भारतीय ज्योतिषशास्त्र में तो वैसे कई दशा प्रकार प्रचलित हैं, परन्तु विंशोत्तरी दशा को सर्वश्रेष्ठ माना गया है तथा इसका समर्थन ज्योतिषपितामह महर्षि पराशर ने अपनी रचना ‘लघुपाराशरी’ में भी किया है। इस दशाक्रम के अनुसार मनुष्य की आयु 120 वर्ष मानी गई है और प्रत्येक ग्रहों को कुछ वर्षों का दशेश बनाया गया है। दशावर्ष की दृष्टि से राहु तथा केतु अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये दोनों मिलकर मानव जीवन के कुल 25 वर्ष (राहु 18 वर्ष तथा केतु 7 वर्ष) पर अपना प्रभाव रखते हैं। अतः आवश्यक है कि राहु तथा केतु दशाफल पर पर्याप्त विचार किया जाए।
राहु महादशाफल-
राहु की गणना क्रूर व पाप ग्रह के रूप में की जाती है अतः इसकी दशा सामान्यतया अशुभफलप्रद ही मानी गई है। राहु वृष में उच्च का होता है जबकि इसकी मूलत्रिकोण राशि कुम्भ है। राहु की महादशा में जातक को सुख-धन-धान्य आदि की हानि, स्त्री-पुत्रादि के वियोग से उत्पन्न कष्ट, रोगों की अधिकता, प्रवास, झगड़ालू मानसिकता आदि अशुभ फल प्राप्त होते हैं। इस सन्दर्भ में यह ध्यातव्य है कि लग्नादि द्वादश भावों में राहु की स्थिति महादशा के फल को भी प्रभावित करती है।
राहु की गणना क्रूर व पाप ग्रह के रूप में की जाती है अतः इसकी दशा सामान्यतया अशुभफलप्रद ही मानी गई है। राहु वृष में उच्च का होता है जबकि इसकी मूलत्रिकोण राशि कुम्भ है। राहु की महादशा में जातक को सुख-धन-धान्य आदि की हानि, स्त्री-पुत्रादि के वियोग से उत्पन्न कष्ट, रोगों की अधिकता, प्रवास, झगड़ालू मानसिकता आदि अशुभ फल प्राप्त होते हैं। इस सन्दर्भ में यह ध्यातव्य है कि लग्नादि द्वादश भावों में राहु की स्थिति महादशा के फल को भी प्रभावित करती है।
विभिन्न भावों में स्थित राहु का दशाफल-
* लग्न- ऐसे राहु की महादशा में जातक के सोचने समझने की शक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। विष, अग्नि तथा शस्त्रादि से इसके बान्धवों का विनाश होता है। मुकदमें तथा युद्ध में पराजय, दुःख, रोग और शोक की प्राप्ति भी होती है।
* लग्न- ऐसे राहु की महादशा में जातक के सोचने समझने की शक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। विष, अग्नि तथा शस्त्रादि से इसके बान्धवों का विनाश होता है। मुकदमें तथा युद्ध में पराजय, दुःख, रोग और शोक की प्राप्ति भी होती है।
* द्वितीय भाव- धन तथा राज्य की हानि, नीच स्वभाव तथा नीच कर्म वाले अधिकारी का अधीनस्थ होना, मानसिक रोग, असत्यभाषण और क्रोध की अधिकता रहती है।
* तृतीय भाव- सन्तति, धन, स्त्री तथा सहोदरों का सुख, कृषि से लाभ, अधिकार मे वृद्धि,विदेश यात्रा और राजा से सम्मान मिलता है।
* चतुर्थ भाव- माता अथवा स्वयं को मरणतुल्य कष्ट, कृषि व धन की हानि, राजप्रकोप, स्त्री की चारित्रक-भ्रष्टता, दुःख, चोर-अग्नि व बंधन का भय, मनोरोग, स्त्री-पुत्रदि को पीड़ा तथा सांसारिक सुखों से विरक्ति हो जाती है।
* पञ्चम भाव- बुद्धिभ्रम, निर्णय लेने की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव, उत्तम भोजन का अभाव, भूख की कमी, विद्या के क्षेत्र में विवाद, व्यर्थ का विवाद, राजभय तथा पुत्र हानि का भय होता है।
* षष्ठ भाव- चोर, डाकू, लुटेरे, जेबकतरे, अग्नि, बिजली तथा राजप्रकोप का भय, श्रेष्ठ जनों की मृत्यु, प्रमेह, पाचनसंबंधी विकार, क्षयरोग, पित्तरोग, त्वचा विकार, एलर्जी तथा मृत्यु आदि का भय।
* सप्तम भाव- पत्नी की आकस्मिक मृत्यु या मरणतुल्य कष्ट, अकारण तथा निष्फल प्रवास, कृषि तथा व्यवसाय में हानि, भाग्यहानि, सर्पभय तथा पुत्र व धन की हानि होती है।
* अष्टम भाव- मरणतुल्य कष्ट, पुत्र तथा धन का नाश, चोर-डाकू, अग्नि तथा प्रशासन से भय, अपने लोगों से शत्रुता, विश्वासघात, स्थानच्युति तथा हिंसक पशुआें से भय की प्राप्ति होती है। इष्टबन्धुओं का नाश, स्त्री पुत्रादि को पीड़ा तथा व्रण भय।
* नवम भाव- पिता की मृत्यु या मरण तुल्य कष्ट, दूर देश की अकारण यात्रा, गुरूजनों या प्रियजनों की मृत्यु, अवनति, पुत्र व धन की हानि तथा समुद्र स्नान के योग बनते हैं।
* दशम भाव- यदि राहु पाप प्रभाव में हो तो कर्म के प्रति अनिच्छा का भाव, पुत्र-स्त्री आदि को कष्ट, अग्नि भय तथा कलंक लगना आदि अशुभ फल मिलते हैं। जबकि शुभ प्रभाव से युक्त राहु धर्म के प्रति आकर्षण उत्पन्न करता है।
* एकादश भाव- शासन से सम्मान, पदोन्नति, धनलाभ, स्त्रीलाभ, आवास, कृषि भूमि आदि की प्राप्ति होती है।
* द्वादश भाव- स्थानच्युति, मानसिक रोग, परिवार से वियोग, प्रवास, सन्तानहानि, कृषि में घाटा, पशु तथा धन-धान्य की चिंता बनी रहती है। व्रण भय, चोरभय, राजभय, स्त्री-पुत्रदि को पीड़ा तथा इष्ट बन्धुओं का नाश।
इस सन्दर्भ में यह ध्यातव्य है कि यदि राहु उच्च अर्थात् वृष राशि के हों तो अपनी महादशा में राज्याधिकार प्रदान करते हैं और साथ ही साथ मित्रवर्ग के सहयोग से जातक के धन-धान्य में भी प्रचुर मात्रा में वृद्धि होती है। राहु यदि शुभ तथा अशुभ दोनों ही प्रभावों से युक्त हों तो इनकी महादशा के आरम्भ में कष्ट, दशामध्य में सुख व यश प्राप्ति तथा दशा के अन्त में जातक को स्थानच्युति, गुरू व पुत्रादि संबंधी शोक प्राप्त होता है। इन कष्टों की शान्ति हेतु महर्षि पराशर ने राहु की अराधना-जप-दानादि शान्तिकारक कार्य शास्त्रोक्त विधान से कराने का आदेश दिया है, जिससे जातक को सम्पत्ति व आरोग्यादि का लाभ होता है-
‘‘सदा रोगो महाकष्टं शान्तिं कुर्याद्यथाविधि।
आरोग्यं सम्पदश्चैव भविष्यन्ति तदा द्विज।।’’
‘‘सदा रोगो महाकष्टं शान्तिं कुर्याद्यथाविधि।
आरोग्यं सम्पदश्चैव भविष्यन्ति तदा द्विज।।’’
केतु महादशा फल-
केतु की गणना तामसिक ग्रह के रूप में होती है तथा ये सामान्यतया अशुभ फल ही देते हैं। केतु की उच्च राशि वृश्चिक है जबकि मूलत्रिकोण राशि सिंह है। महादशेश होने पर इनकी दशावधि 7 वर्ष की होती है। इनकी दशा में जातक को वात-पित्त प्रकोप से उत्पन्न रोग, नीच तथा दुर्जन जनों से विवाद, दुःस्वप्नों की अधिकता, दीनता, बुद्धि व विवेकशून्यता, व्याधियों का आधिक्य, व्याकुलता, पापकर्मों में वृद्धि तथा सुखों में कमी बनी रहती है।
केतु की गणना तामसिक ग्रह के रूप में होती है तथा ये सामान्यतया अशुभ फल ही देते हैं। केतु की उच्च राशि वृश्चिक है जबकि मूलत्रिकोण राशि सिंह है। महादशेश होने पर इनकी दशावधि 7 वर्ष की होती है। इनकी दशा में जातक को वात-पित्त प्रकोप से उत्पन्न रोग, नीच तथा दुर्जन जनों से विवाद, दुःस्वप्नों की अधिकता, दीनता, बुद्धि व विवेकशून्यता, व्याधियों का आधिक्य, व्याकुलता, पापकर्मों में वृद्धि तथा सुखों में कमी बनी रहती है।
लग्नादि भावों में स्थित केतु दशाफल-
* लग्नभाव- महाभय, ज्वर, अतिसार, प्रमेह, दस्त, हैजा, तपेदिक आदि रोगों से संबंधित कष्ट होता है।
* लग्नभाव- महाभय, ज्वर, अतिसार, प्रमेह, दस्त, हैजा, तपेदिक आदि रोगों से संबंधित कष्ट होता है।
* द्वितीय भाव- धन की हानि, वाणी में कठोरता, मुखरोग, दुःख का आधिक्य, मन में विचलन, निन्दित अन्न की प्राप्ति तथा भोजन की कमी बनी रहती है।
* तृतीय भाव- इस महादशा में जातक को किञ्चित सुख प्राप्त होता है पर मन में व्याकुलता बनी रहती है और सहोदर भाईयों के साथ परस्पर द्वेष बना रहता है।
* चतुर्थ भाव- सुख का नाश तथा स्त्री पुत्रदि से वियोग होता है। परन्तु घर में अन्न, धन आदि की अधिकता रहती है।
* पञ्चम भाव- पुत्र हानि अथवा पुत्र की ओर से कष्ट, मन में भ्रम की स्थिति, राजकोप तथा धन नाश के योग बनते हैं।
* षष्ठ भाव- भय का आधिक्य, चोर तथा अग्नि से हानि होती है। विष प्रयोग का भी भय बना रहता है।
* सप्तम भाव- अनेक प्रकार के भय, पत्नी-पुत्र तथा धन का नाश, मूत्र संबंधी रोग तथा मानसिक रोगों से मन व्याकुल रहता है।
* अष्टम भाव- पिता की मृत्यु या मरणतुल्य कष्ट, खांसी, श्वासरोग, संग्रहणी, क्षय आदि रोगों का भय होता है। हृदयरोग, मानहानि, धनधान्य और पशुओं का क्षय, स्त्री-पुत्र को पीड़ा तथा मानसिक चञ्चलता का भय रहता है।
* नवम भाव- जातक के पिता अथवा गुरू को कष्ट, विविध प्रकार के दुःख तथा शुभ कर्मों की हानि होती है।
* दशम भाव- जातक को सुख प्राप्ति होती है। मान सम्मान की हानि, जाड्यता का भाव, अपयश तथा मानसिक रोगों का भी भय निरन्तर बना रहता है।
* एकादश भाव- सुख की प्राप्ति, भाई का सुख, मित्र वर्ग से सहयोग, यज्ञ-दानादि धार्मिक कार्यों में वृद्धि होती है।
* द्वादश भाव- कष्ट, स्थानभ्रष्टता, प्रवास, राज्यपक्ष से पीड़ा तथा नेत्र हानि अथवा नेत्र रोग का भय होता है। हृदयरोग, मानहानि, धनधान्य और पशुओं का क्षय, स्त्री-पुत्र को पीड़ा तथा मानसिक चञ्चलता का भय रहता है।
यद्यपि केतु की महादशा सामान्यता अशुभ फल देने वाली होती है, परन्तु यदि यह केतु शुभ ग्रहों से दृष्ट हों तो अपनी महादशा में सुख, राज्य-धन तथा ग्रह प्राप्ति, राज्यपूज्यता तथा मन की दृढता प्रदान करता है। केतु महादशा के आरम्भ में जातक को सुख प्राप्त होता है जबकि दशा मे मध्य में भय होता है। महादशा के अन्त में राजभय, शरीर में पीड़ा अर्थात् लकवा आदि रोगों का भय होता है। केतु की महादशा में प्राप्त होनेवाले कष्टों की शान्ति हेतु सप्तशती का पाठ, मृत्युञ्जय जप तथा विष्णुसहस्रनाम का पाठ करवाना चाहिए। राहु तथा केतु की महादशा पर विचार करने से पूर्व यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ये ग्रह यदि स्वोच्च, स्वराशि, स्वमूलत्रिकोण आदि के हों तो अपनी दशान्तर्दशा में शुभ फल देते हैं-
‘‘स्वोच्चे स्वगेहे यदि वा त्रिकोणे वर्गे स्वकीयेऽथ चतुष्टये वा।
नाऽस्तंगतो नोऽशुभदृष्टियुक्तो जन्माधिपः स्याच्छुभदः स्वपाके।।’’
नाऽस्तंगतो नोऽशुभदृष्टियुक्तो जन्माधिपः स्याच्छुभदः स्वपाके।।’’
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