में जन्म होने से शुक्र की दशा होती है।
* दशा साधन विधि - भयात और भभोग को पलात्मक बनाकर जन्म नक्षत्र के अनुसार जिस ग्रह की दशा हो, उसके वर्षों से पलात्मक भयात को गुणा कर पलात्मक भभोग का भाग देने से जो लब्ध आये वह वर्ष और शेष को 12 से गुणा कर पलात्मक भभोग का भाग देने से जो लब्ध आए वह मास होता है। ठीक इसी तरह शेष को पुनः 30 से गुणा कर पलात्मक भभोग का भाग देने से जो लब्ध आए वह दिन, शेष को पुनः 60 से गुणा कर पलात्मक भभोग का भाग देने से जो लब्ध आए वह घटी एवं शेष को पुनः 60 से गुणा कर पलात्मक भभोग का भाग देने से जो लब्ध फल आता है वह पल का मान होता है।
* अन्तर्दशा निकालने की विधि - विंशोत्तरी दशा क्रम में महादशाओं के अनन्तर अन्तर्दशाओं पर भी विचार किया जाता है। प्रत्येक ग्रह की महादशा में समस्त नवग्रहों की दशाएँ आती है। किन्तु इसका एक विशिष्ट क्रम है। जैसे यदि चन्द्रमा की महादशा हो तो उस महादशा में पहली अन्तर्दशा चन्द्रमा की, दूसरी मंगल की, तीसरी राहु की, चौथी बृहस्पति की, पांचवी शनि की, छठी अन्तर्दशा बुध की, सातवीं केतु की, आठवीं शुक्र की तथा नवीं और अन्तिम अन्तर्दशा सूर्य की होगी।
     अन्तर्दशा निकालने का सरल नियम यह है कि महादशेश के वर्षमान को उतने ही वर्षमान से गुणा कर 10 का भाग देने से लब्ध मास और शेष को तीन से गुणा करने से दिन की संख्या स्पष्ट हो जाती है। यथा - मंगल की महादशा में मंगल की अन्तर्दशा निकालनी हो तो मंगल के दशा वर्ष 7 को 7 से गुणा किया तो 7×7 = 49 ,49÷ 10 = 4 मास, शेष 9 है अतः दिन निकालने हेतु शेष 9 को उसे गुणा किया तो 27 दिन आता है। ठीक इसी प्रकार अन्य ग्रहों की महादशा में अन्तर्दशाएँ निकाली जा सकती है।
* प्रत्यन्तर दशाएँ - जिस प्रकार ग्रहों की महादशा काल में नवग्रहों की अन्तर्दशाएँ आती हैं, ठीक इसी प्रकार प्रत्येक ग्रह की अन्तर्दशा में नवग्रहों की प्रत्यन्तर दशाएँ भी आती हैं। प्रत्यन्तर दशा साधन का नियम यह है कि महादशेश के वर्षमान से अन्तर्दशेश और प्रत्यन्तर दशा के स्वामी के वर्षमान को परस्पर गुणा कर पुनः 40 का भाग देने से लब्धि दिन होते हैं। यथा चन्द्रमा की महादशा में चन्द्रमा की अन्तर्दशा में मंगल का प्रत्यन्तर निकालना हो तो चन्द्रमा के वर्षमान 10 वर्ष को पुनः चन्द्रमा के वर्षमान 10 से गुणा किया - 10×10 = 100 इसमें पुनः मंगल के वर्षमान 7 से गुणा किया तो 100×7 = 700 आया। 700 में 40 से भाग देने पर 700 ÷ 40 = 17 दिन आया। इसी प्रकार अन्य ग्रहों की भी प्रत्यन्तर दशाएँ साधित की जाती हैं।
विशोत्तरी दशा फल
* सूर्य - सूर्य यदि बली हो तो इसकी दशा में धन लाभ, अधिक सुख, राज-सम्मानादि, पुत्रलाभ, हाथी आदि धनों का लाभ, वाहन का लाभ, राजा की अनुकम्पा प्राप्त होती है। जबकि निर्बल सूर्य की दशा में जातक महान कष्ट, धन-धान्य का विनाश, राजक्रोध, प्रवास, राजदण्ड, धनक्षय, ज्वरपीड़ा, अपयश, स्वबन्धुओं से वैमनस्यता, पितृकष्ट, भय आदि अशुभ फलों को प्राप्त करता है। 
* चन्द्र - बली चन्द्रमा की दशा में जातक को धन-धान्य सौभाग्यादि की वृद्धि, घर में मांगलिक कार्य, वाहन सुख, राजदर्शन, यत्न से कार्य-सिद्धि, घर में धनागम, राज्यलाभ, सुख, वाहन प्राप्ति एवं धन एवं वस्त्रदि का लाभ होता है। निर्बल चन्द्रमा अपनी दशा में जातक को धन हानि, जड़ता, मानसिक रोग, नौकरों से पीड़ा, मातृकष्ट आदि अशुभ फल प्रदान करता है।
* मंगल - बली मंगल अपनी दशा में जातक को राज्यलाभ, भूमिप्राप्ति, धन-धान्यादि का लाभ, राजसम्मान, वाहन, वस्त्र आदि का लाभ करता है। जबकि मंगल के निर्बल होने से यही मंगल अपनी दशा में धन-धान्य का विनाश कष्ट आदि अशुभ फल प्रदान करता है।
* राहु - इस छाया ग्रह के बली होने पर जातक को राहु की दशा में धन-धान्यादि संपत्ति का अभ्युदय, मित्र एवं मान्य जनों की सहानुभूति से कार्यसिद्धि, वाहन, पुत्र-लाभ आदि शुभ फल प्राप्त होते हैं। यही ग्रह यदि पाप प्रभाव में हो तो जातक को स्थान भ्रष्ट, मानसिक रोग, पुत्र-स्त्री का विनाश एवं कुभोजन प्रदान करता है।
* गुरू - बली गुरु अपनी दशा में राज्य की प्राप्ति, महासुख, राजा से सम्मान, यश, घोड़े-हाथी आदि की प्राप्ति, देव-ब्राह्मण में निष्ठा, वेद-वेदान्तादि का श्रवण, पालकी आदि की प्राप्ति, कल्याण, पुत्र कलत्रदि का लाभ प्रदान करता है। हीनबली गुरू की दशा में जातक को स्थाननाश, चिन्ता व पुत्रकष्ट, महाभय, पशु-चौपायों की हानि, आदि अशुभ फल प्राप्त होते हैं।
* शनि - बली शनि की दशा में जातक राजसम्मान, सुन्दर यश, धनलाभ, विद्याध्ययन से स्वान्त सुख, हाथी, वाहन, आभूषण आदि का सुख, घर में लक्ष्मी की कृपा आदि शुभ फल प्राप्त करता है। यही शनि यदि हीनबली हो तो शस्त्र से पीड़ा, स्थान का विनाश, महाभय, माता-पिता से वियोग, पुत्र कलत्रदि को पीड़ा, बन्धन आदि पीड़ा प्राप्त होते हैं।
* बुध - बुध अपनी दशा में जातक को सुख, धन-धान्य का लाभ, सुकीर्त्ति, ज्ञानवृद्धि, राजा की सहानुभूति, शुभ कार्य की वृद्धि, रोगहीनता, व्यापार से धनलाभ आदि शुभ पुल प्रदान करता है। बलविहीन बुध राजद्वेष, मानसिक रोग, विदेश भ्रमण, दूसरे की नौकरी, कलह तथा मूत्रकृच्छ रोगादि प्रदान करता है।
* केतु - केतु के शुभ होने अर्थात् बलयुक्त होने पर राजा से प्रेम, मनोनुकूल वातावरण देश या ग्राम का अधिकारी, वाहनसुख, सन्तानोत्पत्ति, विदेशभ्रमण, तथा पशु आदि का लाभ प्रदान करता है। बलविहीन केतु की दशा में दूरगमन, शारीरिक कष्ट, पराश्रित, बन्धुनाश, स्थान विनाश, मानसिक रोग, अधम व्यक्ति का संग और रोगरूपी अशुभ फलों की प्राप्ति होती है।
* शुक्र - बलवान शुक्र अपनी दशा में जातक को राज्याभिषेक की प्राप्ति, वाहन, वस्त्र, आभूषण, हाथी, घोड़े पशु आदि का लाभ, सुस्वादु भोजन, पुत्र-पौत्रदि का जन्म आदि शुभ फलों की प्राप्ति होती है। बलविहीन शुक्र अपनी दशा में जातक को स्वबन्धु-बान्धवों में वैमनस्यता, पत्नी की पीड़ा, व्यवसाय में हानि, गाय भैंस आदि पशुओं की हानि, स्त्री पुत्रदि या अपने बन्धु-बान्धवों का विछोह देता है।

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