Tuesday 18 September 2018

द्वादश ज्योतिर्लिंग और कालसर्पदोष निवारण

 कालसर्पयोग की जन्माङ्ग में उपस्थिति मात्र से जनसामान्य के मन मे आतंक और भय की भावना का उदय हो जाता है। कालसर्पयोग से पीडि़त कुण्डली वाले जातकों का सम्पूर्ण जीवन अभाव, अनवरत अवरोध, निरंतर असफलता, सन्तानहीनता, वैवाहिक जीवन में कष्टादि अनेक अनिष्टों से युक्त हो जाता है। 

भारतीय ज्योतिषशास्त्र की फलित शाखा सहस्राधिक वर्षों से पीडि़त मानवता के कल्याण हेतु आध्यात्मिक उपायों को भी प्रकट करती रही है। आज जबकि इस योग से पीडि़त जातकों की संख्या करोड़ों में है, तो इस दिशा में ज्योतिषशास्त्र के विद्वानों की जिम्मेदारी और भी अधिक बढ़ जाती है। इस कष्टप्रद योग की शान्ति संबंधी विविध उपायों पर चर्चा से पूर्व इस ज्योतिषीय योग का सामान्य परिचय देना आवश्यक है।
कालसर्प योग
   किसी भी जातक की जन्मकुण्डली में जब समस्त ग्रह राहु तथा केतु के बीच स्थित रहते हैं तो यह ग्रहस्थिति ‘कालसर्प योग’ के नाम से जानी जाती है।
  राहु तथा केतु की विभिन्न भावों में स्थिति के आधार पर इनका विशिष्ट नामकरण भी किया गया है जो निम्नलिखित हैं-
* राहु की स्थिति प्रथम भाव में तथा केतु की स्थिति सप्तम भाव में होने पर अनंत कालसर्पयोग
* राहु की स्थिति द्वितीय भाव में तथा केतु की स्थिति अष्टम भाव में हो तो कुलिक कालसर्पयोग
* तृतीय भाव में राहु तथा नवम भाव में केतु हो तो वासुकि कालसर्पयोग
* चतुर्थ भाव में राहु तथा दशम भाव में केतु हो तो शंखपाल कालसर्पयोग
* राहु पञ्चम भाव में तथा केतु एकादश भाव में हो तो पद्मकालसर्पयोग
* षष्ठ भाव में राहु और द्वादश भाव में केतु होने पर महापद्मकालसर्पयोग
* सप्तम भाव में राहु तथा लग्न भाव में केतु होने पर तक्षक कालसर्पयोग
* अष्टम भाव में राहु और द्वितीय भाव में केतु हो तो कर्कोटक कालसर्पयोग
* नवम भाव में राहु और तृतीय भाव में केतु होने पर शंखनाद कालसर्पयोग
* राहु दशम भाव में तथा केतु चतुर्थ भाव में हो तो पातक कालसर्पयोग
* एकादश भाव में राहु तथा पञ्चम भाव में केतु हो तो विषाक्त कालसर्पयोग
* द्वादश भाव में राहु तथा षष्ठ भाव में केतु हो तो शेषनाग संज्ञक कालसर्पयोग होता है।
        ये बारह प्रकार के कालसर्प योग उदित तथा अनुदित दो प्रकार के होते हैं। राहु के मुख में सातों ग्रहों के आ जाने पर उदित कालसर्प योग होता है। जबकि सारे ग्रह राहु के पीछे आने पर अनुदित कालसर्प योग होता है।
        भारतीय ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन मनीषियों ने विभिन्न कुयोगों क वर्णन के साथ-साथ उनकी शान्ति अथवा शमन के लिए भी अनेक मार्ग बताए हैं। इन शान्ति मार्गों में मन्त्र, मणि, औषधि आदि प्रमुख हैं। कालसर्पयोग की शान्ति हेतु कई उपायों का वर्णन ज्योतिषशास्त्र के विद्वानों ने किया है। ये उपाय मन्त्र शास्त्र, तन्त्रशास्त्र, लाल किताब आदि पर आधारित हैं। कालसर्पयोगों की शान्ति हेतु सर्वाधिक प्रचलित तथा प्रभावी विधियों का क्रमशः वर्णन किया जा रहा है-
कालसर्पयोग शान्ति अनुष्ठान
      कालसर्पयोग शान्ति का सम्पूर्ण अनुष्ठान त्रिपिंडी श्राद्ध, नारायण बलि, नागबलि तथा नागपूजन द्वारा सम्पन्न होता है। कालसर्पयोग के जन्माङ्ग में उपस्थिति का मूल-कारण पितृशाप माना गया है। अतः पितरों की शान्ति के लिए त्रिपिंडी श्राद्ध आवश्यक है। त्रिपिंडी श्राद्ध संबंधी विस्तृत वर्णन ‘श्राद्ध-चिंतामणि’ ग्रन्थ में उपलब्ध होता है। यदि जातक विवाहित है तो उसे अपनी पत्नी के साथ नवीन श्वेत वस्त्र धारण कर उचित नक्षत्र मुहूर्त्तादि में त्रिपिंडी श्राद्ध करना चाहिए। इसी प्रकार नारायणबलि-नागबलि का भी विद्वान आचार्यों द्वारा अनुष्ठान करवाना चाहिए। यहाँ यह ध्यातव्य है कि नारायणबलि और नागबलि दोनों ही अलग कर्म हैं। इसमें पहले नारायण बलि तथा उसके बाद नागबलि कराना चाहिए। जिन जातको की जन्मकुंडली में नागहत्या आदि का दोष प्रतीत हो रहा हो, उन्हें भी यह कर्म अवश्य कराना चाहिए, क्योंकि नागहत्या के दोष के कारण जातक को संतानहीनता का कष्ट उठाना पड़ता है।
नागपूजन
    नागपूजन में नवनाग-अनन्त, वासुकि, शेष, पद्मनाभ, कम्बल, शंखपाल, धृतराष्ट्र, तक्षक तथा कालिय नागों की स्थापना का विधान है। जबकि नागिनी में कुल बारह जरत्कारू, जगद्गौरी, मनसा, सिद्धयोगनी, वैष्णवी, नागभागिनी, शैवी, नागेश्वरी, जरत्कारूप्रिया, आस्तिकमाती, विषहारा तथा महाज्ञानयुता का पूजन करना चाहिए। इस पूजन में गणपति पूजन, शिवाम्बिका तथा नवग्रहपूजन भी अनिवार्य है। यदि इस सम्पूर्ण अनुष्ठान में कालसर्पदोषशमन यन्त्र की भी प्रतिष्ठा की जाय तो अत्युत्तम फलप्रदान करता है। पूजन के अन्त मे नवग्रह, अधिदेवता, प्रत्यधिदेवता, पञ्चलोकपाल, दशदिक्पाल, क्षेत्रपाल, योगिनी आदि के निमित्त हवन सामग्री से आहुति देनी चाहिए। पूजन में स्थापित किए गए स्वर्ण-रजत तथा ताम्र के नागों को जल में प्रवाहित कर देना चाहिए।
कालसर्प योग शान्ति हेतु बटुकभैरव अराधना
      कालसर्पयोगजनित अनिष्टों की शान्ति के सन्दर्भ में काल-भैरव की उपासना शीघ्रफलदायक मानी गई है। कहा भी गया है-
‘‘भैरवस्तोत्र पाठेन कालसर्पं विनश्यति’’।
बटुक भैरवस्तोत्र, बटुकभैरव कवच, श्रीभैरवाष्टकस्तोत्र और आद्यगुरुशंकराचार्य प्रणीत ‘कालभैरवाष्टकम्’ इस दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। लक्ष्मी प्राप्ति तथा दरिद्रता के नाश के सन्दर्भ में जिस प्रकार ‘कनकधारास्तोत्र’ चमत्कारी प्रभाव रखता, ठीक इसी प्रकार ‘कालभैरवाष्टक’ भी कालसर्पयोगशान्ति हेतु शीघ्रशुभफलदायक है। कालभैरव रूद्र के तामसिक रूप में स्वीकृत है, अतः इनकी उपासना अत्यन्त सावधानीपूर्वक करनी चाहिए। किसी विद्वान आचार्य द्वारा ही शुभ मुहूर्त्त, नक्षत्रदि में श्रीभैरव अनुष्ठान कराना ही श्रेष्ठ होता है। जहाँ तक जनसामान्य हेतु स्तोत्र का प्रश्न है तो आद्यगुरू शंकराचार्य प्रणीत ‘श्रीकालभैरवाष्टकम्’ का जातक द्वारा किया गया नित्य 11 पाठ कालसर्पदोषजनित समस्त अनिष्टों का नाश सहज ही कर देता है। पाठकों की सुविधा के लिए श्रीभैरवाष्टक स्तोत्र तथा आद्यगुरू शंकराचार्य प्रणीत कालभैरवाष्टकम् प्रस्तुत किया जा रहा है-
।।श्रीभैरवाष्टक-स्तोत्रम्।।
चण्डं प्रतिचण्डं करधूतदण्डं कृतरिपुखण्डं सौख्यकरं, लोकं सुखयन्तं विलसितसन्तं प्रकटितदन्तं नृत्यकरम्।।
डमरुध्वनिमन्तं तरलतरं तं मधुरहसन्तं लोभकरं, भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम्।।1।।
चर्चित-सिन्दूरं रणभूवि शूरं दुष्टविदूरं श्रीनिकरं, किघह्नणिगणरावं त्रिभुवनपावं खर्परसावं पुण्यभरम्।
करुणामयवेषं सकलसुरेशं मुक्तसुकेश पापहरं, भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम्।।2।।
कलिमलसंहारं मदनविहारं फणिपतिहारं शीघ्रकरं, कलुषं शमयन्तं परिभूतसन्तं मत्तछगं तं शुद्धतरम्।
गतिनिन्दितहंसं नरनुतहंसं स्वच्छशुकं सन्-मुण्डकरं, भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम्।।3।।
कठिनस्तनकुम्भं सुकृतसुलम्भं कालीडिम्भं खड्गधरं, वृतभूतपिशाचं स्फुटमृदुवाचं स्निग्धसुकाचं भक्तभरम।
तनुभाजितशेषं विमलसुदेशं सर्वसुरेशं प्रीतिपरं, भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम्।।4।।
ललिताननचन्द्रं सुमुखवितन्द्रं बोधितमन्द्रं श्रेष्ठवरं, सुखिताखिललोकं परिहृतशोकं शुद्धविलोकं पुष्टिकरम्।
वरदाभयहारं तरलिततारं क्षुद्रविहारं तुष्टिकरं, भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम्।।5।।
सकलायुधभारं विजनविहारं विश्वविसारं भुष्टमलं, शरणागतपालं मृगमदभालं संजितकालं स्वेष्टवलम्।
पदनूपुरशि=जं त्रिनयनक=जं गुणिजनर=जं कुष्ठहरं, भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम्।।6।।
मदयुत-संरावं प्रकटितभावं विश्वसुभावं ज्ञानपदं, रत्तफ़ांशुक्रजोषं परकृततोषं नाशितदोषं सन्मतिदम्।
कुटिलभ्रुकुटीकं ज्वरधनवीकं विसरन्ध्रीकं प्रेमभरं, भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम्।।7।।
परिनिर्जितकामं विलसितवामं परमभिरामं योगेशं, बहुमद्यनाथं गीत सुगाथं कृष्टसुनाथं वीरेशम्।
कलयन्तमशेषं भृतजनदेशं नुत्यसुरेशं दत्तवरं, भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम्।।8।।
आद्यगुरूशंकराचार्यप्रणीत ‘‘कालभैरवाष्टकम्’’
देवराजसेव्यमानपावनांघ्रिपंकजम्, व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम्।
नारदादियोगिवृन्दवन्दितंदिगम्बरं, काशिकापुराधिनाथकालभैरवंभजे।।
भानुकोटिभास्वरंभवाब्धितारकं परं, नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकंत्रिलोचनम्।
कालकालमम्बुजाक्षमक्षशूलमक्षरं, काशिकापुराधिनाथकालभैरवंभजे।।
शूलटघडक्कपाशदण्डपाणिमादिकारणं, श्यामकायमादिदेवमक्षरंनिरामयम्।
भीमविक्रमंप्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं, काशिकापुराधिनाथकालभैरवंभजे।।
भुत्तिफ़मुत्तिफ़दायकं प्रशस्तचारुविग्रहं, भत्तफ़वत्सलस्थितं समस्तलोकविनिग्रहम्।
विनिक्वणः मनोज्ञहेमकिंकिणीलसत्कटिं, काशिकापुराधिनाथकालभैरवंभजे।।
धर्मसेतुपालकंत्वधर्ममार्गनाशकं, कर्मपाशमोचकं सुशर्मदायकंविभुम्।
स्वर्णवर्णशेषपाशशोभिताघ”मण्डलं, काशिकापुराधिनाथकालभैरवंभजे।।
रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं, नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरन्जनम्।
मृत्युदर्पनाशनंकरालदंष्ट्रमोक्षणं, काशिकापुराधिनाथकालभैरवंभजे।।
अटðहासभिन्नपद्मजाडकोशसन्तति, दृष्टिपातनष्टपापजालमुग्रशासनम्।
अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकन्धरं, काशिकापुराधिनाथकालभैरवंभजे।।
भूतसंघनायकंविशालकीर्तिदायकं, काशिवासलोकंपुण्यपापशोधकंविभुम्।
नीतिमार्गकोविदंपुरातनं जगत्पतिं, काशिकापुराधिनाथकालभैरवंभजे।।
कालभैरवाष्टकंपठन्तिये मनोहरं, ज्ञानमुत्तिफ़साधनंविचित्रपुण्यवर्धनम्।
शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनम्, तेप्रयान्तिकालभैरवांध्रिसन्निधिंध्रुवम्।।
     कालसर्पदोष शमन हेतु उपरोक्त बटुकभैरव प्रयोग अत्यन्त उपयोगी, हितकर व शास्त्रसंगत है तथा इसकी प्रामाणिकता अनुभव सिद्ध है। 
मंत्र प्रयोग
    भारतीय ज्योतिषशास्त्र में ग्रहयोगजनित दोषों के शमन हेतु उपासनाविधि के संबंध में कई संकेत प्राप्त होते हैं। जहाँ तक कालसर्पयोग के शमन में मंत्र प्रयोग का प्रश्न है तो राहु-केतु की शान्ति हेतु प्रयुक्त मंत्र यहां भी अपना शुभ प्रभाव उत्पन्न करते हैं-
* राहुगायत्री मन्त्र ‘‘ऊँ नीलवर्णाय विद्महे सैंहिकेयाय धीमहि तन्नो राहुः प्रचोदयात’’ की एक माला नित्य पढ़ें।
* राहु तांत्रिक मन्त्र - ‘‘ऊँ भ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः।’’ की 11 मालाएँ नित्य पढ़ें।
* राहु पौराणिक मन्त्र - ‘‘ऊँ अर्धकायं महावीर्यं चन्द्रादित्यविमर्दनम्।
सिंहिकागर्भसम्भूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम्।।’
का नियमित पाठ करें।
* इसके साथ केतु गायत्री मन्त्र - ‘‘ऊँ धूम्रवर्णाय विद्महे कपोतवाहनाय धीमहि तन्नः केतु प्रचोदयात’’ से एक माला का पाठ नित्य करें।
* केतु तान्त्रिक मन्त्र - ‘‘ऊँ प्रां प्रीं प्रौं सः केतवे नमः’’। की 11 मालाएँ नित्य जपें।
* केतु पौराणिक मन्त्र - ‘‘ऊँ पलाशपुष्पसंकाशं तारकाग्रहमस्तकम्।
रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्ययहम्।।’’
का नियमित पाठ करें।
* 11 दिन तक लगातार रूद्राभिषेक करें।
* संकटमोचन हनुमानाष्टक की निम्नलिखित पंक्तियों का नित्य 11 बार पाठ करें-
‘रावण जुद्ध अजान कियो तब। नाग की फाँस सबै सिर डारो।
श्रीरघुनाथ समेत सबैदल। मोह भयो यह संकट भारो।
आनि खगैस तबै हनुमान जु। बंधन काटि सुत्रस निवारो।’
* रूद्र सूक्त का नित्य पाठ करें। तथा शिवार्चन के जल को अपने स्नान के जल में मिलाकर स्नान करें।
स्नानदान
* साढे एक पल परिमाण का स्वर्ण नाग प्रतिमा बनवाएँ उसके फण पर नाग के वजन के चौथाई  वजन का मोती जड़वाएं। इस नाग को चन्द्रग्रहण के समय देशी घी से भरे कांस्यपात्र में रखें तथा अपना मुख देखकर दान करेें।
* सोने से बने सांप के जोड़े को तिल के तेल से भरे फाँसे के बर्तन में रखें तथा वस्त्र व दक्षिणा सहित दान दें।
* सूर्योदय के समय रजत पात्र या स्वर्णपात्र में अपनी छाया देखकर दान दें।
* सोना, शीशा, काले तिल, नीलावस्त्र, घोड़ा, नारियल, आदि का दान करें।
* किसी सँपेरे से साँप खरीद लें, पुनः उसे सूर्योदय से पूर्व हो नदी में छोड़ आएं।
*नागपञ्चमी के दिन व्रत करें तथा नागस्तोत्र का पाठ करें।
* स्वर्ण, रजत, ताम्र अथवा अष्टधातु से बनी 11 नाग प्रतिमाओं को सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण तथा नागपंचमी के दिन नदी में प्रवाह दें। प्रवाह के समय निम्नलिखित मन्त्र को तीन बार पढ़ें-
‘‘ऊँ नमोस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथ्वीमनु।
ये अन्तरिक्षे ये दिवितेभ्यः सर्पेभ्यो नमः।।’’
* स्नान के जल में पठानी लोध का चूर्ण, कुशा, नीम के पत्ते-छाल व फल तथा नागरमोथा के साथ इत्र को डालकर स्नान करें।
* पलाश के फूल को गोमूत्र में भिंगोकर सुखा लें तथा इसे चूर्ण बना लें। स्नान के जल में डालकर नित्य प्रयोग में लाएँ।
* कस्तूरी, तारपीन, हाथीदांत, लोबान तथा मोथा मिले जल से स्नान करना इस दोष में न्यूनता लाता है।
* 108 नारियल लें। इसे राहु के मन्त्र ‘‘ऊँ भ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः’’ से 108 बार अभिमन्त्रिक करें। बाद में इन नारियलों का उतारा कर बहते जल में प्रवाह दें।
रत्न, मुद्रिका तथा मणि (लॉकेट) धारण
* सवा सात रती का उत्तम गोमेद लें। उसे स्वर्ण अथवा अष्टधातु की मुद्रिका में स्थापित कर बुधवार के दिन सूर्योदय से एक घंटे के अंदर धारण करें।
* तांबे से बनी सर्प की अंगूठी धारण करें।
* अष्टधातु अथवा स्वर्ण से एक सर्प बनाएं जिसके फण पर गोमेद तथा पूंछ पर लहसुनिया (दोनों सवा पांच रती) जड़ा हो। इसे अंगूठी का रूप दें। बुधवार के दिन प्राणप्रतिष्ठा के बाद मध्यमा अंगुली में सूर्योदय के एक घंटे के अंदर धारण करें।
* उपरोक्त सर्प को लॉकेट का स्वरूप देकर गले मे भी पहना जा सकता है।
* स्वर्ण पत्र के एक ओर राहुयंत्र तथा दूसरी ओर केतु यंत्र बनाकर लॉकेट के रूप में धारण करें।
* कालसर्प दोषशमन यन्त्र को प्राणप्रतिष्ठित कर नित्य, पूजा, अर्चना करें।
      जिन जातकों के पास जन्मपत्रिका नहीं है परन्तु कालसर्पदोष से संबंधित विभिन्न कष्टों जैसे- डरावने सपने, खाद्य सामग्री में बाल का मिलना, ऊँचाई से भय, उड़ने का स्वप्न, स्वप्न में नागों का दिखना, सोते समय सर्पों का अनुभव, सन्तानहीनता, अकारण विवाह में बिलम्ब, परिश्रम के अनुसार सफलता न मिलना आदि से पीडि़त हों तो उन्हें अधोलिखित उपाय श्रद्धापूर्वक करने चाहिए-
* अपने वजन के बराबर कच्चे कोयले को बुधवार के दिन बहते हुए जल में प्रवाहित करें।
* रात्रि को सोते समय एक मुट्ठी जौ पोटली में बांध सिराहने मे रखें तथा प्रातः काल ये दाने चिडि़यों को खिला दें।
* ताजी मूली का दान बुधवार को करें।
* भंगी को मसूर की दाल का दान और कुछ रूपए भी दें।
* रसोई-घर में बैठ कर भोजन करें।
* 43 दिन तक लगातार कच्चे नारियल को जल में प्रवाह दें।
* गौमूत्र से दांत साफ करें तथा घर में भी रखें।
कालसर्पयोग शान्ति व ज्योेतिर्लिंग उपासना    
        कालसर्पयोग से उत्पन्न होने वाले कष्टों के शमन हेतु जितने भी उपाय विद्वानों द्वारा बताए गए हैं, उनमें रूद्र तथा उनके विभिन्न स्वरूपों की उपासना सर्वप्रमुख है। शिवोपासना, बटुकभैरव उपासना तथा हनुमत् उपासना इस सन्दर्भ में अत्यन्त चमत्कारी माने गए हैं। इस तरह स्पष्ट है कि शिव की उपासना राहु व केतु जनित अनिष्टों तथा कालसर्पदोष की शान्ति मे अत्यन्त उपयोगी है। द्वादश ज्योतिर्लिंग की अराधना कालसर्पयोग की शान्ति में अचूक उपाय के रूप में माना जा सकता है। कहा भी गया है कि इन ज्योतिर्लिङ्गों के दर्शन तथा नामस्मरण से सात जन्मों में किए गए पापों का नाश हो जाता है और कालसर्पयोग भी पूर्वजन्मकृत नागहत्या, विष-प्रयोग, पूर्वजों के श्राद्ध में अनियमितता आदि का ही दुष्परिणाम है-
‘एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रातः पठेन्नरः। सहस्रजन्मकृतं पापं स्मरेण विनश्यति।।
स्तेषां दर्शनादेव पातकं नैव तिष्ठति। कर्मक्षयो भवेत्तस्य यस्य तुष्टो महेश्वराः।।’
        द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों और उनके स्थान का वर्णन करते हुए शिव पुराण में कहा गया है-
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। उज्जयिन्यां महाकालमोघड्ढारममलेश्वरम्।।
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशघड्ढरम्। सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारूकावने।।
वाराणस्यां तु विश्वेशं =यम्बकं गौतमीतटे। हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये।
                  स्पष्ट है कि सोमनाथ, श्रीमल्किार्जुन, श्रीमहाकाल, श्री ऊँकारेश्वर, श्रीवैद्यनाथ, श्रीभीमशङ्कर, श्रीरामेश्वरम्, श्रीनागेश्वर, श्री विश्वनाथ, श्रीत्रयम्बकेश्वर, श्रीकेदारनाथ और श्रीघुमेश्वर। भारतवर्ष के विभन्न स्थलों पर विराजमान इन द्वादशज्योतिर्लिङ्गों के नामस्मरण मात्र से सात जन्मों का किया गया पापसमूह नष्ट हो जाता है। इन पुण्यस्थलों पर शिवार्चन तथा रूद्राभिषेक अनुष्ठान करने से कालसर्पयोग जनित समस्त अनष्टिों का नाश सहज ही हो जाता है। ।   

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